| "Not any path but the logical one could only lead to Destination." --- Chaman lal
//बुद्ध पर उत्तराधिकारी बनाने के लिए बहुत दबाव था वे नहीं झुके । संत कबीर-रविदास-नानक-नामदेव-फुले-आंबेडकर ने भी अपना कोई उत्तराधिकारी नहीं बनाया । कांशीरामजी के झुकने का परिणाम आज हम भुगत रहे हैं । सारा गुड गोबर हो गया है ।// ----- प्रचंड नाग 20/03/2015
बुद्ध का आन्दोलन व्यक्ति-निरपेक्ष एवं संस्थागत आन्दोलन था और संस्थागत आन्दोलन में किसी एक व्यक्ति को संस्था का नेतृत्व घोषित करने की पॉवर नहीं होती है, संस्था (institution) कोई व्यक्ति नहीं होता है बल्कि बुद्धिजीवी व्यक्तियों का समूह होता है जो प्रजातान्त्रिक और गणतांत्रिक प्रणालियों का अवलंबन करके निर्दिष्ट उद्देश्य हेतु उस संस्था का संचालन करते हैं ! बाबा साहेब डा आंबेडकर भी ऐसा कहते हैं कि तथागत गौतम बुद्धा 'भिक्कू संघ' के अधिकृत प्रमुख भी नहीं थे ! इसलिए आनंद के बार-बार आग्रह करने पर भी बुद्धा ने अपना वारिश (उत्तराधिकारी) घोषित नहीं किया क्योंकि बुद्धा जानते थे कि ऐसा करने पर उनकी व्यक्ति सापेक्ष छवि निर्माण होगी और उनके संस्थागत आन्दोलन का प्रभाव एक व्यक्ति-आधारित आन्दोलन मंन तब्दील हो जाएगा ! यह अलग बात थी कि 'भिक्कू संघ' का अधिकृत प्रमुख न होते हुवे भी तथागत गौतम बुद्धा का उनका मौलिक एवं नैतिक गुणों के कारण 'भिक्कू संघ' के अन्दर एक विशाल प्रभाव था ! जो लोग स्व स्वार्थ को आगे रखकर तृष्णा के वशीभूत होकर कोई सामाजिक, धार्मिक या फिर राजनैतिक संघर्ष का व्यक्ति-आधारित आन्दोलन चलाते हैं वही लोग अपने स्वजनों को मोह-माया के अंतगर्त अपने-अपने कार्यों, आंदोलनों, या संघर्षों का उत्तराधिकारी घोषित करते हैं ! इसके लिए जरूरी नहीं कि उत्तराधिकारी हमेशा लायक ही हो, वह नालायक और गैर-सामाजिक भी हो सकता है ! जो लोग विरक्त भाव से बिना किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के समाजहित के लिए संघर्ष करते हैं भले ही उनका आन्दोलन या संघर्ष व्यक्ति-सापेक्ष हो – ऐसे लोग भी अपना उत्तराधिकारी घोषित नहीं करते क्योंकि उनको मालूम होता है की ऐसा करने से उनके पुरे जीवन की सामाजिक कमाई पर बट्टा लग जाएगा ! इसलिए उत्तराधिकारी घोषित करने का मौलिक संभंध 'स्व स्वार्थ-सिद्धि' से होता है ! प्रचंड नाग का यह कहना बहुसंख्यांक केसों में सही उतरता है कि जहां-जहां भी उत्तराधिकारी घोषित किया गया है अधिसंख्य केसों में वहाँ-वहां गुड़ गोबर हो गया है क्योंकि 'उत्तराधिकारी' घोषित करने के पीछे ही स्व-स्वार्थ-सिद्धि की भावना काम कर रही होती है न कि बहुजन कल्याणकारी भावना काम कर रही होती है ! बुद्ध ने अपनी संस्थागत सोच के तहत उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया यह मैंने ऊपर बताया है ! उनके बाद संत कबीर-रविदास-नानक-नामदेव-फुले-आंबेडकर इन सब का संघर्ष भी निजी स्वार्थ पूर्ति के लिए नहीं था – यह बात अलग है की इन महापुरुषों का संघर्ष व्यक्ति-आधारित था लेकिन संघर्ष का स्वरुप मौलिक रूप से बहुजन-कल्याणकारी था, इसलिए इन महापुरुषों