- अभिनव सिन्हा, सम्पादक – 'मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान'
श्री पलाश विश्वास ने हम पर अम्बेडकर की हत्या का आरोप लगा दिया है। हम क्या कह सकते हैं? ज़्यादा सफ़ाई देने की कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी, पलाश जी ने! लेकिन ताज्जुब की बात है कि आजकल का एक वरिष्ठ, विवेकवान और चर्चित माना जाने वाला पत्रकार आलोचना और हत्या के बीच का फर्क नहीं समझता है। श्री विश्वास का मानना है कि आज जबकि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था विश्व पैमाने पर संकट से जूझ रही है, देश के भीतर दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववाद फिर से उभार पर है (हालांकि इस विषय में अलग-अलग लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है, लेकिन सामान्य तौर पर यह बात सही है कि संकट का दौर दक्षिणपंथी कट्टरपंथ के पैदा होने की ज़मीन पैदा करता है, चाहे उसका वाहक भाजपा बने या कांग्रेस) उस समय अम्बेडकर पर कोई प्रश्न नहीं उठाया जाना चाहिए, उसकी कोई आलोचना नहीं की जानी चाहिए। उनका मानना है कि ऐसी आलोचना से इसलिए बचा जाना चाहिए कि अम्बेडकर ने साम्राज्यवाद और पूंजीवाद की एक आलोचना पेश की थी; ऐसी आलोचना इसलिए भी नहीं की जानी चाहिए कि अम्बेडकर ने देश में मुद्रा स्वर्ण मानक की हिमायत कर एक स्थायित्वपूर्ण व्यवस्था देने की बात की थी, जिसे आज सरकार डॉलर के साथ जोड़ रही है, जो कि आर्थिक संकट का कारण है।
इन विचारों से पता चलता है कि अम्बेडकर के अर्थशास्त्र के बारे में श्री पलाश विश्वास की जानकारी काफी दिलचस्प रूप से अनोखी है। कहने का अर्थ है, वह अम्बेडकर का एक नये प्रकार का हस्तगतीकरण (एप्रोप्रियेशन) करने का प्रयास कर रहे हैं। वैसे तो आनन्द तेलतुंबड़े, गेल ओमवेत आदि जैसे तमाम लोग अपने-अपने तरीके से अम्बेडकर का मार्क्सवादी या मार्क्स का अम्बेडकरवादी एप्रोप्रियेशन करने के विलक्षण प्रयास कर रहे हैं, लेकिन पलाश जी का प्रयास निश्चित तौर पर एक अलग ही प्रभा-मण्डल के साथ प्रकट हुआ है! चूंकि पलाश विश्वास ने वायदा किया है कि आगे वे चतुर्थ अरविन्द स्मृति संगोष्ठी में नामुराद "ब्राह्मणवादी" वामपंथियों द्वारा अम्बेडकर की हत्या के प्रयास की विस्तृत आलोचना रखेंगे, और साथ ही एक-एक तर्क का जवाब देंगे, इसलिए हम भी उनके एक-एक जवाब का प्रति-जवाब बाद में ही देंगे। लेकिन अपने छोटे-से आरोप-पत्र में उन्होंने वामपंथियों पर जो महाभियोग लगाया है, और ऐसा करने की प्रक्रिया में अम्बेडकरवाद का अपना मनोरंजक होने की हद तक दिलचस्प ज्ञान प्रदर्शित किया है, हम उस पर कुछ संक्षिप्त टिप्पणियां करने से अपने आपको रोक नहीं पा रहे हैं।
