अखबारी जंग पर 20 वर्ष पहले की एक बहस
: भाग 31 : मेरठ में 'दैनिक जागरण' और 'अमर उजाला' के बीच मुकाबला कड़ा होता जा रहा था। उजाला हालांकि जागरण से दो साल बाद मेरठ में आया था, पर उसने पाठकों से जल्दी रिश्ता बनाया। वो 1980 का दशक था। तब आज की तरह ब्रैंडिंग तो होती नहीं थी। समाचारों पर ही ध्यान दिया जाता था। अखबार एक ही फार्मूले को मानते थे कि अगर खबरें अच्छी हैं, तो पाठक खुश रहेंगे। अपने साथ बने रहेंगे। इसलिए संपादकों की नजरें हमेशा जनरुचि की खबरें तलाशती रहती थीं। तो जागरण और उजाला में सीधी टक्कर खबरों को लेकर ही थी।
उस दौर में क्षेत्रीय अखबारों ने राष्ट्रीय अखबारों को चुनौती देनी शुरू कर दी थी। वो जागरण, अमर उजाला, नई दुनिया और राजस्थान पत्रिका के विस्तार का दौर था। राष्ट्रीय अखबारों ने क्षेत्रीय अखबारों के इस 'विजय अभियान' को देखा, तो उन्हें भी इसकी ललक लगी। उनके भी कुछ संस्करण हिन्दी भाषी राज्यों की राजधानियों से शुरू हुए। अजब नजारा था। क्षेत्रीय अखबार राज्यों की राजधानियों से छोटे जिलों, शहरों और कस्बों की ओर जा रहे थे। राष्ट्रीय अखबार दिल्ली से राज्यों की राजधानियों में पहुंच रहे थे। इस मुद्दे पर एक दिन गोल मार्केट में चाय पीते हुए जागरण के हम करीब 10 जन में गंभीर चर्चा हो गयी। चर्चा शुरू की अभय गुप्तजी ने। उन्होंने परिदृश्य सामने रखते हुए पूछा कि 20 साल बाद पत्रकारिता के कैसे हालात रहेंगे?
रमेश गोयल ने कहा, '20 साल किसने देखे हैं? पता नहीं 20 साल बाद क्षेत्रीय अखबार राष्ट्रीय अखबारों के सामने टिकेंगे भी या नहीं।'
ओ. पी. सक्सेना बोला, 'जो हमें, मतलब कर्मचारियों को ज्यादा पगार देगा, वही टिकेगा।'
नरनारायण गोयल ने कहा, 'यह गंभीर बहस है। इसमें मजाक नहीं होना चाहिए।'
अपनी मूंछ को सहलाते हुए विश्वेश्वर बोला, 'साधन तो इन राष्ट्रीय अखबारों के पास ज्यादा हैं। इसलिए बढ़त तो उनकी ही रहेगी।'
दादा रतीश झा ने बहस को मुद्दे की ओर लाते हुए कहा, 'अखबार तो पाठक लोग ही ना खरीदेगा। तो उन लोगन को जो उनकी रुचि और आसपास की ज्यादा खबरें देगा, ऊ तो ओई पढ़बे करेंगे।'
नीरज कांत राही ने अपने बाल संवारते हुए कहा, 'पाठक के एकदम पास की खबरें सबसे बड़ा फैक्टर बनेंगी।'
बाकी ने भी अपने मत रखे। मैं सबसे छोटा था। सबकी बातें सुनकर बाद में बोलता था।
आखिर में मैंने नौनिहाल से पूछा कि इस बारे में उनकी क्या राय है। वे बोले-
यह मुद्दा भविष्य की हिन्दी पत्रकारिता की दिशा तय करेगा। यह एक लंबी दौड़ है। गुप्तजी ने इसीलिए 20 साल बाद के परिदृश्य के बारे में पूछा था। इस दौड़ को पाठकों की सहायता से ही जीता जा सकता है। राष्ट्रीय अखबारों के पास साधन ज्यादा हैं। फंड बड़े हैं। वे घाटे को ज्यादा समय तक सह सकते हैं। इसके विपरीत, क्षेत्रीय अखबारों की सबसे बड़ी ताकत उनकी क्षेत्रीयता है। यही उन्हें दौड़ जिताने में मदद करेगा। इसके अलावा, क्षेत्रीय अखबारों को कोई घमंड नहीं है। वे खुद को तीसमारखां नहीं समझते। उनका