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Sunday, February 23, 2014

दाम तो गैस के बढ़ेंगे ही,अब मिलेगी भी नहीं,रसोई का दूसरा इंताम जरुर कर लें।

बतौर सांसद,विधायक अतिथि कलाकारों की भूमिका तो बताइये,दीदी!

बतौर सांसद,विधायक अतिथि कलाकारों की भूमिका तो बताइये,दीदी!

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास



ममता बनर्जी के प्रधानमंत्रित्व के दावे और उन्हें गांधीवादी नेता अन्ना हजारे के समर्थन से बाकी देश में कुछ असर हो या न हो,बंगाल में विपक्ष के सफाये की पूरी तैयारी है। लेकिन दीदी जिस तरह से राजनेताओं के बदले संसद और लोकसभा में कलाकारों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को भेज रही हैं,उससे राजनीतिक संस्कृति ही बदलने जा रही है। पार्टी और सरकार पर पकड़ के लिहाज से इस रणनीति से दीदी की केंद्रीकृत सत्ता को किसी चुनौती की आशंका नहीं है।


सोमेन मित्र आखिरी कद्दावर नेता थे,जिनकी छुट्टी हो गयी है। बाकी डूबते जहाज छोड़कर तृणमूल में अपना वजूद बचाने आये लोगों की कोई ऐसी हैसियत है ही नही कि वे कोई राजनैतिक चुनौती पेश करें।


मुश्किल यह है कि दीदी सेलीब्रेटी को जनप्रतिनिधि बनाने की मुहिम मे जुटी हैं और ये तमाम लोग अव्वल तो पेशेवर व्यस्तता से निकलने की हालत में नहीं हैं और फिर वे आम जनता के बीच उनकी फौरी समस्याों को सुलझाने से लेकर संबंधित क्षेत्र में विकास कार्यक्रमों के कार्यन्वयन के लिहाज से फीसड्डी है।


इससे कभी कभी भारी समस्या हो जाती है,जैसे सांसद कबीर सुमन के सात हुआ।सांसद कोटे के अनुदान खर्चने के मामले में पार्टी में असरदार राजनेताओं की उन्होंने नहीं सुनी तो नही सुनी।इसपर दीदी ने उन्हें बतौर सांसद अतिथि कलाकार बता दिया।इस पर कबीर को इतनी घनी आपत्ति हो गयी कि वे न केवल बागी हो गये,बल्कि तृणमूल की सांसदी पर बहाल रहते हुए दीदी पर सबसे तीखे हमला करने वाले हो गये।उनकी कला सीधे राजनीति में अनुदित हो गयी।


कलाकार,पत्रकार या बुद्धिजीवी राजनीति नहीं करेंगे,इसकी कोई पुक्ता गारंटी नहीं है।शारदा फर्जीवाड़े मामले के रफा दफा हो जाने के बावजूद पत्रकार सांसद कुमाल घोष की वजह से शारदा कांड अब भी जिंदा है।


बहरहाल दीदी के लिए बेहतर हालत यह है कि हर कोई कबीर सुमन या कुमाल घोष भी ह नहीं सकता।फिल्म स्टार तापस पाल और शताब्दी राय बेसुरा चलने लगे थे तो दीदी ने उन्हें उनकी औकात बता दी।मेगा स्टार मिथुन को लाकर उन्होंने बाकी लोगों को खामोश कर दिया है।जोगेन चौधरी जैसे सम्मानीय राज्यसभा से अब तृणमूल सांसद है।पूरी बंगाली फिल्म इंडस्ट्री दीदी के कबजे में हैं। प्रसेनजीत,देव से लेकरमुनमुन सेन तक कोई भी किसी का विकल्प बन सकता है।


फिल्मों में नायक नायिका की केंद्रीय भूमिका निभाने वाले कलाकारों की लेकिन राजनीति में कोई भूमिका नहीं है।


रायदिघी से विधायक चुने जाने के बाद पूरे ढाई साल से इलाके के लिए लापता फिल्मस्टार देवश्री राय को फिर दीदी ने अतिथि कलाकार बता दिया और इस पर देवश्री को कोई आपत्ति भी नहीं है।दीदी के मुताबिक कलाकार राजनेताओं के तरीके से जनता के बीच काम कर ही नहीं सकते और न इलाकों का विकास उनसे संभव है।उनका काम लेकिन मां माटी मानुष की सरकार कर रही है।इलाके का तेज विकास जारी है।


सही है ,लेकिन बतौर सांसद,विधायक अतिथि कलाकारों की भूमिका तो बताइये,दीदी!


जाति उन्मूलन से ही खत्म हो सकता है रंगभेद। थम सकाता है अश्वमेधी नरसंहार और जनपदों का सफाया। দলিত উন্নয়নে পিছিয়ে বাংলা, মন্তব্য অমর্ত্যর बहसतलब ,हम गुलाम प्रजाजन स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक कब बनेंगे?कृपया खुलकर लिखें। संघ परिवार की कृपा से पत्रकारों गैरपत्रकारों की जो कूकूरगति हुई है,उसके बाद मीडिया का हिंदुत्व और नमोमय भारत निर्माण के लिए अतिशय मीडिया सक्रियता इस दुश्चक्र का तार्किक परिणाम है।

जाति उन्मूलन से ही खत्म हो सकता है रंगभेद। थम सकाता है अश्वमेधी नरसंहार और जनपदों का सफाया।

দলিত উন্নয়নে পিছিয়ে বাংলা, মন্তব্য অমর্ত্যর


बहसतलब ,हम गुलाम प्रजाजन स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक कब बनेंगे?कृपया खुलकर लिखें।

संघ परिवार की कृपा से पत्रकारों गैरपत्रकारों की जो कूकूरगति हुई है,उसके बाद मीडिया का हिंदुत्व और नमोमय भारत निर्माण के लिए अतिशय मीडिया सक्रियता इस दुश्चक्र का तार्किक परिणाम है।


पलाश विश्वास


बहसतलब ,हम गुलाम प्रजाजन स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक कब बनेंगे?


