Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti basu is DEAD

Jyoti Basu: The pragmatist

Dr.B.R. Ambedkar

Memories of Another Day

Memories of Another Day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Thursday, February 2, 2012

विकास की बंद गली

विकास की बंद गली


Thursday, 02 February 2012 11:09

भारत डोगरा 
जनसत्ता 2 फरवरी, 2012 : हाल के वैश्विक संकट ने विश्व-स्तर पर लोगों को नए सिरे से आर्थिक नीतियों के बारे में सोचने के लिए प्रेरित किया है। अब आम लोग और विशेषज्ञ दोनों निजीकरण, बाजारीकरण और भूमंडलीकरण पर आधारित मॉडल की प्रासंगिकता पर सवाल उठा रहे हैं। आम लोगों की बेचैनी की अभिव्यक्ति सबसे प्रबल रूप में आक्युपाइ द वॉल स्ट्रीट आंदोलन के रूप में हुई है। दूसरी ओर, इस बार दावोस में हुए विश्व आर्थिक मंच के सम्मेलन में इसके कार्यकारी अध्यक्ष क्लास श्वाब ने कहा कि 2009 के वित्तीय संकट से हमने कुछ नहीं सीखा है। यही नहीं, उन्होंने यह भी जोड़ा कि पूंजीवाद अपने मौजूदा स्वरूप में दुनिया के लिए उपयुक्त नहीं है। बेशक उन्होंने विकल्प के बारे में कोई संकेत नहीं दिया, पर उनके वक्तव्य से जाहिर है कि दुनिया की मौजूदा आर्थिक दिशा को लेकर कुछ वैसे लोग भी अब आश्वस्त नहीं हैं जो इसकी पैरवी करते आए हैं।   
पिछले कुछ महीनों में अनेक देशों सहित भारत में भी लोगों की बढ़ती कठिनाइयों और बेचैनी की अभिव्यक्ति भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलनों के रूप में हुई है। भ्रष्टाचार का विरोध हर स्तर पर जरूरी है, मगर यह अपने में पर्याप्त नहीं है। इसके साथ-साथ विषमता और लूट की नीतियों के खिलाफ भी आवाज उठनी चाहिए। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर जो गंभीर विषमताए हैं, लूट की नीतियां हैं, समझौते हैं, उनके मिले-जुले असर से ही आम लोगों के लिए रोजी-रोटी का संकट गंभीर हुआ है। 
इस ओर से ध्यान हटाने के लिए इस व्यवस्था के कुछ शक्तिशाली तत्त्व अब ऐसा माहौल बनाने का प्रयास कर रहे हैं कि भ्रष्टाचार-विरोधी कुछ एक-दो कानून बनने से ही लोगों को बड़ी राहत मिल जाएगी। लेकिन हकीकत यह है कि भ्रष्टाचार से हर स्तर पर लड़ते हुए भी अधिक व्यापक संघर्ष अर्थव्यवस्था में बुनियादी बदलाव के लिए करना होगा।
इन बुनियादी सुधारों का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि सब नागरिकों की जरूरतों को पूरा करने की प्रमुख जिम्मेदारी में राज्य अपनी समुचित भूमिका निभाए। शासन में व्याप्त भ्रष्टाचार का विरोध जरूर होना चाहिए, पर इस तरह से नहीं कि सरकार की जरूरी भूमिकाएं ही संदिग्ध हो जाएं। संदिग्ध अंतरराष्ट्रीय संस्थान भ्रष्टाचार विरोध के नाम पर जो लाखों रुपए तुरंत देने को तैयार हैं, वह इसलिए कि राज्य की भूमिका को इस रूप में प्रचारित किया जाए कि वह ही हर स्तर पर भ्रष्ट हो चुका है और इस तरह निजीकरण, बाजारीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के तेज प्रसार की राह साफ कर दी जाए। 
इसलिए भ्रष्टाचार का हर स्तर पर विरोध करते हुए साथ में यह कहना बहुत जरूरी है कि अर्थव्यवस्था में राज्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका बनी रहनी चाहिए। ऐतिहासिक तौर पर देखें तो आज जो देश विकसित कहलाते हैं उनके विकास में राज्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी। तो फिर आज के गरीब और विकासशील देशों को निरंतर निजीकरण और बाजारीकरण के पाठ क्यों पढ़ाए जा रहे हैं?
किसी भी देश के संतुलित विकास में जहां निजी क्षेत्र के उद्यमियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है, वहीं सहकारिता क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र की भी। राज्य को यह खम ठोंक कर कहना होगा कि सब लोगों की बुनियादी जरूरतों को टिकाऊ तौर पर पूरा करने की जिम्मेदारी उसकी है और इसके लिए जो भी महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियां राज्य को उठानी होंगी वह उठाएगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि अर्थव्यवस्था में हर जगह सरकार छा जाएगी। साम्यवाद का मॉडल यों भी विफल हो चुका है। हम यह भी नहीं कह रहे हैं कि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों के विकास में जो राज्य की भूमिका थी, उसका अनुसरण करना है। वह तो अनेक स्तरों पर शोषण-दोहन पर आधारित थी। 
जरूरत राज्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर आधारित ऐसे मॉडल की है जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र, सहकारिता क्षेत्र और निजी क्षेत्र सभी अपनी-अपनी संतुलित भूमिका इस तरह निभाएं जिससे सभी लोगों को रोजगार मिल सके और उनकी बुनियादी जरूरतें सहज पूरी हो सकें।
इसके लिए कुछ नियोजन और समन्वय चाहिए। साम्यवादी देशों जैसा नियोजन नहीं, जो हर क्षेत्र में हावी होकर आम लोगों की उद्यम-क्षमताओं को दबा दे, बल्कि ऐसा नियोजन जो सभी भागीदारों की रचनात्मकता को प्रोत्साहित करते हुए एक ऐसी दिशा दे सके जो सभी नागरिकों की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति और रोजगार की ओर ले जाती हो। ऐसा न हो कि एक ओर बुनियादी जरूरतें पूरी करने की बात की जा रही है और दूसरी ओर चंद बड़ी कंपनियों को देश के संसाधनों के भरपूर दोहन, विलासिता की वस्तुओं के उत्पादन या निर्यात के लिए की छूट मिली हुई है। इसलिए नियोजन और नियमन की महत्त्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए।
राज्य का एक महत्त्वपूर्ण दायित्व विषमता को कम करना है। उसके इस कर्तव्य को भारत के संविधान के नीति-निर्देशक तत्त्वों में शामिल किया गया है। विषमता घटाने का एक उपाय यह है कि स्कूली शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं को सरकार सभी नागरिकों को निशुल्क या बहुत कम कीमत पर उपलब्ध कराए। अच्छे सरकारी अस्पतालों का इतना व्यापक बंदोबस्त देश भर


