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Wednesday, July 4, 2012

निर्मम पड़ोसियों की राजधानी

निर्मम पड़ोसियों की राजधानी


http://www.janjwar.com/society/1-society/2827-nirmam-padosiyon-kee-rajdhanee


समाज में अभाव और अलगाव दोनों है.अभाव से ग्रस्त गरीब समाज है तो अलगाव मध्यवर्गीय समाज की संस्कृति बनता जा रहा है.दो बहनों का दिल्ली में हुआ यह हृदयविदारक मामला उसी अलगावग्रस्त समाज का एक उदाहरण मात्र है...

 अजय प्रकाश 

राजधानी दिल्ली के खाये-पीये-अघाये लोगों का मानना है कि यह दिलवालों का शहर है, लेकिन इस दिल में कितनी निर्ममता भरी है, इसका एहसास तब होता है जब किसी अखबार या चैनल में इसी शहर के कुछ बाशिंदों की जर्जर और मरणासन्न हालत के दर्दनाक मंजर सामने आते हैं. इसका ताजा उदाहरण ममता और नीरजा नाम की युवतियां हैं जो लगभग मरती हुई हालत में अपने घर से बरामद की गयीं.इन बहनों की कहानी उनके जीवन से ज्यादा दिल्ली के नागरिकों पर टिप्पणी है.अपने पिता की मृत्यु के बाद सदमे के कारण अपने फ्लैट में कैद हो जाने वाली इन बहनों का हालचाल अगर उनके पड़ोसियों ने भी नहीं लिया तो इसका अर्थ यही है कि दिल्ली के नागरिक भी अपने-अपने स्वार्थों के दरवाजों के भीतर बंद हो गये हैं.

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उत्तरी-पश्चिमी दिल्ली के रोहिणी इलाके के सेक्टर आठ से 16 जून की सुबह फ्लैट का ताला तोड़कर पुलिस ने दो बहनों ममता (40) और नीरजा गुप्ता (29) को एक स्वंयसेवी संगठन की मदद से बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर अस्पताल पहुंचाया.फ्लैट दुर्गंध और सड़न से भरा हुआ था.इन्हें चार महीने से खाने को नहीं मिला था, जिसके कारण इनका वजन 25 किलो और 15 किलो हो गया था.

हाड़ का ढेर बनी ये महिलाएं अपने पिता के मरने के सदमे से नहीं उबर पायीं थीं और असुरक्षा बोध से घर में पड़े-पड़े सड़ रही थीं.बड़ी बहन ममता का एक 14 साल का बेटा भी है जो इनकी 65 वर्षीय मां के साथ बुरे हाल में कहीं और रह रहा था.छोटी बहन नीरजा की शादी नहीं हुई थी, जबकि 18 साल पहले विवाहित हुई ममता के पति ने शादी के 2 साल बाद ही तलाक ले लिया था.ईलाज कर रहे डाक्टर कौस्तुव किरण के अनुसार, 'भर्ती के वक्त इनका कोई अंग ठीक से काम नहीं कर रहा था और कई अंग सड़ रहे थे.शरीर में हड्डियों के सिवा कुछ भी शेष नहीं रह गया है.बगैर समुचित ईलाज और काउंसिलिंग के ये सदमे से नहीं उबर पायेंगी.' 

सामाजिक अलगाव और असुरक्षा की यह दास्तान साधनों और पड़ोसियों से भरी उस दिल्ली की है जो दुनिया के बेहतरीन शहरों में शामिल है.पड़ोसियों की असंवेदशीलता के अलावा इनके परिजनों की निर्ममता भी इंसानी मूल्यों को झकझोर देने वाली है, जिन्होंने इनके जीवित रहने की जानकारी लेना जरूरी नहीं समझा.नीरजा की मां कहती हैं, 'मेरे पति के चार भाई हैं जो उनके मरने से पहले तक वे कभी-कभार मामूली मदद कर दिया करते थे, लेकिन अब वह झांकने भी नहीं आते.' 

मां से यह पूछने पर कि चार महीने पहले वह बेटियों को छोड़ क्यों और कहां चली गयीं.इस पर वह कहती हैं, 'अपने नाती को बचाने के लिए गयी कि वह खाये बिना मरे नहीं.' मामला प्रकाश में आने के बाद आने के बाद सरकार ने इस परिवार को आर्थिक मदद दी है और हर महीने मां और बेटियों को एक हजार रूपया पेंशन देने की घोषणा की है.मनोवैज्ञानिक रजत मित्रा कहते हैं, 'राजधानी क्षेत्र में यह कोई पहला मामला नहीं है.दशक भर में करीब एक दर्जन ऐसी घटनाओं के लिए दिल्ली पुलिस अकेले मुझसे संपर्क कर चुकी है.'  

पिछले वर्ष अप्रैल में नोएडा के सेक्टर 19 के एक अपार्टमेंट में दो बहनों अनुराधा और सोनाली बहल को इसी स्थिति में पाया गया था, जिसमें से अनुराधा को नहीं बचाया जा सका, जबकि सोनाली का अभी भी ईलाज चल रहा है.पिता के मरने के बाद सात महीने तक इन बहनों ने अपने को फ्लैट में बहुत ही नारकीय हालत में कैद कर रखा था.अनुराधा और सोनाली ने भी कई महीने से खाना नहीं खाया था.

