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Friday, August 17, 2012

Fwd: [New post] बहुगुणा की जीत या नैतिकता की हार



---------- Forwarded message ----------
From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/8/17
Subject: [New post] बहुगुणा की जीत या नैतिकता की हार
To: palashbiswaskl@gmail.com


समयांतर डैस्क posted: "समाचार-संदर्भ : उत्तराखंड एक संवाददाता विजय बहुगुणा को कांग्रेसी हाई कमांड ने चुना ही इसलिए है कि"

New post on Samyantar

बहुगुणा की जीत या नैतिकता की हार

by समयांतर डैस्क

समाचार-संदर्भ : उत्तराखंड

एक संवाददाता

Vijay-Bahuguna-cmविजय बहुगुणा को कांग्रेसी हाई कमांड ने चुना ही इसलिए है कि वह उनके हाथ की कठपुतली बने रहें और वही करें जो उनसे कहा जाए। बहुगुणा का राहुल गांधी को प्रधान मंत्री बनाए जाने संबंधित बयान इसी का प्रमाण है। फिलहाल उनका एजेंडा बांधों के निर्माण में तेजी लाने का है। बल्कि उन्हें बनाया ही इसीलिए गया है। वह पूर्ण दास भाव से वही करने में लग चुके हैं। उनके मंत्री मंडल के एक मंत्री का दिल्ली में बांधों को इजाजत देने के लिए प्रदर्शन करना या कुछ पत्रकारों और कवियों का इसके समर्थन में सड़क पर उतर आना, उसी मुहिम का एक हिस्सा है।

यह देखना पीड़ाजनक है कि हमारे समाज में राजनीति और पत्रकारिता का पतन समानांतर हो रहा है। जिस समाज में पत्रकारिता नैतिक मानदंड का काम करना छोड़ दे, उसके भविष्य को लेकर चिंता अनिवार्य है। उत्तराखंड विधानसभा की सितारगंज सीट के चुनाव के बहाने हम इस पतन को कुछ हद तक समझने की कोशिश कर सकते हैं।

क्या इसमें शंका की गुंजाइश है कि भाजपा के स्थानीय विधायक किरण मंडल को पैसे के बल पर नहीं तोड़ा गया होगा? यही नहीं पद का दुरुपयोग करते हुए मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने चुनाव संहिता को धत्ता बताते हुए, योजनाबद्ध तरीके से कई घोषणाएं कीं और चुनाव के दौरान सरकारी मशीनरी का भरपूर इस्तेमाल हुआ। अपने पूरे प्रचार अभियान को उन्होंने बेइंतिहा अलोकतांत्रिक तरीके से एक घरेलू मसले में तब्दील कर दिया।

स्पष्टत: यह कोटद्वार में हुई तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खंडूड़ी की हार से सबक लेते हुए किया गया होगा। डर वाजिब भी था। विजय बहुगुणा जनाधार विहीन और ऊपर से थोपे आदमी हैं। पार्टी के द्वारा उनके लिए पूरी तरह से काम न करने के अलावा और तरह के भी डर थे। इनमें सबसे बड़ा डर झोंके गए धन-बल की असलियत के सामने आ जाने का रहा होगा। पर आश्चर्य की बात यह है कि न तो स्थानीय और न ही राष्ट्रीय मीडिया ने इसे मुद्दा बनाया। उल्टा बहुगुणा को 'चाणक्य' के पद से विभूषित किया गया। यह ठीक है कि इससे पहले भाजपा ने यही काम कांग्रेस के जनरल टी.पी.एस. रावत को तोड़ कर किया था। एक मामले में यह भाजपा के साथ यथोचित न्याय था; यह पाठ भी कि सही कामों के लिए भी गलत रास्ते नहीं अपनाए जा सकते। पर इससे कांग्रेस के गलत काम को कैसे सही ठहराया जा सकता है? यह राजनीतिक पतन की गति की भयावहता का संकेत जरूर है।

