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Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Tuesday, August 11, 2015

इस देश में संघर्ष कोई करेगा, संघर्ष पर लिखेगा कोई और जबकि संघर्ष के लिए नीतियां कोई तीसरा बनाएगा। सबका काम तय कर दिया गया है। नारे लगाने वाले को संघर्ष की रणनीति बनाते समय पूछा जाएगा, इस गफ़लत में न रहें। इसके उलट नारे लगाने वाले को बदनाम ज़रूर कर दिया जाएगा। सब मिले हुए हैं। सब के सब...।


कुछ माह पहले एक केस के सिलसिले में पत्रकारों के कानूनी अधिकार पर अधिवक्‍ता कोलिन गोंजाल्विस के एनजीओ एचआरएलएन में बैठक हुई। बैठक में मीडिया और पत्रकारों की आज़ादी व कानून पर एक राष्‍ट्रीय सेमिनार की परिकल्‍पना बनी। एक संगठन बनाने का आइडिया आया। दो दिन का वह प्रस्‍तावित राष्‍ट्रीय सेमिनार कल ही खत्‍म हुआ। रायसीना के जंगल में मोर नाच लिया। किसी ने नहीं देखा। जिन्‍होंने देखा, उनमें इक्‍का-दुक्‍का को छोड़ कोई किसी को नहीं जानता। प्रेस क्‍लब ऑफ इंडिया, महिला प्रेस क्‍लब, डीयूजे, मुंबई प्रेस क्‍लब, एचआरएलएन और आइएफडब्‍लूजे ने मिलकर प्रेस क्‍लब में मीडिया की आज़ादी और पत्रकारों के कानूनी अधिकार पर दो दिन का जो राष्‍ट्रीय परामर्श आयोजित करवाया, उसकी औपचारिक या अनौपचारिक कोई भी सूचना पत्रकार बिरादरी को नहीं दी गई। वक्‍ताओं में पुराने यूनियनबाज़ के. विक्रम राव, अख़बार मालिक अपूर्व जोशी, कार्टूनबाज़ असीम त्रिवेदी, एकाध सेलिब्रिटी वाम महिलाएं, उत्‍तराखण्‍ड परिवर्तन दल के पी.सी. तिवारी जैसे पत्रकारिता के लिहाज से अप्रासंगिक नाम शामिल थे। हिंदी या भाषायी पत्रकारों की नुमाइंदगी शून्‍य के करीब थी। कहते हैं आयोजन सफल रहा और संगठन भी बन गया।

एक और किस्‍सा। मुझसे चुनावी मौसम में उग आए नए चैनलों के घपले पर एक लेख लिखने को कहा गया। मैंने लिखकर दे दिया। हाथ में अंक आया तो देखा कि वह तो पत्रकारिता विशेषांक था-''प्रेस का पंचनामा''। विशेषांक की बात मुझे नहीं बताई गई थी। मुझे यदि पता होता कि पत्रकारीय नैतिकता पर सामूहिक उपदेश देने के लिए 'तहलका' प्रेस का पंचनामा करने जा रहा है, तो सबसे पहले मैं उसका पंचनामा करता कि वहां कर्मचारियों को कुछ महीने से वेतन क्‍यों नहीं दिया जा रहा। तरुण तेजपाल के पंक में डूबी पत्रिका आखिर किस नैतिक ज़मीन पर खड़े होकर ऐसा अंक निकाल सकती है? आश्‍चर्य, कि जिन्‍होंने भी इसमें प्रिंट पत्रकारिता पर लेख लिखे हैं, उन्‍होंने तहलका पर एक भी टिप्‍पणी नहीं की है। क्‍या उन्‍हें भी विशेषांक की सूचना देने के बजाय एक स्‍टैंड अलोन लेख की मांग की गई थी या फिर वे लेखक यह जानते हुए भी चतुराई बरत गए?

मुझे लगता है कि हमारे जैसे लोग वामपंथी कारसेवक बनकर रह गए हैं। हम लिखेंगे, नारा लगाएंगे, धरने में जाएंगे, लेकिन राष्‍ट्रीय सेमिनार/संगठन आदि में चुपके से भुला दिए जाएंगे। हमसे आइडिया लिया जाएगा, लेख लिखवाया जाएगा, लेकिन बगैर यह बताए कि सारी कवायद उलटे चोर को कोतवाल बनाने के लिए की जा रही थी। इस देश में संघर्ष कोई करेगा, संघर्ष पर लिखेगा कोई और जबकि संघर्ष के लिए नीतियां कोई तीसरा बनाएगा। सबका काम तय कर दिया गया है। नारे लगाने वाले को संघर्ष की रणनीति बनाते समय पूछा जाएगा, इस गफ़लत में न रहें। इसके उलट नारे लगाने वाले को बदनाम ज़रूर कर दिया जाएगा। सब मिले हुए हैं। सब के सब...।

