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Friday, July 16, 2010

बौनों के दौर में बहुत बड़े आदमी थे प्रभाषजी

प्रभाष जी, उनके चेले और हम

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बेनामी लाल: बेनामी की टिप्पणी-1 : आज प्रभाष जी का जन्मदिन है, पत्रकारिता के संतों की भीड़ लगेगी। वही संत जिन्हें आज प्रभाष जी अगर होते तो इनमें से कइयों को बेहद निराशा और क्रोध में गरिया रहे होते। कई मठाधीश वहां आएंगे, बैठेंगे, प्रभाष जी को याद करेंगे, पत्रकारिता की दशा पर क्षोभ और ग्लानि का नाटक करेंगे। अपने-अपने को प्रभाष जी का चेला साबित करने की होड़ होगी।

प्रभाष परम्परा चलाने की बात होगी। पर कोई भी उस परम्परा का बोझ अपने कंधों पर नहीं चाहेगा। प्रभाष जी संपादक थे.... चेले नए जमाने के संपूर्ण संपादक हैं, सीईओ हैं, मैनेजिंग एडिटर हैं.... अंतर है.... गोष्ठी के बाद संगीत होगा.... और फिर भोजन.... रात भर गिलास और थालियां खाली पड़े सुबह अपने अंत का इंतज़ार करेंगे.... ठीक वैसे ही जैसे सारे ईमानदार पत्रकार कर रहे हैं.... शांति से... चुपचाप.... क्यों.... प्रभाष जी होते तो क्या शांत होते....??????

शाम होते ही हालिया पत्रकारिता के तमाम बड़े-छोटे चेहरे राजघाट के करीब पहुंचने लगेंगे, ये वही जगह है जिससे प्रभाष जी का पुराना और गहरा जुड़ाव था। बड़े चेहरों में से कुछ वहां ये दिखाने की गरज से पहुंचेंगे कि उनमें थोड़ी सी शर्म अभी बाकी है, कुछ  वैसा ही ढोंग करने के लिए जैसा वो अपने अपने चैनलों की प्राइम टाइम बहसों में  और सम्पादकीय पन्नों पर करते हैं और कुछ दफ्तर की थकान उतारने के लिए मुकुल शिवपुत्र के गायन के नाम पर....ये ज़ाहिर है कि प्रभाष जी के लिए पर उनमें से कम ही आएंगे क्योंकि प्रभाष जी की उनके जीवन में जगह उनके काम में ही झलक  जाती है।

ये ठीक वैसा ही है जैसा कि गांधी की गांधीवादियों या कांग्रेसियों के जीवन में  जगह की स्थिति है, ज़्यादातर के लिए गांधी का जीवन में होना परेशानी का सबब बन सकता है। ठीक वैसा ही प्रभाष जी के साथ है, हमारे तथाकथित  बड़े नाम जानते हैं कि भले ही वो आज प्रभाष जी की वजह से मीडिया में हों  पर प्रभाष जी का अंश भी उनके जीवन में, रवैये में गलती से भी आ गया तो न काम  छोड़िए...लाला जी नौकरी भी छीन लेंगे। सो बेहतर है कि बूढ़े की आत्मा को दूर  रखा जाए...साल में दो दिन  की ही नौटंकी तो करनी है सो जन्मदिन और पुण्यतिथि पर देखा जाएगा।

खैर कई छोटे, नवोदित और प्रशिक्षु पत्रकार भी पहुंचेंगे राजघाट, ये भी पक्का ही है। ज़ाहिर है इनमें से कई जनसत्ता पढ़के बड़े हुए होंगे, प्रभाष जी के बारे में पाठ्य पुस्तकों और अध्यापकों से भी पता चला होगा। इनमें से जो जड़ होंगे वो अभी भी प्रभाष जी वाली पत्रकारिता करने का सपना पाले होंगे और देखने  आएंगे कि उनके शिष्य उन्हें कैसे याद करते हैं, वो वाकई प्रभाष जी को श्रद्धांजलि देने आएंगे। कुछ जानते हैं कि सच क्या है और वो केवल महानुभावों का तथाकथित नाटक देख कर मज़े लेने आएंगे, कई ऐसे भी होंगे जिनके लिए ये भी एक पीआर ईवेंट होगा यानी कि बड़े लोगों से मिलकर सम्बंध बनाना या मज़बूत करना। कई लोगों के लिए ज़ाहिर है ये एक शांत और गंभीर आउटिंग का मसला होगा, इधर से गुज़रा था सोचा सलाम करता चलूं वाला टाइप।

