फ्रांज काफ़्का की जीवनी 'काफ़्का' का सातवां अध्याय : एक चीनी यूनानी अन्तराल
पिएत्रो सिताती
अनुवाद : अशोक पाण्डे
न्यायालय की महन्तशाही की ही तरह चीन की महान दीवार के निर्देशक का दफ्तर किसी अगम्य स्थान पर स्थित है। अनाम सूत्राधार के तमाम सवालों के बावजूद कोई भी नहीं जान सका कि निर्देशक का दफ्तर कहां है और वहां कौन बैठा करता था। यहां भी धरती का केन्द्र अज्ञात ही है। लेकिन इस अज्ञात स्थान में दुनिया का महानतम ज्ञान इकठ्ठा है। हालांकि संभवत: महान दीवार का निदेशालय पवित्रा नहीं है तो भी खिड़कियों से होकर आने वाला ''पवित्रा संसारों का प्रतिविम्ब'' नक्शे बना रहे निर्देशकों के हाथों को आभासित करता है। निदेशालय की गतिविधि में जो बात सबसे उल्लेखनीय है वह उसका सम्पूर्ण नियंत्राण है। ऊपर वहां सबसे उच्च स्थान है। ईश्वर द्वारा आभासित चौड़ी खिड़कियों से मनुष्य की सारी इच्छाएं फन्तासियां और विचार आते हैं और उसकी सारी उपलब्धियां और उसके उद्देश्य और सभी ज्ञात कालखंडों और मनुष्यों के संरचनात्मक अनुभव भी।
असाधारण बात यह है कि संपूर्णता से प्रेरित इस पवित्रा निदेशालय ने केवल दीवारों के हिस्से बनाए हैं। ऐसा नहीं है कि चीन की महान दीवार एक संरचना है जो उत्तारी स्टेपीज से शुरू होकर तिब्बती पर्वतों के पैरों पर जा कर खत्म होती हो। यह कई संरचनाओं की श्रृंखला है - पांच सौ मीटर लम्बी दीवारें हैं जिन्हें बीस बीस मजदूरों की टुकड़ियों ने बनाया था और ये एक दूसरे से जुड़ी हुई नहीं हैं। इतिहास या गाथा के मुताबिक दो दीवारों के बीच बड़े अन्तराल पाए जाते हैं। लेकिन इस तरह की टुकड़े टुकड़े दीवार किस काम की हो सकती है? इस तरह की खंडित दीवार से किस तरह बचाव संभव है? आतताई दो दीवारों के बीच की जगह से भीतर घुस कर नीचे मैदानों की तरफ बढ़कर रेगिस्तानी इलाके में बनाई गई दीवारों को तहस नहस कर सकते हैं। जो भी हो आतताइयों को कभी किसी ने नहीं देखा। चीनी लोग उनके बारे में किताबों में पढ़ते हैं और अपने बरामदों में बैठे उनके अत्याचारों के बारे में बातें करते आहें भरा करते हैं। चित्राकारों के बनाए यथार्थवादी चित्राों में वे आतताइयों की लालच और क्रूरता से भरपूर आकृतियां देखते हैं। इन चित्रों को देककर बच्चे डर के मारे रोने लगते हैं। लेकिन आतताइयों के बारे में चीनियों का ज्ञान इतना ही है। ''हमने उन्हें कभी नहीं देखा है और अगर हम अपने गांव में बने रहें तो हम उन्हें कभी देखेंगे भी नहीं चाहे वे अपने जंगली घोड़ों पर बैठकर हमारी तरफ क्यों न आने लगें। हमारा देश बहुत विशाल है और उन्हें कभी हमारे पास नहीं आने देगा और वे खोखली हवा में अपनी राह भूल जाएंगे।'' सच्चाई यह है कि आतताइयों से बचने के लिए महान दीवार बनाने की बात कभी किसी ने नहीं सोची। निदेशालय का अस्तित्व बना हुआ है जब से चीन के पुरातन देवता बने हुए हैं और यह वास्तुशिल्पीय अभियान भी उतना ही पुराना है। महान दीवार एक दार्शनिक विचार है - एक आदर्श संरचना - एक दिमागी वास्तुशिल्प, जिसे दैवीय महन्तशाही ने चीनी समाज की विशालता और अनेकता को बांधे रखने के लिए खोजा था।
