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Friday, May 18, 2018

मुक्तबाजार का विकल्प मनुस्मृति राज है और अरबपतियों की सत्ता का तख्ता पलटने के लिए चुनावी राजनीति फेल है

यह जनादेश नहीं,मुक्त बाजार का वर्गीय.जाति वर्चस्व है।
मुक्तबाजार का विकल्प मनुस्मृति राज है और अरबपतियों की सत्ता का तख्ता पलटने के लिए चुनावी राजनीति फेल है
मुक्त बाजार के बिना प्रतिरोध 27 साल के वर्चस्व के बाद भी हम लोकतंत्र की खुशफहमी में जी रहे हैं तो हर घटना पर अचरच करना हमारे मौकापरस्त चरित्र का स्थाई भाव होना अनिवार्य है।
पलाश विश्वास
मुझे कर्नाटक में भाजपा की जीत से उसीतरह कोई अचरज नहीं हो रहा है,जैसे बंगाल में वाम शासन के अवसान और केंद्र में मनुस्मृति सत्ता से,या असम,मणिपुर और त्रिपुरा के भगवेकरण से।या यूपी बिहार में सामाजिक बदलाव की राजनीति के पटाक्षेप से।

विज्ञान का नियम है कि हर कार्य का परिणाम निकलता है और हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है।

हमने मुक्तबाजार का विकल्प चुनकर देश में लोकतंत्र,नागरिक और मानवाधिकार की हत्या कर दी है तो प्रकृति और पर्यावरण का सत्यानाश कर दिया है।

अंधों के देश में जलवायु और मौसम के कहर बरपाते तेवर से भी लोगों को अहसास नहीं है कि सत्ता की राजनीति का रंग चाहे जो हो,वह बाजार के एकाधिकार और करोड़पति अरबपति कुलीन सत्तावर्ग का वर्गीय जातीय एकाधिकार वर्चस्व का ही प्रतिनिधित्व करती है।

देश के सारे कायदे कानून आर्थिक सुधार के नाम पर बदले दिये गये हैंं।राजनीति ही नहीं, भाषा, साहित्य, कला, सिनेमा, मीडिया, विधाओं और माध्यमों का केंद्रीयकरण हो गया है।

किसानों और मजदूरों,आदिवासियों,दलितों का कत्लेआम हो रहा है।

स्त्री उपभोक्ता वस्तु बन गयी है और बलात्कार संस्कृति ने मनुस्मृति के स्त्री विरोधी अनुशासन को सख्ती से लागू कर दिया है।

न कानून का राज है और न संविधान कहीं लागू है।

 मुक्तबाजार के उपभोक्ता देश में कोई नागरिक ही नहीं है।

लोकतांत्रिक संस्थाएं समाप्त हैं तो केंद्र में जिसकी सत्ता होगी,बाकी देश में भी उसकी सत्ता अश्वमेध अभियान को रोक पाना असंभव है।

संघीय ढांचा खत्म है,गांव,देहात और जनपद बचे नहीं हैं, लोकतांत्रिक संस्थाएं बची नहीं हैं।

ऐसे में जनादेश बाजार ही तय करता है।

मुक्त बाजार के बिना प्रतिरोध 27 साल के वर्चस्व के बाद भी हम लोकतंत्र की खुशफहमी में जी रहे हैं तो हर घटना पर अचरच करना हमारे मौकापरस्त चरित्र का स्थाई भाव होना अनिवार्य है।

हम बार बार लिखते बोलते रहे हैं कि वाम का विचलन,बिकराव ने ही हिंदुत्व की राजनीति को निरंकुश बना दिया है।वाम राजनीति पर भी हिंदुत्व के वर्गीय जाति वर्चस्व कायम है जो किसानों, मजदूरों और बहुसंख्यक सर्वहारा के खिलाफ है।इसे हमारे मित्र वामपंथ का विरोध मानते हैं जबकि यह वामपंथ से वामपंथियों के विश्वासघात और उनके वैचारिक पाखंड का विरोध है,जो भारत में समता और न्याय पर आधारित समाज के निर्माण के रास्ते में सबसे बड़ा अवरोध है।वामपंथ के इस जनविरोधी नेतृत्व को बदले बिना वामपंथ की न कोई प्रासंगिकता है और न साख है।भले ही जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं और नेताओं की प्रतिबद्धता में किसी तरह के शक की गुंजाइश नहीं है।

बंगाल में निरंकुश सत्ता का प्रतिरोध करके अपना बलिदान करने वाले जमीनी कार्यकर्ता ही हैं और ऐसा बलिदान तेभागा,तेलंगना से लेकर अबतक जारी है।उनकी शहादत का भी वाम नेतृ्व ने असम्मान किया है।

