Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti basu is DEAD

Jyoti Basu: The pragmatist

Dr.B.R. Ambedkar

Memories of Another Day

Memories of Another Day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Friday, August 7, 2015

टिटिहरी पत्रकार, बरसाती चैनल जब-जब इस देश में चुनाव का मौसम आता है निजी कंपनियों के दफ्तरों से बजबजाते नोएडा में तमाम नए समाचार चैनल कुकरमुत्ते की तरह पनपने लगते हैं. इन चैनलों का एकमात्र उद्देश्य चुनाव के समय पैसा बटोर कर बंद हो जाना होता है अभिषेक श्रीवास्तव



Abhishek TV Graphic-F

टिटिहरी पत्रकार, बरसाती चैनल

जब-जब इस देश में चुनाव का मौसम आता है निजी कंपनियों के दफ्तरों से बजबजाते नोएडा में तमाम नए समाचार चैनल कुकरमुत्ते की तरह पनपने लगते हैं. इन चैनलों का एकमात्र उद्देश्य चुनाव के समय पैसा बटोर कर बंद हो जाना होता है

August 7, 2015

http://tehelkahindi.com/tv-channel-mushrooming-in-india/

फरवरी-2015 की गुनगुनी धूप और निजी कंपनियों के दफ्तरों से बजबजाता नोएडा का सेक्टर-63… दिन के बारह बज रहे हैं और एक बेरोजगार पत्रकार तिपहिया ऑटो से एक पता खोज रहा है. उसने सुना है कि यहां कोई नया समाचार चैनल खुलने वाला है. किसी माध्यम से उसे यहां मालिक से मिलने के लिए भेजा गया है. कांच के इस जंगल में करीब आधे घंटे की मशक्कत के बाद उसे वह इमारत मिल जाती है. हर इमारत की तरह यहां भी एक गार्ड रूम है. रजिस्टर में एंट्री करने के बाद उसे भीतर जाने दिया जाता है. प्रवेश द्वार एक विशाल हॉल में खुलता है जहां लकड़ी रेतने और वेल्डिंग की आवाज़ें आ रही हैं. एक खूबसूरत-सी लड़की उसे लेने आती है. 'आप थोड़ी देर बैठिए, सर अभी मीटिंग में हैं', उसे बताया जाता है. वह ऐसे वाक्यों का अभ्यस्त हो चुका है.

करीब आधे घंटे बाद लड़की उसे एक कमरे में लेकर जाती है. सामने की कुर्सी में बिखरे बालों वाला अधेड़ उम्र का एक वजनी शख्स धंसा हुआ है. 'आइए… वेलकम… मौर्या ने मुझे बताया था आपके बारे में.' बातचीत कुछ यूं शुरू होती है, 'आप तो जानते ही हैं, हम लोग उत्तरी बिहार के एक खानदानी परिवार से आते हैं. अब बिहार से दिल्ली आए हैं तो कुछ तोड़-फोड़ कर के ही जाएंगे, क्यों?' पत्रकार लगातार गर्दन हिलाता रहता है. हर दो वाक्य के बाद बगल में रखे डस्टबिन में वह शख्स पान की पीक थूकता है. 'हम सच्चाई की पत्रकारिता करने वाले लोग हैं. हमें खरा आदमी चाहिए, बिलकुल आपकी तरह. बस इस महीने रुक जाइए, रेनोवेशन का काम पूरा हो जाए, फिर आपकी सेवाएं लेते हैं.' पत्रकार आश्वस्त होकर निकल लेता है. उसके भरोसे की एक वजह है. चैनल का मालिक बिहार में एक जमाने के मकबूल कवि कलक्टर सिंह केसरी का पौत्र है. केसरी हिंदी की कविता में नकेनवाद के तीन प्रवर्तकों में एक थे. उसे लगता है कि हो न हो, आदमी साहित्यिक पृष्ठभूमि का है तो गंभीर ही होगा.