चीन की विडम्बना एक इसी बात पर टिकी हुई है। सम्पूर्ण निदेशालय दीवार का हिस्सा भर बनाना चाहता है क्योंकि दैवीय मस्तिष्क की संपूर्णता धरती पर खण्डित संरचनाओं में ही अभिव्यक्त हो सकती है। संपूर्ण हमेशा कठोर होता है जबकि खंडित लोचदार और धीमा जिसके भीतर यथार्थ के तत्वों को समाहित करने की जगह बची होती है जो चीन की सीमा और उसकी आबादी की अनेकता प्रस्तुत किया करते थे। खंडित ताओ के चिन्ह, पानी, जैसा होता है। निदेशालय मजदूरों को किसी विशाल प्रोजेक्ट में नहीं लगाना चाहता जिसमें वे हताशा से भर जाएं। वह जानता है कि मानव स्वाभाव को जंजीरें बरदाश्त नहीं होतीं। जब उसे किसी विशाल कार्य की जंजीर से बांधा जाता है वह बहुत जल्दी विरोध करना शुरू कर देता है और दीवारों, जंजीरों और खुद को हवा की तरफ फेंक देता है। उस काल में कई लोगों ने बेबेल की मीनार के बारे में सुन रखा था - कुछ ने सोचा कि मानव सभ्यता के इतिहास में पहली बार महान दीवार बेबेल की एक नई मीनार के लिए नींव का काम करेगी। इस बिन्दु पर हमारा अज्ञात सूत्राधार समझ पाने में असमर्थ दिखाई देता है। लेकिन निदेशालय के विचार (काफ्का के विचार) मुझे साफ नजर आते हैं। महान दीवार बेबेल की मीनार की प्रतिरोधी है। पहली की रचना मानवीय धैर्य ने की है जबकि दूसरी का उद्देश्य मनुष्य और देवताओं की सीमाओं को नकारना है। पहली एक ऊर्ध्वाधार संरचना है जबकि दूसरी लम्बवत। पहली एक खंडित रचना है जबकि 'द ट्रायल' के न्यायालय की तरह दूसरी का उद्देश्य संपूर्ण की वृत्ताात्मकता और भयानक तनाव को पुनर्जीवित करना है।
इस तरह स्वयं को आतताइयों से नहीं बल्कि खुद से बचाने वाली दीवार की सुरक्षा के भीतर, चीन, अपने भीतर रह रहे हजारों समुदायों के साथ साम्य बनाए हुए बना रहता है। वह चीन जिसे काफ्का अपनी प्रतिभा के माध्यम से हमारे सामने उसकी पूरी नाजुकी और रंगों के साथ लेकर आता है। हम दक्षिण के एक गांव में हैं। गरमियों की एक शाम, एक पिता अपने बेटे का हाथ थामे नदी के तट पर खड़ा है जबकि उसका दूसरा हाथ उसके लम्बे पाइप को इस तरह सहला रहा है मानो वह कोई बांसुरी हो। वह अपनी दाढ़ी को आगे की तरफ करता है और पाइप का लुत्फ उठाता हुआ नदी के उस पार ऊंचाइयों को देखने लगता है। उसकी चोटी नीचे को गिर जाती है और सुनहरी कढ़ाई किए हुए उसके गाउन के रेशम को हल्के से छूती है। तट के समीप एक नाव ठहरती है, नाव वाला पिता के कान में कुछ कहता है। बूढ़ा चुप हो जाता है और विचारों में खोकर बच्चे को देखने लगता है। वह अपना पाइप खाली करके उसे पेटी में खोंसता है बच्चे का गाल सहलाता है और उसके सिर को अपने सीने से लगा लेता है। जब वे घर पहुंचते हैं, मेज पर चावल उबल रहा है, कुछ मेहमान आए हैं और मां गिलासों में वाइन डालना शुरू करती है। पिता अभी अभी नाव वाले से सुनी खबर दोहराता है - उत्तार में शहंशाह ने महान दीवार का निर्माण प्रारम्भ कर दिया है।
