अब फिल्मों के जरिये देंगे झांसा, जनता का भरोसा बटोरेंगे
♦ विनीत कुमार
कनाट प्लेस के ओडियन में जब हम नो वन किल्ड जेसिका देखने घुसे तो जेसिका लाल को न्याय दिलाने में मीडिया की क्या भूमिका रही थी, उस याद से कहीं ज्यादा नीरा राडिया टेप प्रकरण में किन-किन मीडियाकर्मियों के नाम सामने आये, ये बातें ज्यादा याद आ रही थीं। हमें लग रहा था कि NDTV 24X7 पर 30 नवंबर के बरखा दत्त कॉनफेशन के बाद, उसका दूसरा हिस्सा देखने आ गये हैं। मामला ताजा है, इसलिए मीडिया शब्द के साथ राडिया अपने आप से ही याद हो आता है। पी चिदंबरम ने प्रेस कानफ्रेंस में पत्रकारों से मजाक क्या कर दिया कि ऑर यू फ्रॉम मीडिया ऑर राडिया कि अब मीडिया के भीतर ये न केवल मुहावरा बल्कि मीडिया के बारे में सोचने का प्रस्थान बिन्दु बन गया है। बहरहाल, राडिया-मीडिया प्रकरण के बाद मैं पहली फिल्म देख रहा था जिसका कि बड़ा हिस्सा मीडिया से जुड़ता है। मीडिया क्रिटिक सेवंती निनन ने राडिया टेप को मीडिया स्टूडेंट और पीआर प्रैक्टिशनरों के लिए टेक्सट मटीरियल करार दिया है। मैं नो वन किल्ड जेसिका फिल्म को हाउ टू अंडर्स्टैंड इंगलिश चैनल लाइक एनडीटीवी के लिए जरूरी पाठ मानता हूं। हालांकि इस फिल्म को एनडीटीवी के लोगों ने नहीं बनाया है, लेकिन जिस तरह से एनडीटीवी के कुछ ऑरिजिनल मीडियाकर्मी और कुछ चरित्र के तौर पर दिखाये गये हैं, पूरा सेटअप एनडीटीवी का है, ऐसे में फिल्म का बड़ा हिस्सा एनडीमय हो गया है जो कि कई बार सिनेमा के भीतर गैरजरूरी जान पड़ता है।
इसे आप संयोग कहिए कि एनडीमय ये फिल्म ऐसे समय में आयी है, जबकि खुद एनडीटीवी के मिथक पूरी तरह ध्वस्त हो चुके हैं। इसलिए आप जब इस फिल्म से गुजरते हैं, तो ऐसा लगता है कि इसे एनडीटीवी की करप्ट हुई इमेज को डैमेज कंट्रोल के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। ये आप और हम दोनों जानते हैं कि जब इस फिल्म की शूटिंग हुई थी तो न तो 20 नवंबर 2010 की ओपन पत्रिका की स्टोरी आयी थी, जिसमें कि बरखा दत्त को कांग्रेस के लिए लॉबिंइंग करते हुए बताया गया, न नीरा राडिया से बातचीत की स्क्रिप्ट छापी गयी थी और न ही चार और पांच दिसंबर 2010 के द संडे गार्जियन की वो स्टोरी ही प्रकाशित हुई थी, जिसमें आईसीआईसीआई बैंक के साथ मिलकर शेयरों के दाम बढ़ाने और करोड़ों रुपये की घपलेबाजी की बात की गयी थी। प्रणय राय की जो आभा थी वो तब बरकरार थी और ये स्टोरी भी नहीं आयी थी कि बैंक ने आरआरआरआर नाम की एक ऐसी कंपनी, जिसके कि दो ही बोर्ड डायरेक्टर थे प्रणय राय और राधिका राय, को 73.91 करोड़ रुपये बिना कोई ब्याज के लोन दे दिये थे। तब ये भी स्टोरी नहीं आयी थी कि एनडीटीवी की विदेशों में कई ऐसी कंपनियां हैं, जिसके अकाउंट डीटेल भारत की एनडीटीवी लिमिटेड की बैलेंस शीट में नहीं नत्थी की गयी है और तब ऐसा भी नहीं हुआ था कि प्रणय राय ने इन सब बातों का जवाब देने के बजाय द संडे गार्जियन को कानूनी नोटिस भेजते हुए 100 करोड़ रुपये हर्जाने के तौर पर जमा करने की बात कही थी।