कृपया खुलकर लिखें।

कवियों को हमने कविता में राय देने की छूट दे रखी है और यह मानते भी हैं हम कि हर बंद दरवाजे पर दस्तक के लिए कविता से बेहतर कोई हाथ नहीं।

हम यह बहस आपकी राय मिलने के बाद ही समेटेंगे।

बहस की पहली किश्त यह प्रस्तावना है।जिसे हम जारी कर रहे हैं।विषय विस्तार अगली किश्तों में होगा।


हमारे परम मित्र आदरणीय आनंद तेलतुंबड़े का मानना है कि अंबेडकरी विचारधारा का मूल एजंडा जाति उन्मूलन है।समयान्तर के ताजा अंक में उनका लेख छपा है इसके अलावा इस अंक के तमाम लेख जाति समस्या पर केंद्रित है।


डा.अमर्त्य सेन और आशीष नंदी जैसे लोग गाहे बगाहे जाति विमर्श पेश करते रहते हैं सत्ता का सुर साधते हुए और कारपोरेट पहल के तहत मुक्त बाजार के माध्यम से ही जाति उन्मूलन का रास्ता बताते अघाते नहीं। बांग्ला में बंगाल में दलितों के हाल पर उनके घड़ियाली आंसू भी पेश हैं।


गिरिराजकिशोर जी संपादित अकार के ताजा अंक में पुनर्वास कालोनियों के बच्चों का आत्मकथ्य है।जो एकदम ताजा बयार जैसी है इस अनंत गैस चैंबर में।विचारधारा की नियति पर लंबा मेरा आलेख जो उन्होंने वर्षों से लटका रखा है,इस करतब से उसका हिसाब बराबर कर दिया है गिरराज किशोर जी और अकार टीम ने।


इन बच्चों की जुबानी मैं खुद को अभिव्यक्त होता हुआ महसूस कर रहा हूं रिटायर दहलीज पर


अंबेडकरवादी विचारक तेलतुंबड़े की तर्ज पर हमारे गांधी वादी सामाजिक कार्यकर्ता ने भी लिखा है।वर्षों से सनी सोरी और दंडकारण्य के हक हकूक की लड़ाई लड़ रहे हिमांशु जी की मैं इसलिए भी तारीफ करता हूं कि सोनी सोरी के आप में शामिल होने के बावजूद उनकी वह आत्मीयता भंग नहीं हुई है।

एक बात और,अब तक कारपोरेट राज और पूंजीबाद का सार्वाजनिक विरोध के जरिये वोटबैंक गणित साधने वालों का पूंजीपरस्त आचरण हम देख चुके हैं।अगर केजरीवाल जुबानी तौर पर पूंजीवाद के हक में बात करें और जमीन पर कारपोरेट राज का विरोध,तो इसपर भी हमें पेट मरोड़ नहीं होना चाहिए।कम से कम उनकी खातिर रिलायंस नियंत्रित मीडिया में भी गैस और तेल संकट के लिए कटघरे में है रिलायंस।

जन हिस्सेदारी और जनसुनवाई,जवाबदेही की जो राजनीति शुरु करने की पहल हुई है,उसे चुनावी कामयाबी न भी मिले तो तो भी राजनीति की परंपरागत लीक तो टूटेगी ही।


इसलिए हम बार बार मित्रों से कह रहे हैं कि बदलाव की जो जनआकांक्षा हैं,उसको दृष्टि में रखिये।चेहरों को नहीं।चेहरे फर्जी हो सकते हैं।पाखंडी और दगाबाज भी। लेकिन जनआकांक्षा का महाविस्फोट तो अब भी बहुप्रतीक्षित है,जो थोड़ा बहुत लीकेज हो रहा है,उसपर टोपी पहनाने की कवायद में कम से कम हमें शामिल नहीं होना चाहिए।


आत्मघाती राजनीति और कंडोम मीडिया के दायरे से बाहर बुनियादी मुद्दों पर चर्चा,संवाद और बहस का समय है यह।


सिंहद्वार पर दस्तक बहुत तेज है।

जाग सको तो जाग जाओ भइये।


इसी सिलसिले में हिमांशु जी ने लिखा है, वह अबतक जारी निरंकुश घृणा अभियान के विरुद्ध हमारी सोच का आवाहन है।

जाति को तो मिटाना है भाई ,

याद रखना जातिवाद को मजबूत करने वाला कोई काम नहीं करना है .


जाति का विरोध करने वाले साथी जातिवादी घृणा फैलाने के आकर्षण में फंसने से बचें .


इसमें मज़ा तो बहुत आता है लेकिन इससे हमारी जाति के लोगों की स्तिथी में कोई सुधार नहीं आता .


मार्टिन लूथर किंग जब अश्वेतों की बराबरी की लड़ाई लड़ रहे थे तो उन्होंने श्वेतों के विरुद्ध घृणा का कोई भी वाक्य कभी नहीं बोला .


बल्कि उस लड़ाई में बहुत बड़ी संख्या में गोरे भी शामिल थे .


जब उनके एक साथी ने एक बार गलती से गोरी महिलाओं के विरुद्ध एक अपमानजनक गीत बनाया


तो मार्टिन लूथर किंग ने उसे रोक दिया था .


हिमांशु जी का यह मतव्य हमारी आंखें खुलने के लिए काफी है।

संचार क्रांति और तकनीक की वजह से अब मीडिया कारोबार कंडोम कवायद है। जिसमें जनप्रतिबद्धता,जनमत,विचारधारा,संवाद की कोई जगह नहीं है।


भारतीय समाज में अखबार अब तक जनमत जनादेश निर्माण में अहम भूमिका निभाते रहे हैं लेकिन अब वे अखबार रंग बिरंगे कंडोम सुगंधित हैंं।


1977 में भारत सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय के केसरियाकरण के साथ मीडिया का जो कंडोम कायाकल्प शुरु हुआ,वह अब फूल ब्लूम है। मजीठिया वेतन मान लागू करने में मूल दिक्कत आटोमेशन के बावजूद ठेके पर हुई भर्ती है,जिन्हें साठ फीसद देना होगा।


केंद्र और राज्य सरकारों के वेतनमान में समान काम के लिए समान वेतन है।


सेना में एक ही रैंक के लिए समान वेतनमान है।


लेकिन एक ही संस्थान के अलग लग अखबारों में,अलग अलग संस्थानों में एक ही पद के लिए वेतनमान में जमीन आसमान का फर्क है।


यह मानवाधिकार और न्याय के सिद्धांत के विरुद्ध है।समानता के विरुद्ध है। असंवैधानिक है।


वाजपेयी सरकार के जमाने में मणिसाणा आयोग की सिफारिशों के तहत  पत्रकारों और गैरपत्रकारों के साथ इस अनंत अन्याय का आरंभ हुआ।