में होना चाहिए कि कोई भी निर्धन नागरिक उचित इलाज से वंचित न हो और अन्य नागरिकों से भी कुछ न्यूनतम खर्च ही इलाज के तौर पर लिया जाए। 
इसी तरह पूरे देश में सब तरह की जरूरी सुविधाओं और प्रशिक्षित अध्यापकों की उपस्थिति के इतने स्कूल होने चाहिए कि कोई भी बच्चा अच्छी स्कूली शिक्षा से वंचित न हो। साफ पेयजल की उपलब्धि सभी   नागरिकों को, चाहे वे कहीं भी रहते हों, एक बुनियादी हक के रूप में स्वीकृत होनी चाहिए। जीवन की मूलभूत जरूरत से कोई भी वंचित हो तो जवाबदेही संबंधित अधिकारियों की मानी जाए। 
इस तरह बुनियादी जरूरतों को सब तक पहुंचाने के साथ सरकार को अपनी कर-नीति का उपयोग विषमता को कम करने, आर्थिक केंद्रीकरण को नियंत्रित करने और वित्तीय क्षेत्र में सट््टेबाजी रोकने के लिए करना चाहिए। बैंकिंग और बीमा क्षेत्र में सरकार की महत्त्वपूर्ण उपस्थिति बनी रहनी चाहिए। शेयर बाजार में सट््टे की प्रवृत्तियों पर रोक लगाने और विदेशी धन की तेजी से आवाजाही के नियमन में सरकार को और सावधानी बरतने की जरूरत है। विषमता कम करने का एक बड़ा तकाजा शहरी और ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों में भूमि-सुधारों को आगे बढ़ाना भी है। निर्धन परिवारों के लिए कृषिभूमि और आवास-भूमि सुनिश्चित होनी चाहिए।
भूमंडलीकरण के  दौर में जहां पूंजी को मुक्त आवागमन की छूट मिली है, आयात-निर्यात बढेÞ हैं और विदेशी कंपनियों के साथ वैसा ही बर्ताव करने का दबाव बढ़ा है जैसा किसी देश में अपने यहां की कंपनियों के साथ होता है, तो दूसरी ओर अब वैश्वीकरण का एक दूसरा आयाम भी उभर रहा है- यह है प्रतिरोध का वैश्वीकरण। दुनिया के विभिन्न देशों में हो रहे आंदोलन एक दूसरे से संपर्क और संवाद कायम कर संघर्ष की साझेदारी कायम कर रहे हैं। इसका शायद पहली बार सबसे जोरदार इजहार विश्व व्यापार संगठन के सिएटल सम्मेलन के समय हुआ था।
इसकी ताजा मिसाल आक्युपाइ द वॉल स्ट्रीट आंदोलन है, जिसने एक प्रतिशत बनाम निन्यानवे प्रतिशत का सवाल उठा कर अमेरिका और यूरोप में बढ़ती जा रही गैर-बराबरी को एक अहम मुद््दा बना दिया है। मगर अंतरराष्ट्रीय स्तर की यानी देशों के बीच चली आ रही विषमता के खिलाफ भी आवाज उठाना जरूरी है। विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व व्यापार संगठन द्वारा चलाई गई नीतियों से गरीब और विकासशील देशों को बहुत हानि हुई है। 
