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Saturday, October 29, 2011

असंतोष का कारवां

असंतोष का कारवां

आनंद प्रधान

कोई दो दशक पहले सोवियत संघ के विघटन को पूंजीवाद की अंतिम विजय बताते हुए फ्रांसिस फुकुयामा ने 'इतिहास के अंत' की घोषणा कर दी थी। इस बीच, मिसीसिपी से लेकर टेम्स में बहुत पानी बह चुका है और इतिहास अमेरिका के पिछवाडेÞ में नहीं बल्कि खुद पूंजीवाद के दुर्ग अमेरिका और यूरोप में करवट लेता हुआ दिखाई दे रहा है। अगर इतिहास सड़कों पर बनता है तो हजारों-लाखों लोग बड़ी कॉरपोरेट पूंजी के लगातार बढ़ते वर्चस्व को चुनौती देते हुए सिएटल से सिडनी तक और न्यूयार्क से लंदन तक सड़कों पर इतिहास बना रहे हैं। स्वाभाविक तौर पर इससे पूंजीवाद के अग्रगामी किलों में उथल-पुथल और घबराहट का माहौल है।  
हालांकि यह कहना मुश्किल है कि '1फीसद बनाम 99 फीसद' की इस जोर-आजमाइश में फिलहाल इतिहास किस करवट बैठेगा, लेकिन इतना साफ  है कि शीघ्र मृत्यु की घोषणाओं के बावजूद 'वाल स्ट्रीट पर कब्जा करो' (आकुपाई द वॉल स्ट्रीट) आंदोलन न सिर्फ टिका हुआ है बल्कि लगातार फैल रहा है। अमेरिका में बढ़ती गैर-बराबरी, बेरोजगारी, आम लोगों के लगातार गिरते जीवनस्तर और इस सब के लिए कॉरपोरेट लालच और लूट को जिम्मेदार मानते हुए राजनीतिक सत्ता पर बड़ी कॉरपोरेट पूंजी के आक्टोपसी कब्जे के खिलाफ 'वाल स्ट्रीट पर कब्जा' आंदोलन को शुरू हुए डेढ़ महीने से अधिक हो गए हैं। 
इस बीच यह आंदोलन न्यूयार्क में आवारा पूंजी के गढ़ वाल स्ट्रीट से निकल कर न सिर्फ पूरे अमेरिका में फैल गया है बल्कि अक्तूबर के मध्य में दुनिया भर के नौ सौ से ज्यादा शहरों खासकर यूरोप में जबर्दस्त प्रदर्शन हुए हैं। इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि मौजूदा आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ लोगों में कितना गुस्सा है। शुरू में जिस आंदोलन को यह कह कर अनदेखा करने की कोशिश की गई कि यह आर्थिक मंदी और उससे निपटने के लिए सरकारी खर्चों में कटौती के खिलाफ तात्कालिक भड़ास का प्रदर्शन है और इस अराजक-दिशाहीन भीड़ के गुबार को बैठने में देर नहीं लगेगी, उसने कई कमजोरियों के बावजूद देखते-देखते आम जनमानस को इस तरह छू लिया है कि उसे अब और फैलने से रोकने में सरकारों के पसीने छूट रहे हैं। न्यूयार्क में वॉल स्ट्रीट के पास लिबर्टी पार्क में जो लोग डेरा-डंडा डाले बैठे हैं, उनकी संख्या भले कम हो लेकिन उनके उठाए सवालों और मुद््दों का अमेरिका में ही नहीं, पूरी दुनिया में असर साफ दिखाई पड़ने लगा है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में पिछले कुछ दिनों में मीडिया समूहों द्वारा कराए गए विभिन्न जनमत सर्वेक्षणों में कोई तैंतालीस से पचपन फीसद नागरिकों ने वाल स्ट्रीट कब्जा आंदोलन की ओर से उठाए गए मुद््दों का समर्थन किया है। 
