Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti basu is DEAD

Jyoti Basu: The pragmatist

Dr.B.R. Ambedkar

Memories of Another Day

Memories of Another Day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Sunday, March 31, 2013

सोशल मीडिया से भयभीत अधिनायक

सोशल मीडिया से भयभीत अधिनायक

जिन समाजों के लिए अतीत से ज्यादा भविष्य विचारणीय है, वहां सूचना क्रान्ति के उपकरणों का स्वागत हो रहा है. इसके विपरीत जिन समाजों में स्वर्णिम युग गुजर चुका है और अब सिर्फ एक फुलस्टाप आने वाला है, वो नयेपन के भय से अभी भी मुक्त नहीं हो पा रहे हैं...

संजय जोठे


हम सूचना क्रांति के दौर में जी रहे हैं. एक अर्थ में देखा जाए तो सूचना और क्रान्ति दो अलग शब्द नहीं है, सूचना स्वयं ही एक क्रांति है. एक और गहरे अर्थ में जहां सूचना ज्ञान की पर्यायवाची है - वहां सूचना स्वयं क्रांतियों की जननी भी है. इस सूचना का क्रान्ति के साथ-साथ स्वतन्त्रता से भी सीधा रिश्ता है. होना भी चाहिए, क्योंकि क्रांतियाँ स्वतन्त्रता की नयी धारणा को अमल में लाने के लिए या पुरानी धारणाओं को तोड़ने के लिए ही होती हैं.

social-networking-sites

इसी सूचना क्रान्ति ने एक और ताकतवर हथियार पैदा किया है, जिसे हम सोशल मीडिया कहते हैं. इसमें भी सबसे लुभावना और असरकारी अस्त्र है फेसबुक. ये इतना बहुआयामी और सम्मोहनकारी है कि इसकी ताकत से न केवल समाज, बल्कि राष्ट्रों के माथे पर भी बल पड गए हैं. कोई भी व्यक्ति राष्ट्र, समाज, संस्कृति या राजनीतिक विचारधारा जिसे एक खुले और स्वतंत्र मनुष्य से डर लगता है, वो फेसबुक से डरे हैं.

कई संस्कृतियाँ जो ऐतिहासिक रूप से एक बंद किले की भांति रही हैं और जहां दूसरी संस्कृतियों की किताबें, विचार और जीवनशैली का प्रवेश निषिद्ध रहा है - वो संस्कृतियाँ विशेष रूप से असुरक्षा और डर का अनुभव कर रही हैं. जहां ज्ञान और सूचना एक शत्रु संस्कृति के भेदिये के रूप में देखी जाती रही हैं. हालांकि इसके और बहुत से कारण रहे हैं, लेकिन जहां तक सूचना या ज्ञान से जुड़े नवाचार का सम्बन्ध है, ऐसे समाजों की असुरक्षा की भावना की व्याख्या इसी शैली में करनी होगी.

जिन समाजों के लिए अतीत से ज्यादा भविष्य विचारणीय है वहां सूचना क्रान्ति के इन उपकरणों का स्वागत हो रहा है. इसके विपरीत जिन समाजों में स्वर्णिम युग गुजर चुका है और अब सिर्फ एक फुलस्टाप आने वाला है, वो नयेपन के भय से अभी भी मुक्त नहीं हो पा रहे हैं. इस भय का असर ऐतिहासिक रूप से उन समाजों के धीमे और अधूरे विकास में देखा जा सकता है. साहित्य, संगीत, कला, विज्ञान और दर्शन हर क्षेत्र में नवाचार का विरोध अब स्वयं उन समाजों के लिए एक कोढ़ की तरह बन चुका है. ये तर्क राजनीतिक पार्टियों के बारे में भी सही बैठता है. जिन पार्टियों का अतीत उनके प्रस्तावित भविष्य पर भारी पड़ रहा है, वे इस सोशल मीडिया से भयभीत नज़र आ रही हैं. और जिन पार्टियों के पास अतीत नहीं सिर्फ भविष्य है, उसे सोशल मीडिया से मदद मिल रही है.