फिलहाल इतना तय है कि कई लोग पहुंचेंगे, ठीक वैसे ही जैसे उदयन शर्मा स्मृति व्याख्यान में पहुंचे थे पर याद ही होगा आपको कि वहां जाकर किस तरह की बातें की थी लोगों ने। चलिए अब बोलने पर ही आया है बेनामी तो सुन ही लीजिए, तारीख के साथ बताता हूं....तारीख  थी 6 नवम्बर, 2009 की और जगह थी मध्य प्रदेश में प्रभाष जी का गांव, प्रभाष जी के शव को चिता पर रका जा चुका था....पंचतत्वों में विलीन होते शव के साथ एक प्रभाष जी के एक शिष्य और बेहद वरिष्ठ पत्रकार एक शपथ उठा रहे थे....उनके ही चैनल पर चल रहे वॉक्स पॉप को मैं घर पर बैठा देख रहा था.... शपथ के वाक्य थे....''प्रभाष जी हमारे बीच एक लक्ष्य, एक चुनौती छोड़ गए हैं... ईमानदारी, सत्य और पारदर्शिता से भरी पत्रकारिता.... बिना किसी दबाव के पत्रकारिता को करने और आगे बढ़ाने की चुनौती.... और आज से मेरे लिए एक परम्परा... प्रभाष परम्परा प्रारम्भ हो रही है... मैं एक अनुयायी हूं आज से प्रभाष पीठ का.... परम्परा आदर्शों की जो प्रभाष जी ने स्थापित किए.....''

अब उन्हीं महोदय के तीन दिन पहले उदयन शर्मा स्मृति व्याख्यान में कुछ ऐसा मजबूरी भरा वक्तव्य पर कि कैसे समय और हालात के साथ प्रभाष जोशी की प्रासंगिकता उनके लिए बदल जाती है, जनाब पर मालिकान का ऐसा दबाव है कि वो साफ साफ कह रहे हैं कि पत्रकार कुछ नहीं कर सकते क्योंकि सब कुछ मालिकों के हाथ में है।

ज़ाहिर है जनाब आप संपादक नहीं सीईओ हैं और भाषा ज़रूरत के हिसाब से ही प्रभाषमय होती है। खैर ये अकेले नहीं हैं ऐसे बहुतेरे आपको देखने को मिलेंगे आज, अगर देखने का मन है, शौक है तो चले आइए आज राजघाट के सामने गांधी दर्शन परिसर....हम में से कई आप सबका इंतज़ार कर रहे हैं...और हां हम प्रभाष परम्परा के ध्वज वाहक होने का दावा नहीं करते हैं क्योंकि हम प्रभाष जोशी को बेहद प्यार करते हैं और उनका नाम लेकर झूठ नहीं बोल सकते...उनकी झूठी कसमें नहीं खा सकते....

उम्मीद है प्रभाष जी हमें देख रहे हैं और माफ़ कर देंगे....

आपकाही

बेनामी लाल

बेनामी लाल का परिचय : हालांकि बेनामी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं क्योंकि लगभग हर वेबसाइट और ब्लॉग पर इनकी टिप्पणियां विवाद मचाकर ख्यातिलब्ध रही हैं। किसी भी बड़े से बड़े औदमी की प्रतिष्ठा की मानहानि पलक झपकते ही कर देना इनकी खासियत रही है। लोग इनको गरियाते हैं, कायर कह कह के सामने आने को उकसाते हैं पर बेनामी किसी फुसलावे में नहीं आते हैं। और तमाम गालियां बक कर भी लोग भी बेनामियों को बिना पढ़े रह नहीं पाते। बेनामी बेशर्म बने चुपचाप अपना काम कर रहे हैं, तर्क भी हैं उनके... वो कहते हैं कि जब बड़े-बड़े लोग बेशर्मी से बेईमानी कर रहे हैं तो मैं तो बस बेशर्मी से सच लिख रहा हूं.... बस पहचान छुपाए हूं...राम राम क्या ज़माना आ गया है कि झूठे खुलेआम हैं...और सच्चे बेनाम हैं.... खैर इतने परिचय के बाद भी दरअसल बेनामी का कोई परिचय नहीं है क्योंकि वो परिचय देना नहीं चाहते हैं। लम्बे अर्से से हमारे गरियाने... समझाने... रोकने और टोकने के बाद भी बेनामी अपनी टिप्पणियों से बाज़ नहीं आ रहे थे तो हमने कहा कि भई आखिर कमेंट बक्से में न दिखने का क्या लोगे... तो बेनामी झट बोले कि ऐसा करो मुझे अलग से कॉलम दे दो... वहीं टिपियाता रहूंगा... मैं भी खुश और तुम लोग भी....

तो आज से अलग स्तंभ में विशेष टिप्पणियों के साथ मिलेंगे आपको बेनामी लाल... बेनामी की टिप्पणी... कालम में. यों, इसे किसी दिलदिमागजले की भड़ास मानें या बेनामी की कुंठित-व्यथित बात, पर अगर किसी को बुरा लगे, किसी का दिल दुखे तो उसके लिए अग्रिम माफी चाहता हूं क्योंकि भड़ास ही तो है. -एडिटर

