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Saturday, January 28, 2012

विषमता का विकास

विषमता का विकास


Saturday, 28 January 2012 10:39

निरंकार सिंह 
जनसत्ता 28 जनवरी, 2012: एक राष्ट्र के रूप में हमने 'संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य' की स्थापना का संकल्प लिया था। लेकिन हालत क्या है? मनमोहन सिंह के नेतृत्व में जब यूपीए की सरकार बनी थी तो देश में नौ खरबपति थे। चार साल बाद अब इनकी संख्या छप्पन हो गई है। बारह साल पहले भारत के सकल घरेलू उत्पाद में खरबपतियों का हिस्सा दो फीसद था। अब बढ़ कर बाईस फीसद हो गया है। लेकिन जिस खेती से देश की पैंसठ फीसद से ज्यादा आबादी जुड़ी हुई है, उसका सकल घरेलू उत्पाद में कुल हिस्सा घट कर साढ़े सत्रह फीसद रह गया है। 
इसका मतलब है कि देश के चंद खरबपतियों की आमदनी खेती से जुड़ी देश की पैंसठ फीसद आबादी की आमदनी से साढेÞ चार फीसद ज्यादा है। देश के सबसे अमीर और गरीब के बीच नब्बे लाख गुना का फर्क हो गया है। एशियाई विकास बैंक के नए पैमाने पर देश की लगभग दो तिहाई आबादी यानी बहत्तर करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं। नए पैमाने के तहत 1.35 डॉलर रोजाना कमाई करने वालों को गरीबी रेखा के नीचे रखने की बात कही गई है। सरकार द्वारा नियुक्त अर्जुन सेनगुप्त आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि देश में चौरासी करोड़ लोग रोजाना बीस रुपए से भी कम पर गुजारा करते हैं। 
देश में जब इतनी भारी विषमता हो तो फिर इसे लोकतांत्रिक समाजवादी देश कैसे कहा जा सकता है? यह उम्मीद की गई थी कि विकास का लाभ समान रूप से समाज के सभी वर्गों तक पहुंचेगा। लेकिन आर्थिक सुधार की नीतियां लागू होने के बाद देश में विभाजन की खाई और गहरी हो गई। अमीर-गरीब की खाई। शहरी और ग्रामीण भारत की खाई। पुरानी और नई तकनीक की खाई। कृषि के विकास में ठहराव और रोजगार की रफ्तार नहीं बढ़ने से पूरी ग्रामीण आबादी और शहरी आबादी का एक बड़ा हिस्सा विकास की मुख्यधारा से बाहर हो गया है। 
कृषि पैदावार में बढ़ोतरी नहीं होने और कृषि उपज का पुसाने लायक दाम नहीं मिलने का नतीजा यह हुआ कि किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ी। वर्गों और क्षेत्रों के बीच विकास की जब इतनी गहरी खाई हो तो सामाजिक असंतोष क्यों नहीं होगा। यह असंतोष बढ़ते हुए विवादों और नक्सली हिंसा के रूप में भी देखा जा सकता है।
मौजूदा राजनीतिक हालात में लगभग सभी राजनीतिक दलों का नेतृत्व दिशाहीनता का शिकार है। इसलिए वह अपने कार्यकर्ताओं को भी कैसे दिशा दे सकता है और कैसे उन्हें विचारधारा से लैस कर सकता है? इस स्थिति के चलते लोकतंत्र की सेहत भी कैसे दुरुस्त रह सकती है? यह हमारे लोकप्रतिनिधि सदनों के पतन की पराकाष्ठा ही है कि सांसद पैसा लेकर संसद में प्रश्न पूछते हैं और उन्हें पैसे लेते हुए सारा देश टीवी पर देखता है। आज एक भी दल ऐसा नहीं है जिसका कोई ठोस नीति-वक्तव्य और कार्यक्रम हो। 
सभी दल उम्मीदवारों के चयन में अपने कार्यकर्ताओं की दलीय निष्ठा या वैचारिक प्रतिबद्धता को प्राथमिकता नहीं देते, बल्कि यह देखते हैं कि जिसे उम्मीदवार बना रहे हैं उसका जातीय आधार कितना मजबूत है, उसके पास बाहुबलियों की संख्या कितनी है और वह कितना पैसा चुनाव में खर्च कर सकता है? 
जब इन्हीं सब आधारों पर उम्मीदवारों का चयन होगा और ऐसे ही लोग चुन कर संसद और विधानसभाओं में आएंगे तो लोकतंत्र के इन पवित्र मंदिरों में हंगामा, उठापटक, गाली-गलौज, मारपीट ही होगी। इसी तरह के नुमाइंदे अपने-अपने नेतृत्व के इशारे पर जानबूझ कर सदन की कार्यवाही बाधित करते हैं। जनता की आशा-आकांक्षाओं को पूरा करने के बजाय उसे आरक्षण की राजनीति में उलझा रहे हैं।   
दुर्भाग्य से भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और पक्षपात के इस माहौल में कई राजनीतिक कानून, परंपरा, मर्यादा की थोड़ी भी चिंता किए बिना सरकारी धन की हेराफेरी में लगे है। पिछले दिनों भारतीय प्रशासनिक और पुलिस सेवा के अधिकारियों के काले कारनामे राजनीतिकों के ऐसे ही कारनामों के साथ उजागर हुए थे। विधायक और सांसद बनते ही हमारे राजनीतिकों पर दौलत कहां से बरसने लगती है यह समझ पाना कोई मुश्किल काम नहीं है। 
यह अपने देश में ही संभव है कि भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बावजूद हमारे राजनेता शान से घूमते हैं। भ्रष्टाचार के मामले में हो रही जांचों को राजनीति प्रेरित बता कर अपने को पाक-साफ बताते हैं। लेकिन महानगरों में राजनीतिकों और नौकरशाहों की बड़ी-बड़ी कोठियां, शॉपिंग कांप्लेक्स, कृषि फार्म, महंगी कारें और तमाम नामी-बेनामी संपत्तियां किस बात का प्रमाण हैं? लगता है कि जैसे कानून इनके लिए बनाए ही नहीं गए हैं। 
किसी भी योजना, कार्यक्रम या जनता से ताल्लुक रखने वाले सरकारी विभाग पर नजर डालिए तो वह दलालों, भ्रष्टाचारियों से घिरा हुआ मिलता है। पासपोर्ट, आरटीओ, नगर निगम, विकास प्राधिकरण, उत्पाद कर, आय कर, व्यापार कर और रजिस्ट्री कार्यालय, तहसील, अस्पताल, प्रखंड कार्यालय खुले भ्रष्टाचार के अड््डे बन चुके हैं। अगर सब कुछ इसी तरह चलता रहा तो सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि हम किस गर्त में गिरने वाले हैं। वैश्वीकरण के द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था को बदल कर रख देने की बात खोखली और संवेदनहीन नजर आती है। खेती खतरे में है। 
पिछले दो-तीन वर्षों में हजारों किसान आत्महत्या कर चुके