हां, कंटेंट के स्तर पर फिल्म की शूटिंग के दौरान ये जरूर शुरू हो गया था कि एनडीटीवी घंटों यूट्यूब की फुटेज लगाकर स्टोरी करने लग गया था, जिसका कि कई बार कोई सेंस नहीं होता, सिर्फ खर्चा बचाने के लिए ऐसी स्टोरी की जाती है। ये जरूर होने लग गया था कि चैनल के दिग्गज राजनीतिक संवाददाता लंदन में रावण फिल्म के प्रीमियम शो पर अमिताभ, अभिषेक और ऐश्वर्य की लाइव फुटेज दिखाकर घंटों जी सर, हां जी सर करना शुरू कर दिया था। भूत-प्रेत और ज्योतिष का धंधा न करने के बावजूद कंटेंट के स्तर पर एनडीटीवी के मिथक ध्वस्त होने शुरू हो गये थे और चैनल के लिए ये भारी वित्तीय घाटे का दौर चल रहा था, जिसकी भरपाई वो किसी भी हाल में करना चाहता था। ऐसे में कंटेंट के तौर पर ऑडिएंस एनडीटीवी की उन सारी करतूतों को भूल जाए, उस लिहाज से जरूरी था कि ऐसी कोई फिल्म बने, जिसमें वो अपने को रंग दे बसंती जैसी फिल्म की तरह ब्रांड को स्टैब्लिश कर सके। फिल्म में रंग दे बसंती के कुछ फुटेज और चैनल की ओबी हमारे भीतर उसी एहसास को जगाने की नाकाम कोशिश करती है। अगर राडिया टेप प्रकरण न होता तो इस फिल्म को एनडीटीवी के लिए ब्रांड री-स्टैब्लिशमेंट की फिल्म मानी जाती लेकिन अब इसे डैमेज कंट्रोल की फिल्म के तौर पर ही देखा जाएगा। और फिर एनडीटीवी ही क्यों, आनेवाले समय में मीडिया पार्टनरशिप को समेटती हुई जो भी फिल्में बनेगी, उसे देखने का नजरिया ब्रांड स्टैब्लिशमेंट से कहीं ज्यादा डैमेज कंट्रोल ही होगा क्योंकि राडिया टेप प्रकरण ने मीडिया के कारनामों को जितनी बेशर्मी से बेपर्दा किया है, उसकी भरपाई के लिए दो-चार प्रो मीडिया फिल्मों की दरकार तो पड़ेगी ही। इसी में अगर पीपली लाइव की टीम दूसरी फिल्म बनाती है और मीडिया को बतौर विलेन चरित्र के तौर पर दिखाती है, तो उसमें बरखा दत्त का लक्ष्य और नो वन किल्ड जेसिका से ठीक अलग चरित्र होगा। इसकी कल्पना करते हुए मुझे अभी से ही सिहरन हो रही है। वैसे इस फिल्म ने प्रो एनडीटीवी और प्रो बरखा दत्त दिखाने के क्रम में भी कई जगहों पर ऐसा कुछ जरूर कर दिया है, जिससे एनडीटीवी की इलिटिसिज्म का पर्दा जहां-तहां से मसक जाता है और उसके भीतर से एनडीटीवी और बरखा दत्त की जो शक्ल दिखाई देती है, वो हमें इस बात का यकीन दिलाती है कि इस शक्ल पर और राडिया टेप की मटीरियल जोड़कर एक अलग से फिल्म बनाने की जरूरत है। बरखा दत्त के शब्दों में कहें, तो ये एरर ऑफ जजमेंट है और निर्देशक की तरफ से भारी चूक हुई है, उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था।