सबसे पहले हम उस कथन से शुरुआत करेंगे जो एजाज़ अहमद ने एडवर्ड सईद की आलोचना करते हुए अपने लेख'ओरियेण्टलिज़्म एण्ड आफ्टर' में कहा था। एजाज़ अहमद ने एडवर्ड सईद के ज़ियनवाद-विरोध और फिलिस्तीनी जनता के साथ एकजुटता की तारीफ़ की और कहा कि इस समर्थन के बावजूद एकजुटता प्रदर्शित करने का सबसे अच्छा रास्ता यह नहीं होता कि एक-दूसरे की आलोचना से बचा जाय। हमारा भी मानना है कि दलितों की मुक्ति के प्रति सरोकारों के साझा होने के बावजूद, अम्बेडकर के प्रति हमारा दृष्टिकोण आलोचना से बचने का कतई नहीं होना चाहिए। यह तो फासीवादी दृष्टिकोण है जिसकी हिमायत पलाश विश्वास कर रहे हैं। एकता स्थापित करने का सबसे ख़राब तरीका यही है कि एक-दूसरे का गाल सहलाया जाय। और वामपंथी आन्दोलन (यहां हम क्रांतिकारी मार्क्सवादी-लेनिनवादी आन्दोलन की बात कर रहे हैं, सीपीआई-सीपीएम और सीपीआई (एमएल) लिबरेशन जैसे संसदीय संशोधनवादी वामपंथियों की नहीं, हालांकि पलाश विश्वास के लिए इन दोनों में कोई फर्क नहीं है) द्वारा अम्बेडकर के प्रश्न पर रक्षात्मक रवैया अपनाने से ही कम्युनिस्टों और अम्बेडकरवादियों के बीच कौन-सी एकता बन गयी है। वास्तव में, अगर अम्बेडकर जीवित होते तो वे स्वयं ऐसी किसी भी एकता के खिलाफ़ होते। भला उस दर्शन के साथ अम्बेडकर क्यों एकता या साझा मोर्चा रखना चाहते जिसे वे 'सुअरों का दर्शन' मानते थे? लेकिन पलाश विश्वास ने अम्बेडकर की किसी भी आलोचना को ब्राह्मणवाद और दक्षिणपंथी हिन्दुत्व का समर्थन करना घोषित कर दिया है। यह एक विचित्र दलील है। कहना चाहिए कि यह स्वयं एक फासीवादी और ब्राह्मणवादी सोच है, जिसका पलाश विश्वास शिकार हैं। अम्बेडकर के दर्शन, अर्थशास्त्र, राजनीति और समाजशास्त्र की एक विस्तृत आलोचना हमने उपरोक्त संगोष्ठी में पेश की थी। इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि हम दलित अस्मिता को स्थापित करने में अम्बेडकर के योगदान को नहीं मानते। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हम जाति उन्मूलन के प्रति अम्बेडकर के सरोकार को ईमानदार नहीं मानते। लेकिन हम यह अवश्य मानते हैं कि अम्बेडकर के पास दलित मुक्ति की कोई परियोजना नहीं थी। और ऐसा हम बिना किसी तर्क के नहीं कहते। अरविन्द स्मृति न्यास के साथियों की तरफ से पेश आलेखों में हमने इस बात के पक्ष में विस्तार से दलीलें रखी हैं और अम्बेडकर को उद्धृत करते हुए रखी हैं। लेकिन पलाश विश्वास बिना इन आलेखों को पढ़े, अम्बेडकर-रक्षा और अम्बेडकर के शत्रुओं के दलन अभियान में वैसे ही निकल पड़े हैं जैसे कि तमाम हिन्दुत्ववादी धर्म-रक्षा अभियान और धर्म-शत्रुओं के दलन अभियान में निकल जाते हैं। पलाश विश्वास वामपंथियों के बारे में फतवे लागू करने के मामले में भी किसी धार्मिक महन्त से कम नहीं हैं। अम्बेडकर की आलोचना पर वह बेवजह ही तिलमिला गये हैं, और इस तिलमिलाहट में उन्होंने कुछ ऐसी बातें कह दी हैं, जो कि अम्बेडकर के बारे में उनके अधकचरे ज्ञान की नुमाइश बन गयी हैं।
