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Wednesday, July 31, 2013

'तस्वीर खिंचवाएंगे तो मर जाएंगे'

'तस्वीर खिंचवाएंगे तो मर जाएंगे'


वेदांत नियमगिरी

बातुड़ी ग्राम सभा के ख़त्म होने के कुछ आधे घंटे-पैंतालिस मिनट में ही जब एक डंगरिया कोंध युवक ने कई बार कहा कि 'कैमरा अंदर रख लेंगे' तो लगा कि वह मज़ाक कर रहे हैं.

फिर दिमाग़ का एंटीना खड़ा हो गया और सोचने लगा कि कहीं ये उस लंबे बाल वाले, पतले-दुबले आदमी की वजह से हमें वहां से टालने की कोशिश तो नहीं जो गांव में भीड़ जमा होने पर वहां पहुंचा था और हाथ मिलाते हुए उसके मुंह से लाल सलाम निकल गया था!


क्लिक करें
या फिर उसने ऐसा कहीं जान बूझकर तो नहीं किया था?

सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बनाई गई ये ग्राम सभाएं ब्रितानी कंपनी क्लिक करेंवेदांत के क्लिक करेंनियमगिरी पहाड़ में खनन करने के क्लिक करेंप्रस्ताव पर फैसलालेने के लिए आयोजित हो रही हैं.

क्लिक करें(तस्वीरों में : डोंगरिया कोंध आदिवासियों का जीवन)

जो गया, वह लौटा नहीं

हमारी महदूद सी समझदारी ने उस वक़्त जो कहा वह हमने ठीक समझा और निकल लिए मुनिगुड़ा के लिए- जहां हमारा खूंटा इन दिनों गड़ा है.

लेकिन इस बात को वहां कहां ख़त्म होना था!

उसी शाम एक स्थानीय ताज़ा-ताज़ा परिचित से सलाह मशविरा हुआ कि दूसरे दिन उस गांव चला जाए, जहां सबसे पहली-पहली सभा यानी ग्राम सभा आयोजित हुई थी.

लेकिन सिरकापाड़ी गाँव में आदिवासियों के साथ दिन बिताने का मौक़ा तो क्या मिलता, हमारे ताज़ा-ताज़ा परिचित के पुराने परिचित डंगरिया आदिवासी एक के बाद एक वहां से ग़ायब हो लिए. हमें इक्का-दुक्का युवकों और ढेर सारी औरतों के हूजूम में छोड़कर.

युवक हमसे बात करने से मना कर रहे थे तो औरतें तस्वीरें खींचने पर हमारी मां-बहनों और पुरखों को तरह-तरह के रिश्तों से नवाज़ रही थीं.

हमारे ताज़ा परिचित खिसियानी सी हंसी हंसते कह रहे थे कि वो बुरा मान रही हैं.

थोड़ी शर्म तो सच कहूं मुझे भी आ रही थी लेकिन आदिवासियों को समझने का मोह था कि साथ छोड़ने को तैयार नहीं.

क्लिक करें(तस्वीरों में: बच गया आदिवासियों का नियमगिरी)

बहरहाल हमारे पास गांव के बाहर मंदिर में बैठे धरनी पेनू की मूर्ति को नमस्ते कहकर वापस आने के सिवा कोई चारा नहीं था, सो हमने वही किया.

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परिचित ने आश्वासन दिया कि कल हम पहले से किसी आदिवासी परिवार से तय कर लेंगे और किसी दूसरे गांव में चलेंगे.

नए मित्र ने अपने एक मित्र से मदद मांगी और हम दूसरे दिन निकल लिए एक और डंगरिया कोंध आदिवासी गांव के भ्रमण को. ये शहर से पास था.

लेकिन वाह रे... एक मर्द ने थोड़ी सी बात की. बाद में किए गए हमारे बहुत सारे आग्रह और परिचित के ढेर सारे दबाव का उस पर कोई असर नहीं हुआ. एक व्यक्ति कपड़ा बदलने की बात कहकर जो गया, तो वापस ही नहीं आया.

भरोसा टूटा

वह तो क़िस्मत अच्छी थी, कम से कम तब तो यही लगा था, एक अधेड़ उम्र के आदिवासी हमसे बात करने को तैयार हो गए.

हरे पत्ते की बीड़ी जलाई, हमारे कहने पर धुएं के छल्ले भी उड़ाए, हल्का-फुल्का पोज़ भी दिया, और हमारे सवालों के जवाब भी रिकॉर्ड कराए.

लेकिन तभी पास की झोंपड़ी से एक बुदबुदाहट सुनाई देने लगी, जो धीरे-धीरे स्टीम इंजिन की आवाज़ की तरह तेज़ और जल्दी-जल्दी निकलने लगी.

और पांच-सात मिनट में तो सफेद लुंगी में लिपटी एक महिला जांघों को ठोंकती हुई झोपड़ियों के बीच में मौजूद सड़क पर कूदने लगी.

हम समझ गए कि ये नाराज़ हो रही हैं लेकिन तभी दिखा कि एक युवक चमकती कुल्हाड़ी उठाकर कांधे पर रख रहा है और हमने वही किया जो हम जैसे बहादुर अक्सर करते हैं. हम वहां से खिसक लिए.

हमारी जीप चलने और खुद की चिंता ख़त्म होने के बाद, दिल में और ज़बान पर आदिवासियों के शोषण, भरोसा टूटने की कमी वगैरह जैसे शब्द आए.

लेकिन शाम में जब आदिवासियों के बड़े नेता कुमुती मांक्षी से मैंने बात की तो वो बोले, इधर के आदिवासियों में एक सोच है कि तस्वीर खिंचवाएंगे, तो जल्दी मर जाएंगे!

 

(Courtesy:bbc.co.uk)

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