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written by kartikeya, July 16, 2010
मित्र बेनामी भाई, आपकी टिप्पणी अच्छी है पर अफसोस कि इसमें नया कुछ नहीं। आप जिन सज्जन की बात कर रहे हैं वे भी क्या करें काफी हाथ पांव जोड़कर तो जुगाड़ हुआ कैसे खो दें वो जो भाग्य से नसीब हुआ। चैनल में बहस होगी नीति निर्देशक तत्वों पर और हाल ये है कि खुद की कोई नीति नहीं। गलीज़ पत्रकारिता के पोषक हैं ये लोग। दरअसल हमारे देश की पत्रकारिता खासकर हिंदी पत्रकारिता में पिछलग्गूवाद बहुत तगड़ा है जीतेजी तो दोहन होता ही है मरने के बाद भी नाम की दुकान चलती है तब तक जब तक फायदा हो। ये सज्जन भी उसी परिपाटी को निभा रहे हैं। चलने दो भाई जब तक चर रहा है वैसे भी घड़ा भरने का समय आ गया है।
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written by KP, July 15, 2010
Yashwant
I know it is you, but why are you taxing your self so much. Kyon apnaa khun peete ho bhai.
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written by kamal trivedi 7 days dhanbad, July 15, 2010
prabhash jee ke liye benami jee ney kuch bhi galat nahi likha hai bhai yashwantaap unhay ek colam de he dijeya
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written by ramesh singh, July 15, 2010
bhai , pata nahi kyon benami ki bhasha ke tewar aapke sampadkeey sai bilkul milte julte hain...par aap to lagai raho...aise nikle ya wise, bhadas hi to hai...smilies/grin.gif
 

विस्मयकारी है आलोक मेहता का कथन

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एसएन विनोद: पत्रकारिता नहीं, पत्रकार बिक रहे-3 : नई दुनिया के आलोक मेहता की आशावादिता और दैनिक भास्कर के श्रवण गर्ग का सवाल चिन्हित किया जाना आवश्यक है। आलोक मेहता का यह कथन कि ''पेड न्यूज कोई नई बात नहीं है, लेकिन इससे दुनिया नष्ट नहीं हो जाएगी'', युवा पत्रकारों के लिए शोध का विषय है। निराशाजनक है। उन्हें तो यह बताया गया है और वे देख भी रहे हैं कि 'पेड न्यूज' की शुरुआत नई है।

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अरनब गोस्वामी और चिल्लाहट मास्टर

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शेष नारायण सिंह: बीजेपी और कांग्रेस वालों को नाथ कर रखा अरनब ने : टाइम्स नाउ कॉर्पोरेट चैनल है, संभव है उसे राजनीतिक ताक़त से समझौता करना पड़ सकता है : बाकी मीडिया संगठन भी चौकन्ना रहें तो राजनीतिक भ्रष्टाचार का लगाम संभव :  कर्नाटक में खनिज सम्पदा की लूट जारी है. यह लूट कई वर्षों से चल रही है. इस बार मामला थोडा अलग है.

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मीडिया घरानों को ब्लैकमेल करने वाली जोड़ी

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आलोक तोमर: अभिषेक वर्मा और अशोक अग्रवाल की दास्तान : राम कृष्ण डालमिया का नाम अब बहुत लोगों को याद नहीं है। 1950 के दशक में वे देश के सबसे रईस आदमी थे। यह वह समय था जब अंबानी कतर में एक पेट्रोल पंप पर काम किया करते थे। डालमिया राजस्थान के झुनझुनु जिले के चिरावा गांव के एक गरीब परिवार में पैदा हुए थे।

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सत्य वचन नहीं है राहुल देव का कथन

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एसएन विनोद: पत्रकारिता नहीं, पत्रकार बिक रहे-2 : यह ठीक है कि आज सच बोलने और सच लिखने वाले उंगलियों पर गिने जाने योग्य की संख्या में उपलब्ध हैं। सच पढ़-सुन, मनन करने वालों की संख्या भी उत्साहवर्धक नहीं रह गई है। समय के साथ समझौते का यह एक स्याह काल है। किन्तु यह मीडिया में मौजूद साहसी ही थे जिन्होंने सत्यम् घोटाले का पर्दाफाश कर उसके संचालक बी. रामलिंगा राजू को जेल भिजवाया।

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एक था प्रेस क्लब ग्वालियर

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प्रेस क्लब हर शहर, जिले के अखबार में काम करने वालों की शान हुआ करता है। शान इसलिए क्योंकि यहां बैठकर प्रेस में काम करने वाले महसूस किया करते हैं कि उनके पास भी प्रेस के दफ्तर को छोडक़र भी बैठने का कोई ठौर है। यहां बैठकर प्रेस में काम करने वाले अपने दुख-दर्द भी बांटते हैं तो जिन्हें गला तर करने की आदत है वे अपना गला तर कर दिल का बोझ भी कम कर लिया करते हैं। ऐसा देश के हर प्रेस क्लब में शायद होता है। ऐसा ही प्रेस क्लब ग्वालियर में था।

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बौनों के दौर में बहुत बड़े आदमी थे प्रभाषजी

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: जन्मदिन पर आयोजन ने साबित किया : खचाखच भरा था संत्याग्रह मंडप : पंडित कुमार गंधर्व को बहुत सुनते थे प्रभाषजी. मालवा की दाल बाटी को बहुत पसंद करते थे प्रभाषजी. गांधीजी और हिंद स्वराज पर खूब बतियाते और सक्रिय रहते थे अपने प्रभाष जोशी जी. कल तीनों का ही संगम था.

