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Saturday, August 15, 2015

भगाणा पीड़ितों के धर्मान्तरण के लिए जिम्मेवार कौन! -एच.एल.दुसाध


स्वाधीनता दिवस की भूरि-भूरि बधाई!मित्रों मेरा यह लेख आज ,15 अगस्त के 'निष्पक्ष दिव्य सन्देश' में और कल hastkshep.com में छपा.आज आपकी छुट्टी होगी.अतः इस लेख को सरसरी नजर से देखने नहीं,पूरी तरह पढ़ने का कष्ट करें.भगाणा पीड़ितों को दुःख को समझने के लिए इतना कष्ट तो लें हीं.           

           भगाणा पीड़ितों के धर्मान्तरण के लिए जिम्मेवार कौन!

                                                           -एच.एल.दुसाध

मैं सामान्यतया टीवी नहीं, सूचनाओं के लिए अख़बारों और सोशल मीडिया पर निर्भर रहता हूँ.इसीलिए गत 8 अगस्त को यह नहीं जान पाया कि भगाणा के पीड़ितों ने इस्लाम कबूल करने का कठोर निर्णय ले लिया है.इसकी जानकारी 9 अगस्त की सुबह 7 बजे तब हुई जब मैंने फेसबुक खोला. खोलते ही मेरी नजर फॉरवर्ड प्रेस के संपादक सलाहकार व भगाणा की निर्भयाएं पुस्तक के अपने साथी संपादक प्रमोद रंजन के हैरतंगेज पोस्ट पर पड़ी जो 9 अगस्त की सुबह 1.49 पर पोस्ट की गयी थी . उन्होंने लिखा था-'हरियाणा के भगाणा गाँव के लगभग 100 दलित और ओबीसी परिवारों ने आखिरकार इस्लाम कबूल कर लिया.यह सारा घटनाक्रम आज ( 8 अगस्त ) दिल्ली में हुआ. धर्मपरिवर्तन के बाद उन्होने जंतर मंतर पर नमाज भी पढ़ी.यह तस्वीर जंतर मंतर की है .उनके शोषण पर तो सब चुप थे , अब देखिएगा कि धर्म की राजनीति इस पर कैसी प्रतिक्रिया देती है.'यह पोस्ट पढ़कर मैं स्तब्ध रह गया.कारण, भगाणा पीड़ितों के अभियान में सहयोग के लिए प्रमोद रंजन और जितेन्द्र यादव के साथ मिलकर 'भगाणा की निर्भयाएं:दलित उत्पीड़न के अनवरत सिलसिले का दास्तान ' पुस्तक तैयार करने के क्रम में मैं तन-मन से उनके साथ जुड़ गया था . उनके पूरे आन्दोलन को निकट से देखने के बाद अंततः  भगाणा कांड की ऐसी  परिणति की कतई उम्मीद नहीं किया था.बहरहाल कुछ देर बाद और जानकारी के लिए नेट पर जब ऑनलाइन अखबारों पर नजर दौड़ाया,मैं देख कर दंग रह गया कि जिन अख़बारों ने अबतक भगाणा कांड को नहीं के बराबर स्पेस दिया,उनमें से कई ने धर्मान्तरण की घटना को मुख-पृष्ठ पर जगह देने के साथ ही किन हालातों में पीड़ितों को जंतर पर शरण लेना पड़ा,इस पर विस्तार से रौशनी डाला था.लेकिन इसका सबसे प्रभावशाली चित्रण दलित मुद्दों के बेहतरीन टिपण्णीकर भंवर मेघवंशी की रिपोर्ट में हुआ था. उन्होंने 'मांगा इन्साफ,मिला धर्मान्तरण' शीर्षक से अपनी रिपोर्ट में लिखा था-:

