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Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Sunday, July 12, 2015

बाकी जनता ओबीसी के साथ,ओबीसी को लेकिन किसकी परवाह? फिर भी हिंदुत्व की इस नर्क को बनाये रखने में सारे बहुजन एक हैं।मनुस्मृति भी जलायेंगे और जात पांत से चिपके भी रहेंगे ,ऐसी होगी क्रांति,वाह। मीडिया हमेशा आधिकारिक वर्सन को छापता है और सरकार या प्राशासन या पुलिस जबतक कनफर्म न कर दे, कोई खबर नहीं हो सकती।मसलन बिना एफआईआर दर्ज हुए किसी वारदात को मीडिया में खबर बनाने की सख्त मनाही है।ऊपर से गोपनीयता भंग न करने की शर्त है।इसी विशेषाधिकार के दम पर मध्य पूर्व एशिया,वियतनाम,अफ्रीका और लातिन अमेरिका में अमेरिका ने मीडिया की सर्वज्ञ खामोशी की आड़ में सीधे नरंहार अभियान चलाकर करोड़ों लोगों की जान लेते रहने का सिलसिला जारी रखा है।यही है अमेरिका के आतंक के किलाफ युद्ध का आधार। भारत में भुक्तभोगी का एफआईआर दर्ज हो तो करिश्मा समझें तो आधिकारिक खबरें छापने वाले मीडिया की औकात भी समझ लें।चूंकि खंडन नहीं हुआ है अभी तक और हम सच जानना चाहते हैं,इसीलिए वे वीभत्स तस्वीरें फिर ताकि कम से कम आपके दिलोदिमाग में कोई हलचल हो। पलाश विश्वास

बाकी जनता ओबीसी के साथ,ओबीसी को लेकिन किसकी परवाह?

फिर भी हिंदुत्व की इस नर्क को बनाये रखने में सारे बहुजन एक हैं।मनुस्मृति भी जलायेंगे और जात पांत से चिपके भी रहेंगे ,ऐसी होगी क्रांति,वाह।

मीडिया हमेशा आधिकारिक वर्सन को छापता है और सरकार या प्राशासन या पुलिस जबतक कनफर्म न कर दे, कोई खबर नहीं हो सकती।मसलन बिना एफआईआर दर्ज हुए किसी वारदात को मीडिया में खबर बनाने की सख्त मनाही है।ऊपर से गोपनीयता भंग न  करने की शर्त है।इसी विशेषाधिकार के दम पर मध्य पूर्व एशिया,वियतनाम,अफ्रीका और लातिन अमेरिका में अमेरिका ने मीडिया की सर्वज्ञ खामोशी की आड़ में सीधे नरंहार अभियान चलाकर करोड़ों लोगों की जान लेते रहने का सिलसिला जारी रखा है।यही है अमेरिका के आतंक के किलाफ युद्ध का आधार।


भारत में भुक्तभोगी का एफआईआर दर्ज हो तो करिश्मा समझें तो आधिकारिक खबरें छापने वाले मीडिया की औकात भी समझ लें।चूंकि खंडन नहीं हुआ है अभी तक और हम सच जानना चाहते हैं,इसीलिए वे वीभत्स तस्वीरें फिर ताकि कम से कम आपके दिलोदिमाग में कोई हलचल हो।

 पलाश विश्वास

भारत में पिछड़े समुदायों के लोग कुल कितने हैं,जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक न होने के बावजूद यह कोई राज लेकिन है नहीं कि मंडल कमीशन के मुताबिक 54 फीसद न सही,सबसे ज्यादा जनसंख्या उन्हींकी है और इस हिसाब से उन्हें प्रतिनिधित्व नहीं मिला है।


बाहुबलि जातियों के दबंगों की सत्ता में सक्रियभागेदारी के बावजूद सच यही है कि निनानब्वे फीसद ओबीसी की हालत दलितों और आदिवासियों और मुसलमानों से कतई बेहतर नहीं है।