केशरियाकरण के तहत जाति वर्चस्व की सारस्वत रघुकुल रीति जो चालू हुई सो हुई।टका सेर भाजी टका सेर खाजा जो हुआ सो हुआ। मीडिया में संपादक नामक संस्थान का अवसान  हो गया।अब घूमंतू विश्वपर्यटक संपादक जो हैं ,उनके और अखबार के बीच कोई संबंध रहा नहीं है। अखबारों में अब मैनेजरों की चलती है।और सारे पत्रकार गैरपत्रकार उनके पालतू गुलाम है।


संघ परिवार की कृपा से पत्रकारों गैरपत्रकारों की जो कूकूरगति हुई है,उसके बाद मीडिया का हिंदुत्व और नमोमय भारत निर्माण के लिए अतिशय मीडिया सक्रियता इस दुश्चक्र का तार्किक परिणाम है।


कुल  मिलाकर  भारतीय जनता कुल मिलाकर गुलामी की महाजनपद व्यवस्था है।


हम सारे लोग प्रजाजन हैं।नागरिक कतई नहीं हैं।राजनीतिक अधिकार वोट देने तक सीमाबद्ध है। न जनसुनवाई है।न सशक्तीकरण है।न जागरण है।न आंदोलन है। न जनभागेदारी है।न जनसरोकार हैं।न जनपक्षधरता है।न कोई जवाबदेही है।


सामाजिक आर्थिक गुलामी तो जस का तस है।

कारपोरेट राज में तो मानवाधिकार सैन्य राष्ट्र और गिरोहबंद राजनीति के शिकंजे में है।


हमारी राय है कि नागरिक बनने के लिए भी जाति उन्मूलनका एजंडा  प्रस्थानबिंदू बनना चाहिए।


इसी सिलसिले में राज्यसभा चैनल में श्याम बेनेगल के धारावाहिक संविधान देखना भी प्रासंगिक हो सकता है।


जनजागरण,सशक्ती करण,जन सुनवाई,जनहिस्सेदारी और वैचित्र के मध्य वैचित्र्य के सम्मान के साथ सामाजिक न्याय और समता आधारित समाज के निर्माण के लिए जाति उन्मूलन से बड़ा कोई एजंडा नहीं है।


जाति उन्मूलन से ही खत्म हो सकता है रंगभेद। थम सकाता है अश्वमेधी नरसंहार और जनपदों का सफाया।


अस्मिताओं के साथ न्याय और कुल मिलाकर अस्मिताओं का वजूद भी जाति वर्चस्व नस्ल वर्चस्व के अवसान के बिना असंभव है।


हमारे युवा साम्यवादी साथियों ने दशकों के बाद इस दिशा में पहल की है।अभिनव सिन्हा सत्यनारायण ने भी अलग से बहस छेड़ी है।


अनेक बिंदुओं पर असहमति के बावजूद हम उनकी इस पहल का तहेदिल स्वागत करते हैं।


सहमति का विवेक और असहमति का साहस ही संवाद का आधार होना चाहिए।


बहसतलब इसबार यह है कि हम गुलाम प्रजाजन स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक कब बनेंगे।


आनंद तेलतुंबड़े ने अपने आलेख में बहुत साफ साफ लिखा हैः


पिछले छह दशक के दौरान हम जाति उन्मूलन के आंबेडकर के सपने को पूरा कर पाने में न सिर्फ नाकाम रहे हैं बल्कि उस सपने से हम कोसों दूर भी चले आए हैं। आंबेडकर के तथाकथित शिष्य ही इस सपने को दफनाने में सबसे आगे रहे हैं जिन्होंने अपनी-अपनी पहचान के झंडे उसकी कब्र पर गाढ़ दिए हैं। ऊंची जातियों को तो अपने जातिगत लाभ बचाए रखने में दिलचस्पी हो सकती है, लेकिन निचली जातियों को स्वेच्छा से अपनी कलंकित पहचानें ओढ़े रखने में क्या दिलचस्पी हो सकती है? जाति उन्मूलन की आंबेडकरवादी दृष्टि अकेले निचली जातियों की बेहतरी के लिए नहीं इस्तेमाल की जानी थी, बल्कि यह अनिवार्यतः समूची भारतीय जनता के लिए बनी थी। जाति महज भेदभाव या उत्पीड़न का मामला नहीं है। यह एक ऐसा वायरस है जो समूचे राष्ट्र को अपनी जकड़़ में बांधे हुए है। भारत की हर बुराई और लगातार उसके पिछड़ेपन के पीछे मुख्य कारक यही वायरस है। इसे एक क्रांति से रेचन करके ही शरीर से निकाला जा सकता है। कोई भी ऊपरी सुधार इस वायरस को नहीं हटा सकता बल्कि एक संपूर्ण लोकतांत्रिक क्रांति ही जमे हुए वर्गों को उनकी जगह से खत्म करेगी और भारत के समाजवादी भविष्य का रास्ता प्रशस्त करेगी। क्रांति समर्थक ताकतों को यह बात पूरी तरह अपने भीतर बैठा लेने की जरूरत है कि जब तक दलित उनके साथ नहीं आएंगे तब तक क्रांति का उनका सपना पूरा नहीं हो पाएगा। इसी तरह जाति विरोधी दलितों के लिए ध्यान देने वाली बात यह है कि जब तक उनके वर्ग के लोग उनकी ताकत नहीं बनाते, तब तक जाति उन्मूलन का सपना पूरा नहीं हो सकता। इससे यह बात निकलती है कि इन दोनों खेमों को अपनी ऐतिहासिक गलतियां और भूल दुरुस्त करने के लिए एक समान सरोकार के इर्द-गिर्द साथ आकर रणनीति बनानी होगी।