प्रश्न कई तरह के हैं। जैसे कि उस व्यक्ति के पास, जो मुख्यमंत्री तो क्या इससे पहले कहीं मंत्री भी न बना हो, इतना पैसा आया कहां से? अगर भाजपा विधायक मंडल के भांजे की मानें तो उन्हें दस करोड़ में खरीदा गया। न मानने का कोई कारण भी नहीं है क्योंकि उन्होंने यह बात ऑन रिकार्ड कही है। इतना पैसा दो तरह से ही आ सकता है। या तो बहुगुणा परिवार के पास पहले से ही था या फिर उन्हें किसी और ने दिया। अगर उनका अपना था यदि काला धन नहीं था तो उनके आयकर रिकार्ड से जाना जा सकता है। अगर काला धन था, फिर तो और भी कई सवाल हैं।

दूसरा स्रोत पार्टी हो सकती है। पर इसकी संभावना कम है। वैसे भी पार्टी द्वारा किसी एक उम्मीदवार के चुनाव पर खर्च करने की सीमा है।

तीसरा स्रोत वे निहित स्वार्थी तत्व हो सकते हैं जिन्होंने उत्तराखंड में बांध बनाने के व्यवसाय में पैसा लगाया है। वे मांटी चढ्ढा जैसे शराब माफिया भी हो सकते हैं और स्वास्तिक कंपनी से लेकर डीएलएफ, एलएनटी या जेपी जैसी बांध निर्माण कंपनियां भी।

वैसे यहां यह दोहराया जाना जरूरी है कि विजय बहुगुणा को कांग्रेसी हाई कमांड ने चुना ही इसलिए है कि वह हाई कमांड के हाथ में कठपुतली रहेंगे और वही करें जो कहा जाएगा। फिलहाल उनका मेंडेट बंद बांधों के निर्माण को शुरू करवाना और उसमें तेजी लाना है। वह वही करने में लगे हैं।

इसलिए यहअचानक नहीं है कि विजय बहुगुणा ने विधान सभा सीट जीतने से भी पहले उन रुके बांधों का तत्काल निर्माण शुरू करने की मांग कर दी थी जो पर्यावरणीय नियमों की खुलेआम अवहेलना के कारण केंद्र द्वारा रोके गए हैं या जिन का विस्थापन जैसे कई आधारभूत कारणों से विरोध है। उनके उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनने के साथ ही बांधों के निर्माण के समर्थन में कई भजनीकों के स्वरों का मुखर हो उठना अचानक नहीं है। इनमें आश्चर्यजनक रूप से राज्य के वे तीन पद्मश्री-धारी भी शामिल हैं जो बांधों का निर्माण तत्काल शुरू न किए जाने पर पद्मश्री लौटाने की धमकी दिए हुए हैं। ये इतने बेसब्र हो चुके हैं कि इस बात की जांच भी नहीं होने देना चाहते कि बांध निर्माताओं ने वाकई गलत काम किए हैं या नहीं किए हैं? जांच से आखिर किसे और क्यों डर है? वैसे इन से पूछा जाना चाहिए कि भाइयों अचानक बांधों को लेकर ऐसी क्या तात्कालिकता है जो आप मरने-मारने पर उतारू हो गए हैं?

अचानक बांधों का पक्ष लेने के लिए एक आंदोलन खड़ा किया गया है, जिसका नेतृत्व एक ऐसा पूर्व पत्रकार कर रहा है जो कभी बांधों का विरोध किया करता था। इन बांध समर्थकों की हिम्मत इस हद तक बढ़ी कि वे उन लोगों के खिलाफ खुलेआम शारीरिक बल का प्रयोग करने लगे हैं, जो सैद्धांतिक और व्यावहारिक कारणों से बांधों का विरोध करते हैं। भरत झुनझुनवाला, उन की पत्नी, राजेंद्र सिंह और जीडी अग्रवाल जैसों पर हिंसक हमले किए गए और उनके मुंह पर कालिख पोती गई। हद यह हुई कि उन कालिख पोतनेवालों को बाकायदा आयोजन कर इन पद्मश्री सज्जनों के हाथों सम्मानित किया गया। शर्मनाक बात यह है कि इनमें पद्मश्री और अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित हिंदी कवि लीलाधर जगूड़ी भी थे। ऐसे बुद्धिजीवी जो उत्पातियों और अलोकतांत्रिक लोगों को सम्मानित कर सकते हैं, रहे हों; उनकी पद्मश्री की योग्यता स्वयं ही संदिग्ध है। हमारा संविधान सब को अभिव्यक्ति की आजादी देता है और ये लोग सरेआम संविधान की अवमानना कर रहे हैं।

यह मानने में किसी को आपत्ति हो सकती कि भरत झुनझुनवाला, राजेंद्र सिंह और जी.डी. अग्रवाल गलत भी हो सकते हैं? पर तब आप भी तो गलत हो सकते हैं? एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर एक को अपना पक्ष रखने का अधिकार है। दूसरे को बलपूर्वक रोकना और खुले आम गुंडागिरी करना क्या फासिज्म से कम है? यह तब और घृणित हो जाता है जब इसका नेतृत्व एक पत्रकार के हाथ में हो। पतन की इससे बड़ी सीमा क्या हो सकती है कि उत्तराखंड के बुद्धिजीवी सत्ता-धारियों और बांध निर्माताओं के गुंडों की तरह व्यवहार करने की हद पर उतरे नजर आने लगें।

सवाल यह है कि सरकार ने ऐसे आयोजन को होने क्यों दिया जो खुलेआम हिंसा को महिमामंडित करता हो? यह भी देखा जाना चाहिए कि राज्य की पुलिस ने इस गुंडा ब्रिगेड के खिलाफ क्या कार्यवाही की?

मीडिया की भूमिका

मुख्यधारा के बड़े स्थानीय अखबारों ने इस पूरे कांड पर लगभग चुप्पी लगाई हुई है। पेड न्यूज और मुनाफा कमाने की होड़ के इस दौर में क्या कुछ हो सकता है, कल्पना नहीं की जा सकती। पेड न्यूज आज चुनाव तक सीमित मसला नहीं रह गया है, बल्कि मीडिया के हर दिन के क्रियाकलाप में बदल गया है। मीडिया को राज्य सरकार, कंस्ट्रक्शन कंपनियों और बिल्डरों से विज्ञापन लेने हैं; मालिकों को अन्य किस्म के लाभ उठाने हैं - कारखाने खोलने से लेकर कॉलेज और विश्वविद्यालय चलाने तक - इसलिए उनमें हिम्मत कहां है कि वे उन लोगों के खिलाफ कुछ लिखें, जो पैसे और सरकार के संरक्षण में यह सब कर रहे हैं।

पर आश्चर्य तब होता है जब आप दिल्ली के अखबारों में ऐसी रिपोर्टें देखते हैं जो विजय बहुगुणा को चाणक्य सिद्ध कर रही होती हैं। जहां तक दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, अमर उजाला या राष्ट्रीय सहारा का सवाल है इन सबके संस्करण उत्तराखंड से निकलते हैं। इनका व्यवहार समझ में आता है, पर दिल्ली से निकलनेवाले दैनिक जनसत्ता का व्यवहार सबसे ज्यादा हैरान करनेवाला है। उत्तराखंड से इसका न कोई संस्करण है और न ही प्रसार। दिल्ली में उत्तराखंडवासियों में यह बिल्कुल ही नहीं पढ़ा जाता है। इसके बावजूद यह अखबार हर दूसरे दिन वहां की खबर जिस अनुपात में लगाता है, उसे सामान्य नहीं कहा जा सकता। और खबर भी ऐसी नहीं जिसे 'हार्ड न्यूज' कहा जाए। उदारहण के लिए, पिछले महीने ही जनसत्ता ने 23 जुलाई तक उत्तराखंड पर 22 समाचार लगाए। इनमें से अधिकांश वहां की राजनीतिक उठा-पटक को लेकर थे। कुछ तो बाकायदा प्रथम पृष्ठ पर लगे।

जनसत्ता का कोई संवाददाता राज्य की राजधानी देहरादून में नहीं है। इसके एक संवाददाता हरिद्वार में जरूर हैं। यही सज्जन हरिद्वार में बैठ कर पूरे राज्य के समाचार लिखते हैं और सुविधानुसार कभी देहरादून की डेट लाइन से छपते हैं, तो कभी हरिद्वार की। इनका उल्लेख प्रभाष जोशी ने अपने हरिद्वार गंगा नहाने जाने के प्रसंग में एक लेख में बड़े प्रेम से किया है। वैसे लोगों का कहना है कि इनका महत्त्व असल में संपादकों और संपादकीय विभाग के लोगों को हरिद्वार घुमाना और विशेषकर कुंभ जैसे अवसरों पर गंगा स्नान करवाने में है। जनसत्ता में अधिकांश खबरें इन्हीं महोदय की होती हैं और यह माह भी अपवाद नहीं था। इनका लगभग हर समाचार विस्तार से तीन कालम का होता है। हद यह थी कि 14 और 16 जुलाई को छपी खबरें लगभग एक-सी थीं, फर्क सिर्फ पृष्ठ का था । पहले दिन यह सातवें पृष्ठ पर छपी थी और दो दिन बाद पहले पृष्ठ पर एंकर।

