Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti basu is DEAD

Jyoti Basu: The pragmatist

Dr.B.R. Ambedkar

Memories of Another Day

Memories of Another Day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Thursday, July 5, 2012

राष्ट्रपति चुनाव और वामपंथ

http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/3057/10/0

प्रकाश करात
सीपीआई (एम) हमेशा से राष्ट्रपति चुनाव को एक राजनीतिक मुद्दे की तरह देखती आई है और इस मुद्दे पर एक राजनीतिक रुख अपनाती आई है। पिछले ही दिनों संपन्न हुई पार्टी की 20वीं कांग्रेस द्वारा तय की गई राजनीतिक-कार्यनीतिक लाइन, कांग्रेस के नेतृत्ववाली यूपीए सरकार तथा उसकी आर्थिक नीतियों के  खिलाफ संघर्ष का आह्वान किया गया है। इसके साथ ही हमारी पार्टी, भाजपा तथा उसके सांप्रदायिक एजेंडा के भी खिलाफ है। हमारी पार्टी नवउदारवादी नीतियों, सांप्रदायिकता और बढ़ते साम्राज्यवादी प्रभाव के खिलाफ संघर्ष करेगी। पार्टी, मुद्दों के आधार पर गैर-कांग्रेसी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के साथ सहयोग का प्रयास करेगी और जनता के मुद्दों पर संयुक्त आंदोलनों व संघर्षों के लिए पहल करेगी। पार्टी एक वामपंथी-जनतांत्रिक विकल्प के निर्माण के लिए काम करेगी। इस तरह के विकल्प का तकाजा है कि एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में सीपीआई (एम) तथा वामपंथ की ताकत बढ़ाई जाए। सीपीआई (एम) तथा वामपंथ को मजबूत करने की प्रक्रिया का यह भी तकाजा है कि प. बंगाल में पार्टी तथा वामपंथी आंदोलन की हिफाजत की जाए, जिन पर भीषण हमला हो रहा है।
पार्टी ने राष्ट्रपति चुनाव में अपना रुख, परिस्थितियों के इसी खाके के संदर्भ में तय किया है। सीपीआई (एम) पोलित ब्यूरो ने प्रणब मुखर्जी की उम्मीदवारी का समर्थन करने का फैसला लिया है। 1991 के लोकसभा चुनाव से लगाकर, हमारे भाजपा द्वारा प्रायोजित उम्मीदवार का समर्थन करने का सवाल ही पैदा नहीं होता है। इसकी वजह यह है कि भाजपा के ताकतवर बन जाने के बाद से, यह एक महत्वपूर्ण काम हो गया है कि उसे देश के संवैधानिक प्रमुख के पद पर ऐसे व्यक्ति को बैठाने से रोका जाए, जो हिंदुत्ववादी ताकतों के प्रभाव में आ सकता हो क्योंकि अगर ऐसा होता तो यह हमारे संविधान के धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक सिद्धांत के ही खिलाफ जाता।
इसी ख्याल से पार्टी ने 1992 के राष्ट्रपति चुनाव में, कांग्रेस के उम्मीदवार शंकरदयाल शर्मा का समर्थन किया था। और यही वजह थी कि 1992 के बाद से, नवउदारतावाद की उन नीतियों के अपने दृढ़ विरोध के बावजूद, जिनकी शुरूआत नरसिंह राव की सरकार ने की थी और जिन्हें उसके बाद से एक के बाद एक आई सरकारों ने जारी रखा है, हमारे देश के संविधान तथा राजनीतिक व्यवस्था के धर्मनिरपेक्ष आधार की हिफाजत करने को प्राथमिकता दी जाती रही है। इसी समझ के आधार पर पार्टी ने शंकरदयाल शर्मा, केआर नारायणन तथा प्रतिभा पाटिल का समर्थन किया था। राष्ट्रपति चुनाव के मामले में एक 2002 का चुनाव ही अपवाद रहा, जब एनडीए की सरकार सत्ता में थी। इस चुनाव में भाजपा ने एपीजे कलाम की उम्मीदवारी को आगे बढ़ाया था और कांग्रेस ने उनकी उम्मीदवारी का समर्थन किया था। चूंकि गैर-भाजपा खेमे का कोई दूसरा कारगर उम्मीदवार ही नहीं था, इस चुनाव में वामपंथी पार्टियों ने अपना ही उम्मीदवार खड़ा किया था।
वर्तमान राष्ट्रपति चुनाव में प्रणब मुखर्जी के उम्मीदवार बनाए जाने से, कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच की खाई और चौड़ी हुई है। तृणमूल कांग्रेस ने डॉ. कलाम को उम्मीदवार बनवाने की कोशिश की थी। यह ऐसा कदम था जिसे भाजपा का पूरा अनुमोदन हासिल था। इस कोशिश में विफल हो जाने के बाद, अब तृणमूल कांग्रेस के पास यही विकल्प रह गया है कि या तो चुनाव में हिस्सा ही न ले या फिर अपने रुख से पलटे और प्रणब मुखर्जी को समर्थन दे। सीपीआई (एम) ने अपना रुख तय करते हुए, सत्ताधारी गठजोड़ के भीतर की दरार को ध्यान में रखा है।
