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माया के गले में नोटों की माला से दिक्‍कत क्‍यों?

माया के गले में नोटों की माला से दिक्‍कत क्‍यों?

20 March 2010 9 Comments

राजनीतिक संस्‍कृति की माया

♦ दिलीप मंडल

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उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती की माला को लेकर राजनीति और भद्र समाज में मचा शोर अकारण है। मायावती ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है जो वतर्मान राजनीतिक संस्कृति और परंपरा के विपरीत है। नेताओं को सोने-चांदी से तौलने और रुपयों का हार पहनाने को लेकर ऐसा शोर पहले कभी नहीं मचा। नेताओं की आर्थिक हैसियत के खुलेआम प्रदर्शन का यह कोई अकेला मामला नहीं है। सड़क मार्ग से दो घंटे में पहुंचना संभव होने के बावजूद जब बड़े नेता हेलिकॉप्टर से सभा के लिए पहुंचते हैं, तो किसी को शिकायत नहीं होती। करोड़ों रुपये से लड़े जा रहे चुनाव के बारे में देश और समाज अभ्यस्त हो चुका है।

मायावती प्रकरण में अलग यह है कि वर्तमान राजनीतिक संस्कृति का अब दलित क्षेत्र में विस्तार हो गया है। धन पर बुरी तरह निर्भर हो गये भारतीय लोकतंत्र का यह दलित आख्यान है जो दलित पुट की वजह से कम अभिजात्य है और शायद इस वजह से कई लोगों को अरुचिकर लग रहा है। साठ करोड़ रुपये का चारा घोटाला लगभग तीस हजार करोड़ रुपये के दूरसंचार घोटाले या ऐसे ही बड़े दूसरे कॉरपोरेट घोटालों की तुलना में लोकस्मृति में ज्यादा असर पैदा करता है, तो इसकी वजह घोटाले का भोंडापन ही है। मधु कोड़ा इस देश के सबसे भ्रष्ट नेताओं की सूची में बहुत पीछे होने के बावजूद अपने भ्रष्टाचार के भोंडेपन की वजह से मध्यवर्ग की घृणा के पात्र बनते हैं, जो उन्हें बनना भी चाहिए, लेकिन हर तरह का भ्रष्टाचार समान स्तर की घृणा पैदा नहीं करता।

मायावती की माला को लेकर छिड़े विवाद से भारतीय राजनीति में धन के सवाल पर बहस शुरू होने की संभावना है और इसलिए आवश्यक है कि इस प्रकरण की गहराई तक जाकर पड़ताल की जाए। इस पड़ताल के दायरे में ये सवाल हो सकते हैं – क्या मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों और भारतीय मध्यवर्ग को माला प्रकरण को लेकर मायावती की निंदा करने का अधिकार है, क्या मायावती का वोट बैंक इस विवाद की वजह से नाराज होकर उनसे दूर जा सकता है, राजनीति और चुनाव में धन की संस्कृति का स्रोत क्या है और क्या उत्तर प्रदेश में मायावती की राजनीति का कोई दलित-वंचित विकल्प हो सकता है।

सबसे पहले तो इस बात की मीमांसा जरूरी है कि क्या मायावती कुछ ऐसा कर रही हैं, जो अनूठा है और इस वजह से चौंकाने वाला है। अगर मायावती के जन्मदिन पर हुए समारोह की इस आधार पर आलोचना की जाए कि राजनीति में यह धनबल का प्रदर्शन है, तो मायावती या बसपा ही इसके लिए दोषी कैसे हैं?

जिन लोगों को मायावती को पहनायी गयी नोटों की माला को देखकर उबकाई आ रही है, उन्हें दरअसल उबकाई उसदिन भी आनी चाहिए थी जब यह पता चला था कि दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक, भारत की लोकसभा में 2009 के आम चुनाव के बाद तीन सौ से ज्यादा करोड़पति (यानी जिन्होंने चुनाव आयोग को दिये हलफनामे में अपनी जायदाद एक करोड़ रुपये से ज्यादा घोषित की है। उनकी वास्तविक हैसियत और अधिक हो सकती है) सांसद पहुंचे हैं। यह संख्या पिछली लोकसभा से दोगुनी है। लोकसभा के एक सांसद की औसत घोषित जायदाद पांच करोड़ रुपये से ज्यादा है और लोकसभा के सभी सदस्यों की सम्मिलित जायदाद 2,800 करोड़ रुपये से अधिक है।

