खनिज सम्पदा के मामले में सबसे अमीर राज्य की गरीब, बेबस व लाचार जनता
राजधानी राँची के आसपास सैंकड़ों पत्थर क्रशर हैं। इनमें हजारों औरतें काम करती हैं। बदलते वातावरण और प्रदूषण, के अलावा महिलाओं के शारीरिक, सामाजिक एवम् आर्थिक रूप से ये औरतें अत्यन्त कमजोर हैं।
पत्थर खदान से राज्य सरकार को राजस्व प्राप्त होता है और इससे राज्य का विकास होता रहा है जिससे शहरीकरण को बढ़ाने में सहयोग होता रहा है। पत्थर खदान में लाखों औरतें जुड़ी हैं जो राज्य के विकास के साथ-साथ गाँव और अपने परिवार के विकास में भी योगदान देती हैं। तथाकथिक विकास और पहाड़ के कटने के साथ जिन इलाको में पत्थर खदान है वहाँ कृशि पर निर्भरता कम होती जा रही है जिससे महिला श्रमिकों की संख्या बढ़ती जा रही है ऐसी स्थिति में जिन क्षेत्रों में पत्थर खदान है वहाँ आसपास के महिलायें उसमें रोजगार से जुड़ी हैं।
क्रशर के कर्कश में औरतें-
नये राज्य झारखण्ड के गठन के बाद जनमानस में यह उम्मीद बँधी थी कि राज्य में विकास की रफ्तार तेज होगी, रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, गरीबी दूर होगी, रोजी-रोटी की समस्या नहीं रहेगी, पलायन की समस्या दूर होगी, हर किसी को भरपेट भोजन और कपड़ा मिलेगा, भूख से लोगों की मौत नहीं होगी। खुशहाली का एक नया दौर आयेगा और लोग अमन-चैन की ज़िन्दगी जी पायेंगे। लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं हो पाया। झारखण्ड गठन के 12 साल बाद भी राज्य की समस्यायें दूर नहीं हुयी। आज भी लोगों के समक्ष रोजी रोटी की समस्या बरकरार है। पलायन और भुखमरी की स्थिति भी पूर्ववत है। भरपेट भोजन, कपड़ा और मकान का सवाल अपनी जगह यथावत् है।
पत्थर, एक खनिज और एक रोजगार –
भारत कौ खनिज सम्पदा का कुल उत्पादन का 40 प्रतिशत हिस्सा झारखण्ड से प्राप्त होता है। झारखण्ड में प्रमुख रूप से एसबेस्टस, बाक्साइट, कोयला, ताँबा, चाइनाक्ले, क्रोमाईट, फायरक्ले, ग्रेफाइट, लौह अयस्क, कायनाइट, चूना पत्थर, अभ्रक, पायराइट, यूरेनियम का उत्पादन होता है। झारखण्ड देश में कोकिंग कोयला, यूरेनियम और पायराइट का एकमात्र उत्पादक है। यह कोयला, ताँबा और अभ्रक उत्पादन में प्रथम स्थान रखता है। इसी तरह लोहा और ग्रेफाइट उत्पादन में दूसरा और कायनाइट में तीसरा स्थान रखता है। बाक्साइट में यह राज्य देश का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक है। जाहिर है कि खनिज सम्पदा के मामले यह राज्य सबसे अमीर है, लेकिन यहाँ की जनता गरीब, बेबस व लाचार है। मेहनत-मजदूरी कर जीवन यापन करना इनकी नियति बन गयी है।
राजनीति अस्थिरता और अनिश्चितता का माहौल -
