Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti basu is DEAD

Jyoti Basu: The pragmatist

Dr.B.R. Ambedkar

Memories of Another Day

Memories of Another Day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Saturday, August 15, 2015

रवीन्द्रनाथ ठाकुर का पत्र 'जनगण मन'

रवीन्द्रनाथ ठाकुर का पत्र 'जनगण मन'

(आज कुछ मित्रों ने बहुत हैरत में डालनेवाला सवाल किया कि क्या यह सच है कि 'जनगण मन' गीत रवीन्द्रनाथ ने वर्ष 1911 में जाॅर्ज पंचम के भारत आगमन पर उनकी स्तुति में लिखा था; केवल यही नहीं, उन्होंने ख़ुद यह गीत उनके समक्ष गाया भी था? इस सवाल ने न केवल मुझे डरा दिया बल्कि एक बार फिर से अफ़वाह की ताक़त का एहसास कर दिया। मैं लोगों की आँखों पर पड़े झूठ के पर्दे को हटाने के उपक्रम में सुविख्यात रवीन्द्र साहित्य विशेषज्ञ पुलिनविहारी सेन को इसी संदर्भ में लिखी रवीन्द्रनाथ की एक चिट्ठी का उल्लेख करना चाहता हूँ। मित्रों से मेरा निवेदन है कि इसे आप अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाएँ ताकि कुहासे की धुंध छँटे और रवि बाबू पर से इस तोहमत का साया दूर हो सके।  -- उत्पल बैनर्जी)

प्रियवर,

तुमने पूछा है कि 'जनगण मन' गीत मैंने किसी ख़ास मौक़े के लिए लिखा है या नहीं। मैं समझ पा रहा हूँ कि इस गीत को लेकर देश में किसी-किसी हलक़े में जो अफ़वाह फैली हुई है, उसी प्रसंग में यह सवाल तुम्हारे मन में पैदा हुआ है। फ़ासिस्टों से मतभेद रखने वाला निरापद नहीं रह सकता, उसे सज़ा मिलती ही है, ठीक वैसे ही हमारे देश में मतभेद को चरित्र का दोष मान लिया जाता है और पशुता भरी भाषा में उसकी निन्दा की जाती है -- मैंने अपने जीवन में इसे बार-बार महसूस किया है, मैंने कभी इसका प्रतिवाद नहीं किया। तुम्हारी चिट्ठी का जवाब दे रहा हूँ, कलह बढ़ाने के लिए नहीं। इस गीत के संबंध में तुम्हारे कौतूहल को दूर करने के लिए। 

