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Wednesday, June 6, 2012

माफ कीजिएगा वंचितो, हमने कभी आपका दुख नहीं समझा

http://mohallalive.com/2012/05/30/article-on-ambedkar-cartoon-controversy-by-nidhi-prabha-tewari-and-shashi-k-jha/

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माफ कीजिएगा वंचितो, हमने कभी आपका दुख नहीं समझा

30 MAY 2012 3 COMMENTS

बहस हारे-जीते होंगे, आइए दिल भी हारें-जीतें

संयुक्‍त आलेख ♦ निधि प्रभा तिवारी | शशि कुमार झा

बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर के एक एक पुराने कार्टून को एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तक में छापे जाने का मुद्दा जब दलित राजनेताओं ने संसद में उठाया, तो ऐसा पाया गया कि उनमें गुस्सा और आहत होने की भावना प्रकट रूप में दिख रही थी। उनकी इस भावना को पहचानते हुए लगभग सभी सांसद उनके साथ खड़े नजर आये। इस प्रकरण ने उन सभी धारणाओं को चुनौती दी, जिसमें यह मान कर चला जा रहा था कि भारतीय समाज और इसका लोकतंत्र इतना 'विकसित' और 'परिपक्व' हो चुका है कि कोई भी 'स्वस्थचित्त' व्यक्ति कार्टून जैसे किसी 'मामूली' चीज से आहत नहीं होगा।

इसके बाद विभिन्न मंचों पर उदारवादी लोकतंत्र के मूल्यों को याद दिलाया जाने लगा। लोगों को सलाह दी जाने लगी कि वे अपने आप में थोड़ा सेंस ऑफ ह्यूमर विकसित करें, अपनी नाजुक संवेदनाओं को काबू में रखें और सहिष्णुता बरतें। ऐसा भी कहा गया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से समझौता नहीं किया जाना चाहिए।

लेकिन सांसदों ने एक स्वर में कहा कि कार्टून को हटाना ही पड़ेगा। हालांकि उन्हें हंमेशा की तरह पॉपुलिस्ट और प्रतिगामी कहा गया। कहा गया कि वे जाति और समुदाय की राजनीति को जिंदा रखना चाहते हैं और देश को अतीत की जकड़नों में ही जकड़ कर रखना चाहते हैं। हालांकि मानव संसाधन विकास मंत्री ने बिना देरी किये माफी मांग ली और कार्टून को वापस भी ले लिया, लेकिन जो चोट दलित महसूस कर रहे थे वह जाने का नाम नहीं ले रहा है।

दलितों और उनकी चेतना में शरीक लोगों की पीड़ा और संवेदनाएं भावनात्मक हैं, लेकिन उनका जवाब उदारवादी लोकतंत्र के मूल्यों पर आधारित तार्किक दलीलों और कॉमिक कॉन्ससनेस पैदा करने की नसीहतों की भाषा में दिया जा रहा है। दरअसल ऐसा प्रतीत होता है कि इस तरह के मुद्दों पर हम वह प्रचलित सैद्धांतिक रुख इख्तियार कर लेते हैं जो यह मान कर चलता है कि 'भावुकता' जैसी आदिम और संकीर्ण चीज का स्थान आधुनिक तार्किक लोक विमर्श में होना ही नहीं चाहिए। इसलिए हमें शायद यह देखना होगा कि इस धारणा से युक्त लोकतांत्रिक मूल्यों और आधुनिक तर्कणाओं से लबरेज तर्क क्यों हमारे दिलों को छूने में विफल हो रहे हैं। इन तर्कों को उदारतापूर्वक और जोरदार तरीके से रखने के बावजूद क्यों हमारे समाज के एक बड़े तबके का गुस्सा और चोट बरकरार रहता है।

जरा सोच कर देखें तो क्या ऐसा नहीं लगता है कि सारे तर्क अंततोगत्वा दलित समुदायों को यह एहसास दिला रहा है कि उनकी भावनाएं, उनकी आवाज, उनका गुस्सा गलत है? ऐसा नहीं लगता है कि इन सारे तर्कों से जो संदेश निकल रहा है कि उसमें जाने-अनजाने दलित राजनेताओं और बुद्धिजीवियों को असहिष्णु, अलोकतांत्रिक, व्यक्ति पूजक, अत्यधिक भावुक और अति-संवेदनशील इत्यादि दर्शाने की कोशिश जान पड़ती है। इस परिप्रेक्ष्य में तो सरकार द्वारा मांगी गयी माफी ज्यादा उदार प्रतीत होती है।

हम जानते हैं कि पूरे देश में अंबेडकर की मूर्तियों को अपमानित करने की खबरें आती रही हैं। मायावती द्वारा स्थापित किये गये अंबेडकर स्मारकों को केवल जनता के पैसे की बर्बादी के रूप में ही प्रस्तुत किया जाता रहा है। क्या ये किसी और भावना की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती है? संभव है कि अंबेडकर के कार्टून से उपजा भावनात्‍मक उभार दलित समुदाय के हृदय में गहरे बसे हुए गुस्से और पीड़ा की अभिव्यक्ति का एक महज आकस्मिक साधन भर हो। कार्टून का विश्लेषण करके और उनकी पीड़ा को तुच्छ रूप में दिखला कर हम पुराने घावों को भरने और रीकंसिलिएशन या पुनः मैत्री के अवसर को गंवा तो नहीं रहे हैं?