अब समय आ गया है कि इन नीतियों पर हम पुनर्विचार करें। विभिन्न देश मिल कर तय करें कि इन नीतियों के स्थान पर उचित नीतियां क्या हों? विशेषकर पेटेंट की जो नीति और कानून विश्व व्यापार संगठन और ट्रिप्स समझौते के दबाव में अपनाने पडेÞ, उनके स्थान पर हमें अपने हितों के अनुकूल पेटेंट कानून बनाना चाहिए। ऐसी आयात नीति, जिससे हमारे किसानों और उद्योगों का बाजार या मजदूरों और दस्तकारों का रोजगार छिन रहा हो, उसे अपनाने से हमें इनकार कर देना चाहिए। वैसे भी पूरी अर्थव्यवस्था को निर्यातोन्मुख बनाने का जो लालच अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने दिया था, उससे अर्थव्यवस्था में समस्याएं ही ज्यादा आई हैं और अंतरराष्ट्रीय अस्थिरता से हमारी अर्थव्यवस्था ज्यादा प्रभावित होने लगी है। इसलिए जरूरी है कि निर्यात-वृद्धि को अर्थव्यवस्था की प्रगति का प्रमुख पैमाना मानने के बजाय हम अर्थव्यवस्था में स्थानीय मांग को खास स्थान दें। इसके साथ-साथ विषमता दूर करने के उपाय अपनाए जाएं तो गरीब लोगों की क्रय-क्षमता बढ़ेगी और स्थानीय मांग का आधार व्यापक होगा। 
यह स्थानीय मांग अर्थव्यवस्था का आधार इस तरह बदल सकती है कि उत्पादन क्षमता और उपभोग में सब लोगों की बुनियादी जरूरतों को प्राथमिकता मिले। यहां गांधीजी के इस सोच को रेखांकित करना जरूरी है कि छोटे और कुटीर स्तर के उत्पादन को विशेषकर प्रोत्साहन दिया जाए। यह सच है कि कुछ तरह का उत्पादन बडेÞ स्तर पर होना चाहिए, पर साथ ही बहुत-से ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें गांवों-कस्बों और छोटे शहरों से कुटीर और लघु उद्योग भी लोगों की जरूरतों को भली-भांति पूरा कर सकते हैं और कुछ मामलों में तो और बेहतर ढंग से करते हैं। इसलिए हर क्षेत्र में बड़ी कंपनियों का अंधाधुंध प्रसार उचित नहीं है, फिर चाहे वे निजी उद्योग हों या सरकारी उद्योग।
कुटीर और लघु उद्योग को अधिक महत्त्व देना पर्यावरण-रक्षा की दृष्टि से भी जरूरी है। जैसे-जैसे जलवायु बदलाव का संकट उग्र होता जा रहा है, आर्थिक क्षेत्र की तमाम गतिविधियों के साथ पर्यावरण-रक्षा की नीति को जोड़ना आवश्यक हो गया है। उदाहरण के लिए, जीवाश्म र्इंधन की खपत अंधाधुंध बढ़ाने के स्थान पर अगर गांवों और कस्बों में अक्षय ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों का बेहतर से बेहतर उपयोग करने वाले मॉडल विकसित किए जाएं तो यह ऊर्जा के विकास और पर्यावरण दोनों की दृष्टि से उचित होगा। 
विश्व-स्तर पर देखें तो जलवायु बदलाव के दौर में उत्पादन बढ़ाने को 'कार्बन स्पेस' बहुत सीमित है, इसलिए बुनियादी जरूरतों को प्राथमिकता देना और विलासिताओं पर रोक लगाना पहले से कहीं अधिक जरूरी हो गया है। लिहाजा, समता और सादगी पर आधारित अर्थव्यवस्था का मॉडल ही टिकाऊ विकास सुनिश्चित कर सकता है।

No comments:

Post a Comment