ने भी अपना कोई उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया ! सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या इन महापुरुषों ने मात्र इसलिए अपना उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया की कहीं आने वाली पीढीयों के लोग उनको स्वार्थी ना करार दे दें ? चिंतन और गहन मंथन से यह बात निकल कर आती है कि बहुजन-कल्याणकारी संघर्ष किसी और से करवाना, उस कार्य करने के लिए उसके निजी जीवन को कुर्बान कर देने की जिम्मेदारी देना – यह महान जिम्मेदारी किसी के ऊपर मात्र उत्तराधिकारी घोषित करके थोपी नहीं जा सकती है, यह मौलिक रूप से स्वैच्छिक रूप से पहल करके उन लोगों के द्वारा ग्रहण की जाती है जो लोग महापुरुषों के गुणों को अपने अन्दर अभिभूत करके उनके विचारों का अनुकरण महापुरुषों के उद्देश्य के अनुरूप संघर्ष करते हैं ! इसलिए जिन-जिन महापुरुषों ने बहुजन कल्याणकारी संघर्ष चलाया उन-उन महापुरुषों ने यह सोच निर्माण की कि अगर उनके कार्य में इमानदारी होगी, पवित्रता होगी, त्याग होगा, नैतिक सम्मोहन होगा तो निश्चित रूप से उसके अनुयायी पहल करके आगे आकर उनके इस कार्य को अंजाम तक अवश्य पहुंचाएंगे ! कांशीराम साहेब ने अपना उत्तराधिकारी घोषित स्वेच्छा से किया या फिर उनसे करवाया गया यह एक विवादित मुद्दा है लेकिन उत्तराधिकारी ने कांशीराम साहेब के लिए जो परिस्थितिया पैदा की , कैसे उनका जबरिया हाथ ऊपर उठाकर अपने सर के ऊपर रखकर फोटो खिंचवाया, और उनके ऊपर साहेब का वृहदहस्त है ऐसा प्रचार करवाया, कैसे उनको उनके अनुयायीयों और उनके ही पारिवारिक लोगों से नजरबन्द करके रखा गया – यह सब बातें इस ओर इशारा करती हैं कि तथाकथित 'उत्तराधिकारी' के द्वारा उत्तराधिकार की घोषणा 'Under the condition of hijacking' करवाई गयी ! बहराल किन्ही भी परिस्थितयों में यह घोषणा हुई लेकिन कांशीराम साहेब ने जालंधर में एक कार्यक्रम के दौरान टीवी चैनल के सामने रु-ब-रु होकर यह घोषणा की जिसको मैंने अपनी आँखों से टीवी पर देखा ! यह उस समय की बात है जब मायावती दूसरी बार चुनाव के बाद बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाने के ताने-बाने बुन रही थी और कांशीराम साहेब मौलिक रूप से इसके विरोध में थे, इसलिए उत्तर प्रदेश के चुनाव का परिणाम आने के बावजूद भी कांसीराम साहेब मायावती के साथ लखनऊ में नहीं थे बल्कि वह पंजाब में अपनी शक्ति बढ़ा रहे थे ! इसी दौरान इससे पहले कांशीराम साहेब सहारनपुर से लोक सभा का चुनाव लड़ें थे जहाँ से वह बहुत कम संख्या से हार गए थे और तत्कालीन समय में बी एस पी के कार्यकर्तावों में यह धारणा निर्माण हुई थी की तथाकथित उत्तराधिकारी ने कांशीराम को उनका कद छोटा करने के लिए षड्यंत्रपूर्वक अपने टट्टुओं के द्वारा सहारनपुर से हरवाया था ! बड़े पैमाने पर साहेब और तथाकथित उत्तराधिकारी के बीच कुछ मुद्दों पर टकराव है ऐसी बात कर्यकर्तावों के स्तर पर निकल कर आयी थी ! बहराल यह घोषणा कांशीराम साहेब के द्वारा हुई और कांशीराम के द्वारा बनाया हुवा सारा गुड़ गोबर हो गया, बहुजन