केरल,त्रिपुरा और बंगाल में सीमाबद्ध वाम परिवर्तन विरोधी वर्गीय जाति हितों के पोषक में तब्दील है तो क्षत्रपों की निरंकुश सत्ता हिदुत्व की राजनीति के खिलाफ किसी वर्गीय ध्रूवीकरण की इजाजत नहीं देता।

बाजार जाति धर्म की अस्मिता को मजबूत बनाने में ही लगा है।

राजनीतिक आंदोलन भावनात्मक अस्मिता आंदोलन में तब्दील है तो जाति और वर्ग का वर्चस्व भी मजबूत होते जाना है औययही बात हिंदुत्व की राजनीति को सबसे मजबूत बनाती है।


इस मरे हुए वाम को जिंदा किया बिना,बहुसंख्य वंचित सर्वहारा जनता के वर्गीय ध्रूवीकरण के बिना केंद्र की मनुस्मृति सत्ता का तख्ता पलट करने का सपना देखना भी अपराध है।

कर्नाटक चुनाव परिणाम आने से पहले बंगाल में ममता दीदी की सत्तालोलुप राजनीति ने पंचायतों में विरोधियों के सफाये के लिए बेलगाम हिंसा का जो रास्ता चुना,वहीं बताता है कि ऐसे ही सत्तालोलुप क्षत्रपों के मोकापरस्त  गठबंधन और जनसरोकारों के बिना चुनावी समीकरण से विपक्ष का मोर्चा बना भी तो उसकी साख कैसी रहेगी।

ऐसे ही क्षत्रपों से जो खुद धर्म,भाषा,जाति,बाजार की राजनीति करते हों,हिंदुत्व की राजनीति के खिलाफ मोर्चाबंदी का नेतृत्व की हम अपेक्षा करें तो हम कुल मिलाकर हिंदुत्व की ही राजनीति के समर्थक बनकर खड़े  हैं और हमें इसका अहसास भी नहीं है।

हवा में तलवार भांजकर राष्ट्रशक्ति का मुकाबला नहीं किया जा सकता है क्योंकि लोकतंत्र और संविधान की अनुपस्थिति में बाजार समर्थित सत्ता ही राष्ट्रशक्ति में तब्दील है और हमने ऐसा होने दिया है।

हमने वर्गीय ध्रूवीकरण की कोई कोशिश किये बिना अस्मिता राजनीति की है और राष्ट्रविरोधी ताकतों के सांप्रदायिक जाति धार्मिक ध्रूवीकरण के खिलाफ कोई राजनीतिक सामाजिक आर्थिक आंदोलन चलाने की कोशिश भी नहीं की है।

धर्मांधों के देश में सबकुछ दैवी शक्ति पर निर्भर है।
तकनीक ने धर्मांधता को धर्मोन्माद में तब्दील कर दिया है।धर्मस्थलों की कुलीन सत्ता में कैद है लोकतंत्र,स्वतंत्रता और संप्रभुता और धर्म भी मुक्ताबाजार का है।

मनुस्मृति राज में हिंदुत्व की अस्मिता दूसरी सारी अस्मिताओं को आत्मसात कर चुकी है।

दैवी सत्ता के पुजारी धर्मांध उपभोक्ताओं के लिए ईश्वर से बड़ा कोई नहीं होता और उन्होंन वह ईश्वर गढ़ लिया है।

उस ईश्वर के मिथकीय चरित्र के गुण दोष की विवेचना करना धर्म के खिलाफ है।जैसे राम और कृष्ण की कोई आलोचना नहीं हो सकती.किसी भी धर्म के ईश्वर,अवतार,देवता,अपदेवता,मसीहा की आलोचना नहीं हो सकती ,उसीतरह धर्मांधों को मुक्तबाजार के किसी ईश्वर की कोई आलोचना सहन नहीं होती और उस पर जितने तेज हमले होंगे,उसके पक्ष में उतना ही धार्मिक ध्रूवीकरण होता जायेगा।

हम सिर्फ हिंदुत्व के  एजंडे की आलोचना करके धर्मांधों के धार्मिक ध्रूवीकरण करने में संघ परिवार की मदद करते रहे हैं और जाति,धर्म ,अस्मिता,व्यक्तिगत करिश्मे से हिंदुत्व की राजनीति का मुकाबला करने का दिवास्वप्न देखते रहे हैं।

सच का समाना करें तो हमने वंचितों,बहुजनों और बहुसंख्यक सर्वहारा तबकों,कामगारों और किसानों,युवाओं,छात्रों और स्त्रियों के वर्गीय़ ध्रूवीकरण की कोई कोशिश नहीं की है।