हैं और यह सिलसिला बंद नहीं हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार एक सौ सतहत्तर देशों   में भारत का दर्जा एक सौ छब्बीसवां है। गरीबी सूचकांक में एक सौ दो विकासशील देशों में भारत का नंबर पचपनवां है। वयस्क साक्षरता दर के संदर्भ में भारत अट््ठानवें स्थान पर है। 
दुनिया में भारत की उभरती हुई स्थिति का दावा किया जाता है। लेकिन हमारा स्थान सहारा मरुस्थल से सटे अफ्रीका के गरीब देशों से बहुत आगे नहीं है। जब विकास में इतनी भारी असमानता होगी तो सामाजिक असंतोष, गरीबी और बेरोजगारी को कैसे कम किया जा सकता है? गौरतलब है कि जीडीपी का ग्राफ ऊंचा रहने के दौरान ही देश में एक लाख से ज्यादा किसान खुदकुशी करने को विवश हुए। कुल मिला कर देखा जाए तो आज भी हमारी सबसे बड़ी समस्या गरीबी, बेरोजगारी, बाढ़ और सूखा ही हैं जिनसे देश की बहुत बड़ी आबादी प्रभावित है। अर्थशास्त्री और योजना आयोग के सलाहकार संतोष मेहरोत्रा ने अपनी पुस्तक 'एलिमिनेटिंग हृयूमन पॉवर्टी' में कहा है कि अगर गरीबी से पूरी तरह निपटना है तो बुनियादी सामाजिक सेवाओं को बेहतर बनाना होगा। यह सिर्फ माइक्रो इकोनॉमी या वृहत अर्थव्यवस्था के विकास से नहीं हो सकता। इससे छुटकारा तभी मिल सकता है जब बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य, जल, पोषण की हालत भी अर्थव्यवस्था के साथ-साथ सुधरेगी।
इस पुस्तक में उन दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों का उदाहरण दिया गया है जहां छोटे-छोटे उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए विशेष योजनाएं बनाई जाती हैं। विकासशील देशों में बड़ी संख्या में लोगों को छोटे उद्योगों (जिनमें पंद्रह से कम लोग काम करते हैं) में रोजगार प्राप्त होता है। लेकिन संतोष मेहरोत्रा जो कह रहे हैं वह गांधीजी पहले ही कह चुके हैं। अब बहुत-से लोग अनुभव करने लगे हैं कि गांधीजी के बताए रास्ते पर नहीं चल कर हमने भारी गलती की है। 
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना अच्छी है। लेकिन सवाल यह है कि सरकारी योजनाओं में उस तबके के लिए क्या किया जा रहा है, जो शहरों और महानगरों में बेरोजगारी की मार झेल रहा है। वह शिक्षित, अशिक्षित, दसवीं पास, ग्रेजुएट, प्रशिक्षित और पेशेवर जैसी अनेक श्रेणियों में बंटा हुआ है और संगठित-असंगठित किसी भी तरफ पांव जमाने के लिए जद्दोजहद कर रहा है। इस समय लगभग चार करोड़ युवक-युवतियां नौकरियों के लिए भटक रहे हैं और दो करोड़ रोजगार के बाजार में आने के लिए तैयार हैं। 