से सर्वजन हो गया, हाथी से गणेश हो गया......! कांशीराम साहेब के साथ बामसेफ के आन्दोलन की शुरुवात करने वाले डी के खापर्डे ने जब यह महसूस किया कि कांशीराम की संस्थावादी सोच में एकतरफा राजनैतिक पार्टी बना लेने के कारण मूलभूत परिवर्तन हुवा है और उनकी सोच व्यक्तिवादी और मसीहावादी हो गयी है, भक्त निर्माण करने की हो गयी है तो उन्होंने उनसे अलग होकर बामसेफ संघठन की संस्थागत सोच को विकसित करना और उस कार्यप्रणाली पर कार्य करना जारी रखा ! मुझे बामसेफ में कार्य करते हुवे जितनी बार भी व्यक्तिगत तौर पर उनसे विचार-विमर्श करने का मौका मिला उस दर्शन के आधार पर मै यह कह सकता हूँ कि उनकी सोच भी विशुद्ध रूप से संस्थावादी थी और कोई भी संस्थागत सोच का व्यक्ति उत्तराधिकारी घोषित करने की एतिहासिक गलती नहीं कर सकता ! 29 फ़रवरी 2000 को पूना में जब खापर्डे साहेब का निर्वाण हुवा तो वहां के कुछ तीन-चार स्वार्थी एवं व्यक्ति सापेक्ष महारों ने मिलकर वामन मेश्राम के इशारे पर यह प्रचार-प्रसार किया कि डी के खापर्डे ने वामन मेश्राम को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया है इसलिए वामन मेश्राम को हमको मजबूत करना चाहिए ऐसा सुनियोजित प्रचार-प्रसार देश भर के कार्यकर्तावों के बीच करवाया गया और इन महारों ने मिलकर बामसेफ संघठन में वामन मेश्राम को व्यक्ति-आधारित नेतृत्व के तौर पर स्थापित कर दिया और खापर्डे साहेब की मौलिक संस्थागत भावना की हत्या कर दी ! इसके लिए एक कार्यकर्ता के द्वारा बीमार डी के खापर्डे के लिए लाये गए शहद को, वामन मेश्राम को चटाकर उसकी शक्ति बढ़ाने के लिए डी के खापर्डे ने बोला, ऐसी झूठी कहानी निर्मित की गयी ! मेरी पर्यवेक्षण रिपोर्ट तैयार होने के दौरान पूना के ही कुछ सामाजिक रूप से इमानदार महारों ने मुझे यह जानकारी दी ! खैर डी के खापर्डे साहेब की संस्थागत कार्यशैली के आधार पर मैं इतना अंदाजा लगा सकता हूँ कि वामन मेश्राम को उत्तराधिकारी घोषित करने का निर्णय उनका नहीं हो सकता है और अगर यह निर्णय उनका है तो संस्थावादी डी के खापर्डे साहेब व्यक्तिवादी के तौर पर एक महान व्यक्तित्व के नहीं हो सकते हैं, जो हमें पता है ऐसा नहीं है ! बहराल वामन मेश्राम के षड़यंत्र के तहत जिन महारों ने बामसेफ संस्था को ख़त्म करने का षड़यंत्र किया, उस षड़यंत्र को हमारे बहुजन समाज के भोले-भाले मिशनरी लोगों ने सही समझा और उसका परिणाम क्या हुवा कि बामसेफ में स्वार्थी व्यक्ति-आधारित नेतृत्व स्थापित हुवा, उसने व्यक्तिगत स्वार्थ के अभिभूत होकर बामसेफ के संस्थागत स्वरुप को षड्यंत्रपूर्वक बदल दिया, डी के खापर्डे के आजादी के आन्दोलन को हमेशा अपने आप को बामसेफ का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना रहने के आन्दोलन में बदल दिया, तर्क करने वाले, सवाल खड़ा करने वाले, हिसाब-किताब मांगने वाले, प्रजातान्त्रिक डायलॉग करने वाले ऐसे समस्त देश भर के कर्यकर्तावों को बामसेफ संघठन से निकलकर अपने निजी स्वार्थ पूर्ति हेतु और साथ देने वाले षड्यंत्रकारी महारों के स्वार्थ पूर्ति