राजनीति में धन के संक्रमण की बीमारी राष्ट्रव्यापी हो चली है। महाराष्ट्र में पिछले साल अक्तूबर में हुए विधानसभा चुनाव में 184 करोड़पति विधायक चुन कर आये। महाराष्ट्र विधानसभा में कुल 288 सीटें हैं। हरियाणा में हर चार में से तीन विधायक करोड़पति है। हरियाणा में महाराष्ट्र के साथ ही विधानसभा चुनाव हुए। साथ ही यह बात भी साबित हो गयी है कि जिस उम्मीदवार के पास ज्यादा पैसे हैं, उसके जीतने के मौके ज्यादा हैं। मिसाल के तौर पर, नेशनल इलेक्शन वाच ने आंकड़ों का अध्ययन करके बताया है कि महाराष्ट्र में अगर किसी के पास एक करोड़ रुपये से ज्यादा की जायदाद है तो दस लाख रुपये या उससे कम जायदाद वाले के मुकाबले उसके जीतने के मौके अड़तालीस गुना ज्यादा हैं।

इस संदर्भ में भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन की पहल पर किये गये चुनाव सुधारों की चर्चा की जानी चाहिए। शेषन के मुख्य चुनाव आयुक्त रहने के दौरान उम्मीदवारों पर, चुनाव खर्च की सीमा के अंदर चुनाव लड़ते हुए दिखने का दबाव पहली बार बना। वे आर्थिक उदारीकरण के शुरुआती वर्ष थे। शेषन से पहले चुनाव खर्च की सीमा तो थी, लेकिन इसे एक औपचारिकता भर माना जाता था। उम्मीदवार मनमाना खर्च करते थे और तय सीमा के अंदर दिखा देते थे। इस समय तक चुनावों में तड़क-भड़क खूब होती थी। पोस्टरों और झंडों से गलियां पट जाती थीं। लगभग हर दीवार पर किसी न किसी उम्मीदवार या पार्टी के नारे लिखे होते थे। झंडे-बैनर से लेकर जुलूसों में गाड़ियों और मोटरसाइकिलों की संख्या आदि से किसी उम्मीदवार को मिल रहे समर्थन का एक हद तक अंदाजा लग जाता था। बसों में भर कर लोग आते और खूब बड़ी-बड़ी रैलियां हुआ करती थीं।

मगर चुनावी खर्च की सीमा को सख्ती से लागू किये जाने के बाद चुनाव में माहौल बनाने के ये तरीके बेअसर हो गये। मतदाताओं से संवाद कायम करने, उन तक पहुंचने के पुराने तरीके अब किसी काम के नहीं थे क्योंकि तय सीमा से ज्यादा गाड़ियां चुनाव प्रचार में शामिल नहीं हो सकती थीं। पोस्टर कहां लगाया जा सकता है और कहां नहीं और किसी की दीवार पर नारे लिखने से किसी उम्मीदवार को दिक्कत हो सकती है, जैसे नियमों ने चुनाव लड़ने के तरीके को निर्णायक रूप से बदल दिया।

शेषन से पहले के दौर वाले चुनाव प्रचार के परंपरागत तरीकों में ऐसा लग सकता है कि काफी तड़क-भड़क होती होगी, लेकिन ये तरीके काफी हद तक सभी उम्मीदवारों की पहुंच के अंदर थे। अगर किसी उम्मीदवार को कार्यकर्ताओं का समर्थन हासिल होता था, तो उसके लिए दीवार लेखन करना, पोस्टर छापना, झंडे लगाना, बैनर टांगना, साइकिल-मोटरसाइकिल या गाड़ियों का जुलूस निकालना बहुत मुश्किल काम नहीं होता था और न ही इन कामों में करोड़ों रुपये खर्च होते थे। परंपरागत तरीके के चुनाव प्रचार में उम्मीदवार समान धरातल पर होते थे और किसी उम्मीदवार के झंडे किसी की छत पर लगे रहें या पोस्टर किसी के घर की दीवार पर चिपके रहें, यह सब पैसे से ज्यादा उसे हासिल समर्थन से तय होता था। ये सब तरीके मुश्किल बना दिये जाने के बाद पैसे के कुछ नये खेल शुरू हो गये, जिनसे चुनावी खर्च कई गुना बढ़ गया।