पलाश विश्वास कहते हैं कि अम्बेडकर विचारधारा के तहत हिन्दुत्ववादी ताकतों के खिलाफ उत्पादक और सामाजिक शक्तियों का धर्मनिरपेक्ष और जनवादी मोर्चा बन सकता है। हम जानना चाहेंगे कि आज वे किस दल या पार्टी को अम्बेडकरवादी विचारधारा का नुमाइन्दा मानते हैं। बसपा, रिपब्लिकन पैंथर्स, तमिलनाडु का दलित पैंथर्स, या कोई अन्य गैर-चुनावी दल? या फिर रामदास आठवले? अगर इन्हें पलाश विश्वास अम्बेडकरवादी विचारधारा का नुमाइन्दा मानते हैं, तो कहना होगा कि उन्हें ज़्यादा पुराना नहीं लेकिन कम-से-कम समकालीन भारतीय राजनीति का इतिहास पढ़ लेना चाहिए। मायावती के नेत़ृत्व में बसपा, थिरुमावलवन के नेत़त्व में तमिलनाडु में दलित पैंथर्स, रामदास आठवले, आदि समय-समय पर उसी दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववाद की गोद में खुशी-खुशी बैठते रहे हैं। पलाश विश्वास कह सकते हैं कि उनका अभिप्राय इनसे नहीं बल्कि गैर-चुनावी दलित संगठनों से है। तो हम पूछना चाहेंगे कि हाल ही में जब कुछ ही दिनों के अन्तर पर बथानी टोला नरसंहार के लगभग दो दर्जन आरोपियों को रिहा किया गया और साथ ही एनसीईआरटी की पुस्तक में अम्बेडकर और नेहरू के कार्टून पर विवाद हुआ तो इन गैर-चुनावी दलित संगठनों की क्या भूमिका सामने आयी? हमने पाया कि एक प्रतीकात्मक मुद्दे पर (जिसके बारे में अम्बेडकरवादियों ने ठीक से पढ़ा भी नहीं था), यानी कि कार्टून विवाद पर अम्बेडकरवादियों ने देश भर में काफी उछल-कूद मचायी। यहां तक कि सुहास पल्शीकर पर महाराष्ट्र में उसी प्रकार हमला किया गया जैसे कि कुछ वर्ष पहले फासीवादियों ने भण्डारकर संस्थान पर हमला किया था या आये दिन जिस तरह वे तमाम धर्मनिरपेक्ष चित्रकारों की प्रदर्शनियों पर हमला करते रहते हैं। लेकिन उसी समय बथानी टोला के दलित नरसंहार के आरोपियों को एक अदालत ने दोषमुक्त कर दिया, और इस घटना पर तमाम अम्बेडकरवादी संगठन एक बयान तक देना भूल गये। क्या इसी अम्बेडकरवादी विचारधारा और राजनीति की बात पलाश विश्वास कर रहे हैं? और अगर वह किसी और अम्बेडकरवाद की बात कर रहे हैं, तो उन्हें बताना चाहिए कि इस अम्बेडकरवाद का अर्थशास्त्र, राजनीति और दर्शन क्या है। इसके बिना, यूं ही शत्रु दलन अभियान पर निकलेंगे, तो रपटकर गिर जायेंगे, पलाश विशवास जी।
आगे पलाश विशवास लिखते हैं कि अम्बेडकर के आर्थिक विचार पूंजीवादी विरोधी थे और अपनी रचना 'दि प्रॉब्लम ऑफ दि रुपी' में उन्होंने साम्राज्यवाद की आलोचना पेश की थी। यह भी घोर अज्ञान है और एक ज़िम्मेदार पत्रकार और ब्लॉगर को अज्ञान नहीं फैलाना चाहिए। लेकिन फिर यह भी सत्य है कि अज्ञान में असीमितता की शक्ति होती है। इस पर विश्वास जी को बहुत समझाया भी नहीं जा सकता है। एक बार आइंस्टीन ने कहा था, 'दो चीज़ें असीम हैं: अज्ञान और अन्तरिक्ष; अन्तरिक्ष के बारे में मैं पक्का नहीं हूं।' पलाश विश्वास के अम्बेडकर के अर्थशास्त्र को पूंजीवाद-विरोधी घोषित करने वाली टिप्पणी इस कथन को ही चरितार्थ कर रही है। हम यहां बहुत विस्तार में तो नहीं लेकिन संक्षेप में अम्बेडकर के आर्थिक विचारों की समीक्षा करेंगे।
