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Monday, March 31, 2014

डर की कविता ( दूसरा ड्राफ्ट )

डर की कविता ( दूसरा ड्राफ्ट )

March 30, 2014 at 11:19pm
आततायी आ रहा है 

उस से डरो

-कहता है शहर का सब से सुरक्षित 

 प्रतिष्ठित कवि 



डरो , और चीख- चीख  कर 

इसकी घोषणा भी करो 

कि तुम सचमुच डरे हुए हो 

अपनी सारी अक्लमंदी और किलेबंदी के बावजूद 



ताकि आततायी को खबर हो जाए 

कि किस- किस पर

उसके आने की खबर 

नाज़िल हो चुकी है

और उसे यकीन आ जाये 

कि यह  खबर

 लहर की तरह 

फुंफकारती

फैलने लगी है शहर में 





डरो , और चीख- चीख  कर 

इसकी घोषणा भी करो 

ताकि डर जाएँ वे लोग  

जो अब भी निडर घूम रहे हैं 

अपनी टूटी चप्पलों फटी कमीजों उनींदी रातों में 



जो कहते हैं  , काहे का डरना 

हमसे क्या छीन लेगा आततायी 

हमारे तार- तार झोले में 

 ऐसा है ही क्या 



जो जानते हैं  , सबको डराने वाला आततायी 

मन ही मन डरता है उन जैसे 

शहर के सब से नंगे और भूखे इंसानों से 



सुकवि का डर यह नहीं है 

कि कौन  किस से डरता है 

बल्कि  यह है 

कि डरने का चलन 

बचा रहना चाहिए 



कि आततायी आये 

और लोग डरें तक नहीं 

फिर, कविता का क्या होगा आखिर ?





[30/08/2014 के रविवारी #जनसत्ता में छपी अशोक वाजपेयी की कविताओं (आततायी की प्रतीक्षा / अब समय पास है ) से उत्प्रेरित एक लिखत

http://epaper.jansatta.com/.../Jansatta-Hindi-30032014...]

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