मिसाल के तौर पर, किसी इलाके के प्रभावशाली व्यक्ति को अपने पक्ष में करने के लिए किये गये खर्च का हिसाब न देने का रास्ता अब भी खुला है। चुनाव से पहले प्रशासन के सहयोग से मतदाताओं के बीच शराब पहले भी बांटी जाती थी और अब भी बांटी जाती है। चुनाव में खुद खर्च न कर किसी समाजसेवी या स्वयंसेवी संगठन के माध्यम से किसी विरोधी उम्मीदवार के खिलाफ अभियान चलाया जा सकता है, जिसका खर्च उम्मीदवार के चुनाव खर्च में शामिल नहीं होता। चुनाव पर खर्च करना नेताओं के लिए किसी निवेश की तरह है क्योंकि नेता बनना आमदनी के अनेक नए रास्ते खोलता है।

सांसदों और विधायकों के चुनाव आयोग में जमा आमदनी के हलफनामों का अध्ययन करके साबित किया जा चुका है कि जीते हुए उम्मीदवार अगले चुनाव तक काफी अमीर हो जाते हैं। मिसाल के तौर पर, उम्मीदवारों के हलफनामों के अध्ययन से पाया गया कि महाराष्ट्र में 2004 के विधानसभा चुनाव जीतने वाले एक औसत उम्मीदवार ने 2009 के चुनाव तक अपनी जायदाद में साढ़े तीन करोड़ रुपये जोड़ लिए थे।

चुनाव जीतना जब इस कदर फायदे का सौदा हो तो जिताऊ पार्टियों के टिकट पाने के लिए खर्च करने वालों की कमी कैसे हो सकती है। फर्क सिर्फ इतना है कि कांग्रेस-भाजपा आदि में पैसे का यह खेल अभिजात्य सफाई के साथ किया जाता है जबकि बाकी पार्टियों में उपयुक्त राजनीतिक 'संस्कार' न होने के कारण खेल खुल जाता है। मुख्यधारा में बसपा, राजद, झामुमो जैसी कुछेक पार्टियां ऐसी हैं, जिनके आर्थिक स्रोतों में कॉरपोरेट पैसे की हिस्सेदारी काफी कम है। मायावती की माला की आलोचना में मुखर तीनों राजनीतिक पार्टियों – कांग्रेस, भाजपा और सपा – के कॉरपोरेट संबंध जगजाहिर हैं। कॉरपोरेट रिश्तों को निभाने में बड़ी पार्टियां ज्यादा विश्वसनीय मानी जाती हैं, इसलिए कंपनियों के रास्ते से आने वाले धन पर उनकी ही हिस्सेदारी होती है। दक्षिण भारत की राज्यस्तरीय कई पार्टियों ने भी कॉरपोरेट जगत के साथ अपने रिश्ते जोड़ लिये हैं। कॉरपोरेट संबंधों के बगैर जब कोई दल पैसा जुटाता है या जुटाने की कोशिश करता है, तो उसमें उसी तरह का भोंडापन नजर आता है, जिसके लिए बसपा, राजद या झामुमो जैसी पार्टियां बदनाम मानी जाती हैं।

वामपंथी दलों के अपवाद को छोड़ कर ढेर सारे पैसे के बगैर राजनीति में सफल होने का कोई महत्वपूर्ण मॉडल इस समय मौजूद नहीं है। इसलिए जो नेता पैसा जुटा सकता है, उसी की राजनीति चल सकती है। इस तंत्र को समझे बगैर यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता कि मायावती पैसा जुटाने पर इतना जोर क्यों देती हैं और लालू प्रसाद या शिबू सोरेन पैसे के लिए इतने बेताब क्यों नजर आते हैं। जिन दलों को कंपनियों से पैसे मिलते हैं, वे इन सब गंदे दिखने वाले कामों से परे रह कर राजनीतिक कदाचार और सदाचार की बात कर सकते हैं। राजनीति के लिए धन जुटाने के कॉरपोरेट और गैर-कॉरपोरेट दोनों ही तरह के खेल में विजेता होते हैं नेता और हारने वाली जनता होती है। वैसे तुलना करके देखें तो राजनीति और कॉरपोरेट का संबंध जनता के लिए ज्यादा खतरनाक होता है, क्योंकि इसका असर नीतियों पर होता है। निजी भ्रष्टाचार की तुलना में नीतियों में भ्रष्टाचार कई गुना ज्यादा लोगों को प्रभावित करता है।