दलितों के लिए यह समझना रणनीतिक अपरिहार्यता है कि जाति सिर्फ सांस्कृतिक या धार्मिक मसला नहीं है बल्कि यह जीवन के हर पहलू के साथ गुंथी हुई है। अधिकतर दलित या तो खेत मजदूर के रूप में या फिर शहरी अनौपचारिक क्षेत्रों में कामगारों के रूप में मुश्किल से अपना पेट भर पा रहे हैं। उनका दलित होना उनकी आर्थिक स्थिति के साथ उलझा हुआ है। उनके ऊपर होने वाले उत्पीड़न से यह बात आसानी से समझी जा सकती है, जो उन्हें आतंकित कर घुटने टेक देने के लिए विवश करती है। कई मामलों में यह समर्पण दरअसल उच्च जातियों के वर्चस्व में आर्थिक और राजनीतिक लाभ को सुनिश्चित करता है, हालांकि वर्चस्व की ऐसी कार्रवाइयां उसी धर्म के लोगों द्वारा की जाती हैं जो दलित उत्पीड़ितों के वर्ग से ही आते हैं। ऐसे उत्पीड़न इसलिए संभव हो पाते हैं क्योंकि दलित वित्तीय रूप से कमजोर होते हैं, आर्थिक रूप से निर्भर, नैतिक रूप से खोखले और अपने वर्ग से असम्पृक्त होते हैं। इसीलिए आरक्षण की दवा उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए दी गई है ताकि अपनी आजीविका के साधनों पर उनका नियंत्रण हो सके और वे किसी भी तरह के अन्याय का प्रतिकार करने में नैतिक रूप से मजबूत बन सकें व उच्च जातियों के लोगों के साथ वर्गीय एकजुटता कायम कर सकें। इसका निदान व्यवहारिक तौर पर वही है जो बाबासाहब आंबेडकर ने 1936 में अपने प्रसिद्ध लेख ''मुक्ति कौन पथे'' में प्रस्तुत किया था जिसमें उन्होंने इस आंदोलन के लोगों के धर्मांतण का तर्क मुहैया कराया था। पहला कदम उन्हें जमीन दिलवाना, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दिलवाना और स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया करवाना होगा; दूसरा, संघर्ष में आस्था की वैचरिकता बहाली का होगा और तीसरा, अन्य जातियों के साथ वर्गीय एकजुटता कायम करना होगा। कार्यक्रम के स्तर पर विचारधारात्मक तैयारी और वर्ग एकजुटता को पहले होना होगा ताकि सशक्तीकरण के साधनों के लिए संघर्ष को प्रभावी तौर से चलाया जा सके।



ऐसा वर्ग विरोधी और जाति विरोधी आंदोलनों को दोबारा गढ़ने से ही संभव होगा। एक तरफ दलित आंदोलन को जाति के मसलों पर संघर्ष करते हुए खुद को वर्ग की लाइन पर लाना होगा तो दूसरी ओर वाम आंदोलन को इस तरह से निर्देशित किया जाना होगा कि वह जाति के यथार्थ को पहचान सके और संघर्षरत दलितों के साथ एकजुटता कायम करने की जरूरत को महसूस कर सके। यह पहल हालांकि वाम आंदोलन की ओर से ही पूरे वैचारिक संकल्प के साथ की जानी होगी जो उसकी ओर से अब तक बकाया है तथा इस क्रम में खुद को सही मानने की अपनी प्रवृत्ति को उसे छोड़ना होगा। जैसा कि मैंने अपनी पुस्तक एंटी इम्पीरियलिज्म एंड एनिहिलेशन ऑफ कास्ट्स में लिखा था, एक बार इस प्रक्रिया की शुरुआत हो गई तो यह एक ऐसे सिलसिले में तब्दील हो जाएगी जिसका अंत बहुप्रतीक्षित भारतीय क्रांति में ही होगा। मुझे कोई और विकल्प नहीं दिखाई देता।


हम आनंद से सहमत हैं लेकिन इस बहस को जनसुनवाई में तब्दील करना चाहते हैं ताकि आतमघाती राजनीति और कंडोम मीडिया के घन घटाटोप में कोई रोशनी की किरण हमेारे लिए नई दिशा खोल सकें।


कृपया राय दर्ज करने से पहले आनंद का लिखा पढ़े जरुर।समयांतर का ताजा अंक नहीं मिला तो अभिषेक के जनपथ और मेरे ब्लागों में पूरा आलेख देख सकते हैं।

http://antahasthal.blogspot.in/2014/02/blog-post_16.html


हम फेस बुक वाल पर विश्वप्रसिद्ध कवि उदय प्रकाश की इस पोस्ट की तर्ज पर पहले ही उन सभी मित्रों से माफी मांगते हैं,जिनके मुखातिब हम हो नहीं पा रहे हैं,लाख कोशिशों के बावजूद,क्योंकि उनमें से ज्यादातर कंडोम से घिरे हुए हैं।

कुछ दोस्तों से न मिल पाने के लिए क्षमा मांगते हुए

February 23, 2014 at 3:42pm

आप बिल्कुल भी आहत न हों

क्योंकि बाहर निकलने के मामले में हमेशा से

काहिल और लद्धड़ रहा हूं. आपको तो मेरे बारे में यह खूब

पता ही है. अपनी गोदी में

मैं अपनी नन्हीं-सी बेटी को किसी कदर

संभाले हुए हूं. मेरे घुटनों पर चढ़ा हुआ है

मेरा प्यारा-सा छोटा बेटा, जिसने

बस अभी-अभी बोलना शुरू किया है

और बाकी के सारे के सारे

बेतहाशा बिना रुके बोले ही चले जा रहे हैं

वे मेरे कपड़ों को पकड़ कर झूल रहे हैं और मेरे हर कदम पर

मेरे साथ-साथ रेंगते हैं

मैं अपने घर के दरवाज़े के बाहर बहुत दूर तक

निकल ही नहीं पाऊंगा

मुझे डर है , सचमुच बहुत खेद है, मैं

आपके फाटक-दहलीज़ तक पहुंच ही नहीं पाऊंगा.

बिल्कुल बुरा न मानें. मुआफ़ी.

मेई-याओ चेन

(अनु : उदय प्रकाश / केनेथ रेक्सरोथ के अंग्रेज़ी अनुवाद के आधार पर)



দলিত উন্নয়নে পিছিয়ে বাংলা, মন্তব্য অমর্ত্যর

Feb 20, 2014, 10.39AM IST




এই সময়: বাংলার রাজনীতিতে এখন সমাজের অনগ্রসর শ্রেণির প্রতিনিধিত্ব কম থাকায় ক্রমশ যে ক্ষোভের স্বর জোরালো হচ্ছে, এবার তাতে গলা মেলালেন নোবেলজয়ী অর্থনীতিবিদ অমর্ত্য সেন৷ বুধবার কলকাতায় এক অনুষ্ঠানে তিনি স্পষ্টই বলেন, বাম শাসিত কেরালায় উচ্চ বর্ণের বিরুদ্ধে যে গণআন্দোলন গড়ে উঠেছিল, পশ্চিমবঙ্গে তেমনটা ঘটেনি৷ যে কারণে, শিক্ষা, স্বাস্থ্য-সহ অন্যান্য সামাজিক সুযোগগুলি সেখানে একেবারে নিচু তলা পর্যন্ত পৌঁছালেও, পশ্চিমবঙ্গে তা হয়নি৷ দুটি রাজ্যেই বামেরা দীর্ঘ সময় শাসন করলেও, যে উত্‍স থেকে এই দুটি রাজ্যে কমিউনিস্ট আন্দোলন গড়ে উঠেছে, সমস্যা রয়েছে সেখানেই৷