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  • अजित कुमार प्रिंट पत्रकारिता कब निकलेगा ....इंतज़ार रहेगा ।आपकी बेबाकी को सलाम ।
    7 hrs · Like
  • Pankaj Srivastava अतुल भाई, अभिधा में समझने की मजबूरी थी क्योंकि व्यंजना में वाक्य चमकदार होने के बावजूद अर्थ स्पष्ट नहीं करता। जिस आयोजन में प्रेसक्लब समेत 4-5 पत्रकार संगठन शामिल हों उसमें पर्दादारी कैसे संभव है ? कहाँ है दिन का उजाला व्यंजना में भी। और यह पीठ किसकी है और उसे कौन खुजा रहा है, किस हेतु। प्रकाश डालें ।
    7 hrs · Edited · Like
  • Abhishek Srivastava अंधेरे में क्‍या पता पीठ किसकी है, हाथ किसका। smile emoticon
    7 hrs · Like · 2
  • Vikas Kumar Abhishek Srivastava मैं भी एक हाउस की बातें यहां डिस्कस नहीँ करना चाहता। बस एक दो बातें आपके सामने रखना चाहता हूँ। जब तरूण जी वाली दिक्कत हुई थी उसके अगले ही अंक में इस मसले पर संपादकीय लिखा गया था। आप उस संपादकीय को पढ़िएगा। मेरी समझ में उस मसले पर इससे बड़ा कोई स्टैन्ड नहीँ हो सकता था। रही बात एक ऎसे संस्थान में लिखने का जिसपर दाग लग चुका है तो यह आपकी आज़ादी है। हां आपने जिस तरह से सार्वजनिक तौर पर हम साथियों की परेशानी को डिस्कस किया है उससे मुझे तो दुःख हुआ ही है। आप चाहते तो हमें कभी फोन कर लेते। पूछ लेते कि कैसे काम कर रहे हो? लेकिन नहीँ आपके लिए यह एक मसला भर है। आपने इसपर बोल लिया तो आपकी साफगोई की धार और मजबूत हुई। हम इससे जूझ रहे हैं। स्थिति को ठीक करने की कोशीश कर रहे हैं।
    7 hrs · Like · 1
  • Vikas Kumar ताक़ि आपके ही शब्दों में अच्छी स्टोरी लिखने की कमसेकम एक जगह बची रहे। आप समझ रहे हैं न?
    7 hrs · Like
  • Swatantra Mishra Abhishek Srivastava अभिषेक श्रीवास्तव जी मैं आपकी लेखनी और विरोध करने की प्रवृत्ति का कायल रहा हूं लेकिन कई बार लोग लिखने और विरोध करने में चूक जाते हैं. अब जबकि हम दूसरा अंक प्रेस में भेजने की तैयारी में लगे हैं तब अचानक आपको पत्रकारिता विशेषांक निकाले जाने की जानकारी नहीं दी गयी थी- के बारे में यकायक पता लगा और आप विरोध दर्ज कराने लग गए. हमने आपको ही नहीं बल्कि सभी को इस बात को जानकारी दी थी कि हम पत्रकारिता विशेषांक निकाल रहे हैं. अनिल चमड़िया, आनंद प्रधान, शम्‍भूनाथ शुक्ल, दिलीप मंडल, अविनाश दास से लेकर मुकेश कुमार तक सभी को यह कहकर ही हमने लेख मांगे थे. तो आपको न बताने का क्या औचित्य रहा होगा? जिक्र न करने का प्रमाण न आप दे सकते हैं और जिक्र किया था का प्रमाण न हम दे सकते हैं. आपने पत्रकारिता विशेषांक के अच्छा होने की बात मैसेज भी की है. अभिषेक भाई बतकुच्चन से कुछ बनने की बजाय बिगड़ती ज्यादा है. आप ऐसा कहकर क्या साबित करना चाहते हैं. मुझे लगता है कि आप जुते हुए बैल की नाक पर मक्‍खी दौड़ाने में व्यस्‍त न हों. यह मेरी आपको दोस्ताना सलाह है, बाकी आपकी मर्जी.
    7 hrs · Like
  • Abhishek Srivastava मैं जानता हूं विकास जी कि काम कितने संकट में हो रहा है। संपादकीय मैंने पढ़ा है, उसका कायल भी हूं। सारे संस्‍थानों का संकट दिन के उजाले में है तो तहलका पर भी बात होनी चाहिए। दिक्‍कत क्‍या है। मेरे लिए यह मसला भर नहीं है। पूछ कर देखिए स्‍वतंत्र मिश्रा से कि शुक्रवार के मामले में मैं केवल लिखने तक सीमित नहीं था। आप हाथ बढ़ाइए, दावा है सबसे पहले मैं थामूंगा।
    7 hrs · Like · 1