सत्ता जब निरंकुश होती है तो उसके खिलाफ आंदोलन और प्रतिरोध में बहुत ज्यादा रचनात्मकाता की जरुरत होती है।

यूरोप में सामंतोंं और धर्म प्रतिष्ठानों के खिलाफ नवजागरण से बदलाव की शुरुआत हुई तो किसानों,युवाओं,छात्रों के आंदोलनों से यूरोप अंधरकार बर्बर समय को जीत सका।

हमारे देश में भी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सिर्फ राजनीतिक आंदोलन कभी नहीं रहा।साहित्य, कला, सिनेमा, संगीत, चित्रकला,पत्रकारिता के मार्फत जबर्दस्त सांस्कृतिक आंदोलन ने भारतीय जनता को एकताबद्ध किया तो दूसरी और सारे के सारे आंदोलनों और प्रतिरोधों के केंद्र में थे जनपद।

अंग्रेजी हुकूमत को सांप्रदायिक,धार्मिक,सामंती ताकतों का खुल्ला समर्थन था।तब भी धर्म की राजनीति हो रही थी।हिंदुत्व और इस्लाम की राजनीति हो रही थी।लेकिन बहुआयामी एकताबद्ध जनप्रतिरोध की वजह से,उसकी रचनात्मकता की वजह से उऩ्हें भारत विभाजन से पहले कोई मौका नहीं मिला।

हम इतिहास से कोई सबक लेने के तैयार नहीं हैं क्योंकि हम मिथकीय इतिहास के मिथकीयभूगोल के वाशिंदे हैं।आधुनिक ज्ञान विज्ञान और तकनीक को भी हमने मिथकीय बना दिया है।

 आजादी के बाद से सामाजिक आंदोलन सत्ता की राजनीति में तब्दील है तो सांस्कृतिक आंदोलन राजधानियों में सीमाबद्ध है।

गांव और जनपद,किसान और मजदूर,बहुसंख्यक बहुजन बाजार और सत्ता की राजनीति के समीकरण से बाहर हैं और हमने भी उन्हें हाशिये पर रखकर ही सत्ता की राजनीति में अपना  अपना हिस्सा मौके के मुताबिक हासिल करके अपना अपना जाति,धर्म,वर्ग का हित साधा है।जिससे जीवन के हर क्षेत्र में मनुष्यविरोधी,प्रकृतिविरोधी बर्बर माफिया तत्वों का एकाधिकार कायम हो गया है।

व्यक्तिगत करिश्मे और सत्तालोलुप क्षत्रपों के दम पर हम संस्थागत फासिज्म का प्रतिरोध करना चाहते हैं और किसी भी तरह के सामाजिक,सांस्कृतिक आंदोलन से हमारा कोई सरोकार नहीं है और न हमारी जड़ेें मेहनतकश तबकों में कही हैं और न गांवों और जनपदों में।

आजादी से पहले मीडिया या तकनीक का इतना विकास नहीं हुआ था।संचार क्रांति नहीं हुई थी।फिरभी कलामाध्यमों,पत्रकारिता के मार्फत पूरा देश एक सूत्र में बंधा हुआ था।

उस वक्त जनता के बीच जाकर राजनीति करने की जो संस्कृति थी,वह अब सोशल मीडिया की संस्कृति में तब्दील है।

सोशल मीडिया पर तलवारे भांजकर हम समझते हैं कि संस्थागत फासिज्म को हरा देंगे,जिसने आम जनता का धर्मांध ध्रूवीकरण कर दिया है और धर्म को ही संस्कृति में तब्दील कर दिया है।

गांव गांव में और यहां तक कि आदिवासी इलाकों में दलित बस्तियों में, मजदूरों और किसानों में. छात्रों, युवाओं  और स्त्रियों में धर्मस्थल धर्म आधारित उनकी मोर्चाबंदी है।

हमारा मोर्चा जमीन पर कहीं नहीं है।न हमें इसकी फिक्र है।

1 comment:

  1. BMVSS holds field camps at various locations within the country to help patients who have financial and physical difficulty in travelling to the main centres. Doctors and technicians travel with equipment and materials to the various locations. On-the-spot fabrication and fitment of prosthetic limbs and other aids and appliances are provided by the organisation at these camps. In a year, over 50 such camps are held. BMVSS workers and volunteers also use mobile vans to access remote areas.

    Camps of BMVSS are different from those organized by other institutions in general, in the sense that the camps of BMVSS are one-stop facilities and the patients who come are measured and their custom-made limb/caliper is/are fabricated and fitted, without making them visit again a second time as done by most of the other organizations.

    Website:http://jaipurfoot.org

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