पंडित कुमार गंधर्व के पुत्र मुकुल शिवपुत्र ने अपने गायन के जरिए शब्द, तर्क के परे एक दुनिया का निर्माण किया, जो सिर्फ संवेदना व सुर के जरिए संचालित होती है. दाल-बाटी इतना पसंद किया लोगों ने कि प्लेटें कम पड़ गईं. पानी के दस हजार ग्लास खत्म हो चुके थे, लेकिन पीने वाले पानी तलाश रहे थे. राजघाट के गांधी दर्शन परिसर स्थित सत्याग्रह मंडप का विशाल मंडप कई सौ लोगों की मौजूदगी के कारण छोटा पड़ गया.

मठाधीशों नहीं, आम लोगों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, समर्थकों, शुभचिंतकों का कब्जा रहा मंडप पर. सुगठित आयोजन में बड़े समूह की मौजूदगी ने साबित किया कि प्रभाषजी हमारे समय के अद्वितीय व्यक्ति थे. बौनों के दौर में बहुत बड़े आदमी थे. वे अब सशरीर तो नहीं हैं इस दुनिया में लेकिन उनके विचार, उनकी सोच, उनकी बातें हमेशा हमें बताती रहेंगी कि देश-समाज और मानवता के साथ कैसे जिया जाना चाहिए.

बहुत दिनों बाद दिल्ली के किसी आयोजन में मैं शरीक हुआ. दिल्ली आए तीन बरस हुए और इसमें प्रभाषजी से कुछ बार ही मिलने के बावजूद उनके लेखन, उनके कर्म के कारण मैं खुद को उनके बेहद करीब पाता रहा. उनका अचानक जाना अनाथ कर गया. लगा, संबल देने वाला नहीं रहा. अपना नेता नहीं रहा. पर कल के आयोजन में रामबहादुर राय, हरिवंश, नामवर सिंह, बीसी वर्गीज आदि को देखकर लगा कि ये लोग बहुत कुछ कर रहे हैं, बहुत कुछ सोच रहे हैं. निराश नहीं होना चाहिए. दुनिया से व्यक्ति चले जाते हैं पर विचार को आगे ले जाने वाले नए शख्स फिर सामने आ जाते हैं.

पूरे आयोजन में प्रो. सुधीर चद्र का गांधी पर व्याख्यान ऐसा लगा जैसे गांव पर दादाजी गांधी के किस्से-कहानी सुना रहे हों और बेटे का बेटा चुपचाप आंखें बंद कर सुन रहा हो और अपने मतलब की चीजें समझ रहा हो और रिसीव कर रहा हो. सुधीर चंद्र का लंबा व्याख्यान बोझिल नहीं हुआ. गांधी से जुड़ी कई घटनाओं का जिक्र और उसका विश्लेषण उन्होंने बहुत सरल-सरस तरीके से किया. पर मंडप में मौजूद ढेर सारे लोग, जो बौद्धिकता को एक हद तक ही जीते हैं, व्याख्यान को बोझिल मानते-पाते रहे.

नामवर सिंह ने अपने अंदाज में प्रभाष जोशी की व्याख्या की. प्रभाष का मतलब, शाब्दिक अर्थ डिस्क्लोज करना होता है,  रिवील करना होता है. यही तो करते रहे प्रभाष जी जीवन भर. खुलासे करते रहे. उदघाटित करते रहे. नामवर की यह व्याख्या सबको भाई. लोक धुनों, लोक संगीत, लोक जीवन के प्रति प्रभाषजी के प्रेम को नामवर ने अच्छे तरीके से बताया-सुनाया.

हरिवंश और रामबहादुर राय को मैं सुन नहीं पाया क्योंकि थोड़ी देर से पहुंचा था. मुकुल शिवपुत्र का गायन शुरू में धीमा और उबाऊ रहा. एक ने कान में कहा- अभी इंजन गरम हो रहा है. रफ्तार पकड़ने पर देखना. और हुआ वही. सर्दी-जुकाम और खराब साउंड सिस्टम के बावजूद मुकुल शिवपुत्र जब फार्म में आए तो सबके सिर-हाथ हिलने लगे. आयोजन में दिल्ली के सबसे युवा पत्रकार (ऐसा मैं मानता हूं) शेष नारायण सिंह पूरी जीवंतता के साथ मौजूद थे तो प्रभाष जी के परिजन, दिल्ली-मुंबई के ढेरों वरिष्ठ पत्रकार, युवा पत्रकार पर्याप्त संख्या में आए हुए थे. शेषजी ने प्रभाषजी की पुत्री सोनल जोशी से परिचय कराया जो मुंबई में टीवी जर्नलिस्ट हैं.