छह महीने बीत चुके हैं और उसके पास कोई फोन नहीं आया. उसे वहां भेजने वाले मौर्या ने पूछने पर बताया कि 'न्यूज सेंट्रल' नाम का यह चैनल खुलने से पहले ही बंद हो गया क्योंकि फंडर ने हाथ खींच लिया. दो महीने बाद बिहार विधानसभा के चुनाव हैं और 'सच्चाई की पत्रकारिता' करने वाले केसरी जी के पोते किसी नए जुगाड़ में हैं. जब-जब इस देश में कोई चुनाव आया है, यह कहानी हर बार तमाम लोगों के साथ दुहराई गई है,  दिल्ली में बीते साल 19 फरवरी से 'डी6 टीवी' की शुरुआत हुई थी. करीब छब्बीस लोगों के साथ शुरू हुए इस चैनल के बारे में अफवाह थी कि चैनल में कांग्रेसी नेता कपिल सब्बल का पैसा लगा है. चैनल से जुड़ने वाले पत्रकारों से कहा गया कि यह एक वेब चैनल है, आगे चलकर इसे सैटेलाइट करने की योजना है. उस दौरान यह चैनल सिर्फ लोकसभा चुनाव के लिए खोला गया था. यह बात कई कर्मचारी बखूबी जानते थे. चैनल के मालिक अशोक सहगल ने कर्मचारियों से बड़े-बड़े वादे किए. चुनाव के बाद मालिक ने बिना किसी पूर्व सूचना के 14 कर्मचारियों को बाहर निकाल दिया. आज चैनल बंद पड़ा है और दर्जनों कर्मचारी सड़क पर हैं.

चुनावों और चैनलों का रिश्ता इस देश में उतना ही पुराना है जितनी टीवी चैनलों की उम्र है, लेकिन समय के साथ यह रिश्ता व्यावसायिक होता गया है जो आज की तारीख में विशुद्ध लेनदेन का गंदा धंधा बन चुका है. हर चुनावी चैनल के खुलने और बंद होने की पद्धति एक ही होती है. मसलन, किसी छोटे/मझोले कारोबारी को अचानक कोई छोटा/मझोला पत्रकार मिल जाता है जो उसे चैनल खोलने को प्रेरित करता है. उसे दो लोभ दिए जाते हैं. पहला, कि चुनावी मौसम में नेताओं के विज्ञापन व प्रचार से कमाई होगी. दूसरा, राजनीतिक रसूख के चलते उसके गलत धंधों पर एक परदा पड़ जाएगा. एक क्षेत्रीय चैनल खोलने के लिए दस करोड़ की राशि पर्याप्त होती है जबकि चिटफंड, रियल एस्टेट, डेयरी, खदान और ऐसे ही धंधे चलाने वाले कारोबारियों के लिए यह रकम मामूली है. शुरुआत में किराये पर एक इमारत ली जाती है और उपकरणों की खरीद की जाती है. अधिकतर मामलों में आप पाएंगे कि उपकरणों को खरीदने के लिए जिन व्यक्तिों या एजेंसियों की मदद ली जाती है, वे आपस में जुड़े होते हैं या एक होते हैं. आर्यन टीवी, मौर्या टीवी, कशिश टीवी, समाचार प्लस, बंसल न्यूज, खबर भारती, न्यूज एक्सप्रेस, महुआ न्यूजलाइन, आदि में मशीनरी के शुरुआती ठेकेदार एक ही थे. यह पैसा बनाने का पहला पड़ाव होता है. मसलन, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर इन्हीं तीन राज्यों में प्रसारण के लिए 2011 में एक चिटफंड समूह द्वारा खोले गए चैनल 'खबर भारती' में शुरुआत में विदेश से जो कंप्यूटर आए, वे होम पीसी थे. बाद में इन्हें लौटाया गया और इससे पैसा बनाया गया. इसी तरह विजुअल देखने के लिए पीआरएक्स नाम का जो सॉफ्टवेयर खरीदा गया, वह महीने भर बाद ट्रायल संस्करण निकला.