पिछले 12 वर्षों में राज्य में आठ सरकारें बनी। किसी ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया। दो बार राष्ट्रपति शासन भी लगा। इस बीच राज्य में अस्थिरता और अनिश्चितता का माहौल कायम रहा। मजूदूरों का सवाल, सवाल ही रह गया। इसका सबसे अधिक असर विकास योजनाओं और रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने वाली एजेन्सियों पर पड़ा। नतीजा यह हुआ कि न तो राज्य का विकास हो पाया और न ही लोगों को रोजगार के प्रयाप्त अवसर ही मिल पाये। गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों का जीवन स्तर ऊपर उठाने के लिये तो कोई प्रयास ही नहीं हुआ। इनके विकास के लिये कोई ठोस नीति भी नहीं बनी। इसके कारण नये राज्य के गठन के बाद भी गरीबों के हालात में कोई सुधार नहीं हुआ। मेहनत-मजदूरी कर जीवन यापन करना इनकी मजबूरी बन गयी। झारखण्ड गठन के बाद गरीबों-मजदूरों के हालात में भले ही सुधार नहीं हुये, पर अमीरों को और अमीर बनने के अवसर जरूर मिले।
राजधानी में रोजगार
राज्य भर के पैसे वालों के लिये राजधानी में रोजगार शुरू करने और आशियाना बनाना एक सपना बन गया। इसके साथ ही राजधानी का तेजी से विस्तार शुरू हो गया। अपार्टमेन्ट और बहुमंजिले इमारतों का निर्माण युद्ध स्तर पर होने लगा। देखते ही देखते पूरी राजधानी कंक्रीट के जंगल में तब्दील होने लगी। सरकारी योजनाओं के तहत भी राजधानी के ढाँचागत विकास की रफ्तार तेज हो गयी। राजधानी के चारों ओर रिंग रोड और फोर लेन सड़कों का निर्माण भी शुरू हुआ। ऐसे में राजधानी में पत्थरों की माँग एकाएक बढ़ गयी। परिस्थिति ऐसी बनी कि राजधानी के आसपास के गाँवों में क्रशर मशीनों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। राँची जिले के लगभग सभी प्रखण्डों में स्टोन क्रशर लग गये। पहले से लगी स्टोन क्रशर मशीनों की रफ्तार भी तेज हो गयी। इससे मजदूर वर्ग के लोगों को लाभ यह हुआ कि उन्हें अपने गाँव के आसपास ही स्टोन क्रशर पर मजदूरी करने का अवसर मिल गया। इसके बाद मजदूरों की एक बड़ी संख्या स्टोन क्रशर में पत्थर पहुँचाने,
तोड़ने और उसे उपभोक्ताओं तक पहुँचाने में लग गयी। क्रशर की कर्कस आवाज और धूलकणों के बीच हजारों मजदूरों का जीवन भी एक अनिश्चित भविष्य की ओर चल पड़ा। आज पूरी राजधानी में सैंकड़ों स्टोन क्रशर चल रहे हैं। ये सभी स्थानीय मजदूरों के दम पर ही चल रहे हैं। इन मजदूरों में भी महिला मजदूरों की संख्या अधिक है। इसकी वजह यह है कि मजदूर वर्ग के पुरूष रोजी-रोटी की तलाश में दूसरे राज्यों में पलायन कर जाते हैं। गाँवों में महिलायें और बच्चे ही रह जाते हैं। क्रशर पर काम करने वालों में यही महिलायें और बच्चे होते हैं। क्रशर मशीनों पर इन महिलाओं के साथ इनके बच्चों का भविष्य भी तबाह हो रहा है। दो वक्त की रोटी के लिये महिलाओं और बच्चों का जीवन तिल-तिल कर घुट रहा है। इनमें तरह-तरह की बीमारियाँ घर कर रही हैं। इनका स्वास्थ्य बिगड़ रहा है और जीवन घट रहा है। लेकिन इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। सरकार, प्रशासन, नेता, समाजसेवी सभी के सभी इनके तबाह होते जीवन से जाने-अनजाने बेखबर हैं। इस पत्थर के खदान से सिर्फ राजस्व के अलावा सरकार को कोई मतलब नहीं हैं। क्षेत्र भ्रमण और स्थानीय मजदूर औरतों से बातचीत के आधार पर यह तथ्य लिखे गये हैं।