सच यह भी है कि ओबीसी गिनती का आंदोलन लेकिन सत्ता में भागीदार और मनसबदार सिपाहसालार लोग नहीं चला रहे थे।जैसा कि मीडिया की हंगामाखेज रपटों से जाहिर है।संसद में जरुर उन लोगं ने इस आंदोलन का समर्थन किया है।


ओबीसी के हक हकूक का मसला सबसे पहले बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर संसद, संविधान और सड़क पर उठा रहे थे,लेकिन ओबीसी जातियां तब उनके साथ खड़ी नहीं थीं।वरना बाबासाहेब सिर्फ महाराष्ट्र के महार और बंगाल के नमोशूद्र जातियों के नेता बने रहकर घुटघुठ कर मधुमेह के शिकार नहीं बन जाते और मौत के बाद उनका आखेट नहीं होता इसतरह बेलगाम।बाबासाहेब भेल हैं वे हम सबके,लेकिन अब भी वे उतने ही अस्पृश्य,दलित हैं।अनाथ हैं बाबासाहेब हमारे।कोई नहीं उनका।


मंडल कमीशन रपट जारी होने के बाद आरक्षण विरोधी आंदोलन के साथ साथ राममंदिर आंदोलन का कमंडल विकल्प सुनामी बनकर देश को हिंदू राष्ट्र बना गया तो इसके तमाम सिपाहसालार ओबीसी के बाहुबलि क्षत्रप हैैं और अपनी जातियों के वर्चस्व कायम रखने में किसी सूबे में किसी क्षत्रप ने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी।इसके उदाहरण बाद में।


सबसे बड़ा सच यह है कि बामसेफ के मंचों से लगातार लगातार ओबीसी की गिनती की मांग उठती रही है और देश भर में बामसेफ कार्यकर्ता इस सिलसिले में जनजागरण करते रहे हैं लेकिन तब भी बाहुबलि जातियों को बाकी लोगों की परवाह नहीं थी क्योंकि सूबों की सत्ता उनके हाथ में थी।हम इस मुहिम में लगातार शामिल रहे हैं।


सूबे में वे ओबीसी राजकाज क्या कर रहे हैं,विजयराजे सिंधिया से लेकर अखिलेश,नीतीश कुमार तक तमाम ओबीसी नेताओं की क्या कहिये अमित साह के मुताबिक देश के प्रथम ओबीसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राजकाज का नजारा देख लीजिये।वैसे अमित के दावे के विपरीत पहले ओबीसी प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह थे और उनके बाद फिर कर्नाटक के देवगौड़ा।


चौधरी साहेब की जमींदारी पश्चिम उत्तर प्रदेश में तो उनके जीते जी हरिजनों को वोट डालने के अधिकार ही न थे और मुसलमानों के खिलाफ दंगे भी उन्हीं इलाकों में सबसे ज्यादा और लगातार होते रहे हैं।इसीतरह कर्नाटक मे देवगौड़ा का जलवा अभी खत्म हुआ नहीं है।


जिन जातियों को आरक्षण का लाभ सबसे ज्यादा मिला है,वे इसे दूसरे जातियों को देना नहीं चाहतीं और उन जातियों की संख्या कहीं ज्यादा है जिन्हें आरक्षण का कोई लाभ नहीं मिला है।


दलितों और आदिवासियों को मिले आरक्षण की सारी मलाई गिनी चुनी जातियों को मिली और यह भी कोई राज नहीं।कोई भी उन जातियों के नाम उंगली पर गिना सकता है।


भारत में बंगाल से लेकर पंजाब तक कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक गुजरात से लेकर राजस्थान तक महाराष्ट्र से लेकर कर्नाटक और पूर्वोत्तर और सत्ता केंद्र दिल्ली में सत्ता में भागेदारी भी इनी गिनी जातियों को ही मिली और बाकी बहुजन जनता जाति समीकरण में कमतर औकात के कारण ठगी रह गयी।


मध्यबिहार में नरसंहार के करिश्मे में भी ओबीसी जमींदारों की बहुत बड़ी भागीदारी है।


बंगाल में दलितों,आदिवासियों को कही किसी भी क्षेत्र में कोई प्रतिनिधित्व सिर्फ इसलिए नहीं मिलता कि बाबाहसाहेब ने जिन जातियों को शूद्र कहा है,वे सवर्ण आधिपात्य में सत्ता में भागेदारी निभा रहे हैं।


समता और सामाजिक न्याय सिर्फ विचाधारा तक सीमाबद्ध है,हकीकत की जमीन पर कहीं नहीं।क्योंकि बहुजनों की फितरत है कि एक बार अपना हिसाब किताब बराबर हो जाये तो बाकी जनता की सोचो नहीं।


सबसे हैरत अंगेज मामला बिहार का है जहां चुनाव होने वाले हैं और वहां ओबीसी का जलवा इतना प्रलयंकर है कि चुनाव जीतने के लिए संघ परिवार की समरसता जीतन मांझी की डगमगाती नैय्या और पासवान के दलित वोटबैंक के बावजूद ओबीसी पहचान के हवाले हो गयी और अमित साह ने हिंदू ह्रदयसम्राट को देश के नेता के रुतबे से खींचकर ओबीसी का नेता बना दिया।


उस बिहार में लखासराय से कुछ दिल दहलाने वाली तस्वीरें सोशल मीडिया पर वाइरल हैं।हमने पहले इन तस्वीरों को अंग्रेजी डिसक्लेमर के साथ ग्राफिक फोटो के बतौर सोशल मीडिया के साथ साथ अपने ब्लागों पर साझा किया।लेकिन कहीं कोई प्रतिक्रिया न होने पर हमने इस पर कल रात हिंदी में लिखा।अमलेंदु को फोन किया तो वे बोले कि इन तस्वीरों की क्या प्रामाणिकता है।हो सकता है कि यह कोई दुर्घटना हो।हस्तक्षेप में फिरभी वह आलेख लगा है।तस्वीरों के साथ।


तो बिहार में सरकार तो सामाजिक न्याय और समता के नाम है और इन तस्वीरों की जिम्मेदारी सीधे उसपर है।


इन तस्वीरों में पुलिस की मौजूदगी भी दर्ज है तो यह हरगिज नहीं हो सकता कि पुलिस प्रशासन को इस वाकये के बारे में कुछ भी मालूम न हो।


हमारे पाठक बिना प्रिंट के सोशल मीडिया पर लाखों में हैं,दो दिनों से हम लगातार इस मामले को उटा रहे हैं।लखनऊ की मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता नूतन ठाकुर इसे उठा रही है।दूसरे लोग भी सोशल मीडिया पर बेचैन करने वाली टिप्पणियां कर रहे हैं। लेकिन राजनीति और सत्ता के मोर्चे में सिरे से सन्नाटा है।मीडिया खामोश।


खबर और तस्वीरें गलत हैं तो वही बता दें ताकि ज्यादा रायता न फैलें।ऐसा भी नहीं कि सत्ता और राजनीति के लोग सोशल मीडिया पर नहीं है।हम खुद तमाम मंत्रियों,अफसरों और सारे मीडिया संपादकों के साथ जुड़े हैं।


मीडिया हमेशा आधिकारिक वर्सन को छापता है और सरकार या प्राशासन या पुलिस जबतक कनफर्म न कर दे, कोई खबर नहीं हो सकती।मसलन बिना एफआईआर दर्ज हुए किसी वारदात को मीडिया में खबर बनाने की सख्त मनाही है।ऊपर से गोपनीयता भंग न  करने की शर्त है।इसी विशेषाधिकार के दम पर मध्य पूर्व एशिया,वियतनाम,अफ्रीका और लातिन अमेरिका में अमेरिका ने मीडिया की सर्वज्ञ खामोशी की आड़ में सीधे नरंहार अभियान चलाकर करोड़ों लोगों की जान लेते रहने का सिलसिला जारी रखा है।यही है अमेरिका के आतंक के किलाफ युद्ध का आधार।



अमेरिका और इजराइल के और माफ करें ,अखंड हिंदू राष्ट्र के आतंक के खिलाफ युद्ध का सच भी वहीं है कि मीडिया जनता के खिलाफ जारी चांदमारी पर खामोश आधिकारिक बयान और एफआईआर के इंतजार में होता है और पुलिस और प्रशासन के बयान को वह सौ टका सच मान लेता है,भले ही वह मंत्रियों और राजनेताओं की खूब खिंचाई करें अपने अपने समीकरण के हिसाब से।


भारत में भुक्तभोगी का एफआईआर दर्ज हो तो करिश्मा समझें तो आधिकारिक खबरें छापने वाले मीडिया की औकात भी समझ लें।चूंकि खंडन नहीं हुआ है अभी तक और हम सच जानना चाहते हैं,इसीलिए वे ही वीभत्स तस्वीरें फिर ताकि कम से कम आपके दिलोदिमाग में कोई हलचल हो।


सच सामने आया होता तो कि इराक ने कोई जलसंहारी हथियारों का जखीरा जमा नहीं किया तो यकीनन  न्यूयार्क का ट्विन टावर वहीं बहाल रहता और दुनियाभर में मुसलमानों के कत्लेआम का यह जायनी जश्न भारत में भी मनाया नहीं जा रहा होता।न्यूयर्क से लेकर गुजरात,गुजरात से लेकर यूपी,खस्मीर,मध्यभारत और असम तक सच कब सामने आया है?


मीडिया की सीमा है लेकिन सत्ताविरधी हर आवाज को कुचलने रौंदने और जनपदों से राजधानियों में भी सच बोलने लिखने का साहस कर रहे मडियाकर्मियों के वध महोत्सव के इस परिवेश में जब कश्मीर या मध्यभारत पर लिखा कुछ भी पोस्ट करने से तत्काल चंद सेकंड में ही सारे ईमेल आईडी ब्लाक कर दिये जायें,ब्लाग डिलीट कर दिये जायें,जैसा कि रोज रोज मेरे साथ होता है।जबतक नये सिरे से रिेक्टिवेट हो आईडी या नये सिरे से ब्लाग बहाल हो तब तक डैमेज कंट्रोल हो जाता है।


इतने चाक चौबंद नियंत्रण प्रणाली के बावजूद नीतीश कुमार और लालू प्रसाद तो क्या केंद्र सरकार को अपनी तमाम एजंसियों और अपने डिजिटल इंडिया के सवा अरब लोगों से सीधे इंटरएक्ट करने वाले प्रधानमंत्री तक ये तस्वीरें पहुंची हैं नहीं,ऐसा कमसकम हम मान नहीं सकते।


फिर चुनाव समीकरण पलट देने वाले इस वाकये पर जीतन राम मांझी,दलितों के राम बने हनुमान रामविलास पासवान और उनके चतुर सुजान पुत्र चिराग पासवान क्यों खामोश हैं,यह समझ से परे हैं।


इस देश की इंच इंच जमीन पर संघपिरवार काबिज है और सचमुच उसका हिंदू राष्ट्र अखंड है तो बिहार में ओबीसी राजकाज के इस वाकये पर वह क्यों खामोश है।


इसका लेकिन जवाब है कि दलितों को और मुसलमानों को और आदिवासियों को हमेशा औकात में रखने की रणनीति सवर्ण राजनीति है संघपरिवार की समरसता रस से महमहाती।


चाहे घटना खैराजंलि की हो या नागौर की या बोलांगीर की,या मद्यबारत के आदिवासी भूगोल की या कस्मीर या पूर्वोत्तर के आफ्स्पा आखेटगाहों की ,जब बलात्कार के शिकार हों,कत्लेआम  के शिकार हों,दलित,आदवासी या मुसलमान  तो गोपनीयता की दुहाई देकर उनकी उदात्त घोषणा होती है कि यह नृशंस वारदात मनुष्यता के विरुद्ध अपराध है  किसी दलित,मुसलमान या आदिवासी के खिलाफ नहीं।वारदात की शिकार महिला या वारदात में जिनका कत्लेआम हुआ,उनकी पहचान बताकर अंखड हिंदू राष्ट्र और सनातन वैदिकी हिंदू समाज का विभाजन न करें और खासतौर पर वारदात जब बाहुबली या सवर्णों की ताकत का इजहार हो तो संघपरिवार योगाभ्यासी मौन धारण कर लेता है।


सत्तर दशक के जनांदोलनों की पैदाइश मुलायम,मायावती, लालू प्रसाद,नीतीश कुमार,सुशील मोदी,शरद यादव और रामविलास पासवान इतने मुखर है कि हम उनकी आवाज को ही दलितों और पिछड़ों की आवाज मानते रहे हैं दशकों से ।इनमें से सिर्फ मायावती की कोई भूमिका सत्तर के दशक में नहीं रही हैं और वे मान्यवर कांशीराम के बहुजन आंदोलन की उपज हैं।


सचमुच यकीन नहीं आता कि दिखाने को चेहरे अनेक हैं,संसद और विधानसभाओं में बहुजनों के मनुमाइंदे भी गिनती के लिए अनेक हैं,जिनकी सत्ता में भागेदारी को हम अब तक सामाजिक बदलाव मानते रहे हैं ,लेकिन बाबासाहेब का मूक भारत नसिर्फ मूक है,वधिर और अंधा भी है।


हम इस आलेख के साथ फिर वे ही तस्वीरें नत्थी कर रहे हैं,कृपया संबद्ध लोग बतायें कि ये तस्वीरें सच है या झूठ।


बहरहाल धारणा यही है कि ओबीसी गिनती  जनगणना में ओबीसी सिपाहसालारों की वजह से है,यह सरासर झूठ है। यह आंदोलन बामसेफ का रहा है,ओबीसी सिपाह सालारों और मनसबदारों का नहीं।


बहरहाल धारणा यही है कि सरकार ये आंकड़ें सामने इसलिए नहीं ला रही है कि जनसंख्या के मुताबिक नौकरियों में आरक्षण देना होगा।आरक्षण वोटबैंक के लिए बहुत काम की चीज है रोजी रोजगार और नौकरियों के लिए नहीं।


मान लीजिये कि आंकड़े जग जाहिर हो भी गये और ओबीसी प्रदानमंत्री ने जनसंख्या के हिसाब से सुप्रीम कोर्ट की बाधादौड़ पूरी करकेजनसंख्या के हिसाब से आरक्षण दे भी दिया तो नौकरियां कहां हैं,उसका जायजा तो ले लीजिये।नौकरियां सार्वजनिक क्षेत्र में रह ही कितनी गयी है?वहां 1991 से स्थाई नौकरियां हैं ही कितनी?1991 से नियुक्तियों के आंकडे तो पहले सार्वजनिक करायें।


दरअसल जाति आधारित जनगणना से पहले संपूर्ण निजाकरण और संपूर्ण विनिवेश के आर्थिक सुधार लागू हैं और नौकरियां भी पीपीपी माडल हैं।एफडीआई में निष्णात हैं नौकरियां,आजीविकाएं,रोजी रोटी ,जल जंगल जमीन नागरिकता,नागरिक और मानवाधिकार।


बहुजनों की सत्ता में भागेदारी की  राजनीति ने इस अश्वमेध अभियान के खिलाफ कभी अपना विरोध दर्ज कराया हो तो ब्यौरा जरुर दें।


गौर करें कि सरकारी नौकरियों में फजीहत इतनी ज्यादा है कि दबंग मेधा समुदायों को उनकी कोई गरज नहीं है क्योंकि निजी क्षेत्र में आदिवासियों, दलितों,पिछड़ों और मुसलमानों के लिए गिनी चुनी  नौकरियां हैं और जिन्हें मिल भी जाती हैं वे नौकरियां ,उनकी कोई तरक्की  नहीं होती।


मीडिया में एकबार दाखिला लेकर तो देखें कि क्या हाल बनता है दो चार जातियों के अलावा बाकी किसी समुदाय से आये लोगों का।उन जातियों का हम नाम नहीं लेंगे बहरहाल।


क्योंकि निजी क्षेत्र में शत प्रतिशत वर्चस्व सिर्फ खास इनी गिनी जातियों का है।


फिरभी बहुजन समाज का झूठ बहुजनों के लिए ख्वाहबी पुलाव है और जाति की पहचान और गिनती के भरोसे वे गौतम बुद्ध की क्रांति दोहराने का ख्वाब देखते हैं जबकि ओबीसी के सबसे ज्यादा लोग राजकाज में हैं केंद्र में भी और राज्यों में भी और उन्हें वाकई दलितों,मुसलमानों और आदिवासियों से कुछ लेना देना नहीं है।


फिर भी हिंदुत्व की इस नर्क को बनाये रखने में सारे बहुजन एक हैं।मनुस्मृति भी जलायेंगे और जात पांत से चिपके भी रहेंगे, ऐसी होगी क्रांति,वाह।


आपको याद होगा कि एक अंग्रेजी अखबार ने बरसों पहले डीएनए रपट के आधार पर खबर निकाली थी कि ब्राह्मण विदेशी हैं।


आज उसी समूह के सबसे बड़े आर्थिक अखबार में फिर खुलासा हुआ है कि सरकार को इस बात का कतई डर नहीं है कि ओबीसी गिनती हुई तो तो बराबर हिसाब करना होगा और नौकरियां देनी होंगी क्योंकि आरक्षण देने लायक नौकरियां हैं ही नहीं और सारी आजीविकाएं,रोजी रोटी और नौकरियां मेकिंग इन पीपीपी है।


खुलासा हुआ है कि अब आरक्षण से मनुस्मृति के वारिसान कतई डरते नहीं है और आर्थिक सुधारों से जो निजी क्षेत्र का देश बना है,उसमें दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और मुसलमानों के लिए कोई जगह दरअसल नहीं है।


फिर वही निष्कर्ष भूलभूलैय्या जिसमें बहुजन जनता की भेड़धंसान है कि जाति जनसंख्या के आंकड़ों से डर इसलिए है कि इनसे साबित होता है कि बहुजनों को किसी भी क्षेत्र में कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला है और सत्ता में हिस्सेदारी तब देनी ही पड़ेगी।


सत्ता का लालीपाप फिर वही।

अंग्रेजी की वह खबर नत्थी करने से पहले फिर वे तस्वीरे जिनका अभीतक खंडन नहीं हुआ हैः

WARNIG:GRAPHIC PHOTO


Sorry to post these Horrible Photos.Be brave enough to face the Indian reality of Class Caste hegemony role of genocide culure,the BRUTE Apartheid.I am afraid that I have to shock you if you happen to be human enough!However biometric robotic clones have no mind or heart as most of us remain headless chicken as they describe:KABANDH!

साथियो

जाति व्यवस्था का क्रूर परिणाम है जो मन्नू तांती के साथ घटित हुई है. अपने देश में दलितों की दशा एवं दिशा का यह जीता जागता प्रमाण आपके सामने है.

यह घटना बिहार राज्य के जिला लक्खीसराय गांव खररा की है। स्व. मन्नू तांती के साथ यह घटी है. केवल अपने पिछले चार दिनों की मजदूरी मांगने के कारण मन्नू तांती को गेहूं निकालने वाली थ्रेसर में जिन्दा पीस दिया गया. इस जघन्य हत्या का अंजाम उसके गांव के दबंग लोगों  ने दिया.



Jul 12 2015 : The Economic Times (Kolkata)

Look Who is Afraid of the Caste Census

Rajesh Ramachandran






Are numbers being hidden because they could well reveal the upper caste dominance in governance?

Nobody has ever accused former Bi har chief minister Lalu Prasad Ya dav of number crunching. All his life he has milked cows and caste with out ever needing to count. Yet, he is all set to lead a protest march in Patna on July 13 seeking the publica tion of caste data in the socio-eco nomic caste census. If the other big Yadav chieftain, Mulayam Singh Ya dav, rakes it up in Uttar Pradesh too, this issue can assume critical mass forcing the BJP-led central govern ment to act. And if it doesn't act, the refusal to publish caste numbers could become a rallying point against the BJP in the Bihar polls, where castes are the constant fac tors in the poll calculus.

The pundits have insisted that the government is hiding the caste cen sus data fearing a backlash from the backward castes. According to the 1931 census and the 1980 Mandal commission, the backward classes numbered around 54% of the total population and if the new census fig ures are higher than this, the back ward classes could ask for a bigger share in education and jobs.

Denial of caste numbers could be portrayed as an attempt to deny the rightful proportion of jobs and edu cational opportunities and be turned into an emotive issue for Lalu Pras ad's 12% Yadavs who lag behind in education, jobs and upward mobili ty. If Yadav identity and the denial of rights become the big issue, Lalu could hope to get his Yadav brethren to ensure a remarkable comeback after being relegated to the sidelines of Bihar politics.

A Conspiracy Theory

But is that all? Is the government hiding the figures just to deprive the other backward classes (OBCs) of a few seats in government educational institutions or a clutch of jobs in the dwindling government job market? Well, the government circles are abuzz with a conspiracy theory of a different kind. Unlike the pundits who believe that the government has conspired to deny the backward masses a little more of their due, some top bureaucrats believe that the attempt is not to hide the OBC figures but to sup press the more dangerous upper caste numbers.

A large section of the upper castes, particularly the castes that dominated the upper and lower bureaucracy, had a long time ago shifted their focus to the private sector. They now control the wheels of power in the entire pri vate sector where no Dalit or OBC can easily break the invisible glass ceiling. It is not government jobs that would bother the upper castes, but the government itself.The upper castes have been run ning governments at the Centre and the states for so long that they don't want the caste census to fi nally proclaim that the Indian democracy is not really representative.

The only backward caste minister of any consequence in the Narendra Modi cabinet is Modi himself. In the 27-member cabinet, 20 are from upper castes.Roughly 30% or eight of the cabinet ministers are Brahmins, four are from the Kshatriya community and there is Vaishya, Kayastha, Kamma, Maratha and Khatri representation. So, less than 10% of the population is virtually running the government and ruling the masses. If the OBC numbers are about 60% of the total population and the SCST, the only known figures, are 30%, the upper castes can only be 10% of the population. Or if we go by the generous Mandal Commission figures the upper caste numbers ought to be just 16-18% and nothing more.

Now, the strangest aspect of the Indian democracy is that since Independence we have been ruled only by the upper castes: about 50 years by Brahmins, if we count Rajiv Gandhi too, 10 years by a Khatri Sikh and the others have largely been blips on the govern ance radar. Former prime minis ter HD Deve Gowda's Vokkaligas are backward, so he is the first backward caste PM. Though Modi's caste was listed as OBC in 1994, he played the caste card only during the 2014 polls, and now his team is largely upper caste. This is the context in which the BJP government is refusing to announce the exact number of upper castes in the country.

States No Different

The situation is similar in many states. West Bengal, Maharashtra, Tamil Nadu and Goa have Brah min chief minis ters, Rajasthan has a Maratha from a former royal fami ly, Telangana a Ve l a m a l a n d l o rd caste, Andhra a Kamma, Haryana a Khatri, Punjab a Jat Sikh, Kerala an up per caste Chris tian, Himachal a Rajput and so on.

In the 29 states of the Indian Union, there are hardly five or six OBC chief ministers and no Dalit leadership.

According to a story making the rounds, when the caste data was compiled a top official was so startled to see the upper caste numbers (because they were in significantly low in comparison with the rest of the castes) that he immediately jumped into his ve hicle and sped towards Raisina Hill to share the findings with his bosses. They too were convinced that the upper caste numbers are dangerously low to be revealed to the world. Whether the story is true or false, only a disclosure of caste numbers can push adminis trators and people towards pro portionate representation in all walks of life.









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