उपकरण खरीद के बाद संपादक मनचाहे वेतनों पर मनचाही भर्तियां करता है. फिर आती है लाइसेंस की बारी. कुछ चैनल लाइसेंस के लिए आवेदन कर देते हैं तो कुछ दूसरे चैनल या तो किराये पर लाइसेंस ले लेते हैं या खुले बाजार से कई गुना दाम पर खरीद लेते हैं. जैसे, 'न्यूज एक्सप्रेस' ने खुले बाजार से काफी महंगा लाइसेंस खरीदा था जबकि कुछ दूसरे छोटे चैनल 'साधना' से किराये पर लाइसेंस लेकर प्रसारण कर रहे थे. लाइसेंस किराये पर देने का भी एक फलता-फूलता धंधा चल निकला है. नोएडा से खुलने वाला हर नया समाचार चैनल 'साधना' के लाइसेंस पर चलता सुना जाता है. बहरहाल, पैसे कमाने का अगला पड़ाव चैनल का वितरण होता है. यह सबसे महंगा काम है. अधिकतर चैनल इसी के चलते मात खा जाते हैं. इन तमाम इंतजामों के बाद किसी भी नए चैनल को ऑन एयर करवाने में अधिकतम दो से तीन माह लगते हैं, जब पेड न्यूज का असली खेल शुरू होता है.

आजकल प्रायोजित खबरों यानी पेड न्यूज की कई श्रेणियां आ गई हैं- प्री-पेड न्यूज, पोस्ट-पेड न्यूज और हिसाब बराबर होने के बाद टॉप-अप. जितना पैसा, उतनी खबर. जितनी खबर, उतना पैसा. छत्तीसगढ़ में आज से तीन साल पहले सरकारी जनसंपर्क विभाग द्वारा ऐसे घालमेल का पर्दाफाश हुआ था, जिसके बाद पिछले साल जनवरी में राज्य के महालेखा परीक्षक (एजी) ने राज्य सरकार को टीवी विज्ञापनों के माध्यम से उसके प्रचार पर 90 करोड़ के 'अनावश्यक और अतार्किक' खर्च के लिए झाड़ लगाई थी. एक जांच रिपोर्ट में एजी ने कहा था कि समाचार चैनलों को जो भुगतान किए गए, वे कवरेज की जरूरत के आकलन के बगैर किए गए थे और कुछ मामलों में तो इनके लिए बजटीय प्रावधान ही नहीं था. केवल कल्पना की जा सकती है कि अगर एक राज्य एक वित्त वर्ष में 90 करोड़ की धनराशि चैनलों पर अपने प्रचार पर खर्च कर सकता है, तो किसी भी कारोबारी को इसका एक छोटा सा अंश हासिल करने में क्या गुरेज होगा. चुनावों के बाद बेशक कमाई के न तो साधन रह जाते हैं, न ही चैनल को जारी रखने की कोई प्रेरणा. एक दिन अचानक चैनल पर ताला लगा दिया जाता है और सैकड़ों कर्मचारी सड़क पर आ जाते हैं.

जाहिर है, इसका असर खबरों पर तो पड़ता ही है क्योंकि ऐसे चैनल खबर दिखाने के लिए नहीं, बल्कि विशुद्ध कमाई के लिए खोले जाते हैं. झारखंड में पिछले विधानसभा चुनावों के दौरान रांची में चुनाव आयोग ने वहां के एक समाचार चैनल 'न्यूज 11' के खिलाफ गलत खबर के प्रसारण पर एक मामला दायर किया था. चुनाव आयोग ने खबर को आचार संहिता के खिलाफ और बदनीयती माना था. इस चैनल ने मतदान के एक दिन पहले यह खबर चला दी थी कि सदर विधानसभा सीट पर भाजपा को टक्कर कांग्रेस नहीं, निर्दलीय प्रत्याशी दे रहा है. काफी देर तक चली इस खबर का असर मतदान पर पड़ा और नतीजतन अल्पसंख्यक वोटों का ध्रुवीकरण कांग्रेस से हटकर निर्दलीय प्रत्याशी की ओर हो गया.