झारखण्ड के अस्तित्व में आने के बाद राँची राजधानी बनी। राँची जिले का क्षेत्रफल 5087 वर्ग किमी है। इस जिले में दो अनुमण्डल और 18 प्रखण्ड हैं। अनुमण्डलों के नाम राँची सदर और बुंडू है। प्रखण्डों के नाम कांके, नामकुम, बेड़ो, मांडर, लापुंग, चान्हो, रातू, सिल्ली, ओरमांझी, अनगड़ा, बुड़मू, बुंडू, तमाड़, सोनहातू, खलारी, इटकी, राहे और नगड़ी है। राँची जिले में कुल 243 पंचायत और 1377 गाँव हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार राँची की आबादी 29,12,022 है। इसमें पिछड़ा वर्ग 22.08 प्रतिशत और अल्पसंख्यक 19.17 प्रतिशत है। श्रमिकों की संख्या लगभग 10 लाख है। जिले की कुल साक्षरता दर 77.13 प्रतिशत है। जिले में स्थापित उद्योगों में भारी अभियन्त्रण संयन्त्र हटिया, एसीसी सीमेन्ट खलारी, इण्डियन अल्यूमीनियम कम्पनी लिमेटेड मूरी, गवर्नमेन्ट वेक्सीन इंस्टीट्यूट राँची, हाई टेंशन इंसूलेशन फैक्टरी नामकुम, इलेक्ट्रिक इक्वीपमेन्ट फैक्टरी टाटीसिलवे, उषा मार्टिन कम्पनी नामकुम, हिंदपीढ़ी लाह फैक्टरी राँची आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा बड़ी संख्या में स्टोन क्रशर स्थापित हैं। यह पत्थर राज्य के विकास के साथ राज्य के राजस्व में भी बड़ी भूमिका निभाते रहे हैं जिससे राज्य को आर्थिक सहयोग मिल रहा है पर वहाँ के काम कर रही औरतों कि स्थिति बेहतर क्यों नहीं हो पा रही है?
राँची जिले के 17 प्रखण्डों में पत्थर खदान हैं। यह ग्रामीण क्षेत्र या वन के किनारे वाले गाँव में लगे हुये हैं। इससे गाँव और आस पास के ग्रामीणों के इससे छोटे रोजगार के रूप में लाभ हुआ है। जिसमें सबसे अधिक महिलायें काम करती हैं। पत्थर तोड़ने से लेकर पत्थर ढोने तक के काम महिलायें लगी हैं। इस पत्थर की कर्कष आवाज और धूलकणों के बीच हजारों महिला मजदूरो का जीवन भी एक अनिश्चित भविष्य की ओर चल पड़ा है। पूरे राजधानी राँची में 243 पत्थर खदानों को राँची जिला खनन द्वारा लीज पर पंजीकृत किया गया है। वहीं राज्य सरकार के प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड से 109 पत्थर क्रेशर को एनओसी प्राप्त हैं।
आधे से अधिक पत्थर क्रशर में प्रदूषण नियन्त्रण की व्यवस्था नहीं –
क्षेत्र भ्रमण के दौरान किसी भी पत्थर क्रशर के निकट प्रदूषण नियन्त्रण के लिये कोई मापदण्ड की व्यवस्था नहीं है। पत्थर क्रशर खुले जगह पर चल रहे हैं। चारदिवारी, पानी का फवारा, स्वाथ्य केन्द्र की व्यवस्था नहीं है जिससे लगातार जल-जंगल- जमीन पर प्रदूषण बढ़ रहा है। पेड़ मरते जा रहे हैं। पानी का रंग बदल रहा है। जमीन की उर्वरक शक्ति खत्म हो रही है। उत्पादन घट रहा है. शहरीकरण तेजी से बढ़ रहा है।
गाँवों में रोजगारोन्मुखी उद्योग है स्टोन क्रशर
एक और बात यह है कि गाँवों में स्टोन क्रशर एक रोजगार उन्मुखी उद्योग है। जिस गाँव के आस-पास यह स्थापित होता है, उस गाँव के लोगों को असानी से रोजगार मिल जाता है। लोगों को गाँव में ही आजीविका के साथ छोटी-छोटी जरूरतें भी पूरी हो जाती हैं। रोजगार के लिये महिलाओं को दूर दराज के इलाके में भटकना नहीं पड़ता है। महिलायें काम करने के लिये शहर जाने-आने से भी बच जाती हैं। चूँकि क्रशरों पर सामूहिक रूप से काम करने का प्रचलन रहा है। इसकी वजह से भी महिलायें इस कार्य की ओर