उधर अगर हम सामाजिक और आर्थिक विकास को देखें तो बड़ी भयानक तस्वीर सामने आएगी। आबादी में तेजी से वृद्धि हो रही है। गरीबी भी बढ़ रही है। भोजन, वस्त्र के अलावा पेयजल, मनुष्य के रहने लायक आवास, चिकित्सा जैसी न्यूनतम सुविधाएं भी तमाम लोगों को उपलब्ध नहीं हैं। ऐसी दशा में भी कुछ थोडेÞ-से व्यक्तियों को छोड़ कर भारत का विशिष्ट वर्ग चाहता है कि तकनीक और भी आधुनिक हो, औद्योगीकरण बढेÞ और कृषि का अधिकाधिक यंत्रीकरण और रसायनीकरण हो। आज भारत में आर्थिक सुधार का दर्शन यही है। इसका नतीजा हमारे सामने है, बढ़ती हुई बेरोजगारी। 
हम नहीं जानते कि अपनी आवश्यकताएं स्वयं कैसे पूरी करें। विदेशी पूंजी, विदेशी तकनीक और विदेशी साजो-सामान पर हम निर्भर हैं। हमारे देश में उपभोक्ता वस्तुओं से लेकर पेय और खाद्य पदार्थों का निर्माण भी विदेशी कंपनियां करने लगी हैं। यहां तक कि हम रोजमर्रा की घरेलू वस्तुओं के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर निर्भर हैं। हमारे हुनर और उद्योग मानो किसी खड़ी चट्टान पर खड़े हैं और उन पर मौत का खतरा मंडरा रहा है। लेकिन देश को इस भयावह संकट से बचाने का खयाल अभी तक हमारे राजनेताओं को नहीं आ रहा है। देश के उद्योग राज्यमंत्री द्वारा लोकसभा में दिए गए एक उत्तर के अनुसार आर्थिक मंदी और अन्य कारणों से अब तक 8,82,427 लघु उद्योग बंद हो गए हैं। अगर एक उद्योग में औसतन दस कर्मचारी भी कार्यरत हों तो लगभग एक करोड़ कर्मचारियों और उनके परिवारों के पांच करोड़ लोगों के समक्ष रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया है। 
भारत एक अरब बीस करोड़ से अधिक आबादी वाला देश है और योजना आयोग की ही मानें तो इस समय लगभग चालीस करोड़ लोग रोजगार पाने के हकदार हैं। ऐसे में हमारी योजनाओं का लक्ष्य क्या होना चाहिए? हमारा लक्ष्य तो यही हो सकता है कि अधिक से अधिक लोगों को काम-धंधा मिले। अब कई लोग गांधीजी के कार्यक्रमों और योजनाओं का समर्थन करने लगे हैं। जैसे कि कृषि हमारी विकास योजनाओं का मुख्य आधार बनना चाहिए।इसकी बुनियाद पर ही गृह उद्योगों और ग्रामोद्योग की एक रूपरेखा गांवों के विकास के लिए बनानी चाहिए। उसमें बिजली, परिवहन और बाजार आदि की सुविधाएं भी उपलब्ध कराई जाएं। 
यह बडेÞ उद्योगों की उपेक्षा की बात नहीं है। पर अपने देश में जहां पूंजी की बहुत कमी हो और श्रम-शक्ति बडेÞ पैमाने पर बेकार पड़ी हो और देश की अधिसंख्य आबादी गांवों में बसती हो तो वहां योजना की बुनियाद बदलनी चाहिए। बडेÞ-बडेÞ विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) और मॉल बनाने के लिए किसानों की भूमि जबरन अधिग्रहीत की गई। इससे लोग बेरोजगार हुए हैं। बेरोजगार बना कर रोजगार देने की नीति बुनियादी रूप से गलत है। हमारी सरकार को उन छोटी-छोटी कंपनियों की ओर ध्यान देना चाहिए जो देश को गरीबी की गिरफ्त से बाहर निकालने की क्षमता रखती हैं।

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