সম্প্রতি এ রাজ্যে দলিতদের অধিকার নিয়ে সরব হয়েছেন বর্ষীয়ান সিপিএম নেতা আব্দুর রেজ্জাক মোল্লা৷ দীর্ঘ সাড়ে তিন দশকের বাম শাসনে এ রাজ্যে দলিত ও মুসলিমদের তেমন কোনো অগ্রগতি হয়নি বলেও, প্রকাশ্যেই ক্ষোভ উগড়ে দিয়েছেন এই প্রবীণ বাম নেতা৷ শুধু তাই নয়, সিপিএমের আর এক প্রবীণ নেতা কান্তি বিশ্বাসও একই দাবিতে সরব হয়েছিলেন৷ তাঁরও বক্তব্য ছিল, দলের নেত্ৃত্বে দলিত বা পিছড়ে বর্গের উল্লেখযোগ্য কোনো নেতা নেই৷ 'চাষার ব্যাটা' রেজ্জাক মোল্লা বা দলিত নেতা কান্তি বিশ্বাস যা বলে আসছিলেন, এদিন তারই সমর্থম মিলল নোবেলজয়ী অর্থনীতিবিদের কথাতেও৷ তিনি বলেন, এ রাজ্যে বাম নেতাদের প্রায় সকলেই উচ্চবর্ণের৷ আর উচ্চবর্ণের বিরুদ্ধে তেমন জেরালো কোনো গণ আন্দোলনও গড়ে তোলেনি বামেরা৷ অন্যদিকে, কেরালায় ইএমএস নাম্বুদিরিপাদ নিজে উচ্চবর্ণের প্রতিনিধি হলেও, কেরালায় বাম রাজনীতির অন্যতম বিষয় ছিল উচ্চবর্ণ-বিরোধী আন্দোলন৷ সেখানে সেই ধারার পরম্পরার কারণেই বিস্তার ঘটেছে শিক্ষার৷ শিক্ষিত মানুষ চেয়েছেন উন্নত স্বাস্থ্য পরিষেবা৷ যে কারণে, এই ক্ষেত্রগুলিতে সেখানে শুধু বিস্তার ঘটেছে তাই নয়, তার সুযোগ পৌঁছেছে একেবারে নিচুতলা পর্যন্ত৷

কেরালাই শুধু নয়, তামিলনাড়ুতেও সিপিএমের আন্দোলনের অন্যতম অ্যাজেন্ডা উচ্চবর্ণ-বিরোধী আন্দোলন৷ দলিতদের দাবিতে আন্দোলন৷ বস্ত্তত পেরিয়ারের সময় থেকেই তামিলনাড়ুতে গড়ে উঠেছিল ব্রাহ্মণ্যবাদ-বিরোধী আন্দোলন৷ যে রাজনীতির পরম্পরা বহন করছে সে রাজ্যের প্রধান দুই দল-- ডিএমকে এবং এআইএডিএমকে৷ যে কারণে, সে রাজ্যেও স্বাস্থ্য ক্ষেত্রে উল্লেখযোগ্য অগ্রগতি ঘটেছে৷ কেরালাতেও বাম এবং কংগ্রেস স্বীকার করে নিয়েছে তাদের রাজনৈতিক ও সামাজিক পরম্পরা৷ যা এ রাজ্যে হয়নি৷


কলকাতা গ্রুপের একটি কর্মশালা উপলক্ষে বুধবার কলকাতায় সাংবাদিকেদর মুখোমুখি হয়েছিলেন অমর্ত্য সেন৷ এশীয় দেশগুলির অভিজ্ঞতা নিয়ে দেশের স্বাস্থ্য ব্যবস্থার স্বাস্থ্য ফেরানো নিয়েই আয়োজিত হচ্ছে এই কর্মশালা৷ এই প্রসঙ্গে বাংলাদেশ, থাইল্যান্ড, চীন তো বটেই, অন্যান্য দেশগুলির তুলনায় এদেশের সম্ভাবনা যথেষ্ট উজ্জ্বল হলেও, পারফরম্যান্স অত্যন্ত খারাপ হওয়ায় অত্যন্ত বিরক্তি ও ক্ষোভ প্রকাশ করেন অমর্ত্য সেন৷ তার হিসাবে, এই বিষয়ে পশ্চিমবঙ্গ নিছকই মাঝারি মানের একটি রাজ্য৷ তবে তার দায়যে বর্তমান সরকারের উপর চাপানো যুক্তিযুক্ত নয়, এদিন তাও সাফ বলেন নোবেলজয়ী এই অর্থনীতিবিদ৷ কেরালা পারলেও,কেন পশ্চিমবঙ্গ পারল না, সেই প্রসঙ্গে একটি উত্তর দিতে গিয়েই এদিন দীর্ঘ বাম শাসিত দুই রাজ্যর প্রসঙ্গে এই কথাগুলি বলেন তিনি৷ অন্যদিকে, নালন্দা বিশ্ববিদ্যালয় নিয়েও এদিন খানিকটা ক্ষোভ প্রকাশ করেন অমর্ত্য সেন৷ তিনি বলেন, এটিকে একটি আন্তজার্তিক বিশ্ববিদ্যালয় হিসাবে গড়ে তোলার কথা ছিল৷ কিন্ত্ত এখন তাকে একটি কেন্দ্রীয় বিশ্ববিদ্যালয় হিসাবে গড়ে তোলার কথা বলা হচ্ছে৷ অথচ, মূল ধারণা অনুযায়ী আলোচনার ভিত্তিতে ইতিমধ্যেই ৫ টি দেশ এজন্য অর্থ সাহায্য করেছে৷ এটি বিশ্বাসঘাতকতারই সামিল৷ অন্য একটি প্রসঙ্গে তিনি বলেন, এখনো এদেশে বিদ্যুত্‍, গ্যাস ও গাড়ির জ্বালানিতে যে ভর্তুকি দেওয়া হয়, খাদ্য, পথ্য, পুষ্টির মতো ক্ষেত্রগুলিতে দেওয়া হয় তার চেয়ে কম৷