यह सही है कि इस आंदोलन में वैचारिक, राजनीतिक और सांगठनिक तौर पर कई अंतर्विरोध, कमजोरियां और समस्याएं हैं। इसकी एक बड़ी कमजोरी यह है कि इसका कोई नेता नहीं है और न ही इसका कोई मांगपत्र है। यह भी कि इस आंदोलन के प्रति मौखिक समर्थन के बावजूद संगठित राजनीतिक-सामाजिक समूह, मसलन ट्रेड यूनियन, अभी दूरी बनाए हुए हैं। लेकिन इसकी सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि यह पूंजीवादी व्यवस्था के प्रति सवाल उठाने के बावजूद उसे पूरी तरह से चुनौती देने खासकर उसका ठोस राजनीतिक विकल्प पेश करने से बच रहा है। इस कारण इस आंदोलन के मौजूदा व्यवस्था और खासकर अगले राष्ट्रपति चुनावों में डेमोक्रेटिक पार्टी द्वारा इस्तेमाल कर लिए जाने की आशंका जताई जा रही है। 
लेकिन इस आंदोलन में संभावनाएं भी बहुत हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस आंदोलन ने 1 फीसद बनाम 99 फीसद की बहस शुरू कर दी है। सवाल उठ रहा है कि एक ओर एक फीसद सुपर अमीरों की धन-संपदा में रिकार्डतोड़ बढ़ोतरी हो रही है, लेकिन दूसरी ओर बाकी 99 फीसद लोगों की आर्थिक-सामाजिक हालत बद से बदतर होती जा रही है।
जाने-माने अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिग्लिट्ज के मुताबिक, 'अमेरिका में सबसे अधिक अमीर यानी एक फीसद अभिजात लोग देश की कुल संपदा का चालीस फीसद नियंत्रित करते हैं।' उनके अनुसार, इसके कारण अमेरिकी राजनीतिक-आर्थिक तंत्र 'एक फीसद की, एक फीसद द्वारा और एक फीसद के लिए' की व्यवस्था बन गया है। 
अमेरिका में अमीर और गरीब के बीच की खाई और चौड़ी और गहरी हुई है। इसका अंदाजा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि देश की कुल आय में से एक चौथाई आय सुपर अमीर हड़प लेते हैं और सर्वाधिक अमीर दस फीसद लोग कुल राष्ट्रीय आय के पचास फीसद पर कब्जा कर लेते हैं। नतीजा यह कि एक फीसद सुपर अमीरों की कुल वित्तीय संपत्ति देश के अस्सी फीसद आम अमेरिकियों की कुल वित्तीय संपत्ति के चार गुने से अधिक है। यही नहीं, 'फोर्ब्स' की सूची में शामिल सबसे अमीर चार सौ अमेरिकियों की कुल संपत्ति देश के पचास फीसद आम लोगों की कुल संपत्ति के बराबर है। 
मगर मुद््दा सिर्फ यह नहीं है कि एक फीसद अमीर और अमीर हो रहे हैं बल्कि लोगों के गुस्से का बड़ा कारण यह है कि यह उनकी कीमत पर हो रहा है। जहां एक फीसद सुपर अमीरों का देश की कुल चालीस फीसद संपदा पर कब्जा है, वहीं नब्बे फीसद लोगों पर कुल कर्ज के तिहत्तर फीसद का बोझ है। इसलिए हैरत की बात नहीं कि 2007-08 में 'हाउसिंग बूम' के बुलबुले के फूटने के बाद लाखों अमेरिकी नागरिकों को अपने गिरवी पर रखे घर गंवाने पड़े हैं। वित्तीय संकट और मंदी


के कारण लाखों लोगों की नौकरियां चली गर्इं, बेरोजगारी असहनीय हो गई है   और भारी कर्ज लेकर उच्च शिक्षा हासिल करने वाले लाखों नौजवानों के सामने भविष्य अनिश्चित है। 
अमेरिका में पिछले दो-ढाई दशक में जब अमीरों की संपत्ति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही थी, उस दौरान आम लोगों की वास्तविक आय में कोई वृद्धि नहीं हुई। इसकी वजह वे नवउदारवादी आर्थिक नीतियां हैं जो सत्तर के दशक के आखिरी वर्षों में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर की अगुआई में बेरहमी से लागू की गर्इं। यह दौर निजीकरण और वि-नियमन (डी-रेगुलेशन) का था जिसमें एक तरह से अर्थव्यवस्था पूरी तरह से आवारा वित्तीय पूंजी और उसके वॉल स्ट्रीट में बैठे नियंताओं के हाथों में सौंप दी गई। राज्य और राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान की भूमिका इस पूंजी की सेवा और चाकरी तक सीमित रह गई। लेकिन इस आवारा वित्तीय पूंजी को सिर्फ मुनाफे, और अधिक मुनाफे, उससे अधिक मुनाफे की चिंता थी। इस दौर में वॉल स्ट्रीट का नारा और ध्येय-वाक्य 'लालच अच्छी चीज है' (ग्रीड इज गुड) बन गया। नतीजा, वॉल स्ट्रीट में मुनाफे की हवस ऐसी बढ़ती चली गई कि पैसे से पैसा बनाने की होड़ शुरू हो गई। वास्तविक उत्पादन और अर्थतंत्र पीछे चला गया और आवारा वित्तीय पूंजी की अगुवाई में सट््टेबाजी सबसे प्रमुख आर्थिक गतिविधि हो गई। 
यह वही दौर था जब कॉरपोरेट मीडिया में वॉल स्ट्रीट की सट््टेबाजी और वित्तीय जोड़तोड़ को वित्तीय इंजीनियरिंग और नवोन्मेषीकरण बता कर उनकी बलैयां ली जा रही थीं। इस बीच, राजनीतिक और कॉरपोरेट जगत का रिश्ता इतना गहरा हो चुका था कि दोनों के बीच का दिखावटी फर्क भी खत्म हो गया। बडेÞ बैंकों-वित्तीय संस्थाओं और कॉरपोरेट समूहों के बोर्डरूम से सीधे मंत्रिमंडल और मंत्रिमंडल से सीधे बोर्डरूम के बीच की आवाजाही सामान्य बात हो गई। जाहिर है कि सरकारों और नौकरशाही का मुख्य काम कंपनियों के अधिक से अधिक मुनाफे की गारंटी 
के लिए उनके 
अनुकूल नियम-कानून बनवाना, नियमन (रेगुलेशन) को ढीला और अप्रभावी बनाना और कंपनियों को मनमानी की खुली छूट देना रह गया। 
इस बीच, आवारा वित्तीय पूंजी की मुनाफे की हवस और उसके लिए सट््टेबाजी की लत ने मैक्सिको, दक्षिण पूर्वी एशिया, रूस से लेकर अर्जेंटीना तक दर्जनों देशों की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं को गंभीर संकट में फंसा दिया लेकिन वॉल स्ट्रीट की असीमित वित्तीय ताकत और राजनीतिक प्रभाव के कारण किसी ने चूं तक नहीं की। यही नहीं, वाल स्ट्रीट के पिछलग्गू बन चुके विश्व बैंक-मुद्राकोष ने इन देशों को वित्तीय संकट से निकालने के नाम पर और भी अधिक निजीकरण, उदारीकरण और सरकारी खर्चों में कटौती की कड़वी दवाई पीने के लिए मजबूर किया। 
दूसरी ओर, अफ्रीका, एशिया और लातिन अमेरिका में विदेशी निवेश आमंत्रित करने के नाम पर देशी-विदेशी कंपनियों को प्राकृतिक संसाधनों की लूट की खुली छूट दे दी गई। निजीकरण की खातिर सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की औने-पौने दामों पर खरीद और स्वास्थ्य-शिक्षा जैसी सार्वजनिक सेवाओं को निजी हाथों में सौंपने को खुशी-खुशी मंजूरी दी गई। यहां तक कि विश्व व्यापार संगठन में हुए समझौतों के जरिए अर्थव्यवस्था के कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में राष्ट्रीय सरकारों और संसद से कानून और नीतियां बनाने का अधिकार भी छीन लिया गया। इस दौर में जब वॉल स्ट्रीट से लेकर दलाल स्ट्रीट तक कंपनियों के मुनाफे में रिकार्डतोड़ बढ़ोतरी हो रही थी, देशों के अंदर और वैश्विक स्तर पर गैर-बराबरी, गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी बढ़ रही थी।
आखिरकार वॉल स्ट्रीट की कंपनियों के अंतहीन लालच और मुनाफे की भूख ने 2007-08 में खुद अमेरिका और यूरोपीय देशों को वित्तीय संकट और मंदी में फंसा दिया। इस संकट ने विकसित पश्चिमी देशों में भी आवारा पूंजी के असली चरित्र और उनकी कारगुजारियों को सामने ला दिया। इसके बावजूद वॉल स्ट्रीट की ताकत और प्रभाव देखिए कि उसने अमेरिकी राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान को अपने नुकसानों की भरपाई के लिए मजबूर कर दिया। वित्तीय व्यवस्था को ढहने से बचाने के नाम पर वॉल स्ट्रीट की कंपनियों को सरकारी खजाने से अरबों डॉलर के 'बेल आउट' (बचाव पैकेज) दिए गए। एक अनुमान के मुताबिक, अमेरिका ने वॉल स्ट्रीट की कंपनियों को डूबने से बचाने के लिए कोई सोलह खरब डॉलर का बेल आउट दिया। 
यह और कुछ नहीं, निजी कंपनियों के घाटे को सरकारी खाते में डालना था। मतलब यह कि आवारा पूंजी और उनकी कंपनियों की सट््टेबाजी और धांधली का बोझ आम लोगों पर डाल दिया गया क्योंकि सरकारी घाटे की भरपाई के लिए खर्चों में कटौती के नाम पर आमलोगों की बुनियादी जरूरतों के बजट में कटौती शुरू हो गई। हैरानी की बात यह है कि जब अमेरिका से लेकर यूरोप तक में सरकारें आम नागरिकों से मितव्ययिता बरतने की अपील कर रही थीं, उस समय वॉल स्ट्रीट की कंपनियां अरबों डॉलर के बेल आउट पैकेज का इस्तेमाल अपने शीर्ष मैनेजरों और मालिकों को भारी बोनस देने में कर रही थीं। यही नहीं, लोगों ने यह भी देखा कि 'बदलाव' का नारा देकर सत्ता में पहुंचे राष्ट्रपति बराक ओबामा भी वॉल स्ट्रीट की मिजाजपुर्सी में किसी से पीछे नहीं हैं। इसने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। लोगों को लगने लगा है कि इस व्यवस्था में बुनियादी तौर पर खोट है। 
इस मायने में वाल स्ट्रीट कब्जा आंदोलन ने न सिर्फ अमेरिका बल्कि पूरी दुनिया में आवारा वित्तीय पूंजी के वर्चस्व पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था पर गंभीर सवाल खडेÞ कर दिए हैं।

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