  लगभग 4 माह तक उनका सामाजिक बहिष्कार किया गया , आर्थिक नाकेबंदी हुयी , तरह तरह की मानसिक प्रताड़नाएँ दी गयी . गाँव में सार्वजनिक नल से पानी भरना मना था , शौच के लिए शामलात जमीन का उपयोग नहीं किया जा सकता था , एक मात्र गैर दलित डॉक्टर ने उनका इलाज करना बंद कर दिया , जानवरों का गोबर डालना अथवा मरे जानवरों को दफ़नाने के लिए गाँव की भूमि का उपयोग तक वे नहीं कर सकते थे . उनका दूल्हा या दुल्हन घोड़े पर बैठ जाये , यह तो संभव ही नहीं था . जब साँस लेना भी दूभर होने लगा तो अंततः भगाणा  गाँव के 70 दलित परिवारों ने 21 मई 2012 को अपने जानवरों समेत गाँव छोड़ देना ही उचित समझा . वे न्याय की प्रत्याशा में जिला मुख्यालय हिसार स्थित मिनी सचिवालय के पास आ जमें , जहाँ पर उन्होंने विरोध स्वरुप धरना प्रदर्शन शुरू कर दिया . भगाणा  के दलितों ने ग्राम पंचायत के सरपंच से लेकर देश के महामहिम राष्ट्रपति महोदय तक हर जगह न्याय की गुहार लगायी , वे तहसीलदार के पास गए , उपखंड अधिकारी को अपनी पीड़ा से अवगत कराया , जिले के पुलिस अधीक्षक तथा जिला कलेक्टर को अर्जियां दिए . तत्कालीन और वर्तमान मुख्यमंत्री से कई कई बार मिले . विभिन्न आयोगों ,संस्थाओं एवं संगठनों के दरवाजों को खटखटाते रहे ,दिल्ली में हर पार्टी के आलाकमानों के दरवाजों पर दस्तक दी मगर कहीं से इंसाफ की कोई उम्मीद नहीं जगी . उन्होंने अपने संघर्ष को व्यापक बनाने के लिए हिसार से उठकर दिल्ली जंतर मंतर पर अपना डेरा जमाया तथा 16 अप्रैल 2014 से अब तक दिल्ली में बैठ कर पुरे देश को अपनी व्यथा कथा कहते रहे , मगर समाज और राज के इस नक्कारखाने में भगाणा  के इन दलितों  की आवाज़ को कभी नहीं सुना गया . हर स्तर पर , हर दिन वे लड़ते रहे ,पहले उन्होंने घर छोड़ा , फिर गाँव छोड़ा , जिला और प्रदेश छोड़ा और अंततः थक हार कर धर्म को भी छोड़ गए , तब कहीं जाकर थोड़ी बहुत हलचल हुयी है लेकिन अब भी उनकी समस्या के समाधान की बात नहीं हो रही है . अब विमर्श के विषय बदल रहे है ,कोई यह नहीं जानना चाहता है कि आखिर भगाणा  के दलितों को इतना बड़ा कदम उठाने के लिए किन परिस्तिथियों  ने मजबूर किया.

 बहरहाल भगाणा के निराश्रित दलितों द्वारा इस्लाम कबुल किये जाने से देश भर में हडकंप मचा हुआ है| भगाणा  में इसकी प्रतिक्रिया में गाँव में सर्वजाति महापंचायत हुयी है जिसमे हिन्दू महासभा ,विश्व हिन्दू परिषद् तथा बजरंग दल के नेता भी शामिल हुए ,उन्होंने खुलेआम यह फैसला किया है कि –' धर्म परिवर्तन करने वाले लोग फिर से हिन्दू बनकर आयें ,वरना उन्हें गाँव में नहीं घुसने देंगे .' विहिप के अन्तर्राष्ट्रीय महामंत्री डॉ सुरेन्द्र जैन का कहना है कि – 'यह धर्मांतरण पूरी तरह से ब्लेकमेलिंग है ,इसे किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं किया जायेगा .' हिन्दू महासभा के धर्मपाल सिवाच का संकल्प है कि – 'भगाणा  के दलितों की हर हाल में हिन्दू धर्म में वापसी कराएँगे.' धर्मांतरण के तुरंत बाद ही शुक्रवार की रात को हिसार के मिनी सचिवालय के बाहर विगत तीन वर्षों से धरना दे रहे दलितों को हरियाणा पुलिस ने जबरन हटा दिया और टेंट फाड़ दिए हैं . दिल्ली जंतर मंतर पर भी 10 अगस्त की रात को पुलिस ने धरनार्थियों पर धावा बोल दिया ,विरोध करने पर लाठी चार्ज किया गया ,जिससे 11 लोग घायल हो गए है.यहाँ से भी इन लोगों को खदेड़ने का पूरा प्रयास किया गया है . वैसे अधिकांश दलित संगठनों और बुद्धिजीवियों की ओर से उनके धर्मान्तरण का स्वागत ही हुआ है,पर सभी यह भी मान रहे हैं कि धर्मान्तरण से उनकी समस्या का समाधान नहीं होगा.उनकी स्थिति खाई से निकलकर कुएं में गिरने जैसी हो गयी है . धर्मान्तरण के बाद जिस तरह उन्हें हिसार और जंतर मंतर से हटाये जाने का प्रयास हो रहा है तथा जिस तरह उनके गाँव के जाटों और हिंदूवादी संगठनों की और से धमकी मिल रही है,उससे तय है कि उनकी स्थिति पहले से बदतर हुई है.अब वे आरक्षण की सुविधा से भी वंचित होने के लिए अभिशप्त होंगे . पहले से ही संकटग्रस्त उत्पीड़ित दलित और संकट में फँस गए हैं.बहरहाल इस त्रासदी के लिए जिम्मेवार कौन हैं,इसकी तफ्तीश जरुरी है.इसे जानने के लिए एक बार रुख करना पड़ेगा उनके जंतर मंतर कूच पर.