हरिवंश जी दिखे तो उनका चरण छुआ. बड़े स्नेह से मेरे हाथों को हाथ में पकड़ा. रांची में अखबारी युद्ध के बावजूद प्रभाषजी के जन्मदिन पर आयोजन में समय निकाल कर आए हरिवंश जी. हरिवंश जी ने अपने साथ के कुछ वरिष्ठ पत्रकारों से मिलवाया जिनमें कुछ लोग मुंबई तो कुछ दिल्ली में हैं. मयंक सक्सेना, राजीव शर्मा, नीरज सिंह, देविका, आरिफ, शिशिर, अजय प्रकाश, विवेक बाजपेयी, सुरेश कई दोस्त मित्र मिले.

आयोजन के बोर्ड पर सबसे उपर राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड का नाम थोड़ा खटकता रहा. मंच के पीछे लगे आयोजन से संबंधित बोर्ड का कलर व लेआउट भी राजकमल वालों की थीम पर था. सोचता रहा कि कम से कम ऐसे आयोजन आयोजकों से मुक्त होने चाहिए. इन आयोजनों के लिए जनता पर भरोसा करना चाहिए. लोगों से चंदा लेना चाहिए.

इस आयोजन को दिल्ली के ज्यादातर अखबारों ने क्या डिस्प्ले दिया, यह ठीक-ठीक पता नहीं पर जिन दो अखबारों को मैं देख पाया, उसमें जनसत्ता ने तो अच्छी जगह पर सचित्र खबर का प्रकाशन किया है, हिंदुस्तान अखबार में भी पेज चार पर तीन कालम में फोटो के साथ खबर है. कार्यक्रम में जनसत्ता के संपादक ओम थानवी और हिंदुस्तान के स्थानीय संपादक प्रताप सोमवंशी भी मौजूद थे. जनसत्ता में इस आयोजन के बारे में जो कुछ प्रकाशित हुआ है, उसे यहां हम ज्यों का त्यों दे रहे हैं-

प्रभाष जोशी देशज शब्दों के धनी थे : नामवर सिंह

प्रभाष जोशी अपने नाम के अनुरूप जीवन भर काम करते रहे. वे ताउम्र तथ्‍यों को उदघाटित व प्रकाशित करते रहे. देशज शब्‍दों के धनी जोशी से आज की मीडिया को सीखना चाहिए जो दुखद रूप से हिंग्लिश की ओर बढ़ रही है. प्रभाष परंपरा न्‍यास की ओर से गांधी दर्शन परिसर में आयोजित पहले प्रभाष जोशी स्‍मारक व्‍याख्‍यान कार्यक्रम में वरिष्‍ठ आलोचक नामवर सिंह ने यह कहा. इस मौके पर राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित प्रभाष जोशी की तीन पुस्‍तकों का लोकार्पण भी किया गया. सभा की अध्‍यक्षता करते हुए नामवर सिंह ने कहा कि प्रभाष जी गांधी के सपनों के भारत के लिये जीना और मरना चाहते थे. ऐसे भारत के लिये जहां सभी को आजादी, समानता और इज्‍जत मिले.

प्रभाष जी के जन्‍म दिवस पर 15 जुलाई पर उनकी पुस्‍तकों- 'आगे अंधी गली है' का लोकार्पण सांसद एवं पत्रकार एच के दुआ ने, '21वीं सदी :पहला दशक' (जनसत्‍ता में छपे लेखों का संकलन) का विमोचन शिक्षा शास्‍त्री शरद चंद्र बेहार और 'मसि कागद' के नए संस्‍करण का विमोचन योगाचार्य स्‍वामी विद्यानंद ने किया.

इस मौके पर हुए पहले व्‍याख्‍यान का विषय था- गांधी: एक असंभव संभावना. प्रो. सुधर चंद्र ने गांधी की प्रासंगिकता को रेखांकित करते हुए कहा कि अहिंसा और सत्‍य के पुजारी गांधीजी वास्‍तविक रूप से केवल एक ही बार अहिंसक रहे. उन्‍होंने हिन्‍द स्‍वराज्‍य को लेकर गांधी की सोच का उल्‍लेख करते हुए कहा कि गांधी खुद उसकी अवधारणा पर चले लेकिन राष्‍ट्रीय आंदोलन को हिन्‍द स्‍वराज्‍य से अलग रखा.

वरिष्‍ठ पत्रकार हरिवंश ने कहा कि जोशी नक्‍सलवाद हो या सामाजिक सरोकार के दूसरे अन्‍य मुद्दे -सभी पर पूरी निष्‍ठा के साथ खुद भी काम करते थे. उन्‍होंने उन मुद्दों को ताकत देने का काम किया जिनका आज अभाव है.

