Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti basu is DEAD

Jyoti Basu: The pragmatist

Dr.B.R. Ambedkar

Memories of Another Day

Memories of Another Day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Thursday, February 13, 2014

पहाड़ों और नदियों के मिजाज को समझिये

पहाड़ों और नदियों के मिजाज को समझिये

Author:  Edition : 

यह प्राकृतिक आपदा के साथ ही मानव जनित आपदा भी है। इस आपदा का बड़ा कारण लालच है, जिसके कारण मनुष्य लगातार प्रकृति के साथ छेड़छाड़ कर रहा है।

disaster-affected-areasउत्तराखंड के केदारनाथ क्षेत्र और अन्य स्थानों में आई आपदा में जानमाल की भारी क्षति हुई है। सबसे ज्यादा आपदा केदारनाथ में आई जहां हजारों लोगों के मरने की संभावना बताई जा रही है। नदियों के रौद्र रूप ने कई स्थानों पर मकानों और अन्य भवनों को तोड़ दिया और सड़कों को काटकर रख दिया। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में फंसे श्रद्धालुओं को सेना ने बड़े आपरेशन कर सुरक्षित जगह पर निकाला। ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड में विनाश पहली बार हुआ हो, हरवर्ष बरसात में भूस्खलन, अतिवृष्टि, बादल फटने जैसी घटनाएं होती रहती हैं।

लेकिन इस बार एक तो यह आपदा ज्यादा बड़ी थी और केदारनाथ और बदरीनाथ के इलाके में आपदा आने के कारण इसमें पूरे देश के लोग फंस गए तो देश का ध्यान इस ओर गया। कहा तो यह जा रहा है कि यह प्राकृतिक आपदा है लेकिन यह आधा सच है पूरा सच तो यह है कि यह प्राकृतिक आपदा के साथ ही मानव जनित आपदा भी है। इस आपदा का बड़ा कारण लालच है, जिसके कारण मनुष्य लगातार प्रकृति के साथ छेड़छाड़ कर रहा है। विकास के जिस मॉडल को हिमालय में लागू किया गया है उसमें नदियों और पहाड़ को समझने का प्रयास ही नहीं किया गया। बल्कि नदियों और पहाड़ों के मूल चरित्र के खिलाफकाम किया गया।

विकास के इस मॉडल में नदियां उर्जा का स्रोत भर हैं और पहाड़ गर्मियों में घूमने की जगह। इस विकास के मॉडल में पर्यावरण कोई मुद्दा बना ही नहीं। स्थानीय लोगों को भी यही समझाया जाता है कि विकास का यही मॉडल है। नदियों से मिलने वाली उर्जा से विकास होगा और उसका लाभ स्थानीय लोगों को भी मिलेगा, जो वास्तव में आज तक नहीं मिला। इसी विकास के मॉडल में बताया जाने लगा कि पहाड़ों में पर्यटन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए और वही यहां के लोगों को रोजगार और आर्थिक संसाधन मुहैया कराएगा। यह विचार लोगों के दिमाग में इतने गहरे पैठ कर गया कि चार धाम के तीर्थाटन को पर्यटन में बदल दिया। पहले बुजुर्ग ही तीर्थाटन के लिए उच्च हिमालयी क्षेत्रों में जाया करते थे इस कारण इस क्षेत्र में मानवीय हस्तक्षेप काफी कम था उस क्षेत्र की भार वहन क्षमता पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। लेकिन आज तो लोग छोटे बच्चों के साथ चार धाम आते हैं इससे इन इलाकों में मानवीय हस्तक्षेप बढ़ गया है। हेमकुंड साहिब की यात्रा तो फूलों की घाटी के इलाके से होती है, जिसे यूनेस्को ने विश्व धरोहर माना है। हर वर्ष वहां जाने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है, वहां कैसा नुकसान हो रहा होगा, इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है लेकिन मामला धार्मिक होने के कारण कोई भी इसे नियंत्रित नहीं करना चाहता। हालत यह है कि ये यात्राएं पहाड़ों में प्रदूषण फैलाने के अलावा कोई काम नहीं करतीं हैं।

जब बदरीनाथ और केदारनाथ पर्यटन केंद्र में बदल गए तो उसी के अनुसार सुविधाओं की मांग की जाने लगी। इन स्थानों तक सुविधाजनक तरीके से पहुंचने के लिए सड़कों की मांग की जाने लगी। होटल, आश्रम और व्यावसायिक गतिविधियों का विस्तार होने लगा। जगह-जगहइ कंक्रीट के जंगल उभरने लगे। यह एक अजीब विडंबना है कि एक ओर तो सरकार पर्यावरण को बचाने के लिए हिमालयी क्षेत्र में नेशनल पार्क, अभ्यारण्य, इको सेंसिटिव जोन और वायोस्फेयर बना रही है, जिसमें लोगों के परंपरागत हक-हकूक भी खत्म किए जा रहे है वहीं इनके अंदर धर्म के नाम पर केदारनाथ और बदरीनाथ में लगातार कंक्रीट का जंगल बनने दिया जा रहा है। कंक्रीट के निर्माण से पहाड़ों की भार वहन क्षमता प्रभावित होने लगी है।