  • Abhishek Srivastava स्‍वतंत्र भाई, आप ठीक कह रहे हैं कि मैं प्रमाण नहीं दे सकता। अंक मिलने के बाद पहली फुरसत में इस बात को उठाने की दूसरी वजह आपको समझ में आए तो जरूर बतावें, सिवाय इस शिकायत के कि इस अंक में तमाम संस्‍थानों के साथ तहलका का जिक्र क्‍यों नहीं है। मेरी बस इतनी सी जिच है। आप उसे मक्‍खी कह सकते हैं। विकासजी, अच्‍छी स्‍टोरी लिखने की जगह वाली बात कर के आप हलके हो लिए। आपको वास्‍तव में लगता है कि मुझे जगह की दरकार है? चार साल से खाली बैठा हूं लेकिन जगह कम किए जा रहा हूं अपनी जिद से। हलकी बातें मत कीजिए।
    7 hrs · Like · 2
  • Abhishek Srivastava Vikas Kumar आप खुद बताएं कि तहलका छोड़ने की आपकी वजह क्‍या रही? आपने किसी मंच पर अब तक तहलका के संकट पर बात क्‍यों नहीं की? किसे बचाने में लगे हैं? क्‍या केवल रोजगार महफूज़ रखने के नाम पर अपनी ज़बान सबने बंद कर रखी है कि सबके संकट पर बात हो, लेकिन तहलका पवित्र गाय बना रहे?
    7 hrs · Like · 1
  • Pankaj Srivastava मित्रो से अनुरोध है कि निजी मसलों पर बहस करके कुछ हासिल नहीं होगा। वाकई मुश्किल वक्त है। किसी एक बेहद कठिन कसौटी पर सबको कस कर खारिज कर देने में थोड़ी देर के लिए बहस जीत लेने का सुख मिल सकता है, लेकिन बड़ा मोर्चा कमज़ोर होगा। यह वक्त शायद यह देखने का ज्यादा है कि कौन कितनी दूर तक किस तरह सहयोगी हो सकता है। वरना तो 24 कैरेट के क्रांतिकारियों का इंतज़ार करते रहिये, वे भी किसी समय दो, चार, दस, 15 कैसेट के ही होते हैं।
    7 hrs · Like · 4
  • Vikas Kumar Abhishek Srivastava: रेल में हूँ। एक बार बड़ा जवाब लिख चुका हूँ लेकिन पोस्ट नहीँ हुआ और दोबारा लिखना पड़ रहा है सो छोटा ही लिखूँगा। पहली बात, मैंने कोई हल्की बात नहीं की है। मैंने वहीँ कहा है जो आपने कहा। अगर आपने अच्छी स्टोरी वाली बात को कटाक्ष के तौर पर ले लिया है तो माफ लीजिएगा ये आपकी परेशानी है। मेरा ऐसा कोइ मकसद नहीँ था। दूसरी, मेरे छोड़ने की वजह अगले कुछ दिन में सार्वजनिक हो जाएगी। इससे इसका कोई लेना-देना नहीं है। मेरे कई साथी अभी भी वहां हैं और उनके माधयम से मैं भी जुड़ा हुआ हूं। तीसरी बात, रोजगार महफूज रखने की। तहलका में एक स्टाप है-ओपी। ओपी अपने काम ने बहुत निपुण है। बहुत अच्छी चाय बनाता है। ओपी की काबलियत और व्यवहार के कायल सभी साथी हैं। रोजगार का संकट तो ओपी को भी नहीं है। वजह वह अपना काम करना जानता है। बाकियों की तो आप रहने ही दीजिए। चौथी और अंतिम बात, मेरे वरिष्ठों ने ऐसा कोई मंच नहीं बना रखा है जहां ऐसे मुद्दे को उठाया जाए और हल खोजा जाए। फेसबुक पर उठाने का कोई मतलब नहीँ है। हूँआ-हूँआ से ज्यादा यहाँ कुछ संभव नहीं है और ऐसे में अपना भरोसा नहीँ है। हम तो लगातार ऐसा काम करना चाहते हैं जिसे आपके जैसा बड़ा आलोचक कभी शेयर कर दे या उसके बारे में दो शब्द लिख दे।
    6 hrs · Like · 1
  • Abhishek Srivastava विकासजी, आप कह रहे हैं कि आपके वरिष्ठों ने ऐसा कोई मंच नहीं बना रखा है जहां ऐसे मुद्दे को उठाया जाए और हल खोजा जाए। मेरे पोस्ट ‍का पहला अंश ऐसे ही एक मंच के बारे में है जिसके बारे में हमारे वरिष्ठों में एक पंकजजी का कहना है कि बड़ा मोर्चा कमज़ोर नहीं किया जाए। मेरे लिहाज से मंच हो या न हो, जहां जगह मिले बात होनी चाहिए। आप उसे हुआं हुआं बेशक कहें, बेमतलब बेशक कहें, लेकिन बिना भरोसे के भी आप यहां बात कर ही रहे हैं। काबिलियत आदि बातें मुझे अजीब लगती हैं। इसी काबिलियत के नाम पर नब्‍बे के दशक में बहुत युवाओं की जान गयी थी। आज भी आग लगी है। ख़ैर, आप लोग अगर आहत हुए हैं मेरी बात से तो इसे हुआं हुआं मानकर भूल जाइए। निजी तकरार से क्‍या हासिल। आप अपना काम करते रहिए, मैं अपना काम करता रहूंगा। मेरा काम तो आप जानते ही होंगे क्‍या है। हुआं हुआं करना! शुभ यात्रा।
    6 hrs · Like · 1
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