न्‍यास के प्रबंध न्‍यासी राम बहादुर राय ने संस्‍था के उद्देश्‍यों का उल्‍लेख किया. उन्‍होंने बताया कि पैसे के बदले खबर पर जोशी की मुहिम का नतीजा रहा कि प्रेस काउंसिल की ओर से गठित टीम ने 72 पेज की रपट दी है. जो देश भर की हालत उजागर करती है. लेकिन बड़े मीडिया घरानों के दबाव में दूसरी 12 सदस्‍यीय टीम बनी जिसने महज आठ पेज में रपट दी है. सभा के अंत में पंडित कुमार गंधर्व के पुत्र मुकुल शिवपुत्र का गायन हुआ.

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written by ravishankar vedoriya gwalior, July 16, 2010
badhai ho sir ese aayaojano se yuva patrakaro ko bade patrakaro ke bare mai jayda se jayda milta hai jo ki ek swathya parmpra hai
B4M
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written by यशवंत, July 16, 2010
हिंदुस्तान अखबार में पेज चार पर खबर है. मेरे देखने में चूक हो गई. माफी चाहता हूं.
ध्यान दिलाने के लिए शिशिर भाई धन्यवाद.
आभार
यशवंत
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written by shishir, July 16, 2010
yashwant ji hindustan akhbar k 4 no page pe 3 column khabar hai
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written by Ashok mishra , July 16, 2010
yaswantji kal aayojan mai pahauch nahi saka likin tunahari report ekdam live reporting hai bahut behatarin. report ka liya hardik dhanyavad.
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written by prafulla nayak gwalior 09425111001, July 16, 2010
yaswant bhai, aayojan bahale he nahi dekh paya par aapki report ne aayaojan ko live kar dia. badhai.

भारतीय मीडिया

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प्रभाषजी को यह सच्ची श्रद्धांजलि है. पेड न्यूज के खिलाफ जिस मुहिम को आगे बढ़ाया, विस्तार दिया, उस पर काम काफी आगे बढ़ चुका है. प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने एक कमेटी बनाई. कमेटी ने 72 पेजी रिपोर्ट तैयार की. इस रिपोर्ट में पेड न्यूज की समस्या-समाधान के बारे में काफी कुछ कहा गया है.

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मेरे को मास नहीं मानता, यह अच्छा है

मेरे को मास नहीं मानता, यह अच्छा है

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सात काम सौंप गए प्रभाष जी

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प्रभाष जी से मेरा पहला परिचय जेपी आंदोलन के समय में उस समय हुआ जब वे रामनाथ गोयनका के साथ जयप्रकाश नारायण से मिलने आए थे। उस समय की वह छोटी सी मुलाकात धीरे-धीरे प्रगाढ़ संबंध में बदल गई। बोफोर्स मुद्दे को लेकर जब पूरे देश में कांग्रेस के खिलाफ आवाज उठने लगी तब उन्होंने मुझे भारतीय जनता पार्टी में भेजने के लिए संघ के अधिकारियों से बात की। उनका मानना था कि जेपी आंदोलन के दौरान जो ताकतें कांग्रेस के खिलाफ सक्रिय थीं, उन्हें फिर से एकजुट करने में मेरी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। वीपी सिंह की सरकार बनने के पहले और बाद में भी मेरा उनसे लगातार संपर्क बना रहा।

प्रभाष जी यशस्वी पत्रकार तो थे ही। मूलत: वे समाज सेवी और एक आंदोलनकारी थे। उनके संपादकत्व में निकला जनसत्ता ऐसी ही पत्रकारिता के लिए जाना माना गया। संपादकीय दायित्व से मुक्त होते ही वे देश में सकारात्मक परिवर्तन करने वाले हर आदमी और संगठन के साथ खड़े दिखाई दिए। अक्सर मेरी उनसे मुलाकात हो जाती थी। इसे ईश्वरीय संयोग ही कहेंगे कि मुझे यह मौका उनके निधान के दो दिन पहले मिल पाया। चार नवम्बर को लखनऊ के जयनारायण पीजी कालेज में मुझे उनके साथ भाषण के लिए बुलाया गया था। हमें विद्यार्थियों के बीच हिन्द स्वराज का विषय रखना था।

परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी कि कार्यक्रम में भाग लेने के लिए प्रभाषजी और मैं एक कार्यकर्ता(रूपेश) के साथ कार से निकले। बनारस से लखनऊ की दूरी सड़क मार्ग से लगभग 6 घंटे की है। इतना समय उनके साथ बिताने का मेरे लिए यह अनूठा अवसर था। पहले उन्होंने मेरे कामों के बारे में पूछताछ की। मैंने उन्हें बताया कि किस तरह मैं पिछले नौ वर्षों से देश में बौध्दिक, रचनात्मक एवं आंदोलनात्मक गतिविधियों में लगी सज्जन शक्ति से संवाद बनाने की कोशिश कर रहा हूं ताकि उन्हें राष्ट्रनिर्माण के व्यापक लक्ष्य से जोड़ा जा सके। मेरी बात पर वो कुछ पूरक प्रश्न पूछते और कई महत्वपूर्ण बात भी बताते जाते। हमारी बातचीत काफी लंबी और बेबाक रही। उस पूरी बातचीत में मेरे लिए बहुत कुछ सीखने और समझने को था।