वाहनों की सहज उपलब्धता और मार्गों के निर्माण ने चार धाम तक पहुंचना मखौल बना दिया। आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस वर्षों में चार धाम पहुंचने वाले वाहनों की संख्या में पांच गुना से ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। इसने सड़कों पर दबाव बढ़ा दिया है। इससे पहाड़ों पर भूस्खलन की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। इसके साथ ही निर्माण के लिए पत्थरों और रेत की जरूरत ने खनन माफिया को जन्म दिया। इस खनन माफिया की पकड़ हर राजनीतिक दल में है। ग्राम सभा से लेकर विधानसभा तक जो लोग पहुंच रहे हैं वे या तो खुद खनन से जुड़े हैं या खनन से जुड़े लोगों के संरक्षण में हैं। राजनीतिक तौर पर ताकतवर यह वर्ग पहाड़ों और नदियों को खोदने में लगा हुआ है। इस स्थिति में नीतियों का झुकाव इन लोगों को लाभ देने वाला ही होता है, चाहे इससे पर्यावरण को नुकसान ही क्यों न होता हो।

उत्तराखंड में पहाड़ों से भी बुरा व्यवहार नदियों के साथ किया जा रहा है। उत्तराखंड की नदियों पर विद्युत उत्पादन के लिए छोटे-बड़े अनगिनित बांध बन चुके हैं या बन रहे हैं। हालत यह है कि हर नदी पर कोई न कोई परियोजना प्रस्तावित है। अभी तक ही जितने बांध बने हैं, उन्होंने ही गंगा और उसकी सहायक नदियों को सुरंगों में डाल दिया है। आज हालत यह है कि उत्तराखंड में 70 प्रतिशत से ज्यादा गंगा सुरंगों में होकर बह रही है। एक विद्युत परियोजना का क्षेत्र खत्म होता है तो दूसरी परियोजना का क्षेत्र शुरू हो जाता है। इसने नदियों के स्वाभाविक प्रवाह को बाधित कर दिया है। ये सारे बांध स्थानीय लोगों की कीमत पर बनाएं जा रहे हैं। इन बांधों के कारण पलायन तो हुआ की है, भूस्खलन और नदियों में सिल्ट आने की गति भी बढ़ी है जो इस बार की आपदा में जगह-जगह देखने को मिली है।

विकास के नाम पर नदियों के किनारे जबर्दस्त अतिक्रमण हो रहा है। उत्तराखंड में बसासतों को देखें तो शायद ही कोई गांव मिलेगा जो नदी के किनारे बसा हुआ हो। लोगों ने अपने गांव नदी से पर्याप्त दूरी पर बसाए हैं, इसलिए नदियों से गांवों को शायद ही कभी नुकसान पहुंचता हो। लेकिन अधकचरे शहरीकरण ने लोगों को नदी की ओर अतिक्रमण करने को उकसाया। कम बहाव के दिनों मे लोग मान लेते हैं कि नदी इतनी ही रहेगी और यह तो दूसरी ओर बह रही है इसलिए अगर पानी बढ़ भी जाएगा तो हमें क्या नुकसान होनेवाला है। यह भुला दिया जाता है कि नदी का फैलना और सिकुडऩा एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसलिए बरसात में पानी बढऩे पर नदी के किनारे बसे लोगों को समस्या झेलनी पड़ती है। नदियों के पाटों को घरेने में सामान्य आदमियों ने ही नहीं, सरकारी संस्थाएं भी शामिल हैं। उत्तरकाशी, गुप्तकाशी, गोबिंदघाट, बड़कोट और श्रीनगर में मकानों, दुकानों, धर्मशालाओं के बहने का कारण उनका नदी के पाट का अतिक्रमण है। यदि लोगों ने नदियों पर अतिक्रमण न किया होता तो इतना अधिक नुकसान न हुआ होता। श्रीनगर में तो एसएसबी तक ने नदी के पाट पर अतिक्रमण किया हुआ था। जिसका खामियाजा उनको भुगतना पड़ा।

उत्तराखंड राज्य निर्माण के आंदोलन में एक बड़ा मुद्दा पर्यावरण भी था, पर दुर्भाग्य से राज्य बनने के बाद जिसकी पूरी तरह से उपेक्षा कर दी गई है। आज उत्तराखंड में राजनेता, नौकरशाह और ठेकेदारों की तिकड़ी के हाथ में सत्ता है और इनका हित इसी में है कि अधिक से अधिक निर्माण होता रहे। वे ताल ठोक कर कह रहे हैं कि हमें विकास चाहिए, वैसा ही जिसने आज जान-माल का इतना विनाश किया है। राजनीतिक दलों में कार्यकर्ता के नाम पर जो लोग आज सक्रिय हैं वे शुद्ध रूप से ठेकेदार हैं। उत्तरकाशी में जो ईको सेंसिटिव जोन बना है, उससे स्थानीय लोगों को जो परेशानी होगी वह बाद की बात है फिलहाल इसके विरोध में सबसे ज्यादा मुखर ठेकेदार लॉबी है। यह अचानक नहीं है कि मुख्यमंत्री चाहे भाजपा का हो या कांग्रेस का इसका जम कर विरोध करने से नहीं चूका है। हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक योजना आयोग के सामने वर्तमान मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने इसका हर संभव तरीके से विरोध किया था।

केदारनाथ और अन्य स्थानों पर हुए हादसे ये बताने के लिए पर्याप्त है कि समय आ गया है कि हमें पर्यावरण के प्रति संवेदनशील होना होगा। नदी और पहाड़ के मिजाज को समझना होगा वरना क्या होगा कहना अनावश्यक है…।

No comments:

Post a Comment