महान दीवार का एक हिस्सा पूरा हो जाता है। उत्सवों के उत्साह में मुखिया दूर दूर भेजे जाते हैं और अपनी यात्रााओं के दौरान वे यहां वहां तैयार हो चुके महान दीवार के हिस्सों को देखते हैं। वे उच्चाधिकारियों के दफ्तरों से होकर गुजरते हैं जहां उन्हें सम्मान के पदक दिए जाते हैं। वे गांवों से आने वाले मजदूरों की भीड़ को देखते हैं, वे दीवार बनाने को काम में लाए जाने के लिए समूचे जंगलों को काटा जाता और पहाड़ियों को खोदा जाता हुआ देखते हैं, वे पवित्रा जगहों पर दीवार के जल्दी बन जाने की दुआ करते श्रध्दालुओं की प्रार्थनाएं सुनते हैं। यह सब उनके अधैर्य को शान्त करता है। वे अपने गांवों को लौट आते हैं। घर की शान्त जिन्दगी उन्हें नई ताकत देती है जबकि उनकी आधिकारिक ताकत और बाहर से आने वाली खबरें और दीवार के पूरा हो जाने की आम लोगों की निश्चितता उनकी आत्माओं के साज के तारों को कसे रखती है। काम दुबारा प्रारम्भ करने का पागलपन अजेय हो जाता है तो वे अपने घरों से निकल पड़ते हैं सतत उम्मीद से भरपूर बच्चों की तरह। वे जल्दी घर छोड़ देते हैं और आधा गांव उन्हें दूर तक विदा करने आता है। सड़कों पर लोग हैं, झंडे हैं, शोर है - उन्होंने पहले कभी नहीं जाना था कि चीन कितना महान, कितना संपन्न और किस कदर प्यार किए जाने लायक है। हर खेतिहर एक भाई है जिसके लिए दीवार बनाई जा रही है और वह इस बात को लेकर जीवन भर कृतज्ञ रहने वाला है। तब तक के लिए काफ्का को सामूहिक श्रम कोई मशीनी और उबाऊ प्रक्रिया लगती थी जैसा कि 'अमेरिका' में होता था। फिलहाल उसकी किताबों में पहली बार वह उदात्ता जन समुदाय का यूटोपिया बन जाता है- एक व्यक्ति की नसों से रक्त का संचार होता है और समूचे असीम चीन में बिखर जाता है। और यह सामुदायिक सौहार्द इसलिए उपजा है कि दीवार कोई संपूर्ण या ठोस संरचना नहीं बल्कि टुकड़ों का एक धैर्यवान और लचीला समूह है।
चीन के केन्द्र में शहंशाह - ईश्वर और पीकिंग हैं : अपने सजीव शरीरों के साथ। कितना विराट है शहंशाह! वह एक विशाल जगह जैसा है! एक नगर! एक अनन्त महल! चीनी आदमी कहीं भी रहता हो, चाहे वह पीकिंग से कुछ ही मील दूर क्यों न हो, केन्द्र से वह हमेशा एक महान दूरी पर रह रहा होता है। वह कहीं भी हो, उसे हमेशा सुदूरतम कक्षाओं में रहना होता है जहां वह सुदूर राजधानी से आने वाली रपटों और गाथाओं को सुनता है। लेकिन असलियत में वह कुछ भी नहीं जानता। वह शहंशाह का नाम नहीं जानता और राजवंश के नाम को लेकर उसे संदेह बना रहता है। जहां तक बीते हुए समय का सवाल है, उसके गांव में वर्षों पहले मृत शहंशाहों की पूजा की जाती है - पुरातन इतिहास के युध्द अब जाकर लड़े जाने शुरू हुए होते हैं और चमकते चेहरे के साथ उसका पड़ोसी समाचार लेकर आता है। सत्ता की सनक में पागल और वासना में उत्तोजित, पुरातन शाही रखैलें अपने कुकर्म किए जाना जारी रखती हैं। हजार साल की एक पुरानी मलिका अभी अभी लम्बे लम्बे घूंटों में अपने पति का खून पी रही होती है। लोग पीकिंग और शहंशाह के समय से बाहर रहते हैं - वे भूतकाल की घटनाओं को वर्तमान की तरह जीते हैं और वर्तमान को भूतकाल की तरह।
चीनी लोग इस तरह व्यवहार करते हैं मानो शहंशाह/भगवान का अस्तित्व ही न हो। उन्हें संपूर्ण की कोई इच्छा नहीं होती। वे कभी भी इस शहंशाह/ भगवान जैसा नहीं होना चाहते। अगर शहंशाह/भगवान का अस्तित्व ही नहीं तो साम्राज्य नाम की संस्था का भी अस्तित्व नहीं हो सकता। बुध्दिमान लोग जानते थे कि आदमी को ज्यादा कसी हुई जंजीरों में नहीं बांधा जाना चाहिए - लगाम ढीली होनी चाहिए, जैसा कि ताओ उपदेश देता है, ताकि चीनी लोगों को पीछे खींचे जाने की अनुभूति न हो और वे लगाम को झकझोरने न