   जाटों के जुल्म से साँस लेना दूभर होने पर भगाणा के अपेक्षाकृत रूप से मजबूत चमार,खाती इत्यादि जाति के 70 दलित परिवार तो हिसार के मिनी सचिवालय में पनाह ले लिए , किन्तु धानुक जैसी कमजोर दलित जाति के लोगों ने गाँव में ही टिके रहने का निर्णय लिया . 23 मार्च,2014 को इन्ही धानुक जाति की चार लड़कियों को भगाणा के दबंगों ने अगवा कर चार दिनों तक सामूहिक बलात्कार किया.आठवीं और नौवीं कक्षा में पढने वाली उन लड़कियों का कसूर यह था कि वे पढना चाहती थीं और उनके अभिभावकों ने इसकी इजाजत दे राखी थी . वहां की दलित महिलाओं को अपने हरम में शामिल मानने की मानसिकता से पुष्ट जाटों को यह गंवारा नहीं हुआ . लिहाजा उन्होंने इन लड़कियों को सजा देकर दलितों को उनकी औकात बता दी . इन पक्तियों के लिखे जाने के दौरान अदालत ने भगाणा कांड के चार आरोपियों को बरी कर दिया है.बहरहाल उस ह्रदय विदारक घटना के बाद जब लड़कियां उनके अभिभावकों को मिलीं,वे उनकी मेडिकल जांच के लिए जिला अस्पताल ले गए जहाँ डाक्टरों ने अनावश्यक बिलम्ब कर घोर असंवेदनशीलता का परिचय दिया. उधर पुलिसवालों ने नाम के वास्ते एफ़आईआर तो किसी तरह दर्ज कर लिया,पर दोषियों का नाम नहीं लिखा .ऐसे हालात में स्थानीय प्रशासन से हताश-निराश भगाणा के शेष दलित इस उम्मीद के साथ 16 अप्रैल,2014 को दिल्ली के धरना-स्थल जंतर मंतर पहुंचे कि जिस तरह मीडिया,सिविल सोसाइटी,न्यायपालिका और युवा वर्ग की सक्रियता से दिल्ली की निर्भया को इन्साफ मिला, वैसा ही कुछ भगाणा की निर्भयाओं को मिलेगा.