सबसे पहले तो बरखा दत्त के तौर पर मीरा गैथी (रानी मुखर्जी) को एनडीटीवी की एक ऐसी मीडियाकर्मी के तौर पर दिखाया गया है, जो कि अपने पेशे को लेकर बहुत ही पैशनेट है, पूरी तरह समर्पित है। इतनी समर्पित है कि बिग विमान के हाइजैक हो जाने की खबर पर अधूरे सेक्स के दौरान ही फटाफट कपड़े पहनते हुए अपने सेक्स पार्टनर को यह कहकर चल देती है कि नाउ डू इट सोलो एंड फ्लो। यानी तुम मास्टरवेट करके बहा दो। मुझे तो अब जाना है। मीडिया हलकों के बीच की गपशप को फिल्म इतनी स्ट्रांगली दिखाएगा और ये बरखा दत्त के चरित्र के लिए इतना जरूरी है, इसकी उम्मीद हमने ऑडिएंस के तौर पर बिल्कुल भी नहीं की थी। एक बार फ्लाइट में गांड फटकर हाथ में आ जाएगी, जिसका प्रोमो देखकर टीवी पर हम पहले ही अघा गये, बाकी फिल्मों में सिर्फ फक (अनुराग कश्यप ने तीन सौ लोगों के बीच इसे चोद कहा था और कहा था कि क्यों ये हिंदी में बोलने से अश्लील है और अंग्रेजी में कॉमन वर्ड) और बिच बोलती है। इस पूरी फिल्म में मीरा के संवाद का बड़ा हिस्सा फक शब्द में खप जाता है। इंग्लिश मीडिया के लिए ये कॉमन वर्ड है, ये एक स्थापना बनती है। दूसरा कि बरखा दत्त की जो छवि बनती है, वो मीडिया से अलग पेशे और मिजाज से जुड़े लोगों के लिए भले ही एक संजीदा मीडियाकर्मी की बनती हो लेकिन हम जैसे लोग, जो कि मीडिया से किसी न किसी रूप में जुड़े हैं, उनके सामने एक ऐसी छवि कि वो किसी की भी स्टोरी आइडिया हथियाकर अपने को स्टार घोषित करने में नहीं चूकती। उसे बिग विमान के हाइजैक होने के आगे जेसिका लाल हत्याकांड की स्टोरी में कोई दम नजर नहीं आता और अकेले अदिति की इस स्टोरी पर स्टैंड लेने का वो मजाक उड़ाती है। स्टोरी में सेलेबल एलीमेंट की झलक मिलते ही बहुत ही शातिर तरीके से अदिति से ये स्टोरी हड़प लेती है और उसका फिर से मजाक उड़ाती हुई रातोंरात फिर से स्टार बनती हुई नजर आती है। ऐसी स्थिति में एनडीटीवी के भीतर का माहौल ऐसा बनता है कि एनडीटीवी को कोई और नहीं, सिर्फ और सिर्फ बरखा दत्त चलाती है और अपनी शर्तों पर चलाती है और उस अपनी शर्तों में सबकुछ शामिल है। कई ऐसे सीन हैं, जिन्हें देखकर आपको अंदाजा हो जाएगा कि तब भी लाबिइंग और एक्सेस जर्नलिज्म का दौर चल रहा था और तब भी बरखा दत्त को फैसले आने के पहले ही उसकी कॉपी मिल जाया करती थी। बरखा दत्त के तौर पर मीरा गैथी को इस रूप में दिखाया गया है कि एक सेलेब्रेटी पत्रकार चाहे तो कुछ भी कर सकता है, जिसके बारे में अमेरिका में बाटरगेट का खुलासा करनेवाले बेन ब्रेडली (2006) ने कहा कि ऐसे पत्रकारों के साथ सबसे खतनाक स्थिति ये होती है कि ये जितने महत्व के होते नहीं, उससे कहीं ज्यादा अपने को समझने लगते हैं और फिर तय नहीं होता कि वे भविष्य में इसे अपने पेशे से अलग किस रूप में इस्तेमाल करेंगे। इधर…