एक दिन मेरे परलोकगत मित्र हेमचन्द्र मल्लिक विपिन पाल महाशय को साथ लेकर एक अनुरोध करने मेरे यहाँ आए थे। उनका कहना यह था कि विशेष रूप से दुर्गादेवी के रूप के साथ भारतमाता के देवी रूप को मिलाकर वे लोग दुर्गापूजा को नए ढंग से इस देश में आयोजित करना चाहते हैं, उसकी उपयुक्त भक्ति और आराधना के लिए वे चाहते हैं कि मैं गीत लिखूँ। मैंने इसे अस्वीकार करते हुए कहा था कि यह भक्ति मेरे अंतःकरण से नहीं हो सकेगी, इसलिए ऐसा करना मेरे लिए अपराध-जैसा होगा। यह मामला अगर केवल साहित्य का होता तो फिर भले ही मेरा धर्म-विश्वास कुछ भी क्यों न हो, मेरे लिए संकोच की कोई वजह नहीं होती -- लेकिन भक्ति के क्षेत्र में, पूजा के क्षेत्र में अनधिकृत प्रवेश गर्हित है। इससे मेरे मित्र संतुष्ट नहीं हुए। मैंने लिखा था 'भुवनमनोमोहिनी', यह गीत पूजा-मण्डप के योग्य नहीं था, यह बताने की ज़रूरत नहीं है। दूसरी ओर इस बात को भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि यह गीत भारत की सार्वजनक सभाओं में भी गाने के लिए उपयुक्त नहीं है, क्योंकि यह कविता पूरी तरह हिन्दू संस्कृति के आधार पर लिखी गई है। ग़ैरहिन्दू इसे ठीक से हृदयंगम नहीं कर सकेंगे। मेरी कि़स्मत में ऐसी घटना एक बार फिर घटी थी। उस साल भारत के सम्राट के आगमन का आयोजन चल रहा था। राज सरकार में किसी बड़े पद पर कार्यरत मेरे किसी मित्र ने मुझसे सम्राट की जयकार के लिए एक गीत लिखने का विशेष अनुरोध किया था। यह सुनकर मुझे हैरानी हुई थी, उस हैरानी के साथ मन में क्रोध का संचार भी हुआ था। उसी की प्रबल प्रतिक्रियास्वरूप मैंने 'जनगण मन अधिनायक' गीत में उस भारत भाग्यविधाता का जयघोष किया था, उत्थान-पतन में मित्र के रूप में युगों से चले जा रहे यात्रियों के जो चिर सारथी हैं, जो जनगण के अंतर्यामी पथ परिचायक हैं, वे युगयुगांतर के मानव भाग्यरथचालक जो पंचम या षष्ठ या कोई भी जाॅर्ज किसी भी हैसियत से नहीं हो सकते, यह बात मेरे उन राजभक्त मित्र ने भी अनुभव की थी। क्योंकि उनकी भक्ति कितनी ही प्रबल क्यों न रही हो, उनमें बुद्धि का अभाव नहीं था। आज मतभेदों की वजह से मेरे प्रति क्रोध की भावना का होना, दुश्चिन्ता की बात नहीं है, लेकिन बुद्धि का भ्रष्ट हो जाना एक बुरा लक्षण है। 

इस प्रसंग में  और एक दिन की घटना याद आ रही है। यह बहुत दिन पहले की बात है। उन दिनों हमारे राष्ट्रनायक राजप्रासाद के दुर्गम उच्च शिखर से प्रसादवर्षा की प्रत्याशा में हाथ फैलाए रहते थे। एक बार कहीं पर वे कुछ लोग शाम की बैठक करने वाले थे। मेरे परिचित एक सज्जन उनके दूत थे। मेरी प्रबल असहमति के बावजूद वे मुझे बार-बार कहने लगे कि मैं यदि उनके साथ नहीं गया तो महफि़ल नहीं जमेगी। मेरी वाजिब असहमति को अंत तक बरक़रार रखने की शक्ति मुझे विधाता ने नहीं दी। मुझे जाना पड़ा। जाने के ठीक पहले मैंने निम्नांकित गीत लिखा था --
''मुझे गाने के लिए न कहना ...'' 
इस गीत को गाने के बाद फिर महफि़ल न जम सकी। सभासद बुरा मान गए। 

बार-बार चोट खाकर मुझे यह समझ में आया कि बादलों की गति देखकर हवा के रुख़ का अनुसरण कर सकें तो जनसाधारण को खु़श करने का रास्ता सहज ही मिल जाता है, लेकिन हर बार वह श्रेयस्कर रास्ता नहीं होता, सच्चाई का रास्ता नहीं होता, यहाँ तक कि चलतेपुर्ज़े कवि के लिए भी वह आत्मा की अवमानना का पथ होता है। इस मौक़े पर मनु के एक उपदेश की याद आ रही है जिसमें उन्होंने कहा है -- सम्मान को ज़हर-जैसा मानना, और निंदा को अमृत-जैसा मानना। इति।

10.11.1937                                    शुभार्थी
                                 रवीन्द्रनाथ ठाकुर 
श्री  विनीत तिवारी  के सौजन्य  से

--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

No comments:

Post a Comment