जाति उन्मूलन से ही खत्म हो सकता है रंगभेद। थम सकाता है अश्वमेधी नरसंहार और जनपदों का सफाया। बहसतलब ,हम गुलाम प्रजाजन स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक कब बनेंगे?कृपया खुलकर लिखें। संघ परिवार की कृपा से पत्रकारों गैरपत्रकारों की जो कूकूरगति हुई है,उसके बाद मीडिया का हिंदुत्व और नमोमय भारत निर्माण के लिए अतिशय मीडिया सक्रियता इस दुश्चक्र का तार्किक परिणाम है।

जाति उन्मूलन से ही खत्म हो सकता है रंगभेद। थम सकाता है अश्वमेधी नरसंहार और जनपदों का सफाया।


बहसतलब ,हम गुलाम प्रजाजन स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक कब बनेंगे?कृपया खुलकर लिखें।

संघ परिवार की कृपा से पत्रकारों गैरपत्रकारों की जो कूकूरगति हुई है,उसके बाद मीडिया का हिंदुत्व और नमोमय भारत निर्माण के लिए अतिशय मीडिया सक्रियता इस दुश्चक्र का तार्किक परिणाम है।


पलाश विश्वास


बहसतलब ,हम गुलाम प्रजाजन स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक कब बनेंगे?


कृपया खुलकर लिखें।

कवियों को हमने कविता में राय देने की छूट दे रखी है और यह मानते भी हैं हम कि हर बंद दरवाजे पर दस्तक के लिए कविता से बेहतर कोई हाथ नहीं।

हम यह बहस आपकी राय मिलने के बाद ही समेटेंगे।

बहस की पहली किश्त यह प्रस्तावना है।जिसे हम जारी कर रहे हैं।विषय विस्तार अगली किश्तों में होगा।


हमारे परम मित्र आदरणीय आनंद तेलतुंबड़े का मानना है कि अंबेडकरी विचारधारा का मूल एजंडा जाति उन्मूलन है।समयान्तर के ताजा अंक में उनका लेख छपा है इसके अलावा इस अंक के तमाम लेख जाति समस्या पर केंद्रित है।


गिरिराजकिशोर जी संपादित अकार के ताजा अंक में पुनर्वास कालोनियों के बच्चों का आत्मकथ्य है।जो एकदम ताजा बयार जैसी है इस अनंत गैस चैंबर में।विचारधारा की नियति पर लंबा मेरा आलेख जो उन्होंने वर्षों से लटका रखा है,इस करतब से उसका हिसाब बराबर कर दिया है गिरराज किशोर जी और अकार टीम ने।


इन बच्चों की जुबानी मैं खुद को अभिव्यक्त होता हुआ महसूस कर रहा हूं रिटायर दहलीज पर


अंबेडकरवादी विचारक तेलतुंबड़े की तर्ज पर हमारे गांधी वादी सामाजिक कार्यकर्ता ने भी लिखा है।वर्षों से सनी सोरी और दंडकारण्य के हक हकूक की लड़ाई लड़ रहे हिमांशु जी की मैं इसलिए भी तारीफ करता हूं कि सोनी सोरी के आप में शामिल होने के बावजूद उनकी वह आत्मीयता भंग नहीं हुई है।

एक बात और,अब तक कारपोरेट राज और पूंजीबाद का सार्वाजनिक विरोध के जरिये वोटबैंक गणित साधने वालों का पूंजीपरस्त आचरण हम देख चुके हैं।अगर केजरीवाल जुबानी तौर पर पूंजीवाद के हक में बात करें और जमीन पर कारपोरेट राज का विरोध,तो इसपर भी हमें पेट मरोड़ नहीं होना चाहिए।कम से कम उनकी खातिर रिलायंस नियंत्रित मीडिया में भी गैस और तेल संकट के लिए कटघरे में है रिलायंस।

जन हिस्सेदारी और जनसुनवाई,जवाबदेही की जो राजनीति शुरु करने की पहल हुई है,उसे चुनावी कामयाबी न भी मिले तो तो भी राजनीति की परंपरागत लीक तो टूटेगी ही।


इसलिए हम बार बार मित्रों से कह रहे हैं कि बदलाव की जो जनआकांक्षा हैं,उसको दृष्टि में रखिये।चेहरों को नहीं।चेहरे फर्जी हो सकते हैं।पाखंडी और दगाबाज भी। लेकिन जनआकांक्षा का महाविस्फोट तो अब भी बहुप्रतीक्षित है,जो थोड़ा बहुत लीकेज हो रहा है,उसपर टोपी पहनाने की कवायद में कम से कम हमें शामिल नहीं होना चाहिए।


आत्मघाती राजनीति और कंडोम मीडिया के दायरे से बाहर बुनियादी मुद्दों पर चर्चा,संवाद और बहस का समय है यह।


सिंहद्वार पर दस्तक बहुत तेज है।

जाग सको तो जाग जाओ भइये।


इसी सिलसिले में हिमांशु जी ने लिखा है, वह अबतक जारी निरंकुश घृणा अभियान के विरुद्ध हमारी सोच का आवाहन है।

जाति को तो मिटाना है भाई ,

याद रखना जातिवाद को मजबूत करने वाला कोई काम नहीं करना है .


जाति का विरोध करने वाले साथी जातिवादी घृणा फैलाने के आकर्षण में फंसने से बचें .


इसमें मज़ा तो बहुत आता है लेकिन इससे हमारी जाति के लोगों की स्तिथी में कोई सुधार नहीं आता .


मार्टिन लूथर किंग जब अश्वेतों की बराबरी की लड़ाई लड़ रहे थे तो उन्होंने श्वेतों के विरुद्ध घृणा का कोई भी वाक्य कभी नहीं बोला .


बल्कि उस लड़ाई में बहुत बड़ी संख्या में गोरे भी शामिल थे .


जब उनके एक साथी ने एक बार गलती से गोरी महिलाओं के विरुद्ध एक अपमानजनक गीत बनाया


तो मार्टिन लूथर किंग ने उसे रोक दिया था .