एनडीटीवी और प्रणय राय की बात करें तो एनडीटीवी को एक ऐसे चैनल के तौर पर दिखाने की कोशिश की गयी है, जो कि लोगों के लिए हक की आवाज उठाता है, प्रणय राय फॉर दि सेक ऑफ जस्टिस को लेकर कुछ भी करने से परहेज नहीं करते। शायद इसलिए जेसिका हत्या के सबसे मजबूत गवाह विक्रम को फिल्म का झांसा दिलाकर, उसके वर्जन को ऑनएयर करने की भी अनुमति दे देते हैं। यहां प्रणय राय का कैरेक्टर रण फिल्म के विजयशंकर मल्लिक से ज्यादा प्रैक्टिकल है, जो ये जानते हैं कि चैनल को लीड लेने के लिए ये सब करना पड़ता है। जेसिका लाल की बहन शबरीना, जो कि हक की लड़ाई लड़ते-लड़ते बुरी तरह फ्रस्ट्रेट हो चुकी है, अपनी बाइट देने से बचने के लिए फोन बंद कर देती है, घर से बाहर चली जाती है, उसकी आवाज की नकल करती हुई बरखा दत्त दिखाई गयी है और फर्जी तरीके से एक स्टोरी प्लांट करती है और फिर आगे चलकर ग्लोरीफाय करती है। फिल्म में इस स्टोरी को इस तरह से प्रोजेक्ट किया गया है कि पूरी तरह इसने ही जेसिका लाल को न्याय दिलाया हो। ये सीन देखते हुए आप एकदम से सवाल करते हैं – यार, जब ये सबकुछ करना गलत नहीं है और वो खुद कह रही है कि पहले भी ऐसा कर चुकी है, तो फिर आज राडिया टेप प्रकरण में टेप की विश्वसनीयता पर क्यों सवाल खड़े कर रही है? खुद शबरीना की आवाज की नकल करके उसके नाम पर उसकी वॉइस चला देती है, तो फिर ओपन के संपादक मनु जोसेफ से ये सवाल क्यों कर रही है कि आपने स्टोरी प्रकाशित करने से पहले मेरा पक्ष जानने की कोशिश क्यों नहीं की? क्या वो खुद शबरीना या दूसरे लोगों का पक्ष जानने की कोशिश करती है। इन दिनों राजदीप सरदेसाई जिस तरह से मीडिया की लक्ष्मण रेखा लांघने को लेकर विलाप कर रहे हैं, इस फिल्म में ये बात मजबूती से स्थापित होती है कि मीडिया दरअसल लक्ष्मण रेखा (व्यक्तिगत स्तर पर इस शब्द का विरोध करते हुए) लांघकर ही अपने को प्रासंगिक बनाये रखना चाहता है। ऑडिएंस की याददाश्त इतनी कमजोर मान ली जाती है कि वो इसे नजरअंदाज कर ही जाएगी, फॉर ग्रांटेड ले लिया जाता है। इसी नजरिये से आक्रोश फिल्म का ये डायलॉग पॉपुलर हुआ – क्या होगा, तीन दिन बाद इंडिया फिर क्रिकेट मैच जीत जाएगी और मीडिया उसके पीछे होगा। राडिया टेप से जोड़कर इस फिल्म में एनडीटीवी और मीडिया को देखें तो वो ऐसे एक भी मुद्दे को नहीं उठाता, जिसमें कि उसे सेलेबल एलीमेंट नजर नहीं आता। अगर किसी को नजर आता भी हो, तो अदिति के स्टोरी आइडिया की तरह पहले कुचलने की और फिर उसे हाइजैक करने की कोशिश की जाती है। इस फिल्म में बरखा दत्त की इससे अलग छवि नहीं बनने पाती है। ये लक्ष्य फिल्म की बरखा दत्त की छवि को मजबूत करने के बजाय एक चालबाज मीडियाकर्मी की छवि स्थापित करती है।