ऑपरेशन कम बजट में होता है। उनमें बाबूगिरी नहीं है। मालिक खुद ही डायरेक्टर और संपादक होते हैं। सबसे सीधे संपर्क में होते हैं। कोई उनके अखबार का बेजा इस्तेमाल नहीं कर सकता। खबरों पर उनकी सीधी नजर होती है। खबरों के स्रोतों पर भी। वे सब कुछ अपने हाथ में रखते हैं। राष्ट्रीय अखबारों के क्षेत्रीय संस्करण दो-चार साल में ढीले पड़ जायेंगे। तब तक क्षेत्रीय अखबार दूर-दराज तक पहुंच जायेंगे। उसके बाद दौड़ एकतरफा हो जायेगी। यानी क्षेत्रीय अखबारों की तूती बोलेगी।
नौनिहाल ने यह बात 1986 में कही थी। समय गवाह है। सब कुछ लगभग इसी तरह हुआ। राष्ट्रीय अखबार अपने अहंकार में दिल्ली में बैठे रह गये। क्षेत्रीय अखबार पहले अपने राज्यों में बढ़े। फिर दूसरे राज्यों में पहुंचे। इस सिलसिले में उनमें आपस में स्वस्थ प्रतिस्पर्धाएं हुईं। फिर वे दूर के राज्यों तक पहुंचे। उनका विस्तार होता रहा। राष्ट्रीय अखबार अपने दिल्ली के संस्करण का प्रसार बढ़ाने में ही लगे रहे। आज हालत यह हो गयी कि जागरण और भास्कर दुनिया में सबसे ज्यादा रीडरशिप वाले अखबार बन गये हैं। किसी भी देश के किसी भी और भाषा के अखबारों से आगे हैं वे। अंग्रेजी अखबारों से भी।
क्या नौनिहाल को इस परिदृश्य का अंदाज रहा होगा?
बिल्कुल!
नौनिहाल ने कई बार यह चर्चा की थी कि हालंकि देश में अंग्रेजी का बोलबाला बढ़ेगा, पर हिन्दी उससे भी तेजी से बढ़ेगी। इसकी वजह वे बढ़ती साक्षरता बताते थे। दरअसल 1990 के दशक के बाद साक्षरता में काफी वृद्धि हुई है। इसीलिए देश में भाषाई, खासकर हिन्दी अखबारों का प्रचार-प्रसार भी तेजी से बढ़ा।
एक और मौके पर नौनिहाल से हिन्दी-अंग्रेजी अखबारों के बारे में बहस हो गयी। उन्होंने एकदम सधा हुआ विश्लेषण किया-
'अंग्रेजी अखबारों के साधनों और पेजों की संख्या का हिन्दी अखबार कभी मुकाबला नहीं कर सकते। सामग्री की वैसी विविधता भी नहीं दे सकते। उनके पास लोकल खबरों को ज्यादा से ज्यादा महत्व देने के अलावा कोई चारा नहीं है। यही इनकी सफलता की वजह बनेगा। अंग्रेजी अखबार कभी आम जनता तक, गांव-देहात तक, गरीब-गुरबे तक नहीं पहुंच सकते। वे संप्रभु वर्ग तक ही सीमित रहेंगे।'
'लेकिन आम लोगों में भी तो अंग्रेजी का दायरा बढ़ेगा।'
'पढ़ाई का स्तर सुधरने, रोजगार की जरूरत और अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में बदलाव आने से अंग्रेजी का प्रसार निश्चित रूप से बढ़ेगा। पर वह कभी भारतीय भाषाओं की जगह नहीं ले सकती।'
'लेकिन साक्षरता बढऩे पर अंग्रेजी का प्रसार भी तो बढ़ेगा... '
'जरूर बढ़ेगा। पर देश के ज्यादातर लोगों की पहुंच से अंग्रेजी दूर ही रहेगी। शुरू में तो गांव का गरीब आदमी अंग्रेजी सीखने की कल्पना तक नहीं कर पायेगा। बाद में जब उसकी मजबूरी और जरूरत होगी, तब तक उसके और अंग्रेजीदां लोगों के बीच अंतर और बढ़ जायेगा। यानी हालात में बहुत ज्यादा फर्क नहीं आयेगा।'
'ये तो रही भाषा की बात। समाचार सामग्री के स्तर पर क्या बदलाव आयेंगे?'
