पलाश जी ने त्वरित उत्तर दिया। हम आभारी हैं। अब पलाश जी की अपने बारे में कोई भी राय हो (वैसे आदमी की अपने बारे में क्या राय होती है, इससे उतना फर्क नहीं पड़ता है, जितना कि इससे कि दूसरों की उसके बारे में क्या राय है), हम तो उन्हें एक वरिष्ठ पत्रकार मानते ही हैं। इस बीच मुझे उनका थोड़ा लेखन भी देखने का अवसर मिला। मैं उनकी अधिकांश धारणाओं से सहमति तो नहीं रखता, लेकिन लिखाई के मामले में उनकी सघन उत्पादकता का गहरा असर मेरे मस्तिष्क पर पड़ा है। मैं अन्य लेखों और टिप्पणियों की अन्तर्वस्तु पर तो नहीं जा सकता, लेकिन जारी बहस में उनके नये हस्तक्षेप के बारे में कुछ कहना चाहूंगा।
सही बात तो यह है कि समझ में नहीं आ रहा है कि क्या कहूं। क्योंकि श्री पलाश विश्वास जी ने कोई अहम तर्क तो रखा ही नहीं है, अपने पिछले लेख के तर्कों को ही दुहरा दिया है। यहां आरोपों के क्रम से मैं उनका खण्डन नहीं करूंगा बल्कि उनके महत्व के अनुसार उनका खण्डन करूंगा।
पलाश जी का दावा है कि वे आन्दोलन में सक्रिय रहे हैं। इसके बावजूद वे हमारे द्वारा क्रांतिकारी मार्क्सवाद और संशोधनवाद में फर्क किये जाने को लेकर चकित हैं। हम उनके चकित होने पर चकित हैं। सभी क्रांतिकारी मार्क्सवादी अपने आपको 1951 से सीपीआई और 1964 से सीपीएम के इतिहास से अलग मानते हैं। हम निश्चित तौर पर 1951 तक पार्टी द्वारा जाति प्रश्न को समझने के मसले पर हुई भूलों के लिए उसकी आलोचना करते हैं। लेकिन हमारी आलोचना का मूल बिन्दु जाति प्रश्न को ही समझने को लेकर नहीं है, बल्कि इस बात को लेकर है कि 1925 में स्थापना, 1933 में केन्द्रीय कमेटी के गठन से लेकर 1951 तक भारत में क्रांति के कार्यक्रम को लेकर पार्टी के पास कोई समझदारी मौजूद नहीं थी। 1951 में जब कार्यक्रम संबंधी नीतिगत प्रस्ताव को अपनाया गया तो फिर कार्यक्रम का कोई ज्यादा मतलब नहीं बनता था, क्योंकि पार्टी तब तक संशोधनवाद की राह पर अग्रसर हो चुकी थी, और अब कार्यक्रम को उसे केवल कोल्ड स्टोरेज में रखना था। 1964 में नवसंशोधनवादी सीपीएम के अलग होने से भी कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ा, और उसने भी नयी और ज़्यादा शातिर शब्दावली में संशोधनवादी एजेण्डा को ही आगे बढ़ाया। अब अगर पलाश जी 1951 से लेकर अब तक सीपीआई और सीपीएम के कुकर्मों के लिए अपने आपको जवाबदेह पाते हैं तो हम इसमें उनकी ज्यादा मदद नहीं कर सकते हैं। हम 1951 तक कम्युनिस्ट आन्दोलन के इतिहास और 1967 से लेकर अब तक एमएल आन्दोलन के इतिहास के आलोचनात्मक विवेचन की ज़रूरत को शिद्दत से महसूस करते हैं, और अपने आलेखों में हमने इस बात को स्पष्ट रूप से रखा है। और उनकी आलोचना का भी हमारा मूल बिन्दु यही है कि अपने कठमुल्लावादी दृष्टिकोण के चलते न तो कार्यक्रम के सवाल पर और न ही जाति, राष्ट्रीयता आदि के सवालों पर ज़्यादातर पार्टियां एक सही अवस्थिति अपना पायीं। इसके बारे में हम यहां विस्तार में नहीं जायेंगे, और पलाश जी से आग्रह करेंगे कि सेमिनार में पेश मुख्य आलेख को पढ़कर उसकी विस्तृत आलोचना लिखें, हम उसका जवाब देंगे।