इस पूरी फिल्म में एनडीटीवी का सेटअप देखकर शायद आपको कई चीजें खटकती हो। पहली और सबसे जरूरी चीज कि चैनल के नीचे जो लगातार स्क्रॉल चल रहे होते हैं, उसमें हिंदी के एक भी शब्द की स्पेलिंग शुद्ध नहीं दिखाई गयी है। मुंबई से फिल्म क्रिटिक अजय ब्रह्मात्मज ने साफ तौर पर कहा कि जब इस फिल्म को देखने जाएं तो इस पर गौर करें। देखो तो सचमुच लगा कि एक-एक शब्द को गलत लिखने में कितनी मेहनत पड़ गयी होगी लिखनेवाले को। आमतौर पर एनडीटीवी के स्क्रॉल और टिकर में इतनी गलतियां नहीं होती। ये ऑडिएंस पर निगेटिव असर डालती हैं। दूसरे कि चैनल का सेटअप NDTV 24X7 का है लेकिन सारा कुछ हिंदी में डिलीवर हो रहा है। एनडीटीवी इंडिया की निधि कुलपति जो कि जस्ट इंटर्वल के बाद दिखाई देती हैं, के अलावा बाकी सब NDTV 24X7 के ही लोग हैं। अंग्रेजी चैनल पर हिंदी बोलना मजबूरी है क्योंकि मास ऑडिएंस हिंदी को ही समझ पाएगी। ये काम टाइम्स नाउ ने भी किया। कार्पोरेट में सारी स्टोरी और पीटीसी भले ही अंग्रेजी में ही दी हो लेकिन फैशन के बारे में लगा कि हिंदी के लोग ज्यादा देखेंगे तो हिंदी में सबकुछ किया। यहां आपके मन में सवाल उठेगा कि जब हिंदी में ही सबकुछ किया तो फिर सेटअप, ग्राफिक्स और बाकी चीजें एनडीटीवी इंडिया का ही क्यों नहीं रखा? ब्रांड के तौर पर अंग्रेजी को और भाषा के तौर पर हिंदी को… ये दोनों तो अलग-अलग चीज हो गयी। इंटर्वल के पहले तक एनडीटीवी का पुराना लोगो है। ये लोगो सबसे ज्यादा करगिल की स्टोरी के दौरान बरखा दत्त को पीटीसी देते हुए दिखाया जाता है। इंटर्वल के बाद मौजूदा लोगो दिखने लग जाता है। ऐसा शायद एनडीटीवी की ऐतिहासिकता को स्थापित करने के लिए किया गया हो लेकिन ये साफ नहीं होता और नतीजा इंटर्वल के पहले तक चैनल का गेटअप क्लासिक के बजाय डल दिखता है। इस पूरी फिल्म में चैनल की भूमिका इस रूप में स्थापित की गयी है कि जेसिका लाल हत्याकांड को लेकर जो फैसले हुए, वो गलत था और मीडिया ने इसे दुरुस्त करवाया। रुषि हत्याकांड मामले में अब यही कोशिश की जा रही है। चैनलों की स्पेशल स्टोरी और अखबारों की हेडलाइंस ऐसा ही बताते हैं कि वो आरुषि को न्याय दिलाने के लिए मर मिटेंगे। लेकिन…
जेसिका लाल हत्याकांड में मीडिया को एक सफलता तो मिल गयी और पिछले दस सालों के चैनल इतिहास को पलटकर देखें, तो सबसे ज्यादा इसी स्टोरी का हवाला देकर इसे भुनाने की कोशिश की गयी और कार्पोरेट मीडिया की सकारात्मक भूमिका समझाने की कोशिशें की गयी। आज ऐसे चैनलों को लेकर फर्जी एसएमएस और ट्विट करने के मामले सामने आने लगे हैं, राजदीप सरदेसाई को सीएनएन-आइबीएन के इस कारनामे पर माफी (19 दिसंबर) मांगनी पड़ जाती है, ऐसे में एसएमएस एक्टिविज्म को लेकर कितना भरोसा रह जाएगा, ये मीडिया-धंधा के लिए एक सवाल है। दि सिटीजन जर्नलिज्म