अम्बेडकर ने एक बार कहा था कि 'अपने सम्पूर्ण बौद्धिक जीवन के लिए मैं जॉन डेवी का ऋणी हूं।' अम्बेडकर ने पलाश विश्वास से ज़्यादा ईमानदारी बरती थी, और पलाश विश्वास को हम अम्बेडकर से और कुछ तो नहीं, मगर यह सीखने की सलाह ज़रूर देंगे। अम्बेडकर का पूरा आर्थिक कार्यक्रम जॉन डेवी द्वारा प्रस्तुत आर्थिक कार्यक्रम की एक प्रतिलिपि है। अम्बेडकर ने 'दि प्रॉब्लम ऑफ दि रुपी' में क्या लिखा था, उस पर हम थोड़ा आगे आयेंगे। अम्बेडकर के आर्थिक कार्यक्रम को देखने के लिए आप उनकी संग्रहीत रचनाओं के खण्ड-1 के पृष्ठ 396-97 को देख सकते हैं। मार्च 1947 में उन्होंने कुछ आर्थिक प्रस्ताव रखे थे जो कि वे चाहते थे कि भारत की सरकार स्वतन्त्रता के बाद लागू करे। इस कार्यक्रम और नेहरू के 'समाजवाद' में ज़्यादा फर्क नहीं था। अम्बेडकर ने बड़े कुंजीभूत उद्योगों, जमीन और बीमा-बैंक के राष्ट्रीकरण का प्रस्ताव रखा था। लेकिन उनका कहना था कि राष्ट्रीकरण के लिए जिस भी संपत्ति का अधिग्रहण किया जायेगा, उसके लिए भूतपूर्व मालिकों को ऋणपत्रों के रूप में मुआवज़ा दिया जायेगा। यानी कि अम्बेडकर के राष्ट्रीकरण का कार्यक्रम उतना भी रैडिकल नहीं था, जितना कम-से-कम कागज़ी तौर पर नेहरू का "समाजवाद" का कार्यक्रम था। अम्बेडकर का कहना था कि जॉन डेवी ने 'स्टेट रेग्युलेटेड' अर्थव्यवस्था का जो मॉडल पेश किया था, उसे ही भारत में लागू किया जाना चाहिए। आपको ज्ञात होगा कि डेवी अमेरिकी उदार बुर्जुआ विचारधारा की धारा में एक प्रमुख बुद्धिजीवी थे। उनका मानना था कि राज्यसत्ता कोई वर्गेतर निकाय है, जो कि तात्कालिक हितों और फायदों के लिहाज़ से आर्थिक और राजनीतिक मामलों का प्रबंधन कर सकती है। इसीलिए राज्यसत्ता को किसी भी विचारधारा और दर्शन के "पूर्वाग्रहों" से और किसी भी वर्ग से ऊपर उठ जाना चाहिए। अम्बेडकर का भी यही सिद्धांत था। उनका मानना था कि जिस व्यवस्था को वे लागू कर रहे हैं वह 'राजकीय समाजवाद' है। लेकिन ऐसी कोई चीज़ नहीं होती। दरअसल, इस शब्द के इस्तेमाल के ही कारण कई लोग, जैसे कि आनन्द तेलतुंबड़े उन्हें मार्क्सवादी दिखलाने के लिए द्रविड़ प्राणायाम करने में लगे हुए हैं। लेकिन जैसे ही आप देखते हैं कि इस 'राजकीय समाजवाद' से अम्बेडकर का क्या अर्थ है, तो आप उसमें डेवीवादी उपकरणवाद और व्यवहारवाद (इंस्ट्रुमेंटलिज़्म और प्रैग्मेटिज़्म) के आर्थिक कार्यक्रम को पाते हैं। यह सवाल कहीं नहीं उठाया गया है कि राज्य पर कौन सा वर्ग काबिज़ है। चूंकि राज्य को एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के दमन के उपकरण के रूप में देखा ही नहीं गया है, इसलिए उस राज्य उपकरण के इंकलाब द्वारा ध्वंस का कोई कार्यक्रम देने का सवाल ही नहीं पैदा होता। कुल मिलाकर एक कीन्सीय वेल्फे़यरिज़्म और डेवियन प्रैग्मेटिज़्म का मिश्रण करने वाला आर्थिक कार्यक्रम रखा जाता है, जो कि ज़्यादा से ज़्यादा राजकीय मालिकाने तक जाता है। लेकिन किसी भी सामाजिक संरचना के चरित्र निर्धारण का बुनियादी प्रश्न राजकीय या निजी मालिकाना (जिसके अम्बेडकर कतई पक्षधर थे, जैसा कि हम आगे दिखलायेंगे) नहीं होता, बल्कि यह होता है कि राज्य पर जो राजनीतिक शक्ति काबिज़ है वह किन वर्गों के हितों की सेवा कर रही है। पूंजीवाद भी राजकीय मालिकाने