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Friday, July 2, 2010

हमारी फिल्‍मों के दलित चरित्र इतने निरीह क्‍यों हैं?

Articles tagged with: dilip mandal

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हमारी फिल्‍मों के दलित चरित्र इतने निरीह क्‍यों हैं?

शीबा असलम फहमी ♦ हमारी फिल्मों में तो कल्पना भी नहीं की जाती एक 'कम-जात' के प्रतिभावान होने की! अगर इसके बर-अक्स आप को कोई ऐसी फिल्म याद आ रही हो, तो मेरी जानकारी में इजाफा कीजिएगा… हां खुदा न खासता अगर कोई प्रतिभा होगी तो तय-शुदा तौर पर अंत में वो कुलीन परिवार के बिछड़े हुए ही में होगी। 'सुजाता' याद है आपको? कितनी अच्छी फिल्म थी। बिलकुल पंडित नेहरु के जाति-सौहार्द को साकार करती! अछूत-दलित कन्या 'सुजाता' को किस आधार पर स्वीकार किया जाता है, और उसे शरण देनेवाला ब्राह्मण परिवार किस तरह अपने आत्म-द्वंद्व से मुक्ति पाता है? वहां भी उसकी औकात-जात का वर ढूंढ कर जब लाया जाता है, तो वह व्यभिचारी, शराबी और दुहाजू ही होता है, और कमसिन सुजाता का जोड़ बिठाते हुए, अविचलित माताजी के अनुसार 'इन लोगों में यही होता है'।

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[21 Jun 2010 | 54 Comments | ]
प्रतिभा अवसर के अलावा कुछ नहीं है, अनुराग!

दिलीप मंडल ♦ प्रतिभा अवसर के अलावा कुछ नहीं है। अमर्त्य सेन को बचपन में पलामू या मिर्जापुर या कूचबिहार के किसी गांव के स्कूल में पढ़ते हुए सोचिए। प्रतिभा के बारे में सारे भ्रम दूर हो जाएंगे। जब भारत के हर समुदाय और तबके से प्रतिभाएं सामने आएंगी, तभी यह देश आगे बढ़ सकता है। चंद समुदायों और व्यक्तियों का संसाधनों और प्रतिभा पर जब तक एकाधिकार बना रहेगा, जब तक इस देश में सबसे ज्यादा अंधे रहेंगे, सबसे ज्यादा अशिक्षित रहेंगे, सबसे ज्यादा कुपोषित होंगे और आपकी सोने की चिड़िया का यूएन के वर्ल्ड ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स में स्थान 134वां या ऐसा ही कुछ बना रहेगा। प्रश्न सिर्फ इस बात का है कि क्या एक सचेत व्यक्ति के तौर पर हम यह सब होते देख पा रहे हैं।

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[4 Jun 2010 | 10 Comments | ]
मीरा कुमार ने कहा कुछ, एनडीटीवी ने दिखाया कुछ!

दिलीप मंडल ♦ ऐसे अनुभव लगातार बताते हैं कि मीडिया को सर्वसमावेशी और पूरे देश के हित में सोचने वाले माध्यम के रूप में देखना बचपना होगा। मीडिया सत्ता संरचना का हिस्सा है और इसी रूप में काम करता है। कुछ लोग इसमें अपवाद के रूप में कुछ अलग करने की कोशिश करते हैं लेकिन वे माइक्रो माइनोरिटी हैं। सवाल उठता है कि क्या मीरा कुमार इस खबर पर एतराज जताएंगी। क्या वे अपने कार्यालय से एक पत्र जारी कर यह निर्देश देंगी कि इस खबर को सुधार कर दिखाया जाए और चैनल और साइट इसके लिए माफी मांगे? आप सब लोग मीरा कुमार को जानते हैं। आप बताइए कि मीरा कुमार क्या करेंगी?

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[1 Jun 2010 | 5 Comments | ]
ओबीसी की गिनती से असहमति क्‍यों और किन्‍हें?

दिलीप मंडल ♦ जाति और जाति भेद भारतीय सामाजिक जीवन की सच्चाई है, इससे किसी को इनकार नहीं हो सकता। राजनीति से लेकर शादी-ब्याह के फैसलों में जाति अक्सर निर्णायक पहलू के तौर पर मौजूद है। ऐसे समाज में जाति की गिनती को लेकर भय क्यों है? जाति भेद कम करने और आगे चलकर उसे समाप्त करने की पहली शर्त यही है कि इसकी हकीकत को स्वीकार किया जाए और जातीय विषमता कम करने के उपाय किये जाएं। जातिगत जनगणना जाति भेद के पहलुओं को समझने का प्रामाणिक उपकरण साबित हो सकती है। इस वजह से भी आवश्यक है कि जाति के आधार पर जनगणना करायी जाए।

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[30 May 2010 | 7 Comments | ]
धूत कहौ अवधूत कहौ रजपूत कहौ जोलहा कहौ कोऊ

तरुण विजय ♦ तमाम ठकुराई दरकिनार रखते हुए वे पूछ ही बैठे – कौन जात हो? हमें जीवन का सत्य समझ में आ गया! लाख कहें भाई, हमार जात फकत हिंदुस्तानी है। हम हेडगेवारपंथी हैं। जात लगानी ही होती, तो बहुत साल पहले लगा चुके होते। हमारे घर में एक तेलुगू दामाद है, एक बांग्लाभाषी बहू है, दूसरा दामाद तमिल-ब्राह्मण है, हम खुद पहाड़ के जन्मे पले-बढ़े कुमइयां हों या गढ़वाली – रिश्तेदारी का दामन है। संघ की शाखा में खेले तो जात भुला दी। पर, जात सच है। भाषण व्यर्थ है। लोहिया जात तोड़ो कहते रहे। दीनदयाल उपाध्याय समरसता की बात करते रहे। श्रीगुरुजी ने कहा, सिर्फ हिंदू। पर आज 2010 का सच यह है – सिर्फ जात।