एक सवाल यह भी है कि क्या मायावती की समर्थक जनता को इस तरह के विवाद से कोई फर्क पड़ता है? शायद नहीं। दलितों में इस समय पहचान की जिस तरह की राजनीति चल रही है, उसमें नेताओं की समृद्धि कोई शिकायती मुद्दा नहीं है। मुमकिन है कि अपने नेता को इतना समृद्ध देख कर दलित खुश होते हों कि उनका नेता भी कम हैसियत वाला नहीं है। दलित नेताओं के पहनावे और तामझाम पर जोर को और गांधी और आंबेडकर के पहनावे में फर्क को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। दलितों को अपना नेता फकीर नहीं चाहिए क्योंकि यह तो उनके जीवन की असलियत है। वे तो इस स्थिति से उबरना चाहते हैं। खुद न सही, प्रतीकों के जरिये ही वे अपना सशक्तीकरण देखते हैं और महसूस करते हैं। यहीं एक सवाल यह भी उठता है कि क्या दलित राजनीति कोई बेहतर राजनीतिक संस्कृति ला सकती है। इस सवाल के जवाब में यही कहा जा सकता है कि वर्तमान संसदीय राजनीति के दायरे में, जहां पैसे की खनक राजनीति की दिशा को निर्णायक रूप से तय करने लगी है, दलित राजनीति का कोई अलग रास्ता संभव नहीं है। (यह लेख आज जनसत्ता के संपादकीय पन्‍ने पर छपा है)

dilip mandal(दिलीप मंडल। सीनियर टीवी जर्नलिस्‍ट। अख़बारों में नियमित स्‍तंभ लेखन। दलित मसलों पर लगातार सक्रिय। यात्रा प्रिय शगल। इन दिनों भारतीय जनसंचार संस्‍थान, नयी दिल्‍ली में रेगुलर क्‍लासेज़ ले रहे हैं। उनसे dilipcmandal@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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9 Comments »

  • ओंकारेश्वर said:

    अभिजात्य समाज के लोग कुछ भी करें किसी को बुरा नहीं लगता. दलित की बेटी के गले में
    करोड़ों की माला कुलीन समाज को चौका रहा है और मीडिया इसे पचा नहीं पा रही.

    सच तो ये है कि धन का दुरूपयोग कोई भी करे, गलत है, उसका इस तरह सार्वजनिक प्रदर्शन भी गलत है.
    सत्ता में बैठने के बाद समाज के हर तबके का चरित्र एक जैसा ही क्यों हो जाता है- यह सोचने की बात है.

    बाकी कैसा चल रहा है…

    Onkareshwar

    http://bhojpurimovement.ning.com/

  • aradhana "mukti" said:

    मायावती की माला…दलितों के लिये स्वाभिमान की प्रतीक है, पर एलीट लोग तो इसे देख कर कुढ़ेंगे ही. वैसे चाहे मायावती हों या कोई और धन का भौंडा प्रदर्शन खराब तो है ही. पर बात यही है कि यह सबके लिये एक जैसा खराब होना चाहिये.

  • कृष्ण मुरारी प्रसाद said:

    संवेदनशील पोस्ट……
    लड्डू बोलता है…इंजीनियर के दिल से….
    ……….
    ……………….
    देखें…मेरा नजरिया…
    ……….