प्रभाषजी की यह खासियत थी कि वे योजनाएं ऐसी बनाते जैसे अगले सौ साल तक जीना हो। लेकिन साथ ही उनके क्रियान्वयन के लिए टीम बनाने और लोगों को सहेजने समझाने की इतनी गंभीर कोशिश करते जैसे उन्हें जीने के लिए आज का ही दिन मिला है। अपनी इसी विशेषता के कारण उन्होंने यात्रा के दौरान मुझसे सात कामों का जिक्र किया।

हिन्द स्वराज का प्रचार-प्रसार : प्रभाष जी 'हिन्द स्वराज' को बीज ग्रंथ मानते थे। वे चाहते थे कि देश के नौजवानों को इस किताब को गंभीरता से पढ़ना चाहिए। इसीलिए देश के कालेजों और विश्वविद्यालयों में घूमकर विद्यार्थियों को हिन्द स्वराज के बारे में बताना और समझाना उनके लिए प्राथमिकता का विषय था। अपने इस प्रयास में वे हमारा सहयोग चाहते थे।

मीडिया को पैसे की काली साया से मुक्त करना : पिछले आम चुनावों में जिस तरह कुछ मीडिया घरानों में पैसा लेकर खबर छापने का रिवाज शुरू हुआ, उससे प्रभाषजी बहुत चिंतित थे। उन्होंने मीडिया में आई इस गिरावट के खिलाफ अभियान छेड़ रखा था। वो चाहते थे कि इस दिशा में और लोग भी आगे आएं ताकि मीडिया किसी तरीके से सिर्फ धन कमाने का एक जरिया बन कर न रह जाए।

मूल्यों और मुद्दों की राजनीति : देश की राजनीतिक स्थिति को लेकर प्रभाष जी के मन की चिंता को मैंने साफ महसूस किया। उनका मानना था कि देश के युवाओं को स्थापित दलों की सड़ांध में डुबकी लगाने की बजाए नई रचनाएं खड़ी करनी चाहिए, जो देश की राजनीति को मूल्यों और मुद्दों की पटरी पर वापस लाए।

जेपी आंदोलन से जुड़े तथ्यों का संकलन : बिहार सरकार ने जेपी आंदोलन से जुड़े विभिन्न तथ्यों को संकलित करने की एक परियोजना शुरू की है। उसमें वो सहयोग करना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि मैं और रामबहादुर राय इस काम में विशेष रूप से अपना सहयोग दें क्योंकि हमने उस आंदोलन को बहुत करीब से देखा है।

रामनाथ गोयनका संकलन : प्रभाष जी रामनाथ गोयनका के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे। वो उनके जीवन के विभिन्न आयामों को एक किताब के रूप में संकलित करना चाहते थे।

लोकजीवन का अधययन : भारत में लोकजीवन की जो छटा बिखरी हुई है, उसे प्रभाषजी संजोने के लिए प्रयासरत रहते थे। वो चाहते थे कि लोकजीवन की संरचना और उसकी परंपराओं का विशेष रूप से अधययन किया जाना चाहिए।

देशज शब्दकोश : प्रभाष जी के लेखन में देशज शब्दों की भरमार मिलती है। उनकी इच्छा थी कि हिन्दी की जो तमाम बोलियां हैं, उनके शब्दों को हिन्दी शब्दकोश में शामिल किए जाने की कोई व्यवस्था होनी चाहिए। निकट भविष्य में वे इस संबंध में काम भी करने वाले थे।

अब जबकि प्रभाषजी हमारे बीच नहीं हैं, उनके ये काम हमारे काम बन चुके हैं। हमें उनके कामों को अपनी प्राथमिकता में शामिल करना होगा।

लेखक के.एन. गोविंदाचार्य जाने-माने राजनेता, चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं.


कर्फ्यू में बंद कश्मीरी अखबार

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कश्मीर में एक तरफ पथराव करते नवयुवक और सुरक्षा बल आमने-सामने हैं तो दूसरी तरफ सरकार और स्थानीय मीडिया में भी ठन गई है। मीडिया पथराव नहीं करता, लेकिन उसके शब्द किसी पत्थर से कम चोट भी नहीं करते। इसीलिए अकबर इलाहाबादी ने कहा भी है कि गर तोप हो मुकाबिल तो अखबार निकालो। स्थानीय मीडिया की शिकायत है कि तोप तो मुकाबिल है लेकिन अखबार नहीं निकालने दिया जा रहा है।

कश्मीर घाटी में पिछले दो दिनों से कोई अखबार नहीं निकला है। ऐसा सन् 2008 में तब हुआ था जब अमरनाथ यात्रा के मुद्दे पर जबरदस्त आंदोलन छिड़ा था और पांच दिनों तक घाटी में कोई अखबार नहीं निकला था। बताते हैं कि अगर पिछले 20 साल के कश्मीर विवाद के दौरान पहली बार श्रीनगर में सेना ने फ्लैग मार्च किया है तो कश्मीर के इतिहास में दूसरी बार अखबारों का प्रकाशन मुअत्तल हुआ है।