तेजी से अग्रसर हुयीं। स्टोन क्रशरों पर चिप्स के अलावा कई साईज के पत्थर व पाउडर तोड़े और पीसे जाते हैं। क्रशरों पर सड़क निर्माण में काम आने वाले बोल्डर भी तोड़े जाते हैं। ये बोल्डर भी कई साईज के होते हैं। इसे ग्रेड वन, टू व थ्री आदि के नाम से जाना जाता है। ये सारे बोल्डर, चिप्स या पाउडर बड़े-बड़े पत्थरों को तोड़कर बनाये जाते हैं। क्रशर स्टोन को लेकर किये गये सर्वे से यह पता चला कि राजधानी में ज्यादातर क्रशर शहर से दूर और जंगलों के करीब चलते हैं। इसके आसपास पहाड़ भी होते हैं। राजधानी के चारों ओर के गाँवों में स्टोन क्रशर भरे पड़े हैं। क्रशरों को शहर से दूर और जंगलों व पहाड़ों से नजदीक स्थापित किये जाने की कई वजहें हैं। क्रशरों में सिर्फ पत्थर तोड़ने का ही काम होता है। इसलिये इसकी स्थापना वैसी जगह की जाती है, जहाँ पत्थर असानी से मिल जाये। बहुत दूर से पत्थर ढोना नहीं पड़े और इसकी ढुलाई पर अधिक खर्च न हो। इसलिये क्रशर मालिक ऐसी जगह पर यह धंधा शरू करते हैं, जहाँ रैयती जमीन हो और वहाँ पत्थरों की बहुलता हो। दरअसल इसी जमीन की लीज दिखाकर ही मालिकों को स्टोन क्रशर बैठाने का लाईसेंस भी मिलता है। लेकिन यह हाथी का दाँत ही होता है। पत्थर वाली जमीन की लीज को सिर्फ दिखावे के लिये रखा जाता है। सच तो यह है कि बड़े पैमाने पर पत्थरों का उत्खनन जंगलों में स्थित पहाड़ों से ही किया जाता है। यह सब चोरी-छिपे होता है और इसमें वन विभाग के अधिकारियों की मिली भगत होती है।
महिलाओं की होती है अहम भूमिका
पहाड़ों से पत्थरों के उत्खनन में भी मजदूरों का बहुत बड़ा योगदान होता है। हालाँकि इस कार्य में आम तौर पर पुरूष मजदूरों का ही सहयोग लिया जाता है। महिला मजदूर इन पत्थरों को स्टोन क्रशर तक वाहनों से ढोने में अहम भूमिका निभाती हैं। क्रशरों पर भी पत्थरों को छोटे टुकड़े करने और उसे मशीन में डालने का काम महिलायें ही करती हैं। क्रशरों से उत्पादित चिप्स, बोल्डर व पाउडर का संग्रहण भी महिलायें ही करती हैं। जब क्रशर चलता है और पत्थरों को टुकड़े किये जाते हैं तो पूरा वातावरण में पत्थरों के धूलकण उड़ते रहते हैं। क्रशरों में मजदूर इसी स्थिति में अपने काम निपटाते हैं। क्रशरों पर काम करते हुये उनके कपड़े व शरीर पत्थरों के धूलकणों से सन जाते हैं। मजदूरों के कपड़े और शरीर पर धूलकणों की परतें जम जाती हैं। चूँकि यह शरीर के उपरी हिस्से में होता है, इसलिये दिखाई पड़ जाता है। लेकिन काम के दौरान कितना धूलकण मजदूरों की श्वास नली व मुँह से फेफड़े तक पहुँच जाता है, यह दिखायी नहीं पड़ता है। क्रशरों पर महिलाओं को रोजगार तो मिल जाता है, लेकिन उनके स्वास्थ्य की देखभाल की कोई व्यवस्था नहीं रहती है। यही वजह है कि क्रशरों पर काम करने वाली महिलाओं का स्वास्थ्य लगातार खराब होता जा रहा है। इनमें तरह-तरह की बीमारियाँ घर कर रही हैं। इनकी उम्र लगातार घट रही है। इन महिलाओं के विभिन्न बीमारियों से पीड़ित होने के कारण इनके बच्चे भी अस्वस्थ हो रहे हैं।
क्रमशः जारी
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