के सबसे बड़े जानकार रिचर्ड वर्टज इसे जबरदस्ती पैनिक मोड में लाने और बाजार पैदा करने की स्थिति मानते हैं। भारत में इस धंधे को मजबूत हुए तकरीबन 10 साल हो गये। लेकिन ये फिल्म राडिया टेप प्रकरण और सीएनएन-आइबीएन के फर्जी ट्विट दिखाने के मामले सामने आ जाने के बाद मीडिया की एक बहुत ही मक्कार, अपने फायदे के लिए किसी भी हद के समझौते करने और गिर जाने की छवि पेश करती नजर आती है। मुझे डर है कि आनेवाली फिल्में चाहे लाख कोशिश कर लें, मीडिया की इस मजबूत होती जाती छवि को ध्वस्त शायद ही कर पायी और इसी क्रम में अगर पीपली लाइव टीम की एक चोट और पड़ गयी तो सिनेमा के लिए मीडिया लंबे समय तक विलेन कैरेक्टर के तौर पर स्थापित हो जाएगा।
(विनीत कुमार। युवा और तीक्ष्ण मीडिया विश्लेषक। ओजस्वी वक्ता। दिल्ली विश्वविद्यालय से शोध। मशहूर ब्लॉग राइटर। कई राष्ट्रीय सेमिनारों में हिस्सेदारी, राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन। हुंकार और टीवी प्लस नाम के दो ब्लॉग। उनसे vineetdu@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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3 Comments »
आज मंच ज़्यादा हैं और बोलने वाले कम हैं। यहां हम उन्हें सुनते हैं, जो हमें समाज की सच्चाइयों से परिचय कराते हैं।
अपने समय पर असर डालने वाले उन तमाम लोगों से हमारी गुफ्तगू यहां होती है, जिनसे और मीडिया समूह भी बात करते रहते हैं।
मीडिया से जुड़ी गतिविधियों का कोना। किसी पर कीचड़ उछालने से बेहतर हम मीडिया समूहों को समझने में यक़ीन करते हैं।
नज़रिया »
शेष नारायण सिंह ♦ उत्तर प्रदेश में अभी भी सत्ताधारी दल का एक विधायक एक लड़की के अपहरण और शारीरिक शोषण के मामले में पार्टी से निलंबित चल रहा है। उत्तर प्रदेश में कई मंत्रियों के खिलाफ भी इस तरह के मामले चल रहे हैं। मुलायम सिंह की सरकार में मंत्री रहे एक नेता ने एक कवयित्री की हत्या करवा दी थी और आजकल जेल में है। इन बातों की जांच की जानी चाहिए कि नेता बिरादारी अपनी सारी बहादुरी महिलाओं को अपमानित करने में ही क्यों दिखाती है। इन अपराधी लोगों को दंडित किया जाना चाहिए और उनका सार्वजनिक बहिष्कार किया जाना चाहिए। ऐसी स्थिति पैदा की जानी चाहिए कि नेताओं की हिम्मत ही न पड़े कि वे किसी लड़की का यौन शोषण करने के बारे में सोच भी सकें।
नज़रिया »
विश्वजीत सेन ♦ भारतीय संसदीय व्यवस्था के अंतर्गत जनप्रतिनिधियों-सांसदों और विधायकों को मिलने वाली सहूलियतों का मसला। मनुष्य और मनुष्य के बीच की खाई इतनी अधकि चौड़ी न हो कि उसे लांघकर पार नहीं किया जा सके। आजाद भारत में जनप्रतिनिधियों को मिलने वाली सुविधाएं, तनख्वाह आदि इतनी अधकि बढ़ गयी है कि वे अपने आप में एक 'वर्ग' की शक्ल अख्तियार कर चुके हैं। इतने अदृश्य रास्ते खुल चुके हैं कि उनसे होकर सोची जा सकने वाली सहूलियतें उन तक पहुंच रही हैं। चूंकि जनप्रतिनिधि भी मनुष्य हैं, इसलिए इन सहूलियतों का दुरुपयोग होना स्वाभावकि है। राजनीतिज्ञों को, समाजशास्त्रियों को, अर्थशास्त्रियों, को बैठकर सोचना चाहिए कि इस बाबत क्या करना चाहिए। उन अदृश्य रास्तों को बंद कैसे किया जाए।
नज़रिया, मीडिया मंडी »
भूपेन सिंह ♦ पिछले दिनों प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में राजदीप सरदेसाई बरखा के कामों को सही साबित करने की कोशिश कर रहे थे तो उनके खिलाफ आम पत्रकारों का गुस्सा फूट पड़ा। राजदीप का कहना था कि हो सकता है कुछ पत्रकार बरखा की प्रसिद्धि से जलने की वजह से भी उसके खिलाफ बोल रहे हों। उन्हें इस बात का करारा जवाब उसी मीटिंग में मौजूद पत्रकार पूर्णिमा जोशी ने बहुत अच्छी तरह दिया। बीच-बीच में राजदीप की हूटिंग सुनकर उनकी पत्नी और सीएनएन-आईबीएन की एंकर सागरिका घोष को भयानक कष्ट हो रहा था। आम पत्रकारों का गुस्सा उनके लिए अशिष्ट था। इन पंक्तियों के लेखक के पीछे बैठी वे बोलती रही कि बातचीत में कोई सोफिस्टिकेशन तो होना ही चाहिए।
नज़रिया, मीडिया मंडी »
दिलीप मंडल ♦ मीडिया और कॉरपोरेट के संबंधों की समीक्षा करते हुए ऐसे भोले लोग भूल जाते हैं कि पिछले दो दशकों में मीडिया खुद ही कॉरपोरेट बन चुका है। सबसे बड़ी मीडिया-एंटरटेनमेंट कंपनी सन नेटवर्क का आकार 21,000 करोड़ रुपये से बड़ा हो चुका है (देखें बॉक्स)। भारत में मीडिया और एंटरनटेनमेंट इंडस्ट्री 587 अरब रुपये की है। 2010 में अखबारों को 10271 करोड़ रुपये, पत्रिकाओं को 598 करोड़ रुपये और टीवी चैनलों को 9,991 करोड़ रुपये विज्ञापनों से मिलने का अनुमान है। अखबार और चैनल अपनी आमदनी के लिए पाठकों और दर्शकों पर निर्भर नहीं हैँ। इनकी आमदनी का 90 फीसदी तक हिस्सा विज्ञापनों से आता है। जिस उद्योग का आकार इतना बड़ा हो, उसका मुनाफे के पीछे भागना ही स्वाभाविक है।
नज़रिया »
चंद्रिका ♦ बिनायक सेन के आजीवन कारावास पर बहस का केंद्रीय बिंदु माओवादी हो रहे देश में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, लेखकों व बुद्धिजीवियों की भूमिका पर है। नारायण सान्याल, कोबाद गांधी, अभिषेक मुखर्जी जैसे बुद्धिजीवियों के माओवादी हो जाने का प्रश्न है। कि आखिर तेरह भाषाओं का जानकार और जादवपुर विश्वविद्यालय का स्कॉलर छात्र माओवादी क्यों बना? एक मानवाधिकार कार्यकर्ता छत्तीसगढ़ या पश्चिम बंगाल में आज अपनी भूमिका कैसे अदा करे? क्या यह सलवा-जुडुम की सरकारी हिंसा को वैध करके या फिर इसके प्रतिरोध में जन आंदोलन के साथ खड़े होकर। क्या इन जनांदोलनों को इस आधार पर खारिज किया जा सकता है कि यह माओवादियों के नेतृत्व में चल रहे हैं?