लगें। केन्द्र बहुत दूर है और साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों के बीच की कड़ियां ढीली हैं। कानून बहुत अस्पष्ट है और उसे कभी लागू नहीं किया जाता। एकात्मकता और संपूर्णता के कुछ हिमायती, 'द ट्रायल' के चन्द उत्ताराधिकारी, ऐसा मान ही सकते हैं कि इस के कारण अराजकता फैल सकती है और कड़ियल धार्म जैसी एक दीवार बनाई जानी चाहिए। लेकिन हालांकि वह बेहद अनिश्चित है, इस कहानी का अज्ञात सूत्राधार अच्छी तरह जानता है कि चीनी लोग आपस में इसी वजह से बंधे हुए हैं कि महान दीवार के बीच खाली जगहें हैं, कि साम्राज्य की व्यवस्था ढीलीढाली है और यह कि शहंशाह का अस्तित्व नहीं है।
शहंशाह की मृत्यु हो चुकी है - ईश्वर की मृत्यु हो चुकी है - शायद हमेशा के लिए। अपनी मृत्युशैया से शहंशाह अपने राज्य के सबसे दीनहीन व्यक्ति को, जिसने चीन के सुदूृरतम इलाके में शरण ले रखी है, एक सन्देश भेजता है। वह सन्देशवाहक से नीचे झुकने का अनुरोध करता है और फुसफुसाकर अपना सन्देश लिखवाता है। वह सन्देश को लेकर इतना सचेत है कि उस के आग्रह पर सन्देशवाहक उसे दोबारा पढ़कर सुनाता है। अपना सिर हिलाकर वह स्वीकृति देता है। काफ्का के पूरे कार्य में इस क्षण के अलावा कहीं भी ईश्वर, वह भी मरता हुआ ईश्वर, अपने मातहतों के लिए इतनी परवाह करता है - उसका सन्देश किसी विश्वविद्यालय के लिए नहीं है बल्कि उसके लाखोंलाख क्षुद्रतम मातहतों में से एक को भेजा जा रहा है। यह रहस्यमय सन्देश अपने गन्तव्य तक कभी नहीं पहुंचता। ''लोग इतने ज्यादा हैं! मकानों का कोई अन्त नहीं। अगर मैदान खुले हुए और मुक्त होते तो सन्देशवाहक उड़ने लगता और उसके खटखटाने की शानदार आवाज आप अपने दरवाजे पर सुनते। इसके उलट वह जरा भी जल्दीबाजी में नहीं है। वह अब भी अन्तर्महल के गलियारों में अपना रास्ता तलाश रहा है वह कभी भी उनके पार नहीं जा सकेगा और अगर वह ऐसा कर भी लेता है तो वह किसी काम का नहीं होगा। उसे सीढ़ियों पर जूझते रहना होगा और अगर वह वहां से उतर भी गया तो उसके बाद उसे बरामदों का चक्कर लगाना होगा। यहां से भी निकल आया तो उसके सामने इन बरामदों को घेरे एक दूसरा महल होगा और सहस्त्राब्दियों तक ऐसा ही होता रहेगा। और अगर किसी दिन वह आखिरी द्वार से लपक कर दौड़ जाना चाहेगा तो ऐसा कभी नहीं हो सकेगा क्योंकि उसके सामने शाही नगर होगा - संसार का केन्द्र। यहां से कोई नहीं गुजर सकता। एक मृत व्यक्ति का सन्देश लेकर तो और भी नहीं। शाम ढलने पर अपनी खिड़की पर बैठकर आप अलबत्ता इस बारे में ख्वाब देख सकते हैं।''
यह आखिरी वाक्य अपने आप में पूरा अध्यात्म है - ईश्वर की मृत्यु के बाद भी ईश्वर में विश्वास रखने वाले जिस अध्यात्म में रहते हैं। एक विनम्र चीनी आदमी संपूर्ण अंधकार में लिपटे सन्देश की प्रतीक्षा नहीं करता जिसके माध्यम से 'द ट्रायल' का पादरी जोसेफ के से बात करता है। खिड़की पर बैठा वह दिन समाप्त होने पर सन्देशवाहक की प्रतीक्षा करता है - प्रकाश और अन्धाकार को घोलता हुआ। हम सब की तरह वह ''बिना उम्मीद के'' है (क्योंकि ईश्वर अपरिहार्य रूप से मर चुका है) और ''उम्मीद से भरा हुआ'' भी (क्योंकि ईश्वर कभी नहीं मरेगा)। वह अलौकिक की मृत्यु के साथ ही अलौकिक को जानना प्रारम्भ करता है। वह इस तरह जीता है मानो देवताओं का अस्तित्व न हो और तो भी वह उनका स्वप्न देखता है। इस तरह स्वप्न में खोए हुए उसका अस्तित्व हवाई होता है - बिना किसी त्रासद आमंत्राण के। अब चूंकि ईश्वर मर चुका है, वह अपने पिता के साथ एक नर्म और विश्वासपूर्ण सम्बन्ध को पुनर्जीवित करता है, जैसा हमें नदी के तट पर पिता पुत्रा की छवि के माध्यम से दिखाया जाता है - पिता के सीने से लगा पुत्रा का सिर - यह एक ऐसी छवि है जो काफ्का के सारे कृतित्व में हमें केवल यहीं दिखाई देती है।
'द ग्रेट वाल ऑफ चाइना' में ईश्वर एक खाली स्थान है, एक अनुपस्थित और मरती हुई आकृति, नम्रता की एक मरूमारीचिका और हालांकि हम उस सन्देश से नावाकिफ हैं जो उसने हम सब के लिए भेजा था, हम कभी विश्वास नहीं कर सकते कि उसका मन्तव्य हमें अपने आकर्षक शब्दों के जाल में फंसाना हो सकता था। सभी देवता चीन के सुदूर देवता जैसे नहीं होते। अचेतन के भीतर शक्तिशाली और बेहद सुन्दर आकृतियां होती हैं - जैसे मोहिनियां जिनका काफ्का ने कुछ समय बाद आहवान किया था - मोहिनियां जो इतनी सदियां बीत जाने के बाद चट्टानी चरागाह में पसरकर हवा में अपने भयावह केशों को मुक्त खोल देती हैं और चट्टानों पर अपने पंजे गड़ाती हैं। वे गाती हैं जैसा कि उन्होंने यूलिसिस के समय में गाया था - तब उन्होंने ट्रॉय के युध्द की गाथा गाई थी जबकि अब वे कुछ रहस्यमय और भयानक शब्दों को गाती हैं जिन्हें ईश्वर मनुष्य के सामने उदघाटित करना चाहता है। उनका गीत हर जगह को भेद देता है और दिलो-दिमागों को अपने आकर्षण में कैद कर लेता है, नाविकों के रस्से जिनसे वे मोहिनियों को बांध दिया करते थे किसी काम नहीं आते, उनके कानों का मोम भी किसी काम नहीं आता जिसकी मदद यूलिसिस लिया करता था। वे सब जो उनकी दैवीय आवाज को सुनते हैं, खो जाते हैं, वे रहस्योद्धाटन को बरदाश्त नहीं कर पाते और चट्टानों पर हव्यिों और मुरझाई त्वचा के ढेर हैं। लेकिन यूलिसिस के समय से हमारे समय तक ये मोहिनियां और भी शक्तिशाली बन चुकी हैं। अब उनका सबसे बड़ा आकर्षण है उनकी खामोशी। जहां 'द ग्रेट वॉल ऑफ चाइना' के एक शुरूआती ड्राफ्ट 'न्यूज ऑफ द बिल्डिंग ऑफ द वॉल - अ फ्रैगमैंट' में देवता अदृश्य हो जाते थे या मर जाते थे, यहां वे मर चुके होने का दिखावा करते हैं। इस तरह देवताओं की मृत्यु - जो उन दिनों काफ्का का प्रिय विषय थी - उनका बेहद चतुर पैंतरा है। इस खामोशी में एक असहनीय आमंत्राण है। जैसे ही वे खामोश होती हैं हम अपने घमण्ड में यह सोचने का पाप करते हैं कि हमने उन्हें अपनी ताकत से खामोश करा दिया है जिसे हम अपनी विजय समझने लगते हैं असल में वह हमारी सुनिश्चित पराजय में तब्दील हो जाती है - हम अपनी दृष्टि खो देते हैं।
जब काफ्का का यूलिसिस मोहिनियों के समुन्दर में पहुंचता है वे गा नहीं रही होती हैं, वे समझती हैं कि वे उस पर खामोशी की मदद से विजय पा लेंगी या वे उसके चेहरे से टपक रही अतीव प्रसन्नता को देख कर गाना भूल जाती हैं। उनके भीतर किसी को 'सिडयूस' करने की इच्छा नहीं बचती और वे उसकी महान आंखों में चमक रही गरिमा को जब तक संभव हो दबोचे रहना चाहती हैं। उनसे बचने के लिए काफ्का का यूलिसिस होमर के यूलिसिस से भी ज्यादा सावधान है। वह अपने आप को मस्तूल से बांध लेता है और अपने कानों में मोम भर लेता है जबकि 'ओडिसी' का नायक मोहिनियों के गीत के लिए अपने कान खुले रखता है। उसे अपने संसाधनों पर पूरा भरोसा है जबकि बाकी के यात्रिायों की निगाह में वे बेकार हैं। वह मोहिनियों की खामोशी को नहीं सुनता। वह सोचता है कि वे गा रही हैं और कल्पना करता है कि अकेला वह सुरक्षा के कारण उनके गीत को नहीं सुन पा रहा। 