    मायावती की माला, अन्धों का हाथी और सुराही में कद्दू…….
    मायावती की माला, आधी बिल्ली और इंजीनियर–…………
    http://laddoospeaks.blogspot.com

  • rajkamal said:

    swarn mansikta ke logo ko yeh kaise pachega bhay

  • अंशुमाली रस्तोगी said:

    बात यहां दलित के गले में नोटों की माला की सही है। अगर यही माला किसी सवर्ण तबके के गले में होती तो शायद इतना हो-हल्ला नहीं मचता। मगर इस दलित-सवर्ण से अलग यह मामला राजनीति में आ रहे बेइंतहा पैसे का भी है। आज हर नेता यही चाहता है कि उसे जनता के वोट से नहीं नोट से तौला जाए। नोट का आना-जाना व बना रहना राजनीति और राजनेताओं के लिए जरूरी हो गया। ऐसे में जन की राजनीति खत्म हो गई है, पैसे के प्रति मोह बढ़ता चला जा रहा है।

    मायावती दलित तबके से आती हैं। गजब यह है कि वे उत्तर प्रदेश की महिला मुख्यमंत्री भी हैं। राजनीति और अपने ऊंचे पद के प्रति उनकी महत्वाकांक्षाएं देखी व समझी जा सकती हैं। मगर महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जिस तबके से वे वास्ता रखती हैं, उसके लिए अब तक उन्होंने क्या खास किया है? दलित अपने प्रदेश में आज भी दलित ही है। जातिगत उत्पीड़न का दर्द उसे झेलना पड़ रहा है। दलितों के बीच जो विकास हुआ है या हो रहा है उसके भी वर्ग स्थापित हो गए हैं। मैं ऊंचा हूं और वो नीचा इस विभाजन की खाई वहां भी मौजूद है।

    बेहतर होता मायावती दलितों के मध्य विकसित होने वाली इस जातिगत व्यवस्था को तोड़ने की कोशिश करतीं। माना कि राजनीति में पैसा बहुत मायने रखता है, परंतु इस पैसे का मोल तब समाप्त हो जाता है, जब प्रदेश व देश की जनता के बीच विकास ठहर जाता है। नेताओं की हनक का सिक्का उन पर हावी होने लगता है।

    राजनीति में आ रहे इस पैसे से किसी का भला होने वाला नहीं। मायावती का नोटों की माला पहनना बेशक उन्हें सुख दे सकता है, मगर उस जनता का क्या जिसे दो जून की रोटी भी ठंग से मयस्सर नहीं हो पाती। हमारे नेता इस पर भी तो कुछ सोचें।

  • शशिभूषण said:

    दिलीप जी,मैं सोचता हूँ गलत को गलत कहना हमारी पहली प्राथमिकता होना चाहिए.जिनका खून चूसना ही पेशा ठहरा वो तो वही करेंगे पर जिन्हें बहुसंख्यकों के सेवक,उद्धारक होने का दर्जा मिला हुआ है,जिनकी पूरी लड़ाई उतनी ही अन्यायी इतिहास से भी है उन्हें तो कम से कम शर्म होनी चाहिए.यह कैसा सेवा का मार्ग है जो गलत लोंगो से तुलना में ही सही ठहराया जा सकता है.उम्मीद है गौर करेंगे.

  • dhiru singh said:

    अब वह दिन लद गये जब धोती कुर्ता और थैला लट्काये नेता जी को पसन्द करते थे . आज ग्लैमर की मान्ग हर जगह है . साधारण वर्कर भी चाहता है उसका नेता अलग दिखे . मै भी राजनीतिक क्षेत्र मे सक्रिय हू. मेरे पास एक कार थी छोटी सी फ़ोर्ड फ़ियास्ता . जो मेरे कार्यकर्ताओ को पसन्द नही थी . उनकी मान्ग थी मै इन्डीवर से चलु जिस्से उनकी भी बात बने क्षेत्र मे . मेरी ओकात नही उस कार को खरीदने की . लेकिन और नेता जो पैजारो से चलते है उनके सामने मेरे लोग मुझे कमजोर आन्कते है . बताये मै क्या करु .
    और रही बात करोड पति सांसदो की तो इस पर गौर करे एक पिन्चर जोडने वाला जनता के द्वारा एम.एल.ए बना दिया गया हमारे यहा २००४ मे . आज वह किसी पुराने करोड्पति से भी आगे है

    उसी तरह से मायावती जी के समर्थको को अच्छा लगता है उन्की बहिनजी करोडो की माला पहन्ती है . यह उनके सम्मान की बात है .और वह खुश है .

  • Rajesh said:

    MAYAWATI DUALAT KI BETI HAI – DIGVIJAY SINGH

  • oma sharma said:

    sharm tumko magar nahi aati!

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