   लोग भूले नहीं होंगे कि दिसंबर 2012 में दिल्ली गैंग रेप की शिकार निर्भया को इंसाफ दिलाने के लिए मीडिया ,न्यायपालिका,सिविल सोसाइटी और मध्यम युवा वर्ग ने जमीन  आसमान एक कर दिया था.उसको इन्साफ दिलाने के लिए विजय चौक को बार-बार तहरीर चौक में तब्दील किया गया था,जहां उमड़ी भीड़ ने दुनिया को चौंधिया दिया था.इसका लाभ निर्भया के परिवारजनों और उसके समर्थकों को मिला.उसके कारण महिला सुरक्षा कानूनों में कई बदलाव हुए तथा 1000 करोड़ का बजट निर्भया के नाम पर एलॉट हुआ.निर्भया को इन्साफ दिलाने के लिए अपराधियों को फांसी दो-फांसी दो की आवाज उठी थी जिसे न्यायलय ने काफी हद तक पूरा कर दिया.विजय चौक को तहरीर चौक में तब्दील करने का लाभ  निर्भया  के परिवारजनों को फ़्लैट और लाखों के नकद मुआवजे के रूप में मिला.निर्भया को मिले इन्साफ की गूंज देश के चप्पे-चप्पे तक पहुंची थी जिसका अपवाद भगाणा भी नहीं रहा. लिहाजा जब वहां दिल्ली से भी बड़ा कांड हुआ तब भगाणा के लोग दिल्ली की निर्भया की भांति इन्साफ पाने की उम्मीद में दुष्कर्म की शिकार अपनी बच्चियों के साथ जंतर मंतर पर पनाह लिए , किन्तु इन्साफ उनके लिए मृग मरीचिका साबित हुआ.कारण ,जिन लोगों ने दिल्ली की निर्भया को इन्साफ दिलाने के लिए सर्वशक्ति लगाया था,उन्होंने भगाणा  की निर्भायाओं की ओर मुड़कर ताका भी नहीं . हालांकि सिविल सोसाइटी और मध्यम युवा वर्ग की उपेक्षा के बावजूद भारी संख्या में छात्र-शिक्षक,लेखक-एक्टिविस्ट भगाणा पीड़ितों के साथ जुड़े,पर मीडिया की घोरतर उपेक्षा के कारण तहरीर चौक का माहौल नहीं बन पाया . इससे  दिन ब दिन उनका आन्दोलन कमजोर पड़ते गया जिससे उनकी आवाज सत्ता और न्यायपालिका के बहरे कानों तक नहीं पहुँच पाई , जिसकी शेष परिणति धर्मान्तरण के रूप में सामने आई,जिसके लिए प्रमुख रूप से जिम्मेवार मीडिया-सिविल सोसाइटी - मध्यम वर्ग – न्यायपालिका  है जिसने दिल्ली की निर्भया  को इन्साफ दिलाने में असाधारण तत्परता दिखा कर भगाणा के निर्भयाओं को जंतर मंतर पहुचने के लिए प्रेरित किया.

 सिविल सोसाइटी,मीडिया,न्यायपालिका इत्यादि ने भगाणा पीड़िताओं के प्रति जो बेरुखी दिखाई उसका सटीक प्रतिबिम्बन उन दिनों प्रोफ़ेसर वीरभारत तलवार के लेख –'भगाणा रेप:कुछ सवाल 'में हुआ था,जो 'भगाणा की निर्भायाएं ...'पुस्तक के पृष्ठ 150 पर प्रकाशित हुआ है . उन्होंने लिखा था –'इसी दिल्ली में निर्भया काण्ड के समय उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ गुस्से से उमड़ी हजारों – हजार  की भीड़ इन दलित परिवारों के साथ नहीं दिखाई देती.क्या यह शर्मनाक नहीं है? क्या यह घटना हमें अपनी सारी व्यवस्था पर फिर से सोचने के लिए मजबूर नहीं कर देती ? इन दलित परिवारों का मुट्ठी भर लोगों के सहयोग से लड़ाई को लड़ना और बाकी समाज का निष्क्रिय बने रहना किस मानसिकता को सूचित करता है ? निर्भया कांड के बाद स्त्रियों के खिलाफ हिंसा और बलात्कार सम्बन्धी इतने कड़े कानून बन जाने के बावजूद हरियाणा में दलित स्त्रियों से इतनी बलात्कार की घटनाएं और अपराधियों का  बेख़ौफ़ घूमना कैसे संभव हुआ ? जनतंत्र,प्रशासन,पुलिस ,न्यायालय और इतने सारे बड़े कानूनों के होने के बावजूद,इन सबका दलितों को कोई लाभ नहीं मिल रहा है और उन पर अत्याचार जारी हैं, ऐसा क्यों है?क्यों हमारे राजनीतिक दल इस घटना पर निष्क्रिय बने रहे? सुप्रीम कोर्ट की ओर से भी इस घटना पर अभी तक कोई तत्परता नहीं दिखाई गयी है.ऐसा क्यों? क्यों चारो ओर चुप्पी और निष्क्रियता है ? क्यों इन उत्पीड़ित परिवारों के लिए एक शक्तिशाली आन्दोलन नहीं खड़ा किया गया? क्यों इन्हें लड़ने के लिए असहाय छोड़ दिया गया ? अखबारों ,टीवी चैनलों और पत्रकारों की इस नितांत संवेदनहीनता की क्या वजह हो सकती है ? इन सवालों का कोई जवाब नहीं मिलता सिवाय इसके कि हमारे समाज और जनतंत्र की सभी महत्वपूर्ण संस्थाओं और शक्तियों की संवेदनशीलता उनके वर्गीय और जातिगत स्वार्थों की संकीर्ण सीमाओं से बाहर आने में असमर्थ है. यह बड़ी निराशापूर्ण स्थिति है जो एक हताशापूर्ण स्थिति को जन्म दे रही है.इस बेचैनी का परिणाम क्या निकलेगा?'       