आश्चर्यजनक रूप से जिन समाजों में सूचना क्रान्तिजन्य इन नवाचारों का स्वागत हो रहा है, वहां लोकतंत्र, समानता, मानवाधिकार और स्त्री-पुरुष संबंधों में एक खुलापन है. ऐसा लगता है कि एक मुक्त और न्यायपूर्ण समाज की दिशा में बढ़ने के लिए आज़ाद सोशल मीडिया और सूचनाओं का बे-रोक-टोक प्रवाह अनिवार्य है. हालाँकि इस आजादी पर प्रश्न भी उठाये जा रहे हैं और सूचना प्रवाह के खतरे गिनाये जा रहे हैं. लेकिन ये खतरे फिर से उन असुरक्षित और अविकसित समाज के प्रतिनिधियों के कारण ही हैं, जो न तो स्वयं एक भविष्य दे सकते हैं और न दूसरों द्वारा परोसे गए भविष्य का सम्मान कर सकते हैं. इनमें फिर से व्यक्ति समाज और राजनीतिक पार्टियां तीनों शामिल हैं.

अब इस बिंदु पर आकर बात बहुत रोचक हो जाती है. वे लोग जो मन से बूढ़े हैं, वो समाज जो ऐतिहासिक रूप से खुलेपन और समानता के खिलाफ रहकर अपने स्वर्णयुग के सपनों में जीता रहा है और वो राजनीतिक पार्टियां जिनका स्वर्णिम अतीत उनकी एकमात्र संपत्ति है - उन तीनों में बड़ा भाईचारा पनपा है, आज भी पनप रहा है और भविष्य में सोशल मीडिया की स्वतन्त्रता को ख़त्म करने में इन तीनों की तिकड़ी की तरफ से ही पहल होगी. इसके संकेत मिलने भी लगे हैं. एक असुरक्षित और भयभीत राजनीतिक पार्टी और एक अतीतोन्मुख समाज ये दोनों मिलकर सोशल मीडिया का गला घोटेंगे.

एक व्यक्ति के जीवन के सन्दर्भ में भी देखें तो ये तर्क सही बैठता है. वो लोग जो शरीर से (और इससे ज्यादा मन से) युवा हैं उन्हें इस फेसबुक या सोशल मीडिया के अन्य उपकरणों से कोई आपत्ति नहीं है. सिर्फ अतीत के स्वर्णयुग में जीने वाले और तिथिबाह्य हो चुके लोग जो भविष्य से डरते हैं वे इन उपकरणों के खिलाफ हैं. नए युवा जहां ज्ञान और नेटवर्किंग के अवसर इसमें खोजते हैं, पुराने लोग संस्कृति पर हमला देखते हैं.

राजनीतिक पार्टियाँ 'दुष्प्रचार' से डरी हुई हैं. ये आश्चर्यजनक निष्पत्ति है, लेकिन बहुत महत्वपूर्ण है. समाज हो, राजनीतिक पार्टी हो या व्यक्ति जो अपना भविष्य ठीक से परिभाषित कर पा रहे हैं और जिन्हें एक सुखद भविष्य की उम्मीद है वो सूचना क्रान्ति के पक्ष में हैं और इससे बहुत तरह के लाभ भी उठा रहे हैं.

जो पार्टियाँ, समाज और व्यक्ति इससे डरे हैं वो न केवल और अधिक बंद होते जा रहे हैं, बल्कि उनका भविष्य भी इस भय और बन्द्पन की वजह से और अधिक असुरक्षित होता जा रहा है. इसीलिये अगर किसी देश में ऐसे असुरक्षित लोगों का बहुमत है तो उस देश में सोशल मीडिया, फेसबुक या यूट्यूब पर तमाम पाबंदियां लगा दी जाती हैं. ये सब असुरक्षा की निशानियां हैं. दुर्भाग्य से हमारा देश भी उसी दिशा में आगे बढ़ रहा है. अन्य देशों में जहां सांस्कृतिक असुरक्षा इसके लिए जिम्मेदार है, हमारे देश में राजनीतिक असुरक्षा इसके लिए जिम्मेदार है.

sanjay-jotheसंजय जोठे इंदौर में कार्यरत हैं.

http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-08-56/2012-06-21-08-09-05/302-media/3853-social-media-se-bhaybheet-hote-adhinayak-by-sanjay-jothe-janjwar

No comments:

Post a Comment