के साथ अस्तित्वमान रह सकता है। एंगेल्स ने एक बार कहा था कि राजकीय पूंजीवाद अपनी सीमाओं तक खींच दिया गया पूंजीवाद है और इसमें राजकीय संपत्ति और कुछ नहीं बल्कि पूंजीवादी संपत्ति ही है, जिसमें राजकीय कर्मचारी 'फंक्शनरीज़ ऑफ कैपिटल' के रूप में काम करते हैं और राजकीय संपत्ति और कुछ नहीं बल्कि पूंजीपति वर्ग की 'कलेक्टिव कैपिटल' होती है। वास्तव में देखा जाय तो अम्बेडकर का आर्थिक कार्यक्रम उतना भी रैडिकल नहीं है, जितना कि वाम कीन्सवाद का आर्थिक कार्यक्रम होता है, क्योंकि अम्बेडकर प्रत्येक वयस्क को रोज़गार देने को राज्य की जिम्मेदारी बनाने और हरेक स्वस्थ नागरिक के लिए काम करना बाध्यताकारी बनाये जाने के खिलाफ़ हैं। उनका आर्थिक कार्यक्रम ठीक उन-उन बिन्दुओं पर कल्याणवादी से ज़्यादा डेवियन अर्थों में व्यवहारवादी हो जाता है, जो कि पूंजीवाद के 'चोट के बिन्दु' (वूण्डेड पॉइंट) हैं। डेवी का मानना था कि राज्य और सामाजिक सिद्धांत को किसी भी दर्शन या विचारधारा के प्रभाव से मुक्त होना चाहिए। उनके अनुसार उनका व्यवहारवाद एक ऐसी पद्धति है, जिसमें स्वयं को ठीक करते जाने के गुण मौजूद हैं, और यह प्राकृतिक विज्ञान की पद्धति से मिलता-जुलता है। यानी कि राज्य और समाजशास्त्र में किसी विचारधारा के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। अब यह बात दीगर है कि यह दावा स्वयं एक विचारधारात्मक पूर्वाग्रह है और डेवी और अम्बेडकर जैसे व्यवहारवादियों के दावों पर तुर्गनेव के उपन्यास 'रुदिन' के एक सर्वखण्डनवादी चरित्र पुगासोव की याद आती है। एक बार पुगासोव कहता है कि वह कुछ नहीं मानता है, तो इसके जवाब में उपन्यास का नायक रुदिन कहता है कि आप यही तो मानते हैं कि आप कुछ नहीं मानते हैं। डेवी और अम्बेडकर की राज्य के बारे में सोच ऐसी ही है, कि उसे कुछ (यानी कोई विचारधारा) नहीं मानना चाहिए और बस तात्कालिक प्रबन्धन-सम्बन्धी सरोकारों के आधार पर मामलों का निपटारा करना चाहिए। यह पूरी सोच ही एक भयंकर ऑप्टिकल इल्यूज़न का शिकार है, और राज्य की पूरी अवधारणा के बारे में इसकी समझ दयनीय है।
…………………..आगे जारी…………………..
अम्बेडकरवादी उपचार से दलितों को न तो कुछ मिला है, और न ही मिले
अगर लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता में आस्था हैं तो अंबेडकर हर मायने में प्रासंगिक हैं
हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!
- because of the hatred for the Brahmanism, Ambedkar failed to understand the conspiracy of colonialism
- All experiments of Dalit emancipation by Dr. Ambedkar ended in a 'grand failure'
- Ambedkar's politics does not move an inch beyond the policy of some reforms
- दलित मुक्ति को अंजाम तक पहुँचाने के लिए अम्बेडकर से आगे जाना होगा
- ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अपनी नफरत के कारण अंबेडकर उपनिवेशवाद की साजिश को समझ नहीं पाये
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