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Friday, March 30, 2012

स्‍टारडम कुछ नहीं होता, असल चीज होती है कहानी!

स्‍टारडम कुछ नहीं होता, असल चीज होती है कहानी!



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स्‍टारडम कुछ नहीं होता, असल चीज होती है कहानी!

30 MARCH 2012 ONE COMMENT

♦ महताब आलम

रसों शाम "पान सिंह तोमर" देखी। मल्टीप्लेक्स में पहली और जिंदगी की सबसे महंगी फिल्म – ढाई सौ का एक टिकट था। महंगी इसलिए कि भाई हम तो घर से छुपकर या स्कूल से भागकर, ढाई रुपये की टिकट लेकर फ्रंट लाइन/स्टाल में फिल्म देखने वालों में से रहे हैं। और फिल्मों की टिकट की खरीद-दारी में अपनी औकात का ग्राफ कभी भी सौ रुपये को क्रॉस न कर पाया। खैर, महंगी तो जरूर थी लेकिन दिल नहीं दुखा क्यूंकि फिल्म बहुत अच्छी थी। मजा आ गया। खास बात ये थी किसी सतह पर फिल्म को अपने या आसपास की घटनाओं से जोड़ पा रहा था। सच कहें तो पैसा वसूल हो गया। और यही वजह है कि जब घर लौटने पर कहीं से पता चला कि कल फिल्म के नायक इरफान, जेएनयू आने वाले हैं, तो उन्हें सुनने और देखने जाने से अपने आपको नहीं रोक पाया। महंगे टिकट और मल्टीप्लेक्स की तरह ही ये मेरी जिंदगी का पहला मौका था, जब किसी फिल्मी कलाकार को लाइव सुनने या देखने को लायायित हो रहा था। फिर दिल में ये सवाल भी उठा कि लोग क्या कहेंगे? क्या गुरु, तुम भी ये सब करने लगे! आखिर में तय पाया, दुनिया जो कहे – कल जाना ही है। सो पहुंच ही गया साहब।

जेएनयू का केसी ओपन एयर थियेटर। शाम के साढ़े-चार बजे थे। समय तो यही था, जिस पर कार्यकम को शुरू होना था। जनता भी इकट्ठी हो चुकी थी और धीरे-धीरे तादाद बढ़ती ही जा रही थी। लेकिन ये क्या, अभी तो शामियाना (टेंट) ही लगाया जा रहा था। थोड़ी झुंझलाहट हुई। कई लोग ऑफिस छोड़ कर या छुट्टी लेकर आये थे। बाद में ये भी पता चला कि इरफान के आने की वजह से जेएनयू के जापानी अध्ययन सेंटर का एग्जाम भी स्थगित कर दिया गया था, जिसके लिए विद्याथियों ने इरफान का शुक्रिया भी अदा किया। इस शुक्रिया पर इरफान ने कहा कि ये मेरे लिए सबसे बड़ी बात है। क्यूंकि बचपन में मै हमेशा ये दुआ करता था कि कुछ भी ऐसा हो जाए, जिसकी वजह से एग्जाम स्थगित या स्कूल बंद! हां, तो मैं कह रहा था कि समय हो चुका था और अभी शामियाना ही लग रहा था। लोग एक दूसरे से पूछ रहे थे, इरफान कब आएंगे, इरफान आ गये क्या? इसी बीच, देखते ही देखते, भीड़ भी बढ़ गयी, शामयाना भी लग गया और लगभग सवा पांच तक वो भी पहुंच गये, जिसकी रह सब देख रहे थे।

हां तो साहब इरफान, जेएनयू पहुंच चुके थे। जनता ने उनका जोरदार स्वागत किया। आयोजकों की ओर से औपचारिक स्वागत भी हुआ। तोहफे के तौर पर एक कलम, महान अभिनेता बलराज साहनी जी का एक भाषण, जो जेएनयू के एक कॉनवोकेशन में दिया गया था और रमाशंकर विद्रोही जी का काव्य संकलन, "नई खेती" पेश किया गया। मेरी समझ में इन तीनों में सबसे अहम विद्रोही जी का काव्य संकलन था, जो इरफान को पेश किया गया। जो विद्रोही को सुन चुके हैं, मिल चुके हैं, वो मेरी इस बात को अहम बताने की वजह समझ सकते हैं। हां, एक बात और कि मेरे कहने का मतलब ये बिलकुल नहीं की बलराज साहनी का भाषण कम अहम है। मामला असल में संदर्भों का है।