इस संदर्भ में सरकार का माफीनामा वास्तव में रीकंसिलिएशन के एक व्यापक द्वार को खोलती है। राजनीतिक समुदाय ने एक पहला साहसिक कदम उठाकर हमारे और आपके लिए इस हीलिंग की प्रक्रिया को आगे ले जाने का मार्ग आसान ही किया है। मनोमालिन्य दूर कर हीलिंग की इस प्रक्रिया से हम एक-दूसरे के और करीब आएंगे और इससे भविष्य में किसी भी अन्य ऐसे विषय पर गलतफहमी की गुंजाइश और कम होती जाएगी। यह हमारे बीच साझेदारी और भागीदारी के नये द्वार खोलेगी। इससे हममें वह आत्मविश्वास पैदा होगा, जिससे हम असमानता, बहिष्करण, गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा और हिंसा जैसे चिंताजनक प्रश्नों को भी हल करने के लिए भावनाओं के स्तर पर भी कुछ कार्य करने को प्रेरित होंगे।

और सबसे बढ़कर यह हममें उस क्षमता का विकास करेगा, जिससे हम समाजे के किसी भी तबके को पहुंची भावनात्मक चोट को सही समय पर महसूस कर उसका निदान कर पाएं। सामाजिक स्तर पर किसी भी तर्क-वितर्क वाली बहस से ज्यादा यह क्षमता हमारी लोकतांत्रिक परिपक्वता की परिचायक होगी। तभी हम शायद अपनी उस प्रवृत्ति से मुक्त हो पाएंगे, जिसके वशीभूत होकर हम भावनात्मक मुद्दों पर खुल कर बात करने के बजाय उन्हें दबाते और सरकाते जाते हैं। अंबेडकर कार्टून के इस मौजूदा संदर्भ में हीलिंग की इस प्रक्रिया की शुरुआत दलित समुदाय और उन सभी लोगों से बिना शर्त्त माफी मांगने से की जा सकती है, जिनकी भावनाओं को इससे ठेस पहुंची है।

साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि 'गैर-दलित' कैटगरी भी मौजूदा पीढ़ी के एक बड़े हिस्से पर एक आरोपित अस्मिता है। लेकिन इस कैटगरी की मौजूदा पीढ़ी के मन में यह भावना जगनी चाहिए कि "हमसे यह चूक हुई है कि हम आपकी चोट और आपके साथ हुए भेदभाव के उस बोध को समझने के लिए कभी आगे नहीं आये हैं, जो आप अभी भी महसूस करते हैं। हम उन ऐतिहासिक अन्यायों का अपराध स्वीकार करने का साहस भी नहीं जुटा पाये हैं, जिनको आपने भोगा है। हमें हमेशा यह डर सताता रहा है कि कहीं आप हमारे पूर्वजों द्वारा किये गये अपराधों का दंड हमें तो नहीं देना चाहेंगे। हम अपने औचित्य और स्पष्टीकरणों को पकड़ कर बैठे रहे और कभी आपके दिलों तक पहुंचने की कोशिश नहीं की। हममें से कई लोगों को तो पता भी नहीं है कि आपके मन पर क्या बीतती है। हमें माफ कर दीजिए।

हम आपको धन्यवाद देते हैं कि आपने हमें छोड़ा नहीं और हमारे एक बुरे श्रोता होने के बावजूद भी हमसे संवाद जारी रखा। हम अपने राजनीतिक नेतृत्व को भी धन्यवाद देते हैं, जिन्होंने हमारे द्वारा उन्हें पॉपुलिस्ट और जातिवादी कहे जाने के बावजूद हमारे समुदायों के बीच संवाद का जरिया कायम रखा। अब आपका गुस्सा और प्रेम दोनों ही हमारे लिए शिरोधार्य है। आइए बातचीत करें। आइए मिलकर एक साझे भविष्य की संभावना की तस्वीर बनाएं।"

(निधि प्रभा तिवारी और शशि कुमार झा राजनीतिक और लोकतांत्रिक संवादों के क्षेत्र में कार्य कर रही संस्था डेमोक्रेसी कनेक्ट में कार्यरत हैं। उनसे npt@democracyconnect.org और shashi@democracyconnect.org पर संपर्क किया जा सकता है)


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