दूसरी बात, बिना सेमिनार के वीडियो देखे, बिना उसके आलेखों का अध्ययन किये पलाश जी ने कल्पना कर ली है, कि जाति के यथार्थ से हम मुंह चुरा रहे हैं। हमने सेमिनार में भी बार-बार कहा था और आलेखों में भी बार-बार इस बात का जि़क्र किया है कि अन्तरविरोध इस प्रश्न पर है ही नहीं कि जाति के यथार्थ को भारतीय जीवन का एक मुख्य अंग माना जाय या नहीं। सवाल इस बात का है जाति व्यवस्था को कैसे समझा जाय, जाति व्यवस्था के वर्ग अन्तरविरोधों के साथ अन्तर्गुंथन को कैसे समझा जाय और जाति प्रश्न के हल के लिए एक सही रास्ते का नि:सरण कैसे किया जाय।पलाश जी को बिना पढ़े बड़े-बड़े दावे नहीं करने चाहिए। एक तरफ वे अलग से अपनी विनम्रता का गुणगान करते हैं, और अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि से उसे सिद्ध करने का प्रयास करते हैं, तो वहीं दूसरी ओर वह अंहकारपूर्वक सभी कम्युनिस्टों के ऊपर बिना किसी फर्क के निर्णय सुना देते हैं। यह दावों और व्यवहार के बीच का एक गंभीर अन्तरविरोध है जिसे पलाश जी को दूर करना चाहिए। मैं फिर से उन्हें एक वरिष्ठ पत्रकार मानते हुए कहूंगा कि ऐसे अन्तरविरोध उन्हें शोभा नहीं देते।
तीसरी बात, उन्होंने मेरे पहले लेख की किसी भी आलोचना का जवाब नहीं दिया है। जैसे कि उन्होंने बिना पढ़े अम्बेडकर की रचना'दि प्रॉब्लम ऑफ दि रुपी' को साम्राज्यवाद विरोधी करार दे दिया है, अम्बेडकर को साम्राज्यवाद विरोधी करार दे दिया है, वगैरह। मैंने उनके इन खोखले दावों के विरोध में तथ्य और तर्क रखे थे। उन्होंने बस यह कहकर उन सब पर पर्दा डाल दिया है कि मेरा आलेख लम्बा और विद्वतापूर्ण था। अगर ऐसा था भी तो यह उसमें रखे गये तर्कों का जवाब न देने का कारण तो नहीं हो सकता है न? यह तो पलाश विश्वास अपनी आलोचना का जवाब देने से बच निकले हैं, और फिर उन्होंने 'इमोशनल कार्ड' खेल दिया है। मैं फिर कहूंगा कि ऐसी चीज़ें उनके जैसे वरिष्ठ पत्रकार और आन्दोलनकर्मी को शोभा नहीं देतीं। मैं तो इस उम्मीद में था कि वे मेरे द्वारा प्रस्तुत आलोचना का जवाब देते हुए मुझे कुछ शिक्षित करेंगे, लेकिन वह तो केन्द्रीय प्रश्नों को ही गोल कर गये हैं।
चौथी बात, उन्होंने कहा है कि अम्बेडकर और यहां तक कि गांधी और लोहिया ने जाति को भारतीय समाज का मूल अन्तरविरोध माना जबकि मार्क्सवादी वर्ग संघर्ष, साम्राज्यवाद और पूंजीवाद का ही राग अलापते रहे। वह फिर एक गलत बात कह रहे हैं।सच्चाई यह है कि मार्क्सवादियों से कई मौकों पर जाति व्यवस्था और वर्ग अन्तरविरोधों से उसके संबंधों को समझने में भूल हुई है, और बीते सेमिनार में हमने कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर मौजूद ऐसी रुझानों की एक आलोचना पेश की है, जो कि श्री पलाश हमारे प्रमुख आलेख में देख सकते हैं। लेकिन समस्या को ऐसे रखना कि जाति मूल अन्तरविरोध है या वर्ग, स्वयं इस बात को दिखलाता है कि पलाश जी एक बार फिर बिना चीज़ों को समझे हुए लिख रहे हैं। मार्क्सवादी से लेकर ग़ैर-मार्क्सवादी इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों ने दिखलाया है कि जातिगत अन्तरविरोधों का एक समय तक वर्गगत अन्तरविरोधों के साथ कमोबेश अतिच्छादन था (उत्तरवर्ती प्राचीन काल तक) और उसके बाद से उनके बीच एक संगति का रिश्ता (करेस्पॉण्डेंस) का संबंध रहा है, और पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के प्रमुख उत्पादन पद्धति बनने के बाद से सभी जातियां इस कदर वर्ग विभाजित हुई हैं, कि उनके बीच का करेस्पॉण्डेंस भी काफी कमज़ोर हो चुका है। आज के समय में जातिगत गोलबन्दियों में किसी भी प्रकार की मुक्तिकारी संभावना निहित नहीं है। जो गोलबन्दी एक क्रांतिकारी कार्यक्रम को पेश कर सकती है वह है वर्गीय गोलबन्दी। यह जनता के बीच मौजूद जातिगत अन्तरविरोधों से मुंह मोड़ने की बात करना नहीं है, बल्कि यह कहना है कि जनता के बीच के अन्तरविरोधों और शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोधों के बीच फर्क किया जाना चाहिए। जनता के बीच मौजूद जातिगत अन्तरविरोधों और पूर्वाग्रहों के खिलाफ पहली मंजि़ल से संघर्ष किया जाना चाहिए, प्रचार अभियान और सांस्कृतिक मुहिमें आयोजित की