सीपीआई (एम) ने यह निर्णय लेते हुए इस तथ्य को भी ध्यान में रखा है कि अनेक गैर-यूपीए पार्टियों ने भी प्रणब मुखर्जी के लिए अपने समर्थन का एलान किया है। इनमें समाजवादी पार्टी, बसपा, जद (सेक्यूलर) तथा जनता दल (यूनाइटेड) शामिल हैं। अगर धर्मनिरपेक्ष विपक्षी पार्टियां इसके लिए तैयार होतीं तब तो सीपीआई (एम) अलग से उम्मीदवार खड़ा करने की बात भी सोच सकती थी। लेकिन, अन्नाद्रमुक तथा बीजद के अपवाद को छोड़कर, जिन्होंने संगमा के नाम का प्रस्ताव किया था, जिसका अब भाजपा समर्थन कर रही है, ज्यादातर धर्मनिरपेक्ष विपक्षी पार्टियां यूपीए के उम्मीदवार को समर्थन देने की ओर झुक रही थीं। इस तरह प्रणब मुखर्जी ऐेसे उम्मीदवार के रूप में सामने आये हैं, जिसके नाम पर व्यापकतम सहमति है। भाजपा तथा ममता बैनर्जी ने डॉ. कलाम को चुनाव में लड़वाने के लिए जैसी ताबड़तोड़ कोशिशें की थीं, खासतौर पर उनके संदर्भ में, व्यापकतम सहमति के इस पहलू को भी ध्यान रखना जरूरी है। इस तथ्य को देखते हुए कि 2002 के चुनाव में समाजवादी पार्टी कलाम के साथ थी, मुलायम सिंह व समाजवादी पार्टी का इन कोशिशों का साथ देना खासतौर पर महत्वपूर्ण हो जाता है।
दूसरी अनेक पार्टियों के यूपीए के उम्मीदवार को समर्थन देने से कोई यूपीए की ताकत बढ़ नहीं जाती है। उल्टे यह तो चुनाव में अपने उम्मीदवार की नैया पार लगाने के लिए, बाहर की ताकतों पर कांग्रेस की निर्भरता को ही रेखांकित करता है। इसमें यह इशारा भी छुपा हुआ है कि ये ताकतें कांग्रेस से बराबरी की हैसियत से बात करने जा रही हैं और कांग्रेस उन पर अपनी मनमर्जी नहीं थोप सकती है।
कांग्रेस और भाजपा से लड़ने की राजनीतिक लाइन को, सभी मामलों में दोनों पार्टियों के साथ समान दूरी रखने की नीति के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। मिसाल के तौर पर जहां तक राष्ट्रपति चुनाव का सवाल है, मौजूदा हालात में राष्ट्रपति तो प्रमुख पूंजीवादी पार्टियों द्वारा चुना गया व्यक्ति ही होगा। फिर भी, चूंकि इस चुनाव में असली मुद्दा यह है कि देश का संवैधानिक प्रमुख दृढ़तापूर्वक धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए न कि किसी भी तरह से भाजपा के असर में आ सकने वाला व्यक्ति, सीपीआई (एम) का जोर भाजपा-प्रायोजित उम्मीदवार के खिलाफ होगा। 
जहां आर्थिक नीतियों के खिलाफ संघर्ष का सवाल होगा, जोर कांग्रेस तथा यूपीए की सरकार के खिलाफफ होगा। बेशक, कांग्रेस और भाजपा से समान दूरी के पैरोकार, सीपीआई (एम) पर राष्ट्रपति चुनाव के मुद्दे पर कांग्रेस के नेतृत्ववाली सरकार का साथ देने का आरोप लगा सकते हैं। लेकिन, जब महंगाई तथा कांग्रेसी सरकार के अन्य जनविरोधी कदमों के खिलाफफ संघर्ष करने तथा जनांदोलनों का विकास करने का सवाल आता है, वही लोग सीपीआई (एम) पर भाजपा के साथ हो जाने का आरोप भी लगा सकते हैं। सीपीआई (एम) की लाइन की इस तरह व्याख्या नहीं की जा सकती है।
प्रणब मुखर्जी के कैबिनेट से तथा वित्त मंत्रालय से हटने से, कोई आर्थिक नीतियों की दिशा नहीं बदल जाएगी। इस पद पर चाहे पी चिदंबरम रहे हों या प्रणब मुखर्जी रहे हों या अब आगे जो भी कोई उनके हाथों वित्त मंत्रालय संभालेगा, नवउदारवादी नीतियां तो जारी ही रहने वाली हैं। इसकी वजह यह है कि ये सत्ताधारी वर्ग की नीतियां हैं, जिन पर कांग्रेस पार्टी चलती है। वास्तव में आने वाले दिनों में नवउदारवादी सुधारों के लिए नये सिरे से जोर लगाए जाने की ही संभावना है, जिसके लिए बड़े कारोबारी हलके तथा अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के पैरोकार शोर मचाते रहे हैं।