'गाती हुई' मोहिनियों का दृश्य उसकी आंखों के सामने एक पल को आता है और वह अपनी वापसी की राह को देखने लगता है। अगर वह खुद को बचा सके और मोहिनियों को हरा दे तो ऐसा उसके सीमित और दृढ़निश्चयी चरित्रा के कारण होगा। वह एक साधारण आदमी है जो हमेशा अच्छी बातें सोचता है - वह 'ओडिसी' के महानायक से बिल्कुल अलहदा है। वह एक पल को भी नहीं सोचता कि मोहिनियों का गीत उसके हास्यास्पद सुरक्षातंत्रा को कभी भी हरा सकता है। देवताओं की खामोशी से वह इस कदर बेपरवाह है कि वह उसे एक ऐसा गीत समझ बैठता है जिसे वह सुनता नहीं। लेकिन वह कोई अपवित्रा आदमी नहीं - वह देवताओं को मार चुके होने के अपने कारनामे से खुद को अभिमानी महसूस नहीं होने देता। इस तरह स्थितियों के विशिष्ट संयोजन के कारण यूलिसिस एक ऐसा आदमी बन जाता है जो अलौकिक के अदृश्ष्य हो जाने के बावजूद बचा रहता है।
हालांकि कई सावधानियों के साथ काफ्का मोहिनियों की गाथा का एक दूसरा संस्करण पेश करता है- यह इकलौता संस्करण है जिस पर स्पष्टत: वह पूरी तरह विश्वास करता है। यूलिसिस कोई सामान्य आदमी भर नहीं है। असल में वह 'ओडिसी' का नायक ही है लेकिन उसके भीतर एक बेहतर अधयात्मिक समझ है जिस के कारण वह देवताओं को धोखा दे पाने के साथ साथ उनके साथ बने रह पाने में कामयाब होता है। जब वह मोहिनियों के होंठों को हिलता हुआ देखता है तो वह यह नहीं समझता कि वे गा रही हैं या कि कानों में पड़ा मोम उसे गाना सुनने नहीं दे रहा। वह समझ रहा है कि मोहिनियां खामोश हैं और उनकी खामोशी में वह देवताओं की मृत्यु को देख रहा है। बाकी लोगों के बरखिलाफ वह इस खामोशी में नहीं फंसता और यकीन करता है कि उसने उन्हें अपनी शक्ति से हराया है। लोमड़ी की तरह चालाक यूलिसिस यह दिखावा करता है कि उसे विश्वास है कि वे अब भी गा रही हैं। यह आधुनिक यूलिसिस खुद काफ्का है - वही शख्स जिसने हमें देवताओं की मृत्यु के बावजूद बने रहना सिखलाया है। जब चीन की सरहद पर रह रहे गरीब को राजा का संदेश नहीं मिलता वह समझने लगता है कि प्राचीन देवता मर चुका है और इसके बावजूद वह उस देवता की स्मृति में 'बिना उम्मीद के और उम्मीद से भरपूर' जिए जाता है। यूलिसिस समझता है कि देवताओं की मृत्यु हमारी शुरूआत के समय लिया जाने वाला सबसे मुश्किल इम्तहान होता है और यह कि देवताओं की चालबाजी का जवाब चालबाजी से ही दिया जा सकता है।
मैं स्वीकार करता हूं कि 1917 में काफ्का द्वारा खुद के क्षयरोगी होने की सूचना मिलने के बाद ताओ और 'ओडिसी' के रंगों की मदद से किए गए इन दो कार्यों के लिए मेरे भीतर विशेष अभिरूचि है। उसके कार्य में इनका विशेष स्थान है। करीब दो साल पहले उसने 'इन द पैनल कॉलोनी' और 'द ट्रायल' को समाप्त किया था।