हिमांशु जी का यह मतव्य हमारी आंखें खुलने के लिए काफी है।

संचार क्रांति और तकनीक की वजह से अब मीडिया कारोबार कंडोम कवायद है। जिसमें जनप्रतिबद्धता,जनमत,विचारधारा,संवाद की कोई जगह नहीं है।


भारतीय समाज में अखबार अब तक जनमत जनादेश निर्माण में अहम भूमिका निभाते रहे हैं लेकिन अब वे अखबार रंग बिरंगे कंडोम सुगंधित हैंं।


1977 में भारत सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय के केसरियाकरण के साथ मीडिया का जो कंडोम कायाकल्प शुरु हुआ,वह अब फूल ब्लूम है। मजीठिया वेतन मान लागू करने में मूल दिक्कत आटोमेशन के बावजूद ठेके पर हुई भर्ती है,जिन्हें साठ फीसद देना होगा।


केंद्र और राज्य सरकारों के वेतनमान में समान काम के लिए समान वेतन है।


सेना में एक ही रैंक के लिए समान वेतनमान है।


लेकिन एक ही संस्थान के अलग लग अखबारों में,अलग अलग संस्थानों में एक ही पद के लिए वेतनमान में जमीन आसमान का फर्क है।


यह मानवाधिकार और न्याय के सिद्धांत के विरुद्ध है।समानता के विरुद्ध है। असंवैधानिक है।


वाजपेयी सरकार के जमाने में मणिसाणा आयोग की सिफारिशों के तहत  पत्रकारों और गैरपत्रकारों के साथ इस अनंत अन्याय का आरंभ हुआ।


केशरियाकरण के तहत जाति वर्चस्व की सारस्वत रघुकुल रीति जो चालू हुई सो हुई।टका सेर भाजी टका सेर खाजा जो हुआ सो हुआ। मीडिया में संपादक नामक संस्थान का अवसान  हो गया।अब घूमंतू विश्वपर्यटक संपादक जो हैं ,उनके और अखबार के बीच कोई संबंध रहा नहीं है। अखबारों में अब मैनेजरों की चलती है।और सारे पत्रकार गैरपत्रकार उनके पालतू गुलाम है।


संघ परिवार की कृपा से पत्रकारों गैरपत्रकारों की जो कूकूरगति हुई है,उसके बाद मीडिया का हिंदुत्व और नमोमय भारत निर्माण के लिए अतिशय मीडिया सक्रियता इस दुश्चक्र का तार्किक परिणाम है।


कुल  मिलाकर  भारतीय जनता कुल मिलाकर गुलामी की महाजनपद व्यवस्था है।


हम सारे लोग प्रजाजन हैं।नागरिक कतई नहीं हैं।राजनीतिक अधिकार वोट देने तक सीमाबद्ध है। न जनसुनवाई है।न सशक्तीकरण है।न जागरण है।न आंदोलन है। न जनभागेदारी है।न जनसरोकार हैं।न जनपक्षधरता है।न कोई जवाबदेही है।


सामाजिक आर्थिक गुलामी तो जस का तस है।

कारपोरेट राज में तो मानवाधिकार सैन्य राष्ट्र और गिरोहबंद राजनीति के शिकंजे में है।


हमारी राय है कि नागरिक बनने के लिए भी जाति उन्मूलनका एजंडा  प्रस्थानबिंदू बनना चाहिए।


इसी सिलसिले में राज्यसभा चैनल में श्याम बेनेगल के धारावाहिक संविधान देखना भी प्रासंगिक हो सकता है।


जनजागरण,सशक्ती करण,जन सुनवाई,जनहिस्सेदारी और वैचित्र के मध्य वैचित्र्य के सम्मान के साथ सामाजिक न्याय और समता आधारित समाज के निर्माण के लिए जाति उन्मूलन से बड़ा कोई एजंडा नहीं है।


जाति उन्मूलन से ही खत्म हो सकता है रंगभेद। थम सकाता है अश्वमेधी नरसंहार और जनपदों का सफाया।


अस्मिताओं के साथ न्याय और कुल मिलाकर अस्मिताओं का वजूद भी जाति वर्चस्व नस्ल वर्चस्व के अवसान के बिना असंभव है।


हमारे युवा साम्यवादी साथियों ने दशकों के बाद इस दिशा में पहल की है।अभिनव सिन्हा सत्यनारायण ने भी अलग से बहस छेड़ी है।


अनेक बिंदुओं पर असहमति के बावजूद हम उनकी इस पहल का तहेदिल स्वागत करते हैं।


सहमति का विवेक और असहमति का साहस ही संवाद का आधार होना चाहिए।


बहसतलब इसबार यह है कि हम गुलाम प्रजाजन स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक कब बनेंगे।


आनंद तेलतुंबड़े ने अपने आलेख में बहुत साफ साफ लिखा हैः


पिछले छह दशक के दौरान हम जाति उन्मूलन के आंबेडकर के सपने को पूरा कर पाने में न सिर्फ नाकाम रहे हैं बल्कि उस सपने से हम कोसों दूर भी चले आए हैं। आंबेडकर के तथाकथित शिष्य ही इस सपने को दफनाने में सबसे आगे रहे हैं जिन्होंने अपनी-अपनी पहचान के झंडे उसकी कब्र पर गाढ़ दिए हैं। ऊंची जातियों को तो अपने जातिगत लाभ बचाए रखने में दिलचस्पी हो सकती है, लेकिन निचली जातियों को स्वेच्छा से अपनी कलंकित पहचानें ओढ़े रखने में क्या दिलचस्पी हो सकती है? जाति उन्मूलन की आंबेडकरवादी दृष्टि अकेले निचली जातियों की बेहतरी के लिए नहीं इस्तेमाल की जानी थी, बल्कि यह अनिवार्यतः समूची भारतीय जनता के लिए बनी थी। जाति महज भेदभाव या उत्पीड़न का मामला नहीं है। यह एक ऐसा वायरस है जो समूचे राष्ट्र को अपनी जकड़़ में बांधे हुए है। भारत की हर बुराई और लगातार उसके पिछड़ेपन के पीछे मुख्य कारक यही वायरस है। इसे एक क्रांति से रेचन करके ही शरीर से निकाला जा सकता है। कोई भी ऊपरी सुधार इस वायरस को नहीं हटा सकता बल्कि एक संपूर्ण लोकतांत्रिक क्रांति ही जमे हुए वर्गों को उनकी जगह से खत्म करेगी और भारत के समाजवादी भविष्य का रास्ता प्रशस्त करेगी। क्रांति समर्थक ताकतों को यह बात पूरी तरह अपने भीतर बैठा लेने की जरूरत है कि जब तक दलित उनके साथ नहीं आएंगे तब तक क्रांति का उनका सपना पूरा नहीं हो पाएगा। इसी तरह जाति विरोधी दलितों के लिए ध्यान देने वाली बात यह है कि जब तक उनके वर्ग के लोग उनकी ताकत नहीं बनाते, तब तक जाति उन्मूलन का सपना पूरा नहीं हो सकता। इससे यह बात निकलती है कि इन दोनों खेमों को अपनी ऐतिहासिक गलतियां और भूल दुरुस्त करने के लिए एक समान सरोकार के इर्द-गिर्द साथ आकर रणनीति बनानी होगी।


दलितों के लिए यह समझना रणनीतिक अपरिहार्यता है कि जाति सिर्फ सांस्कृतिक या धार्मिक मसला नहीं है बल्कि यह जीवन के हर पहलू के साथ गुंथी हुई है। अधिकतर दलित या तो खेत मजदूर के रूप में या फिर शहरी अनौपचारिक क्षेत्रों में कामगारों के रूप में मुश्किल से अपना पेट भर पा रहे हैं। उनका दलित होना उनकी आर्थिक स्थिति के साथ उलझा हुआ है। उनके ऊपर होने वाले उत्पीड़न से यह बात आसानी से समझी जा सकती है, जो उन्हें आतंकित कर घुटने टेक देने के लिए विवश करती है। कई मामलों में यह समर्पण दरअसल उच्च जातियों के वर्चस्व में आर्थिक और राजनीतिक लाभ को सुनिश्चित करता है, हालांकि वर्चस्व की ऐसी कार्रवाइयां उसी धर्म के लोगों द्वारा की जाती हैं जो दलित उत्पीड़ितों के वर्ग से ही आते हैं। ऐसे उत्पीड़न इसलिए संभव हो पाते हैं क्योंकि दलित वित्तीय रूप से कमजोर होते हैं, आर्थिक रूप से निर्भर, नैतिक रूप से खोखले और अपने वर्ग से असम्पृक्त होते हैं। इसीलिए आरक्षण की दवा उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए दी गई है ताकि अपनी आजीविका के साधनों पर उनका नियंत्रण हो सके और वे किसी भी तरह के अन्याय का प्रतिकार करने में नैतिक रूप से मजबूत बन सकें व उच्च जातियों के लोगों के साथ वर्गीय एकजुटता कायम कर सकें। इसका निदान व्यवहारिक तौर पर वही है जो बाबासाहब आंबेडकर ने 1936 में अपने प्रसिद्ध लेख ''मुक्ति कौन पथे'' में प्रस्तुत किया था जिसमें उन्होंने इस आंदोलन के लोगों के धर्मांतण का तर्क मुहैया कराया था। पहला कदम उन्हें जमीन दिलवाना, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दिलवाना और स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया करवाना होगा; दूसरा, संघर्ष में आस्था की वैचरिकता बहाली का होगा और तीसरा, अन्य जातियों के साथ वर्गीय एकजुटता कायम करना होगा। कार्यक्रम के स्तर पर विचारधारात्मक तैयारी और वर्ग एकजुटता को पहले होना होगा ताकि सशक्तीकरण के साधनों के लिए संघर्ष को प्रभावी तौर से चलाया जा सके।



ऐसा वर्ग विरोधी और जाति विरोधी आंदोलनों को दोबारा गढ़ने से ही संभव होगा। एक तरफ दलित आंदोलन को जाति के मसलों पर संघर्ष करते हुए खुद को वर्ग की लाइन पर लाना होगा तो दूसरी ओर वाम आंदोलन को इस तरह से निर्देशित किया जाना होगा कि वह जाति के यथार्थ को पहचान सके और संघर्षरत दलितों के साथ एकजुटता कायम करने की जरूरत को महसूस कर सके। यह पहल हालांकि वाम आंदोलन की ओर से ही पूरे वैचारिक संकल्प के साथ की जानी होगी जो उसकी ओर से अब तक बकाया है तथा इस क्रम में खुद को सही मानने की अपनी प्रवृत्ति को उसे छोड़ना होगा। जैसा कि मैंने अपनी पुस्तक एंटी इम्पीरियलिज्म एंड एनिहिलेशन ऑफ कास्ट्स में लिखा था, एक बार इस प्रक्रिया की शुरुआत हो गई तो यह एक ऐसे सिलसिले में तब्दील हो जाएगी जिसका अंत बहुप्रतीक्षित भारतीय क्रांति में ही होगा। मुझे कोई और विकल्प नहीं दिखाई देता।


हम आनंद से सहमत हैं लेकिन इस बहस को जनसुनवाई में तब्दील करना चाहते हैं ताकि आतमघाती राजनीति और कंडोम मीडिया के घन घटाटोप में कोई रोशनी की किरण हमेारे लिए नई दिशा खोल सकें।


कृपया राय दर्ज करने से पहले आनंद का लिखा पढ़े जरुर।समयांतर का ताजा अंक नहीं मिला तो अभिषेक के जनपथ और मेरे ब्लागों में पूरा आलेख देख सकते हैं।

http://antahasthal.blogspot.in/2014/02/blog-post_16.html


हम फेस बुक वाल पर विश्वप्रसिद्ध कवि उदय प्रकाश की इस पोस्ट की तर्ज पर पहले ही उन सभी मित्रों से माफी मांगते हैं,जिनके मुखातिब हम हो नहीं पा रहे हैं,लाख कोशिशों के बावजूद,क्योंकि उनमें से ज्यादातर कंडोम से घिरे हुए हैं।

कुछ दोस्तों से न मिल पाने के लिए क्षमा मांगते हुए

February 23, 2014 at 3:42pm

आप बिल्कुल भी आहत न हों

क्योंकि बाहर निकलने के मामले में हमेशा से

काहिल और लद्धड़ रहा हूं. आपको तो मेरे बारे में यह खूब

पता ही है. अपनी गोदी में

मैं अपनी नन्हीं-सी बेटी को किसी कदर

संभाले हुए हूं. मेरे घुटनों पर चढ़ा हुआ है

मेरा प्यारा-सा छोटा बेटा, जिसने

बस अभी-अभी बोलना शुरू किया है

और बाकी के सारे के सारे

बेतहाशा बिना रुके बोले ही चले जा रहे हैं

वे मेरे कपड़ों को पकड़ कर झूल रहे हैं और मेरे हर कदम पर

मेरे साथ-साथ रेंगते हैं

मैं अपने घर के दरवाज़े के बाहर बहुत दूर तक

निकल ही नहीं पाऊंगा

मुझे डर है , सचमुच बहुत खेद है, मैं

आपके फाटक-दहलीज़ तक पहुंच ही नहीं पाऊंगा.

बिल्कुल बुरा न मानें. मुआफ़ी.

मेई-याओ चेन

(अनु : उदय प्रकाश / केनेथ रेक्सरोथ के अंग्रेज़ी अनुवाद के आधार पर)