हेतु वर्तमान में वामन मेश्राम ने भी डी के खापर्डे के संस्थागत आन्दोलन से जो गुड़ तैयार हुवा था उसको गोबर में तब्दील कर दिया ! हमारे कुछ साथियों ने जब डी के खापर्डे की पत्नी, खापर्डे ताई से मुलाकात की तो उन्होंने उनको बामसेफ संघठन में वामन मेश्राम के तानाशाई रवैये के बारे में जब बताया तो उन्होंने पहला सवाल किया कि "कोन मेश्राम" ? जब उनसे पूछा कि क्या डी के खापर्डे साहेब ने उनको वास्तव में बामसेफ का उत्तराधिकारी घोषित किया था ? तो उन्होंने बताया कि ऐसा कुछ भी नहीं है बल्कि ऐसा दुष्प्रचार करने में पूना के डी डी अम्बादे, शांताराम रुन्श्रन्गारे आदि महारों की तत्कालीन समय में अग्रिम भूमिका थी जो आज वामन मेश्राम के साथ बामसेफ की संपत्तियों मं् लाभान्वित बने हुवे हैं ! वामन मेश्राम का व्यवहार डी के खापर्डे के साथ ऐसा ही था जैसा मायावती का कांशीराम के साथ ! मायावती जैसे कांशीराम के आन्दोलन की उत्तराधिकारी बनना चाहती थी उसी तरह से वामन मेश्राम भी एन-केन-प्रकरेण डी के खापर्डे के आन्दोलन का उत्तराधिकारी बनकर निजी स्वार्थ-पूर्ति हेतु इस आन्दोलन को हथियाना चाहता था ! बहराल वामन मेश्राम कैसे भी डी के खापर्डे के संस्थागत बामसेफ का उत्तराधिकारी बना हो – चाहे षड़यंत्र से ही, उत्तराधिकारी घोषित होने का परिणाम तो आप जानते ही हो – बामसेफ में सब गुड़ गोबर हो गया है ! 'समानता', 'स्वतंत्रता', बंधुता' और 'न्याय' को समाज में स्थापित करने वाला किसी भी आन्दोलन का कोई भी नेतृत्व इन मौलिक मानवीय अधिकारों के विरोध में संघठन के अन्दर ब्राह्मणी और तानाशाही कार्य-प्रणाली का अवलंबन करके समाज के अन्दर इन मौलिक अधिकारों को स्थापित नहीं कर सकता है ! एक भांड होता है जो बाबा साहेब, फुले और बुद्ध के और विचारों को गीत के रूप में मूलनिवासी समाज के लोगों के सामने सुनाता है और बदले में समाज के लोगो से सोहरत और पैसे पाता है, लेकिन जरूरी नहीं होता कि वह भांड इन महापुरुषों के विचारों को अपने जीवन में उतारकर उनका अनुकरण भी करता हो ! मैंने बाबा साहेब की जन्म जयन्ती के अवसर पर ऐसे ही बहुत सारे बाबा साहेब के विचारों के गीत गाने वाले 'भांडों' का ऑब्जरवेशन किया है और मैंने देखा कि इनके हाथ पर ब्राह्मणी धर्म का धागा बंधा रहता है, मतलब भांडगिरी करके पैसे कमाना इनका एकमात्र धंदा होता है – जिन महापुरुषों के विचारों के यह लोग गीत गातें हैं, उनके विचारों को ग्रहण करना इन तथाकथित भांडों के बस की बात नहीं होती है ! इस परिपेक्ष्य में वामन मेश्राम आज की तारीख का मूलनिवासी समाज के अन्दर सबसे बड़ा भांड है ! जो लोग लॉजिकल नहीं होते हैं, अंध-भक्तों को भांडों के गीत सुनना बहुत पसंद आता है – ऐसे अंध-भक्त, गैर-तार्किक लोग आगे चलकर आस्था के शिकार होकर न केवल अपनी बल्कि समस्त मूलनिवासी समाज की गुलामी का कारण बन जाते हैं ! Followers who shut their eyes to wrongs are not fit for liberation.
जय मूलनिवासी ! आपका मिशन में,
चमन लाल, पूर्व सी ई सी सदश्य, बामसेफ |
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