सचमुच यह अभिव्यक्ति की आजादी के इतिहास की चिंताजनक घटना है और ऐसा नहीं होना चाहिए। ऐसा हुआ क्यों? क्या सरकार ने अखबारों के दफ्तरों पर ताले जड़ दिए या मीडिया के दमन का कोई चक्र चलाया जा रहा है? कश्मीर के पत्रकारों की शिकायत है कि जबसे श्रीनगर में सेना को बुलाने का फैसला किया गया है तब से स्थानीय पत्रकारों को कर्फ्यू पास नहीं दिए जा रहे हैं।

कर्फ्यू पास दिल्ली के पत्रकारों को दिए जा रहे हैं और उनके साथ विशेष मेहमान जैसा व्यवहार किया जा रहा है। उनका आरोप है कि उन्हें सरकार या उसकी एजेंसियां सूचनाएं देने से मना कर रही हैं जबकि दिल्ली से आए पत्रकारों को विस्तार से ब्रीफ किया जाता है। अगर सरकार ने कश्मीर के कुछ पत्रकारों को कर्फ्यू पास जारी भी किए तो वे लोग संपादक स्तर के हैं। अब अखबार संपादक थोड़े ही निकालता है।

इस बीच रियाज मसरूर नाम के एक स्थानीय पत्रकार की सुरक्षा बलों ने कसकर पिटाई भी कर दी है। इसी सबसे नाराज होकर पत्रकार संगठनों ने अखबारों का प्रकाशन मुअत्तल कर रखा है। पत्रकार अहमद अली फैयाज का कहना है कि सरकार ने कश्मीर में पहली बार मीडिया इमरजेंसी लगाई है। हालांकि इस मामले पर एडिटर्स गिल्ड के हस्तक्षेप के बाद सरकार अपना रुख ढीला करती और स्थानीय पत्रकारों को पास देती नजर आ रही है। हो सकता है अगले हफ्ते से अखबारों का प्रकाशन भी शुरू हो जाए।

लेकिन क्या अखबारों पर बंदिश लगाने या पत्रकारों पर कड़ाई करने से जनता के असंतोष पर काबू करने में सुविधा होती है? क्या मीडिया समस्या का समाधान करने में मदद करता है या वह अपने आप में समस्या है? क्या कश्मीर का मीडिया राष्ट्रीय मीडिया के मुकाबले ज्यादा स्वतंत्र और सरकार विरोधी है? क्या स्थानीय मीडिया को घटनाओं से दूर रखकर और स्थानीयता को न समझने वाले राष्ट्रीय मीडिया से सही खबरें पाई जा सकती हैं?

दरअसल स्थानीय मीडिया की उपेक्षा करना वैसे ही है जैसे स्थानीय पुलिस की उपेक्षा कर सेना तैनात करना। उससे चीजें दब जरूर जाती हैं, पर किसी समस्या का जो स्वाभाविक समाधान होता है वह नहीं निकल पाता। बल्कि बदनामी दुनिया भर में होती है। स्थानीय मीडिया जनता के उसी तरह करीब होता है जैसे पुलिस।

जनता की भाषा समझने और उनसे संवाद करने में वे ज्यादा कारगर साबित होते हैं। कई बार राजनीतिक प्रक्रिया न चल पाने के कारण स्थानीय मीडिया राजनीतिक भूमिका भी अदा करता है। कश्मीर में राजनीतिक दलों के खामोश बैठने, आंदोलन उकसाने और संवाद व बैठकों का बायकाट करने के कारण जो शून्य पैदा होता है, उसे मीडिया भरता रहा है।

इसके अलावा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया की बड़ी खबरें पहले स्थानीय स्तर पर ही उठती हैं इससे कौन इनकार कर सकता है। लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि मोबाइल और इंटरनेट के इस युग में क्या आज किसी खबर को पूरी तरह दबाया जा सकता है? नेट पर तो अखबारों से ज्यादा भड़काऊ दृश्य उपस्थित हैं। दो दिन अखबार नहीं निकले तो अफवाहें ज्यादा जोर से पकड़ती हैं।

कश्मीर के जो लोग स्थानीय अखबारों पर यकीन करते थे वे अचानक दिल्ली के अखबारों पर यकीन नहीं करेंगे बल्कि अफवाहों और पाकिस्तानी मीडिया की तरफ रुख करेंगे। वैसे दिल्ली का मीडिया भी खबरों को संतुलित ढंग से पेश ही करता हो ऐसा नहीं है। 'जन्नत में इंतिफादा' जैसे शीर्षक दिल्ली का मीडिया भी लगा रहा है। मौजूदा टकराव में सीआरपीएफ के कितने जवान घायल हुए इसका जिक्र ही नहीं है। इसलिए स्थानीय मीडिया को पथराव करने वाले युवकों से अलग रखना चाहिए भले उनकी खबरों में फूल से ज्यादा कांटें हों। ('हिंदुस्तान' से साभार)

Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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