शान्त जीवन के इन वर्षों में फेलीस के साथ अपने संबंध तोड़ चुकने के बाद काफ्का अपने साहित्य के केन्द्र से दूर जाना चाह रहा था। तीन सालों बाद एक पत्रा में उसने मैक्स ब्रॉड को 'द ग्रेट वॉल ऑफ चाइना' और 'द साइलैन्स ऑफ द साइरेन्स' का मतलब बतलाया था- ''यूनानी लोग बहुत विनम्र हुआ करते थे, उन्होंने कल्पना की कि पवित्रा संसार यथासंभव दूरी पर स्थित होता है ताकि मानवीय अस्तित्व को सांस लेने की हवा मिल सके'' गद्य के इन दो टुकड़ों में काफ्का कम से कम ''संपूर्ण प्रसन्नता'' की बौध्दिक परिकल्पना के नजदीक पहुंच सका हालांकि बाद में वह उसे 'ब्लास्फेमी' का दर्जा दे देता है। धरती पर की अलौकिक और दुनियावी दोनों तरह के जीवन की इससे ज्यादा चमकदार छवियां काफ्का के काम में और कहीं नजर नहीं आती।
जुलाई 2009 अंक
- जुलाई 2009 अंक
- सम्पादकीय : खुला पृष्ठ : दिवाकर भट्ट
- पाठकों के पत्र
- अर्द्धांगिनी कहानी : शैलेष मटियानी
- फ्रांज काफ्का की जीवनी सातवां अध्याय
- डायरी के पन्ने : रमेश शाह
- कहानी : महुआ घटवारिन : पंकज सुबीर
- कला दीर्घा : हरिपाल त्यागी
- सिनेमा प्रतिस्मृति : दीप भट्ट
- लघु कथाएं : आलोक कुमार सातपुते, सुरेंद्र मंथन
- जान स्टूअर्ट मिल और नारीवाद : प्रभा दीक्षित
- उपन्यास : जलाक : सुदर्शन प्रियदर्शिनी
- बाजार में भटकता हुआ शब्द : आलोक पाण्डेय
- कहानी : गिरगिट : जितेन्द्र शर्मा
- स्मृति में रचनाकार : योगेन्द्र कुमार
- प्रतिस्मृति : हरदर्शन सहगल
- पुस्त्क समीक्षा : ऋषि कुमार चतुर्वेदी, किरण अग्रवाल
- ग़ज़लें : कुंवर बेचैन, आर के शर्मा
- कविताएं: कुसुम, यतीन्द्रनाथ,सुरेश सेन, नन्दकिशोर
- तरंग : समाचार: युगेश शर्मा, प्रत्यूश यादव
आधारशिला पत्रिका
- आधारशिला पत्रिका
- युव चेतना की ज़रूरी पत्रिका संपादक : दिवाकर भट्ट संपादकीय कार्यालय : बड़ी मुखानी, हल्द्वानी, नैनीताल 263139 उत्तराखण्ड फोन : 05946-325687, +91-9897087248, +91-9759491085 mail: adharshila.patrika@gmail.com
आधारशिला
साहित्य को समर्पित हिन्दी की राष्ट्रीय पत्रिका
के सदस्य बनें और बनाएं, साहित्य को जन-जन तक पहुंचाएं
संपर्क : बड़ी मुखानी, हल्द्वानी-263139 नैनीताल (उत्तराखण्ड)
आधारशिला अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता- 2009
प्रथम पुरस्कार- 5000/- रूपये
द्वितीय पुरस्कार- 3000/- रूपये
तृतीय पुरस्कार- 2000/- रूपये
पांच सांत्वना पुरस्कार : 1000/- रूपये ;प्रत्येक
1. कहानी कागज के एक तरफ स्पष्ट लिखित अथवा टंकित हो।
2. कहानी की एक प्रति अपने पास सुरक्षित रखें, वापस भेजने की व्यवस्था नहीं रहेगी।
3. कहानी मौलिक, अप्रकाशित एवं अप्रसारित होनी चाहिए। इसका प्रमाण पत्र साथ भेजें।
4. निर्णायकों का निर्णय अंतिम और सर्वमान्य होगा।
5. पुरस्कृत कहानियां 'आधारशिला' के विशेषांक में प्रकाशित की जायेंगी।
सम्पादक- आधारशिला
बड़ी मुखानी, हल्द्वानी, नैनीताल ;उत्तराखण्ड पिन- 263139
ब्लॉग आर्काइव
- ▼ 2009 (20)
- ▼ October (20)
- आधारशिला जुलाई 2009 अंक
- खुला पृष्ठ ( सम्पादकीय)
- मंथन : पाठकों के पत्र
- (पुनर्पाठ ) कहानी- अर्द्धांगिनी - शैलेश मटियानी
- कहानी- महुआ घटवारिन - पंकज सुबीर
- कहानी- गिरगिट - जितेन्द्र शर्मा
- फ्रांज काफ़्का की जीवनी 'काफ़्का' का सातवां अध्याय ...