समाचार चैनलों को टिकाए रखना कितना घाटे का सौदा है, यह हाल में बंद हुए या संकटग्रस्त कुछ चैनलों की हालत से समझा जा सकता है. चिटफंड समूह पर्ल ग्रुप द्वारा संचालित 'पी7' के मामले को देखें तो कह सकते हैं कि देश के इतिहास में पहली बार हुआ जब किसी चैनल पर कर्मचारियों ने कब्जा कर लिया और परदे पर यह सूचना चला दी, 'सैलरी विवाद के कारण पी7 न्यूज हुआ बंद.' इसी तरह 'टीवी-9' के एक एंकर ने बुलेटिन के बीच में ही वेतन भुगतान का मामला उठा दिया था और चैनल की स्थिति का पर्दाफाश कर दिया था. सहारा समूह का ताजा मामला हमारे सामने है जहां हजारों कर्मचारियों की आजीविका दांव पर लगी हुई है. नोएडा के श्रम आयुक्त के सामने एक माह का वेतन देने संबंधी हुए समझौते के बावजूद उसका पालन नहीं किया गया है जबकि वेतन छह माह का बाकी है. मीडिया के बड़े-बड़े नामों को अपने साथ जोड़ने वाले न्यूज एक्सप्रेस, भास्कर न्यूज, जिया न्यूज और सीएनईबी बंद पड़े हैं. एक और चिटफंड समूह का चैनल 'लाइव इंडिया' बंदी के कगार पर है, उसके बावजूद उसने अपने अखबार और पत्रिका को रीलॉन्च करने के लिए लोगों को टिकाए रखा है जबकि रीलॉन्च के लिए मुकर्रर तीन तारीखें गुजर चुकी हैं. कुख्यात दलाली कांड के बाद खुला नवीन जिंदल का 'फोकस न्यूज' बंद होने के कगार पर है जबकि 'इंडिया न्यूज' के क्षेत्रीय चैनल वितरण की मार से जूझ रहे हैं और प्रसारण के क्षेत्रों में ही वे नहीं दिखते. घिसट रहे चैनलों में एक तरफ हजारों मीडियाकर्मी हैं जिनके सिर पर लगातार छंटनी और बंदी की तलवार लटकी है, तो दूसरी ओर बंद हो चुके चैनलों से खाली हुए तमाम पत्रकार हैं जो ऐसी ही किसी जुगत में फंडर या नए बरसाती मेंढकों की तलाश कर रहे हैं.

समाचार चैनलों की बदनाम हो चुकी दुनिया इसके बावजूद थकी नहीं है. उत्तर प्रदेश के चुनावों के ठीक बाद नोएडा फिल्म सिटी में 'महुआ' के चैनल 'न्यूजलाइन' में पत्रकारों की सबसे पहली सफल हड़ताल हुई थी. इस बारिश में वहां से एक नया कुकुरमुत्ता उग रहा है. तीन साल के दौरान तीन चिटफंडिया चैनलों में भ्रष्ट मालिकों के संसर्ग का तजुर्बा ले चुके एक मझोले कद के पत्रकार कहते हैं, 'छह महीने का टारगेट रखा है मैंने… एक लाख का प्रस्ताव दे दिया है. मिल गया तो ठीक, नहीं मिला तो अपना क्या जाता है.' इस चैनल की कमान एक पिटे हुए पत्रकार के हाथ में है जो सहारा से लेकर अरिंदम चौधरी के प्लानमैन मीडिया तक घाट-घाट का पानी पी चुके हैं. इस दौरान 'न्यूज सेंट्रल' से निकलने के बाद मौर्या नाम का शख्स एक नए 'प्रोजेक्ट' पर काम कर रहा है- नाम है 'ग्रीन टीवी.' वह कहता है, 'क्या करें भाई साहब… कुछ तो करना ही है.'

बिहार चुनाव तो सिर पर है, लेकिन बंगाल और उत्तर प्रदेश के चुनाव में अभी काफी वक्त बाकी है. वहां भी नए 'प्रोजेक्ट' की तलाश में पुराने पत्रकार नए मालिकों को बेसब्री से तलाश रहे हैं. यहां चुनावी चैनलों की आहट तो फिलहाल नहीं सुनाई दे रही है, लेकिन पर्ल समूह की पत्रिका 'शुक्रवार' को लखनऊ में नया मालिक मिल चुका है और राज्य सरकार की छत्रछाया में 'सोशलिस्ट फैक्टर' का प्रकाशन शुरू हो चुका है जिसके पहले अंक में मुलायम सिंह यादव को भारत का फिदेल कास्त्रो बताया गया है. हर दिन यहां मारे और जलाए जाते पत्रकारों की हृदयविदारक खबरों के बीच मीडिया और सत्ता की अश्लील लेन-देन मुसलसल जारी है. आकाश में टकटकी लगाए टिटिहरी पत्रकारों को बस चुनावी बूंदें टपकने का इंतजार है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

No comments:

Post a Comment