बहुब्रांड खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत देना, इसी नये बलाघात का हिस्सा है। यह एक बड़ा मुद्दा है जिसका संबंध चार करोड़ लोगों की आजीविका का हिस्सा है। इसका प्रतिरोध करना होगा तथा इसे रोकना होगा। यह काम यूपीए के बाहर की सभी राजनीतिक पार्टियों को गोलबंद करने के जरिए ही किया जा सकता है। इस तरह की गोलबंदी में यूपीए का समर्थन कर रही कई पार्टियों को भी और एनडीए से जुड़ी पार्टियों को भी शामिल करना होगा। सीपीआई (एम), वालमॉर्ट तथा ऐसी ही अन्य कंपनियों को भारत में अपनी दूकानें खोलने से रोकने के लिए, एक शक्तिशाली आंदोलन के पक्ष में है। सीपीआई (एम) चाहेगी कि सभी विपक्षी पार्टियां इस मामले में एकजुट रुख अपनाएं। इसलिए, राष्ट्र्रपति चुनाव के लिए उम्मीदवार के चयन को, नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ लड़ने की कार्यनीति के साथ गड्डमड्ड करना सही नहीं होगा।
एक सवाल यह भी किया जा रहा है कि सीपीआई (एम) ने, राष्ट्रपति चुनाव से खुद को अलग क्यों नहीं रखा? यूपीए तथा भाजपा-समर्थित उम्मीदवारों के खिलाफ, पार्टी किसी को भी वोट न देने का रास्ता भी तो अपना सकती थी। 
लेकिन, इस मामले में मतदान से दूर रहने का मतलब होता, प. बंगाल में ममता बैनर्जी तथा तृणमूल कांग्रेस के साथ खड़े होना। ऐसा करना राजनीतिक रूप से नुकसानदेह होता और हमें मंजूर नहीं था। तृणमूल कांग्रेस, बंगाल में सीपीआई (एम) के खिलाफ हिंसक आतंक की मुहिम चला रही है। विधानसभा चुनाव के बाद से, हमारी पार्टी तथा वाम मोर्चा के 68 सदस्यों व हमदर्दों की हत्या की जा चुकी है। जनतंत्र पर इस हमले ने जनता के सभी तबकों को अपने दायरे में ले लिया है। कांग्रेस तक को नहीं बख्शा गया है। इन परिस्थितियों में तृणमूल कांग्रेस जैसा ही रुख अपनाना, वामपंथ के हितों तथा प. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ संघर्ष को ही चोट पहुंचाता। सीपीआई (एम) चूंकि सबसे बड़ी वामपंथी पार्टी है, उस पर ही प. बंगाल में मेहनतकशों की, उन पर हो रहे भारी हमले से रक्षा करने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी आती है। यह पार्टी का एक महत्वपूर्ण काम है कि वामपंथ के सबसे मजबूत आधार की रक्षा करे, जिससे राष्ट्रीय स्तर पर भी पार्टी तथा वामपंथ को आगे ले जाने में मदद मिलेगी। 
पुन: यह प. बंगाल का ही मामला नहीं है। राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रपति चुनाव से दूर रहने का मतलब होता, मैदान से हटना। यह विकसित होते राजनीतिक परिदृश्य में पार्टी के हस्तक्षेप को भोथरा कर देता। शासक वर्ग सुनियोजित तरीके से वामपंथ पर हमला कर रहे हैं, ताकि उसे अलग-थलग कर सकें। 2009 से सीपीआई (एम) तथा वामपंथ की ताकत घटी है। इसका कोई भ्रम न रखते हुए भी कि शासक वर्ग अपना शत्रुतापूर्ण रुख छोड़ देंगे तथा नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ वामपंथ के समझौताहीन रुख को देखते हुए, यह जरूरी है कि सत्ताधारी गठजोड़ में विभिन्न पार्टियों के बीच के टकरावों तथा उनके बीच के विभाजनों का उपयोग किया जाए। इस मुकाम पर चुनाव से दूर रहना, इस संबंध में मददगार नहीं होगा।
राष्ट्रपति चुनाव में वामपंथी पार्टियां एक समान रुख नहीं अपना पाई हैं। इससे पहले भी ऐसा हुआ है।  लेकिन, इस मुद्दे पर अलग-अलग रुख अपनाने से, वामपंथी एकता पर कोई खरोंच तक नहीं लगने वाली है। जहां तक प्रमुख राजनीतिक व आर्थिक मुद्दों का सवाल है, वामपंथी पार्टियों की साझा समझ बनी हुई है। इसी आधार पर वामपंथी पार्टियों ने खाद्य सुरक्षा तथा सार्वभौम सार्वजनिक वितरण प्रणाली की मांग को लेकर, एकजुट अभियान तथा आंदोलन छेड़ने का आह्वान किया है।

No comments:

Post a Comment