- डायरी के पन्ने- वह घर तो कविता का ही घर ...
- प्रतिस्मृति- वे ऑफ एप्रोच टू रीडर्ज, यादवेन्द्र शर...
- स्मृति में रचनाकार : बोलना भी मना सच बोलना तो दरकि...
- आलेख :- बाज़ार में भटकता हुआ शब्द
- आलेख- जॉन स्टुअर्ट-मिल और नारीवाद
- कला दीर्घा- चित्रकला के आयाम
- सिनेमा प्रतिस्मृति - प्रकाश मेहरा ने दिया इंडस्ट्...
- लघुकथाएं-आलोक कुमार सातपुते, सुरेन्द्र मंथन
- उपन्यास :- जलाक ( सुदर्शन प्रियदर्शिनी)
- ग़ज़लें : कुंअर बेचैन, आर.के.शर्मा
- कविताएं : कुसुम बुढलाकोटी, यतीन्द्रनाथ राही, सुरे...
- कसौटी : भोजपुरी लोककथा पुनर्रचना तथा सफेद से कुछ द...
- तरंग :-हिन्दी सेवी कैलाशचन्द्र पन्त सम्मानित । 'मै...
- ▼ October (20)
बल्लभ डोभाल : अनुभव से अभिव्यक्ति की यात्रा'
प्रस्तुत संकलन में पत्र संवाद, कविता संवाद, कथा संवाद, संस्मरण संवाद और आध्यात्म धार्म-दर्शन आदि संवादों द्वारा डॉ0 महेश उपाध्याय ने वरिष्ठ रचनाकार बल्लभ डोभाल के लेखकीय अनुभवों के ऐसे दृश्य अंकित किए हैं जो बरबस आकर्षित ही नहीं करते, बल्कि पाठक-मन में रचनात्मक उमंग, ऊर्जा और प्रेरणा भी जगाते हैं।
साहित्य की भिन्न विधाओं में लेखक के ये निजी अनुभव मात्रा एक वानगी रूप में रखे गए हैं। समग्र रूप में उनका लेखन रचना और रचना-प्रक्रिया का आकलन शीघ्र आपके हाथों में होगा।
साहित्य-प्रेमी पाठकों के लिए इस 300 पृष्ठीय संस्करण का मूल्य पेपरबैक 150/- सजिल्द 300/-
सम्पर्क करें आधारशिला प्रकाशन
बड़ी मुखानी, हल्द्वानी, जिला- नैनीताल ;उत्तराखण्ड
'आधारशिला' का कवि त्रिलोचन विशेषांक
कविवर त्रिलोचन पर कविताएं-
गिरधर राठी, ज्ञानेन्द्रपति, देवेन्द्र आर्य, राधेश्याम तिवारी, ब्रह्माशंकर पाण्डेय।
त्रिलोचन के लिखे महत्वपूर्ण पत्रा-
काशीनाथ सिंह अब्दुल बिस्मिल्लाह, अमीर चंद वैश्य,
दिविक रमेश, दीनू कश्यप, सुल्तान अहमद आदि के नाम।
दुर्लभ फोटो एवं चित्रों से सुसज्जित यह ख़ास अंक
दिवाकर भट्ट
प्रधान संपादक
वाचस्पति
अंक संपादक
--
Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited.blogspot.com/
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें