--
जन-मजूरों, हलवाहों-चरवाहों के गायक थे बालेस्सर यादव
बालेश्वर यादव की एक दुर्लभ तस्वीर। सूचना: सत्यानंद निरुपम। सौजन्य: प्रवीण प्रणय।
♦ प्रभात रंजन
जिन दिनों सीतामढ़ी में लंबी मोहरी का पेंट पहनने वाले और बावरी (बाल) बढाकर घूमने वाले स्कुलिया-कॉलेजिया लड़के दरोगा बैजनाथ सिंह के आतंक से छुपते फिरते थे, क्योंकि बैजनाथ सिंह जिस नौजवान के पेंट की मोहरी लंबी देखता वहीं कैंची से काट देता था, जिसकी बावरी बढ़ी देखता मुंडन करवा देता था, उन्हीं दिनों एक गीत सुना था…
बबुआ पढ़े जाला पटना हावड़ा मेल में
गयी जवानी तेल में ना…
उन्हीं दिनों एक बार जब मैं नयी काट का पेंट-शर्ट डालकर ननिहाल गया था तो दूर के रिश्ते के एक मामा ने कहा था,
घर में बाप चुआवे ताड़ी, बेटा किरकेट के खेलाड़ी
लल्ला नाम किया है जीरो नंबर फेल में ना…
बालेश्वर के गीत से मेरा यही पहला परिचय था। वैसे यह तो बहुत बाद में पता चला था कि उस गायक का नाम बालेश्वर था।
बाद में उस गायक से परिचय कुछ और तब गहराया, जब दूर मौसी के गांव का एक आदमी हमारे यहां कुछ दिन खेती करवाने आया था – विकल दास। शाम को नियम से मठ के पुजारी जी की संगत में भांग खाकर आता और जाड़े की उन रातों में घूर तापते हुए कभी-कभी हम बच्चा लोगों को गीत भी सुनाता। कल मोहल्ला पर बालेश्वर की मौत के बारे में निरुपम जी का लेख पढकर उसी का सुनाया एक गीत याद आ गया…
पटना शहरिया में घूमे दु नटिनिया
मोरे हरि के लाल
काले लाल गाल पे रे गोदनवा…
मोरे हरि के लाल…
उसकी अंतिम लाइन याद आयी तो कल भी दिल में हूक सी उठ गयी – ऊंची अटरिया से बोली छपरहिया, आजमगढ़ बालेश्वर बदनाम, मोरे हरि के लाल… लेकिन तब यह भी समझ में आ गया था कि बालेश्वर की पहुंच कहां तक है। बालेश्वर को सुनना उन दिनों हमारे जैसे खुद को शिक्षित समझे जाने वाले परिवारों में बदनामी का ही कारण समझा जाता था। वह तो जन-मजूरों, हलवाहों-चरवाहों का गायक था। हमारे घर में फिलिप्स का टू बैंड रेडियो था। दादी को जब अपने बनिहारों से बिना मेहनताना दिये कोई काम करवाना होता था तो कहती – जरा बाहर एकर सब वाला गीत लगा दे। मैं टी सीरीज का वह कैसेट लगा देता, जिसके ऊपर लिखा था 'बेस्ट ऑफ बालेश्वर'। दादी गोला साह की दुकान से मंगवाये गये गोदान का चाय बनातीं और वे बनिहार पेड़ को देखते-देखते जलावन की लकड़ी में बदल डालते या बाहर सूख रहे गेहूं या धान के ढेर को समेटकर दालान में रख देते। कुछ नहीं बस चाय और बालेश्वर के दम पर।
खैर, हो सकता है कि यही कारण रहा हो कि धीरे-धीरे बालेश्वर के गीत मैं भी सुनने लगा। जिन दिनों बोफोर्स कांड की गूंज थी, तो उसका यह गीत दिल को तब बड़ा सुकून देता था,
नयी दिल्ली वाला गोरका झूठ बोलेला
हीरो बंबई वाला लंका झूठ बोलेला…
गीत में कुछ भी अतिरिक्त नहीं था लेकिन जाने क्या था कि सब समझ जाते कि इसमें किन 'झूठों' की चर्चा हो रही है।
बाद में जब दिल्ली आये तो हिंदू कॉलेज हॉस्टल में मैंने पाया कि मेरे जैसे कुछ और लड़के थे, जिनके पास बालेश्वर का कैसेट था। उन दिनों उनके गीत हम विस्थापितों को जोड़ने का काम करते। हॉस्टल में जब लड़के बोब डिलन, फिल कोलिंस के गाने सुनते तो हम बालेश्वर के गीत सुनते और उस संस्कृति पर गर्व करते जिसने बालेश्वर जैसा गायक दिया। वे अलग दिखने के लिए अंग्रेजी गाने सुनते, हम अलग दिखने के लिए बालेश्वर के गीत सुनते…
बाद में जाने कहां वह कैसेट गया… कहां वह विस्थापितों की एकता गयी। सचमुच हम इतने 'शिक्षित' हो गये कि भोजपुरी से, उसके गीतों से पर्याप्त दूरी हो गयी।
मैं सच बताऊं तो बालेश्वर को भूल गया था। बीच-बीच में खबर सुनकर यह मान चुका था कि उनकी मृत्यु हो चुकी है। वह तो भला हो ईटीवी बिहार, महुआ जैसे भोजपुरी चैनलों का कि जिसने कुछ कार्यक्रमों में उनको दिखाकर यह इत्मीनान करवा दिया कि वे जीवित हैं। लेकिन कल जब पढ़ा कि बालेश्वर नहीं रहे तब जाकर यह लगा कि भोजपुरी की एक बड़ी लोक-परंपरा का सचमुच अंत हो गया। वह परंपरा भोजपुरी के 'बाजार' बनने से पहले खेतों-खलिहानों तक में फैली थी।
मेरे अपने जीवन के उस छोटे-से अंतराल का भी जिसे बालेश्वर के गीतों ने धडकाया था।
(प्रभात रंजन। युवा कथाकार और समालोचक। पेशे से प्राध्यापक। जानकी पुल नाम की कहानी बहुत मशहूर हुई। इसी नाम से ब्लॉग भी। उनसे prabhatranja@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
5 Comments »
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/
वे अलग दिखने के लिए अंग्रेजी गाने सुनते, हम अलग दिखने के लिए बालेश्वर के गीत सुनते…लोक संस्कृति का बड़ा हिस्सा पढ़े-लिखे समाज के बीच उपहास-मटीरियल रहा है जबकि आगे चलकर विश्वविद्यालयों में फोकलोर और पॉपुलर कल्चर के नाम पर यही समाज रिसर्च करता है। उसमें जीने औऱ डूबने के बजाय उसे पढ़ना शुरु करता है और तब महसूस करता है कि जो थीअरि हम अभी छांट रहे हैं,वो इसमें रचनाकर्म के स्तर पर पसरा हुआ है। अच्छा लगा जानकर की आपने इसमें दादी के आदेश पर ही सही टी-सीरिज की कैसेट लगाकर डूबना शुरु किया,नहीं तो आज इतने संवेदनशील होकर लिखने के बजाय अफसोस जाहिर कर रहे होते…लगा आंचलिक उपन्यास का एक पन्ना लाकर धर दिया हो।.
दरअसल प्रतिभा किसी जगह की मोहताज़ नहीं होती | अधिकतर प्रतिभाएं सही प्लेटफोर्म नहीं मिल पाने की वजह से गर्क़ हो जाती हैं | बालेश्वर और उन जैसी लाखों विभूतियों को मेरा सलाम | साथ ही प्रभात जी को साधुवाद कि इस जानकारी को हमारे साथ शेयर किया |
भवदीय,
त्रिपुरारि कुमार शर्मा
सर मैने आप का लेख पढ़ा और पढ़ कर जाना कि बालेश्वर जी नहीं रहे। पढ़ कर दुःख हुआ। मैं बालेश्वर जी को जितना जानता हूँ उसमें मेरे पिताजी का योगदान रहा है। जब मैं छोटा था तो मेरे पिताजी अक्सर उनके गीतों को सुनते थे और मैं भी सुना करता, चूंकि मेरी उर्म कम थी इसलिए उनके गीत का मतलब कम ही समझ पाता। लेकिन मेरे पिताजी अर्थ बताते रहें। उनका मैने एक कैसेट ''फैशन में बुढ़िया'' सुना था, जो मुझे बहुत ही अच्छा लगा.
सर आप ने अपने लेख के माध्यम से जो जानकारी दी है उसके लिए आप को धन्यवाद. बालेश्वर जी के गीत हिंदी भाषी लोगों के लिए सदा ही अमर रहेंगें और जब-जब भोजपुरी गीतों की बात होगी तब उनका नाम बहुत ही आदर से लिया जाएगा…
प्रभात आपने बहुत सादगी के साथ अपने अनुभव के सहारे जानकारी परोसी. आब हार. ऐसे ही लोकधर्मियों के हित लिखते रहें.
–
आदर सहित, माणिक
बालेसर की भाषा में बोलूं तो "कमाल कईल बबुआ… कमाल कईल बबुआ…".
अनुज ♦ बालेसर की नजर बदलते समाज पर गहरी पड़ती थी। अपने एक गाने में वे कहते हैं "जबसे लइकी लोग साइकिल चलावे लगली, तबसे लइकन के रफ्तार कम हो गइल…"
Read the full story »
लोगों के हंगामे में भी संस्कृति की लीक नहीं छूटी
हमने सिर्फ सोचा, आप करें, भोजपुरी सिनेमा को बदलें
बहुत हुआ, अब भोजपुरी सिनेमा को बदलना ही होगा!
भोजपुरी सिनेमा की पहली कथा यहां है, आप दूसरी कहें
Read More debates...
आज मंच ज़्यादा हैं और बोलने वाले कम हैं। यहां हम उन्हें सुनते हैं, जो हमें समाज की सच्चाइयों से परिचय कराते हैं।
अपने समय पर असर डालने वाले उन तमाम लोगों से हमारी गुफ्तगू यहां होती है, जिनसे और मीडिया समूह भी बात करते रहते हैं।
मीडिया से जुड़ी गतिविधियों का कोना। किसी पर कीचड़ उछालने से बेहतर हम मीडिया समूहों को समझने में यक़ीन करते हैं।
किताबें कुछ कहना चाहती हैं। बशर्ते की आप सुनना चाहें। ईएमआई चुकाने के इस दौर में भी हम किताबों को अपनी कांख में रखते हैं।
लाइव रिपोर्टिंग की यह विधा अब मृतप्राय है। अख़बारों में अब इसके लिए कोई जगह नहीं। हमारे यहां अब भी जगह है।
सिनेमा »
रामकुमार सिंह ♦ मेरे हाथ कांप रहे थे, जब मैंने मेरा पहला गाना संगीतबद्ध होने के लिए उनकी तरफ बढ़ाया। उनकी डांट का डर था, उत्तेजना थी और पता नहीं अंदर ही अंदर एक रचनात्मक ऊर्जा मुझे पुख्ता कर रही थी, क्योंकि मैं जानता था कि हमारे लिए, हमारी फिल्म के लिए वह सब कुछ अविस्मरणीय रहने वाला क्षण था, जब हम सोफे पर बैठे थे और दानसिंह जी ने ड्राइंग रूम में लगे डबल बैड पर तकिये से सहारा हटाकर मेरी तरफ अपना हाथ बढाया था और कहा था कि 'लाइए, गाना दीजिए।' और तब मेरी आंखें नम थीं, जब उन्होंने कहा, 'गाना तो ठीक लिख कर लाये हो रामजी।'
स्मृति »
निराला ♦ होश संभालने के बाद से ही जिस एक गायक को घरवालों से बच-बचाकर सुनने की मजबूरी रही थी, वह गायक बलेस्सर ही थे। बलेस्सर हमारे सभ्य भोजपुरी समाज के प्रतिबंधित गायक थे, जिन्हें सुनकर बच्चों के बिगड़ जाने की गुंजाइश रहती थी, परिवार और समाज का वातावरण बिगड़ जाने का भ्रम भी रहता था, इसलिए उन्हें सुनने नहीं दिया जाता था। मोटका मुंगड़वा का होई…, तीन बजे आके जगइहे पतरकी सुतल रहब खरिहानी में… जैसे गीतों को गाने के बाद अश्लीलता के पर्याय माने जाने लगे थे बलेस्सर। बलेस्सर समसामयिक चुनौतियों पर, मसलों पर गीत गाते रहे लेकिन कुंठित सेक्स को बढ़ावा देनेवाले गायक के रूप में स्थापित कर दिये गये। लेकिन अपनी पूरी जिंदगी में उन्होंने कभी इसकी परवाह नहीं की।
uncategorized »
स्मृति »
सुशांत झा ♦ बालेसर का नाम तीन-चार महीना पहले कटबारिया सराय में कंवारे दोस्तों की पार्टी में सुना था, जहां मय थी, धुंए के छल्ले थे और कंप्यूटर पर राम अशीष बागी के गीत खनक रहे थे, जो मूलत: बालेसर ने लिखे और गाये थे। रै… रै… रै… तीन बजे आके जगबिह तू गोरकी… सुतल रहब खरिहाने में… और काबा जइबू न… काशी जइबू… हम जइबे बरसाने में। उस समय तक जीवन के दूसरे दशक का अधिकांश बीत जाने पर भी मैंने बालेसर का नाम नहीं सुना था। एक गोरखपुरिया मित्र से जब पूछा, तो बोले 'बालेसर' हैं। हमारे पास बालेसर के उस एकमात्र उपलब्ध गाने को हमने कई बार सुना और दीवानावार सुना। कई बार सोचता रहा कि बालेसर शायद सौ-दो सौ-चार सौ साल पहले के कोई लोकगायक होंगे।
स्मृति »
जागरण ♦ सन 1942 में क्षेत्र के बदनपुर में दुर्जन के पुत्र के रूप में जन्मे बालेश्वर तीन भाइयों में दूसरे स्थान पर थे। इनके बड़े भाई वंशीधर और छोटे भाई नागेश्वर पहले ही निधन हो चुका है। वह पत्नी छंगुरी देवी और तीन पुत्रों राजेश, अवधेश, मिथिलेश के साथ लखनऊ में ही रहते थे। इनके दो पुत्र व्यवसाय करते हैं वहीं मझले अवधेश इनके साथ ही लोकगीत गायन की विधा से जुडे़ है। घर पर बने बिरहा भवन में इनके भतीजे शिवशंकर रहते हैं। सन 80 और 90 के दशक में वह पूर्व मंत्री कल्पनाथ राय के संपर्क में आये और विपक्षी दलों पर अपने बिरहा के माध्यम से करारा प्रहार किया। इसी दौरान उन्हें मारीशस और हालैंड में गाने का मौका मिला। 1995 में यूपी सरकार ने उन्हें यश भारती पुरस्कार दिया।
मोहल्ला लखनऊ, स्मृति »
डेस्क ♦ यूपी-बिहार के लोकरंग में बरसों से बालेश्वर यादव की छटा बिखरी रही है। वे अपने किस्म की अलग आवाज थे। भोजपुरी माटी के लोगों के दिलों में बालेश्वर की जगह एक ऐसी आवाज के रूप में मौजूद रही है, जो भिखारी ठाकुर और महेंदर मिसिर के बाद समाज की नब्ज समझता था। इन सबके गीतों में सामाजिक समस्याएं बड़ी वेदना से अभिव्यक्त होती रही हैं। आज जब बालेश्वर के निधन के बाद उनके बारे में ज्यादा जानने की इच्छा हुई, तो इंटरनेट पर कुछ भी नहीं मिला। जन्नत टाकीज और भोजपुरिया डॉट कॉम जैसी वेबसाइट्स पर उनके निधन की सूचना, श्रद्धांजलि की औपचारिकताओं के अलावा जिंदगी के उनके सफर का लेखाजोखा कहीं नहीं मिला। तस्वीर भी बस एकाध।
स्मृति »
सत्यानंद निरूपम ♦ असमय विस्मृति के शिकार इस महान गायक को अगर मैं लोकगायक कहूं, तो कुछ लोग लोकगायक की शास्त्रीय परिभाषा की याद दिलाने लगेंगे। लेकिन मैं कहना चाहता हूं। चाहे आप कहें कि मैं भावुक हो रहा हूं। दहेज के जिस मायालोक को मैंने जरा सी बुद्धि होते ही देखना-बूझना शुरू कर दिया था, उसका मजाक उड़ाते पहली बार सुना बालेसर को। घूस के खिलाफ गाना सुना बालेसर का। और इन दोनों के प्रति जो वितृष्णा का भाव मन में बैठ गया, उसका सारा क्रेडिट मैं बालेसर को दे रहा हूं। और क्या करता है भला एक लोकगायक! भोजपुरिया इलाके में सामंती ठसक और वर्चस्ववादियों की नाजायज हरकतों की विरोध करने वाला कलाकार कभी बहुत पनप नहीं पाया, पनप भी गया तो शायद-संयोग से।
बात मुलाक़ात, मोहल्ला पटना »
बिनायक सेन ♦ हिंसा या अहिंसा को च्वाइस यानी चुनाव के रूप में पेश नहीं किया जा सकता। महत्वपूर्ण ये है कि हम किस 'कॉन्टेक्स्ट' में, किस परिस्थिति में काम कर रहे हैं। लड़ाई में माध्यम का चुनाव कोई स्वैच्छिक मामला नहीं रहता, वो अनिवार्यता रहती है। हिंसा या अहिंसा को स्वैच्छिक मामला बताना दरअसल पॉलिटिक्स का एनजीओकरण करना है। हमें अभी पॉलिटिकल इकॉनॉमी के जो कंट्राडिक्शंस हैं, उन पर ध्यान देना चाहिए। पॉलिटिकल स्ट्रैटजी (राजनीतिक रणनीति) और मिलिट्री स्ट्रैटजी (सैन्य रणनीति) को एक कर दिया जाता है, तो दिक्कत होती है। यदि मिलिट्री अल्टरनेटिव (सैन्य विकल्प) को आपने अनिवार्य शर्त बना दिया, तो बाकी मूवमेंट में समस्या पैदा होगी, उसके राजनीतिक स्वरूप में समस्या पैदा होगी।
फ फ फोटो फोटो, रिपोर्ताज, शब्द संगत »
हृषिकेश सुलभ ♦ करमागढ़। रायगढ़ (छत्तीसगढ़) का सीमांत गांव। संजय उपाध्याय और सत्यदेव त्रिपाठी के साथ गया। हमारे पथप्रदर्शक थे पापा भारती। रायगढ़ के मुमताज भारती, जिन्हें सारा रायगढ़ पापाजी कहता है। 74 वर्षीय पापाजी के साथ रायगढ़ से लगभग 25 किमी दूर। फिर लगभग 4 किमी बीहड़ वन में पैदल यात्रा। सघन वन के वृक्षों, लताओं, पशु-पक्षियों और वन के मौन से बतियाते इस दुर्गम राह पर हम सब चलते रहे। फिर मिले ये शैलचित्र। लगभग 5 हजार साल पुराने आदिम समाज की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति। हमारी यह धरोहर अब नष्ट हो रही है। पुरातत्व विभाग को शायद मालूम भी नहीं। बस वन विभाग का एक उजड़ा हुआ बोर्ड टंगा है यहां। कहां हो पुरातत्वविदो?
पौलिटिकल (Carol Hanisch) आलेख के 1969 में प्रकाशित होने के बाद रैडिकल स्त्रीवाद से लेकर इसकी हर धारा में यह सर्वस्वीकृत सिद्धांत के रूप अपनाया जाने लगा। यह पदबंध एक नारा बन गया। इसी सैद्धांतिकी के आधार से ब्लैक स्त्रीवाद, दलित स्त्रीवाद आदि के रास्ते बनते हैं और स्त्रीवाद एक मुकम्मल और व्यापक दर्शन का रूप लेता जाता है।
स्त्रीकाल स्त्री का समय और सच का आगामी अंक इसी सैद्धांतिकी से प्रेरित आत्मविक्षण अंक है, जिसे महिला कवि और स्त्रीवादी चिंतक अनामिका के अतिथि संपादन में प्रकाशित होना है। आपकी रचनाएं, आलोचनात्मक आलेख, आत्मवृत्त, अनुभव, अनुभूतियों पर आधारित रचनात्मक प्रस्तुतियां, स्कैंडल, फसाद आदि में शामिल, घसीटी गयी स्त्रियों के प्रति आपके विचार, उसके सच आदि आठ मार्च तक वर्धा के संपादकीय पते पर आमंत्रित हैं। पुरुषों के अनुभव, उनकी प्रतिक्रियाएं भी स्त्रीवाद के प्रति, स्त्रियों की समग्र भागीदारी के प्रति, आमंत्रित हैं।
संपादकीय पता: अ - 12, धन्वंतरी नगर, वर्धा रोड, सेवाग्राम, वर्धा 442001
संपर्क: 9850738513, 9822598907
Tag Cloud
मीडिया मंडी abraham hindiwala anil chamadia anil yadav anurag kashyap arundhati rai arundhati roy Bahastalab bahastalab 2 bihardalit dilip mandal gorakhpur hindi hindi cinema Hindi language Hindi Literaturehindi media jansatta kabaadkhaanaMahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalayamahatma gandhi international hindi university mao maoism maoistMGIHU namwar singh naxal naxalismnaya gyanodaya Nirupama Pathak om thanvi prabhash joshi prabhat khabarrajendra yadav ravindra kaliya ravish kumaruday prakash vibha rani Vibhuti Narayan Rai Vice Chancellorvineet kumar vn rai women yogi adityanathrecent posts
most commented
recent comments