नियम और नैतिकता

अखबार ने बांध समर्थक मंत्री मित्रानंद नैथानी द्वारा दिल्ली में किए जाने वाले प्रदर्शन का 10 जुलाई को कर्टेन रेजर ही चार कालम का छापा पर 21 जुलाई को बांधों के विरोध में हुई गोष्ठी, जिसमें दिल्ली और पहाड़ के विभिन्न भागों से आए लेखकों-बुद्धिजीवियों व आम जनों ने हिस्सा लिया, एक शब्द छापने लायक नहीं समझा। बांधों के समर्थन में उत्तराखंड के एक मंत्री द्वारा किया गया प्रदर्शन अपने आप में असामान्य है। वैसे यह भी छिपा नहीं कि यह बांध निर्माण कंपनियों द्वारा पोषित था। श्रीनगर और आसपास के इलाकों में लाउड स्पीकर लगा कर कई गाडिय़ों ने लोगों का कई दिनों तक दिल्ली चलने का आह्वान किया। अन्यथा श्रीनगर से सात बसों में भरकर लोग कैसे आते? उनका यहां खाने-पीने का प्रबंध किसने किया? क्या इसका कोई लेखा-जोखा है? इससे भी बड़ी बात यह है कि बहुगुणा ने एक मंत्री को इस तरह की अनुशासन हीनता क्यों करने दी? और क्या अखबारों ने इन सब बातों को मुख्यमंत्री से 22 जुलाई के अपराह्न के भोज के दौरान पूछा?

कुछ ऐसा ही काम द हिंदू के दिल्ली संस्करण कर रहा है। उत्तराखंड को लेकर उसके समाचार भी अक्सर एकतरफा होते हैं। इस संदर्भ का सबसे ताजा किस्सा यह है कि जिस समाचार को टाइम्स ऑफ इंडिया समेत कई अखबारों ने छापने लायक नहीं समझा, उसे 23 तारीख को जनसत्ता ने दो कालम में प्रथम पृष्ठ पर छापा। इसका शीर्षक था 'बहुगुणा 2014 में राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के पक्ष में'। क्या यह समाचार है? समाचार तब होता जब वह कहते कि वह पक्ष में नहीं हैं। पर वह ऐसा कैसे कह सकते हैं? उन्होंने वही कहा जो वह कह सकते हैं और यह हर कांग्रेसी कह रहा है। असल में 22 जुलाई को बहुगुणा ने दिल्ली के हर एरे गैरे नत्थू खैरे पत्रकार को, विशेष कर जो भी उत्तराखंड का हो सकता है, अशोक होटल में भोज पर बुलाया था। पत्रकारों ने वहां उन से पहाड़ पर कोई सवाल नहीं किया। बल्कि उन्हें मुख्यमंत्री की ओर से एक हैंडआउट या ब्रीफ दिया गया और सबने वही नोट कर लिया। राहुल गांधी को लेकर बहुगुणा का वक्तव्य चाटुकारिता का बेहतरीन उदाहरण है। पर इससे क्या होता है। अगले दिन द हिंदू ने भी लगभग इसी तरह का समाचार उतने ही विस्तार से, बाई लाइन के साथ, पर अंदर के पृष्ठ पर लगाया जितना कि जनसत्ता ने प्रथम पृष्ठ पर लगाया हुआ था।

दिल्ली के ये दो अखबार ऐसे हैं जिन्हें प्रबुद्ध पाठकों का अखबार माना जाता है। इन अखबारों में इस तरह की लापरवाही या पेशेवराना विचलन देखना पीड़ादायक और अफसोसनाक है। या इसे उस राष्ट्रव्यापी पतन का रूपक कह सकते हैं जिससे अब समाज का शायद ही कोई कोना बचा हो।

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