नज़रिया, विश्वविद्यालय »
चंद्रिका ♦ डॉ बिनायक सेन को माओवादियों की मदद करने के आरोप में छत्तीसगढ़ की रायपुर निचली अदालत ने 24 दिसंबर को अन्य दो अभियुक्तों पियूष गुहा और नारायण सान्याल के साथ आजीवन कैद की सजा सुनायी थी। उसके बाद पूरे देश व दुनिया भर में इस सजा के खिलाफ प्रदर्शन हुए और लोगों ने उनके तत्काल रिहाई के मांग की है। जुलूस में सरकार की जनविरोधी नीतियों तथा माओवाद के नाम पर सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के खिलाफ नारे लगाये गये। देश में भ्रष्ट प्रशासकों द्वारा बनाये गये अलोकतांत्रिक कानूनों के तहत राज्य व केंद्र सरकारें आम जनता के नेताओं को जेलों में बंद कर रही हैं जबकि राडिया, राजा, अशोक चव्हान जैसे कलंकित नेता बेफिक्र घूम रहे हैं।
विश्वविद्यालय »
वर्धा संवाददाता ♦ >कुलदीप नैयर, रजी अहमद आदि की उपस्थिति में राय ने अपनी छद्म प्रतिबद्धता का नया स्वांग रचा। हम सब को फिर से चौंकाते हुए बंधु ने विनायक सेन के खिलाफ कोर्ट के फैसले की खूब आलोचना की। अभी बहुत दिन नहीं हुए हैं, जब राय को 31 जुलाई को हंस की संगोष्ठी से भागना पड़ा था, राज्य के पक्ष में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर दमन को जायज ठहराने के बाद। दरअसल यह सारी कवायद छिनाल प्रकरण से अपनी फजीहत को कम करने के प्रयास के तौर पर है। अब हमारी त्रासदियों में प्रतिबद्धता के प्रहसन से बेहतर तरीका और क्या हो सकता था। वैसे विभूति एक अनिवार्य परिघटना हैं, एक आईना भी, जो अपने जैसे कई विदूषकों का प्रतिरूप खोज रहा है, राजकिशोर, आलोकधन्वा, रामशरण जोशी, जैसा कोई भी।
सिनेमा »
मिहिर पंड्या ♦ दिबाकर के यहां प्रामाणिकता और समाज की मिरर इमेज दिखाने की यह जिद ही अभिनेता के अवसान का कारण बनती है। इसका अर्थ यह न समझा जाए कि लव, सेक्स और धोखा में काम कर रहे कलाकार अभिनेता नहीं हैं। बेशक वे अभिनेता हैं और उनमें से कुछ तो क्या, कमाल के अभिनेता हैं। हिंदी सिनेमा में इनके काम की धमक मैं आनेवाले सालों में बारंबार सुनने की तमन्ना रखता हूं। इसे इस अर्थ में समझा जाए कि यहां अभिनेता फिल्म की कथा को सही और सच्चे अर्थों में आप तक पहुंचाने का माध्यम भर हैं। और शायद सच्चे सिनेमा में एक अभिनेता की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका यही हो सकती है। यहां अभिनेता पटकथा के आगे, उस विचार के आगे, जिसे वो अपने कांधे पर रख आगे बढ़ा रहा है, गौण हो जाता है।
Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/
विनीत का लेख फिल्म समीक्षकों को अवांतर और गैरजरूरी लग सकता है। विनीत ने फिल्म को व्यापक परिप्रेक्ष्य में रख कर आंका है और उसके निहितार्थ को समझने की कोशिश की है। आवश्यक नहीं कि वह राजकुमार गुप्ता का भी अभिप्रेत हो। हमें फिल्मों पर ऐसे (अ)भावुक लेखों की जरूरत है।
शुक्रिया.इस अ भावुक लेख के लिए…….मुझे निराशा इसलिए हुई क्यूंकि "आमिर" देखकर मुझे लगा था हमने एक प्रतिभाशाली निर्देशक मिला है ….पर बाज़ार में आने की होड़ में उन्होंने अपनी ओरिज नेल्टी को ध्वस्त किया है ….बरखा दत्त से तो मोह भंग हुआ ही है ….एन डी टी वी को भी बाज़ार की होड़ में देख दुःख होता है ..लोक सभा चैनल ओर दूरदर्शन फिर गंभीर दर्शको को आकर्षित कर रहे है .
i really appreciate the views of the critic,but what i feel that critic has reviewed the media,radia n film connection as a whole….so,it is more like a write up on that nexus by a media analyst than a film review….NDTV n Barkha Dutt issue is a part of the unfolding nexus. rajkumar gupta has not taken the present condition of media n ndtv,because the film is based on 10 year old story, director has nothing to do with the present status of barkha dutt. so it is more a story about jessica than ndtv.