जानी चाहिए। मेहनतकश वर्ग एक जाति व्यवस्था-विरोधी अभियानों के बिना संगठित ही नहीं हो सकते। लेकिन जब हम दलितों की मुक्ति की बात करते हैं, तो निश्चित तौर पर हमारा अर्थ मायावती, आठवले, थिरुमावलवन, रामविलास पासवान, और नेताशाही और नौकरशाही में बैठ कर सत्ता की और भी ज्यादा वफादारी से सेवा करने वाली दलित आबादी की बात नहीं करते हैं। बल्कि जब हम दलित मुक्ति की बात करते हैं, तो हमारा अर्थ होता है वह 93 से 94 फीसदी दलित आबादी जो औद्योगिक और खेतिहर सर्वहारा के रूप में सबसे नग्न और बर्बर किस्म के आर्थिक शोषण और आर्थिकेतर उत्पीड़न का शिकार है।लेकिन पलाश जी ने जाति और वर्ग के आपसी संबंधों को समझे बग़ैर उन्हें ऐसे पेश कर दिया है, मानो वे कोर्इ एकाश्मीय श्रेणियां हों। नतीजतन, उनका यह जवाब जुमलेबाजि़यों और नारेबाजि़यों का एक दरिद्र समुच्चय बन गया है। हम आग्रह करेंगे कि इन मुद्दों पर और सावधानी के साथ लिखा जाय, महज़ भावनात्मक कार्ड खेलकर आप तर्क और विज्ञान को तिलांजलि नहीं दे सकते हैं।
पांचवी बात, पलाश विश्वास जी ने बिल्कुल गलत समझ लिया है कि मैंने जंगलवादी वामपंथी दुस्साहसवादियों का पक्ष लिया है। अगर उन्होंने हमारा आलेख पढ़ा होता तो शायद उन्हें ऐसी गलतफहमी नहीं होती, हम जल्द ही अपने आलेखों को ऑनलाइन कर देंगे। लेकिन इतनी बात समझने के लिए तो उन्हें महज़ 'हस्तक्षेप' में प्रकाशित मेरे जवाब को ठीक से पढ़ना चाहिए था। मज़ेदार बात यह है कि संगोष्ठी में हमारे द्वारा रखी गयी अवस्थितियों पर दो प्रकार के लोग सबसे ज़्यादा हमला कर रहे हैं, और इतने तिलमिलाये हुए हैं कि हमारे संगठन के लोगों के व्यक्तिगत रिश्तों, जीवन आदि पर टिप्पणियां कर रहे हैं; वे कहीं भी हमारे किसी तर्क का जवाब नहीं दे रहे हैं बल्कि कुत्साप्रचार की राजनीति पर उतर आये हैं। उसका जवाब देना हम अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। यदि कोई हमारे तर्कों और अवस्थितियों की राजनीतिक आलोचना रखे तो हम उससे किसी भी मंच पर खुली बहस के लिए तैयार हैं। पलाश जी निश्चित तौर पर किसी भी प्रकार का कुत्साप्रचार नहीं कर रहे हैं और कम-से-कम वे अभी भी राजनीतिक शब्दावली में ही बात कर रहे हैं। लेकिन निश्चित तौर पर वे भी हमारे किसी तर्क का उत्तर नहीं दे रहे हैं। मैंने पिछले लेख में जो लिखा है उसमें कुछ भी विद्वतापूर्ण या मौलिक नहीं है। मैंने केवल आपके द्वारा प्रस्तुत गलत तथ्यों को खारिज किया है, और अम्बेडकर के वैचारिक मूलों की तथ्यों समेत आलोचना की है। अगर इसके कारण आप उसे विद्वतापूर्ण करार देकर जवाब देने से बचने का प्रयास कर रहे हैं, तो ऐसा प्रयास व्यर्थ है।
छठीं बात, पलाश जी ने संगोष्ठी के किसी भी आलेख को पढ़े बग़ैर, उसके किसी भी वीडियो को देखे बग़ैर यह फैसला कैसे सुना दिया कि हमने अम्बेडकर की कोई राजनीतिक आलोचना रखने की बजाय ठंडे दिमाग से, और सर्जिकल प्रेसिज़न के साथ उनकी हत्या कर दी है? ऐसी गैर-जिम्मेदार बातें आप जैसे वरिष्ठ पत्रकार को शोभा नहीं देती, पलाश जी। हम आग्रह करेंगे कि अब वीडियो ऑनलाइन मौजूद हैं, उन्हें देखें। और फिर ठोस-ठोस बताइये कि हमारी आलोचना में गलत क्या है और उसकी आलोचना पेश कीजिये। नारेबाज़ी मत करिये।
उम्मीद है आप हमारे विनम्र आग्रहों और अनुरोधों पर विचार करते हुए आगे से कोई ठप्पा नहीं लगायेंगे और ठोस शब्दों में बतायेंगे कि आप किस बात से असहमत हैं, क्यों असहमत हैं और अपनी वैकल्पिक आलोचना पेश करेंगे।
पुनश्च: मेरा नाम अभिनव कुमार नहीं है; आप मुझे सिर्फ अभिनव कह सकते हैं, मैं आपसे बहुत कनिष्ठ हूं।
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