  परिणाम तो फिलहाल यही दिख रहा है कि देश भर में दलित उत्पीड़न का सिलसिला जोर –शोर से जारी है और भगाणा के पीड़ित एक नयी दुनिया में जाने के लिए विवश हैं.बहरहाल  मीडिया-सिविल सोसाइटी-माध्यम युवा वर्ग और न्यायपालिका भले ही भगाणा आन्दोलन की दुखद परिणिति के लिए प्रधान रूप से जिम्मेवार हो,पर दलित नेतृत्व भी इससे बच नहीं सकता . मुझे भगाणा आन्दोलन को बहुत ही करीब से देखने का अवसर मिला . मैं दावे के साथ कहता हूँ कि हर बड़े दलित नेता ने ही इस आन्दोलन की उपेक्षा किया. कोई भी भगाणा पीड़ितों का आंसू पोछने नहीं आया. इनके बीच पहुंचना तो दूर कई बड़े नेताओं  ने तो द्वार पर आये भगाणा पीड़ितों से मिलने तक से  इनकार कर दिया.अगर वे बेशर्मी के साथ भगाणा आन्दोलन से आंखें नहीं मूंदे होते, इसकी यह परिणति शायद नहीं होती.

    बहरहाल ऐसा लगता है भगाणा कांड से बहुत पहले ही दलित नेताओं ने सवर्णपरस्ती के हाथों मजबूर होकर दलित उत्पीड़न से कन्नी काटना शुरू कर दिया था जो धीरे –धीरे अब उसकी आदत में शुमार हो गया है.इसीलिए भगाणा ही नहीं बाद में भी दलित नेतृत्व ने कहीं भी अपनी बलिष्ठ उपस्थिति दर्ज नहीं कराई . अगर कोई अपनी याददाश्त पर जोर दे तो पायेगा कि हाल के दिनों में  मीडिया में निम्न शीर्षक से आईं  दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर  राजनीति को महज जीने खाने –खाने का जरिया बना चुके सवर्णपरस्त दलित नेता , अपना उल्लेखनीय प्रतिवाद जताने में बुरी तरह विफल रहे.घटनाएं हैं-1 - खगडिया बिहार में दलितों के दो गांवो की सभी महिलाओं को नंगा किया, ज्यादातर से बलात्कार और एक महिला की छाती भूमिहार हिन्दूओं  ने काटी,2 - महाराष्ट्र में अंबेडकर पर आधारित रिंगटोन रखने पर दलित युवक की हत्या हिन्दुओं ने की ,3 - बिहार मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के मंदिर जाने से मंदिर जाने से मंदिर अछूत, मंदिर हिन्दुओं ने धोया,4 - दलित प्रोफ़ेसर को बैठने के लिये कुर्सी नही, 5 - 200 दलित परिवारों  को पानी लेने से हिन्दुओं  द्वारा रोका गया ,6 - दलित दूल्हा घोड़े पर बैठा तो उसपर हिन्दुओं  द्वारा पथराव ,7 - दलित ने साथ खाना खा लिया तो हिन्दू ने उसकी नाक कटी ,8 - दलित महिला को गुजरात में बीच चौराहे पर जलाया, 9 – आदिवासी  महिला को डायन बता उसके साथ किया रेप ,10 - आईआईटी मद्रास दलित ग्रुप को हिन्दुओं  के द्वारा बंद किया, 11 - दलित महिलाओं  को हिन्दुओं  ने र्निवस्त्र घुमाया ,12 - दबंगों के डर से दलित परिवार ने छोड़ा गांव, 13 - दलितों को दंबगों के सामने चारपाई पर बैठना महंगा पड़ गया. दंबगों ने दलित के साथ घर में घुसकर मारपीट की ,14 -  अलीराजपुर के गांव में दलित नहीं पी सकते हैंडपंप से आज भी पानी, 15 - पानी भरने पर दलित को जिंदा जलाने की कोशिश ,16 - दलित महिला सरपंच बनी तो हिन्दुओं  ने गोबर खिलाया, 17 - बीएसए ने शैक्षिक दलित ग्रुप को थमाया नोटिस ,18 - नशे में धुत्त दबंगों ने दलित को तेज हथियार से काट डाला, 19 - गुजरात के 77 गांवों में दलितों के मंदिर में प्रवेश पर प्रतिबंध, 20 - दलित युवक को खूंटे से बांध पीटा ,21 - राजस्थान में 4 दलितों  की हत्या एवं महिलाओं के साथ बलात्कार हिन्दुओं ने किया इत्यादि.

  बहरहाल भगाणा व भगाणा उत्तर काल की दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर दलित नेताओं की उपेक्षा का परिणाम धीरे-धीरे सामने आने लगा है.वे अपना स्पेस खोते जा रहे हैं,और दूसरे लोग उनकी जगह लेते जा रहे हैं.मसलन हाल ही में बिहार के लखीसराय और खगड़िया के परबत्ता प्रखण्ड में दलित उत्पीड़न का अत्यंत अमानवीय व भयावह काण्ड हुआ जिसमें आगामी विधानसभा में सवर्णों का वोट खोने के डर से दलित समुदाय के बाघा-बाघा नेताओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज ही नहीं कराइ . किन्तु खाली मैदान देखकर मधेपुरा के सांसद पप्पू यादव उनके  आंसू पोछने गए और हीरो  बनकर उभरे. इसी तरह गत जुलाई में नेपाल के संविधान में वहां के बहुजनों का हर क्षेत्र में प्रतिनिधित्व का प्रावधान कराने हेतु  भारत के दलितों-पिछड़ों का नैतिक समर्थन हासिल करने के लिए नेपाल की ड्राफ्टिंग कमिटी के सदस्य विश्वेन्द्र पासवान ने लखनऊ,दिल्ली,रोहतक,देहरादून के दलित बुद्धिजीवियों को संबोधित किया. नेपाल जैसे जड़ हिन्दू राष्ट्र में जिस तरह वे संविधान में वंचितों के लिए हर क्षेत्र में अनुपातिक भागीदारी का मामला उठा रहे हैं , उसे देखते हुए भारत के दलितों ने नेपाल का आंबेडकर कहकर आदर दिया. अगर भारत के दलित नेता अपने समाज की समस्यायों से बुरी तरह विमुख न होते तो दलित समाज के लोग शायद गैर-दलित पप्पू यादव और विदेशी विश्वेन्द्र पासवान के प्रति इतना प्रेम कतई नहीं उडेलते . इसमें कोई शक नहीं कि अपने समाज की नज़रों में पहले से ही गिरे दलित नेताओं के प्रति , भगाणा की दुखद परिणति ने समाज के बचे-खुचे सम्मान में और कमी ला दिया है . क्या दलित नेतृत्व इसके बाद दलित उत्पीड़न के प्रति गंभीर होगा?        

दिनांक:13.8.2015

(लेखक 'भगाणा की निर्भायाएं ... ' पुस्तक के प्रधान सम्पादक हैं)

                                                                                      


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