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[29 May 2010 | 31 Comments | ]
अपना जनरल नॉलेज दुरुस्‍त कीजिए वेद प्रताप वैदिक…

दिलीप मंडल ♦ वैदिक जी, इसी देश के कई राज्य 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण देते हैं। तमिलनाडु 69 फीसदी आरक्षण देता है। और यह किसने कहा कि 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण किसी हालत में नहीं दिया जा सकता। 50 फीसदी की सीमा सुप्रीम कोर्ट ने बालाजी केस में लगायी थी। इसे सुप्रीम कोर्ट की ज्यादा जजों की पीठ भी बदल सकती है और संसद भी। और नवीं अनुसूची में डालकर संसद ऐसे कानून को अदालती पड़ताल से मुक्त भी कर सकती है… जनगणना में गलत जानकारी देने पर सजा का प्रावधान है। जनगणना अधिनियम 1948 को पढ़ें। और किसी ने अपनी जाति कुछ भी लिखा दी, वह कानूनी प्रमाण है, यह किस विद्वान ने बता दिया? एक बार तथ्यों को दोबारा जांच लें।

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[22 May 2010 | 14 Comments | ]
निरुपमा के जाने के बहुत बाद, जब गुबार थम जाए

दिलीप मंडल ♦ निरुपमा की हत्या का विरोध करने वालों से पूछा जा रहा है कि अगर निरुपमा की जगह आपकी बेटी होती, तो क्या आप तालियां बजाते। ऐसे प्रश्नों का उत्तर तात्कालिकता से परे ढूंढना होगा। अगर आने वाले दिनों में और कई निरुपमाओं की जान बचानी है तो उस वर्ण व्यवस्था की जड़ों को काटने की जरूरत है, जिसकी अंतर्वस्तु में ही हिंसा है। निरुपमा की हत्या करने वाले आखिर उस वर्ण व्यवस्था की ही तो रक्षा कर रहे थे, जो हिंदू धर्म का मूलाधार है। अंतर्जातीय शादियों का निषेध वर्ण-संकर संतानों को रोकने के लिए ही तो है… वर्ण व्यवस्था सिर्फ दलितों और पिछड़ों का हक नहीं मारती, निरुपमा को भी मारती है।

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[14 May 2010 | 24 Comments | ]
रवीश कुमार का कुत्ता पुराण और भाषा का जातिवाद

डेस्‍क ♦ रवीश कुमार कुत्तों के सम्मान की रक्षा करना चाहते हैं। वे कहते हैं कि लालू और मुलायम की तुलना किसी और से हो सकती थी। इसलिए वे चाहते हैं कि हम सब कुत्तों के सम्मान में मैंदान में आ जाएं। दिलीप मंडल ने उनसे इस टिप्पणी को हटाने का अनुरोध किया है। दिलीप की राय में इस टिप्पणी की भाषा में जातीय घृणा है। इसलिए रवीश गडकरी को जी कहते हैं और लालू-मुलायम के साथ जी नहीं लगा पाते। इस सवाल पर फेसबुक में जबर्दस्त बहस हुई है। भारतीय समाज और इंटरनेट के कुछ उलझे तारों को समझने में यह बहस मदद कर सकती है।

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[11 May 2010 | 2 Comments | ]
मिरचपुर में मिटाये नहीं मिट रहे दहशत के निशान

बीते रविवार 9 मई 2010 को दिल्ली से मानवाधिकार समर्थकों की एक टीम ने रविवार को हिसार जिले के मिरचपुर गांव का दौरा किया। इस गांव में पिछले महीने की 21 तारीख (21 अप्रैल 2010) को दबंग जातियों के हमलावरों ने दलितों की बस्ती पर हमला किया था और 18 घरों को आग लगा दी थी। इस दौरान बारहवीं में पढ़ रही विकलांग दलित लड़की सुमन और उसके साठ वर्षीय पिता ताराचंद की जलाकर हत्या कर दी गयी। दलितों की संपत्ति को काफी नुकसान पहुंचाया गया और कई लोगों को चोटें आयीं। इस आगजनी और हिंसा के ज्यादातर आरोपी अब भी पुलिस की गिरफ्त से बाहर हैं। दलितों का आरोप है कि इस घटना के मास्टरमाइंड अब भी खुलेआम घूम रहे हैं और लोगों को धमका रहे हैँ।

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[8 May 2010 | 3 Comments | ]
आप जिसे अनैतिक कहते हैं, वह अपराध नहीं है

दिलीप मंडल ♦ जो लोग नैतिकता के नये को-ऑर्डिनेट्स को नहीं समझ रहे हैं या नहीं मानना चाहते, उन्हें ऐसा करने का पूरा अधिकार है। अगर उन्हें लगता है कि इस तरह की यौन स्वच्छंदता समाज के लिए अहितकारी है, तो हम उनकी भावना का आदर करते हैं। अपेक्षा सिर्फ इतनी है कि आदर का यही भाव वे उन लोगों के प्रति भी रखें, जो बदलते समय और बदलते मानदंडों के साथ चाहे-अनचाहे बदल गये हैं। हम यह नहीं चाहते कि भारतीय संस्कृति की पुरातनपंथी अवधारणा को मानने का आपका अधिकार, इसे न मानने के किसी और के अधिकार को बाधित करे। हम यह समझते हैं कि नये और पुराने के बीच इस समय तीखी लड़ाई चल रही है। इस लड़ाई में जो पक्ष पीछे हट रहा है, उसकी आक्रामकता को भी हम समझ सकते हैं।

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Palash Biswas
Pl Read:
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