इसी तरह के एक मामले में 2010 में शालिनी मेहरा नाम की एक महिला अपनी मरी हुई मां की लाश के साथ चार महीने तक रही थी.इससे पहले 2007 में दक्षिणी दिल्ली इलाके में दो बहने अपने मरे हुए भाई की लाश लेकर तब तक घर में अपने को कैद की रहीं जब तक की पुलिस ने खोज नहीं निकाला.मनोवैज्ञानिक रजत मित्रा दिल्ली के पहले मामले का जिक्र करते हैं जो सन् 2000 में किर्ती नगर के एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार को लेकर उजागर हुआ.पति के मरने के बाद एक महिला अपने दो बेटों के साथ अपने घर की खिडकियों-दरवाजों को बंद कर 18 महीने तक पड़ी रही कि कोई उसका कोई घर कब्जा न ले.' 

कार्ल मार्क्स ने अलगाव को सबसे पहले परिभाषित किया था.मार्क्स के मुताबिक, 'पूंजीवादी समाज अलगाव पैदा करता है.मानव का श्रम से और श्रम का साधन से.आगे यह अलगाव इंसान का इंसानी मान्यताओं और मुल्यों से, फिर इंसान के इंसान से बनने वाले पारस्परिक संबंधों से भी अलग-थलग कर देता है.

जर्मन लेखक फ्रीट्ज पेपेनहेम की पुस्तक 'द एलिनेशन आफ मार्डन मैन' का हिंदी अनुवाद करने वाले लेखक और देश-विदेश पत्रिका के संपादक दिगंबर कहते हैं, 'समाज में अभाव और अलगाव दोनों है.अभाव से ग्रस्त गरीब समाज है तो अलगाव मध्यवर्गीय समाज की संस्कृति बनता जा रहा है.दो बहनों का यह हृदयविदारक मामला उसी अलगावग्रस्त समाज का एक उहारण मात्र है.' मजदूरों-गरीबों के बीच तीन दशकों से काम कर रहे दिगंबर बताते हैं कि 20-25 रुपये रोज पर भी जीवन चलाने वाले हजारो-हजार लोग गरीब बस्तियों में मिल जायेंगे.अभावग्रस्त लोगों का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला भी दिख जायेगा, लेकिन अपने कमरों में सड़कर मरते हुए लोग नहीं दिखेंगे.पूंजी और मुनाफे के चक्रव्यूह में फंसे मध्यवर्गीय समाज में संपन्नता,अलगाव और भय एक साथ आता है.' 

मगर सवाल है कि इस तरह की सभी घटनाओं में निर्विवाद रूप से महिलाएं ही क्यों मानसिक अवसाद की शिकार हुई हैं.उत्तर प्रदेश के बनारस में भी इस तरह का एक मामला उजागर हुआ था, जहां पिता के मरने के बाद दो महिलाएं घर में इसलिए खुद को कैद की हुईं थीं कि कहीं उनका कोई घर न कब्जा ले.

महिला अधिकारों के लिए संघर्षरत कार्यकर्ता रंजना कुमारी इसका बड़ा कारण महिलाओं में असुरक्षा बोध को मानती हैं.वे कहती हैं कि यह असुरक्षा बोध एक सीमा के बाद मानसिक रोग में बदल जाता है, जिसपर परिवार या पड़ोस ध्यान देने की बजाय या तो ऐसे लोगों को अलगाव में छोड़ देता है, नहीं तो हंसी का पात्र मान लेता है.' 

स्वतंत्र पत्रकार निलोफर सुहरावार्डी की  राय में, 'अवसाद और मानसिक विकार से ग्रस्त हुई सभी महिलाओं या एक बात सामान्य है- किसी मर्द का इनकी जिंदगी से चले जाना.ये महिलाएं अपने घर के मर्दों (खासकर सामाजिक तौर पर) निर्भर रही हैं.मर्द के मर जाने पर उनकी अपनी दुनिया बियाबान लगती है.उनका बाहरी दुनिया से संपर्क का माध्यम मर्द है.इस मामले में स्त्री अपनी दुश्मन खुद है.' 

गौरतलब है कि पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था से पहले तक सामंती समाज में संयुक्त परिवार एक ऐसी व्यवस्था थी जो हर उंच-नीच में एक ध्रुव से सभी परिजनों को जोड़े रखती थी.सामंती समाज में परिवार के मुखिया के प्रति सभी जिम्मेदार थे और वह सबके प्रति.उसके न रहने पर भी परिवार आसानी से संभल जाता था.लेकिन समाज विकास के प्रक्रिया में पूंजीवाद ने बहुतेरे आधुनिक मुल्यों से समाज को समृद्ध तो किया, मगर इंसान को लगातार और लगातार सिर्फ स्वार्थों के आसपास केन्द्रित करते चले जाने से अलगाव भी बढ़ा.यह अलगाव पहले मेट्रो और बड़े शहरों में पड़ोसियों से मतलब नहीं रखने तक सीमित था, जिसका संक्रमण अब नीरजा और ममता गुप्ता या अनुराधा और सोनाली बहल के रूप में सामने आ रहा है.समाजशास्त्री इस त्रासदी को आधुनिकता, संपन्नता, अलगाव, असुरक्षा और अवसाद की कड़ी रूप में परिभाषित करते हैं.

समाजशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों को एक तबका इंटरनेट को भी अलगाव के बड़े कारण के रूप में चिन्हित करता है.उसके अनुसार, महानगरों और बड़े शहरों में के खाते-पीते घरों में इंटरनेट के कारण नयी पीढ़ी में अलगाव का प्रकोप बढ़ता जा रहा है.इंटरनेट, फेसबुक, ट्विटर जैसे सोशल मीडिया उन्हें आभासी दुनिया में तो व्यापक संपर्क का मौका दे रहे हैं, लेकिन वास्तविक दुनिया में उन्हें लोगों से काट रहे हैं.

ajay.prakash@janjwar.com

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