इन सब औपचारिकताओं के बाद, बातचीत शुरू हुई और लगभग दो घंटे तक चली। मॉडरेटर की जिम्मेदारी कभी अविनाश जी, कभी प्रकाश रे बखूबी निभाते रहे। सबसे अच्छी बात ये हुई कि किसी तरह का हुड़दंग न हुआ, जैसा आमतौर पर ऐसे कार्यकर्मों में हो जाता है। अलबत्ता हवाई-जहाज की लगातार आवाजाही की वजह से इरफान जरूर 'दंग' हुए और चुटकी लेते हुए कहा कि लगता है, ये सब मेरी सुरक्षा के लिए है। हर तरह के सवाल पूछे गये – निजी, परवारिक, उनके काम और करियर से जुड़ी, फिल्म जगत से जुड़े, यही नहीं सामाजिक, राजनीतिक भी। एंजलिना जोली से लेकर नक्सलवाद, राजस्थानी संस्‍कृति, अन्ना हजारे और न जाने क्या-क्या। सवालों के जरिये भरसक प्रोवोक करने की कोशिश भी हुई, भले आयोजित या जान-बूझ कर न सही। लेकिन इरफान, बिना झुंझलाये, किसी 'विवादों' में फंसे, हाजिरजवाबी के साथ सवाल का जवाब देते रहे। कुछ लोग इसे चालाकी भी कह सकते हैं। लेकिन मुझे इसमें कोई चालाकी नहीं दिखी, क्यूंकि मेरा मानना है कि चालाकी तब होती है जब कोई कुछ छुपाने या ओढ़ने की कोशिश करता है… और पूरी बातचीत से ऐसा कुछ महसूस नहीं हुआ। पूरी बातचीत के दौरान इरफान ने इस बात संदेश भर तक नहीं दिया कि वो बेहतरीन न सही, बहुत अच्छे कलाकार हैं। एक सवाल के जवाब में कि कई सारे लोगों को शिकायत है कि उनके लेवल की फिल्म अभी तक नहीं बन पायी है, उसने कहा कि मेरे पास शिकायत के लिए समय नहीं है। 'छोटे कलाकारों' के संदर्भ में उनका जवाब दो-टूक था, "छोटा कलाकार क्या होता है, कलाकार, कलाकार होता है"।

विदेश की एक घटना की तरफ इशारा करते हुए जब अविनाश जी ने ये पूछा कि क्या विदेश में लोग दूसरे मशहूर और स्‍टार बॉलीवुड अभिनेताओं की बनिस्बत आपको ज्‍यादा पहचानते हैं, तो इरफान ने कहा कि ऐसी कोई बात नहीं है… "ये तो बस एक संयोग है। कहीं लोग मुझे पहचान जाते हैं, और दूसरों को नहीं पहचान पाते हैं। ऐसा मेरे साथ भी हो सकता है…" इरफान ने कहा कि वो स्टार-डम में यकीन नहीं करते, बल्कि उनका कहना था कि असल चीज शेयरिंग है, कहानी है। आप जो कहानी सुनाते है, वो आदमी कितने दिनों तक याद रखता है। ये ज्यादह अहम है। दूसरे (खानों) से तुलना से जुड़े एक सवाल के जवाब में उनका कहना था कि ये चीजें बेफजूल हैं। हर एक कलाकार की अपनी जगह है।

वो इस चीज को लेकर खासे सचेत दिखे कि उनकी कोई चीज, 'आइटम' न बने। मसलन, जब उनसे पान सिंह तोमर का ये डायलॉग कि … बीहड़ में बागी बनते हैं, डकैत तो पार्लियामेंट में होते हैं … की डिमांड हुई तो उन्होंने उसे बड़ी आसानी ये कहते हुए टाल दिया कि ये 'आइटम' टाइप बनता जा रहा है। अलबत्ता फिल्म के एक गाने के कुछ बोल जरूर सुनाये। ये पूछे जाने पर कि क्या बागी बनने की आज कितनी जरूरत है, तो उन्होंने कहा कि हर समाज में जरूरत और स्कोप होता है, "…और बागी पूछ के नहीं बना जाता, बागी तो बन जाता है।" और भी बहुत सारी बातें हुईं। सबको समेटना यहां संभव नहीं। जिंदगी का एक शानदार अनुभव, मुझे ये जरूर कहना चाहिए!

कुल मिलाकर, उनको सुनने के बाद मेरा ये इम्प्रेसन है कि 'विवादों' न फंसने की कला वो अच्छी तरह जानते हैं। और वो ये भी अच्छी तरह जानते है कि किस तरह दूसरे को नीचा दिखाये बिना भी अपने को स्थापित किया जा सकता है। मै इरफान का फैन तो नहीं, लेकिन इतना जरूर समझता हूं कि उनकी ये कलाएं सीखने और बरतने लायक है।

(महताब आलम। बुनियादी तौर पर मानवाधिकार कार्यकर्ता, लेकिन जरूरत भर लिखने के लिए स्वघोषित स्वतंत्र पत्रकार। दिल्ली में ठिकाना है, पर घुमंतू भोटिया। महताब से activist.journalist@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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