'अभी 1000-1200 शब्दों तक के समाचार छपते हैं। आज से 20 साल बाद इतने विस्तृत समाचार पढऩे का समय किसी के पास नहीं होगा। शहरों का विस्तार होगा। इससे दूरियां बढ़ेंगी। और दूरियों के कारण पढऩे के लिए समय घटेगा। मतलब ये कि समाचार छोटे लिखे जायेंगे। पाठकों की ज्यादा रुचि के होंगे। नेताओं से जनता का मोहभंग होगा। इसलिए नेताओं के भाषण छपने कम होते चले जायेंगे।'
कितना सटीक विश्लेषण और पूर्वानुमान था नौनिहाल का! वे अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं, खासकर हिन्दी की पहुंच के साथ-साथ पाठकों के मन और खबरों के बारे में अखबारों के नजरिये की मानो चौथाई सदी पहले एकदम सही भविष्यवाणी कर रहे थे। आज 24 साल बाद उनकी कही सभी बातें सच साबित हो रही हैं। आज अंग्रेजी के तमाम प्रसार के बावजूद दुनिया के अंग्रेजी अखबारों में सबसे ज्यादा पाठक संख्या वाला अखबार 'टाइम्स ऑफ इंडिया' भारत में पाठक संख्या के मामले में 11 वें नंबर पर है। पहले 10 नंबर पर भाषाई अखबार हैं। उनमें भी पहले तीन नंबर पर हिन्दी अखबार हैं। इसका सीधा मतलब यही हुआ कि साक्षरता बढऩे का संख्यात्मक रूप से ज्यादा फायदा भाषाई अखबारों को हुआ है। आज भले ही ये अखबार पेजों की संख्या और सामग्री की अधिकता में तो अंग्रेजी अखबारों का मुकाबला नहीं कर सकते, पर पाठकों की संवेदनाओं को यही छू सकते हैं।
लेकिन अपने इस विश्लेषण और पूर्वानुमान को हकीकत में बदलते देखने के लिए आज नौनिहाल हमारे बीच नहीं हैं। अगर होते, तो वे जरूर अगले दशक या अगली चौथाई सदी के मीडिया के बारे में कुछ और आगे की बात बता रहे होते!
लेखक भुवेन्द्र त्यागी को नौनिहाल का शिष्य होने का गर्व है. वे नवभारत टाइम्स, मुम्बई में चीफ सब एडिटर पद पर कार्यरत हैं. उनसे संपर्क bhuvtyagi@yahoo.com के जरिए किया जा सकता है.
यह 'इमोशनल अत्याचार' है सेक्स अत्याचार!आजकल 'बिंदास टीवी' पर प्रसारित कार्यक्रम 'इनोशनल अत्याचार' अश्लीलता का अखाड़ा बना हुआ है. विशेषकर युवा वर्ग, जो कि खुद इस कार्यक्रम के केंद्र में है, इस प्रोग्राम को लेकर काफी उत्सुक दिखता है. क्या यह कार्यक्रम सच में किसी पर हुए 'इमोशनल अत्याचार' को दिखाता है? प्रोग्राम को किसी भी दृष्टिकोण से देखकर ऐसा तो नजर बिल्कुल नही आता, इसे देखकर तो यही लगता है कि यह केवल सेक्स की बात ही दर्शकों को दिखाता है. हर एपिसोड में एक लड़का और लड़की केवल किस करते या सेक्स की बातें ही करते नजर आते हैं. भावानाएँ तो कहीं भी नजर नहीं आती है?
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Pl Read:
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