कानून तो हैं, पालन नहीं होता
महिला अध्यादेश पर भले ही राष्ट्रपति की मुहर लग गई हो पर इस की गारंटी नहीं है कि इससे महिलाओं पर होने वाले अपराधों पर अंकुश लग पाएगा। पूरे देश में अपराधों पर नियंत्रण लगाने के लिए 60 के आस-पास अपराध अधिनियम व नियम बने तो हैं लेकिन इनका कड़ाई से पालन नहीं हो रहा है।
स्त्री अशिष्ट रूपण प्रतिपेषद्ध अध्निियम 1986 के तहत ऐसे सभी विज्ञापनों, प्रकाशनों आदि पर रोक है जो किसी भी रूप में महिलाओं के अशिष्ट रूप को उजागर करता है। महिलाओं का अशिष्ट प्रदर्शन करने वाले विज्ञापन निषेघ हैं लेकिन हर विज्ञापन पर अधनंगी महिलाएं हैं। बिंदास जैसे टीवी चैनलों की नंगई तो सरेआम है। दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1986 में दहेज लेना व देना दोनों अपराध की श्रेणी में आता है लेकिन यह कुप्रथा खुलेआम जारी है। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 को लीजिए, हालांकि इसने एक हद तक मर्दों की मनमानी पर रोक लगाई है लेकिन आज भी हजारों ऐसे लोग मिल जाएंगे जिनकी दो-दो पत्नियाँ हैं। बाल विवाह अधिनियम 1929 हो या फिर बाल श्रम प्रतिषेध और विनियमन अधिनियम 1986 सभी की खिल्लियाँ उड़ रही हैं। शिशु दुग्ध आहार, दूध की बोतल एवं शिशु आहार; उत्पादन/ आपूर्तिद्ध अधिनियम 1992 की धरा 3, 4 और 5 कहती है कि कोई भी व्यक्ति शिशु दुग्ध आहार के वितरण /बिक्री या आपूर्ति या उपयोग को बिक्री संवर्धन के लिए किसी भी विज्ञापन के प्रकाशन में भाग नहीं ले सकता या यह नहीं दर्शा सकता कि ऐसे आहार अपेक्षाकृत बेहतर हैं। लेकिन कई कंपनियाँ खुलेआम ऐसा दर्शा रही हैं लेकिन कोई कानून उन्हें शिकंजे में नहीं ले पा रहा है। इसी तरह प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भरमाने वाले विज्ञापनों से उपभोक्ताओं को बचाने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। एडवरटाइजिंग स्टैंडर्ड कौंसिल का कोड हो या फिर प्रेस परिषद या चैनलों पर नजर रखने वाली समितियाँ हों, असरकारी नहीं हो पा रही हैं।
मल्टी लेबल मार्केटिंग पर सख्त कानून नहीं है। थोड़े से निवेश पर घर बैठे हजारों कमाने का सब्जबाग दिखाकर करोड़ों की चपत लगाकर कंपनियाँ रफूचक्कर हो जा रही हैं। खाद्य तेलों में मिलावट का भी यही हाल है। भ्रामक विज्ञापनों के मार्फत घटिया वस्तुओं की बिक्री के जरिए हर रोज लाखों उपभोक्ता ठगे जा रहे हैं। घरेलू हिंसा सुरक्षा अधिनियम 2005 के बाद भी घरों में महिलाएं पिट रही हैं और पुरुष उनकी पिटाई को आज भी अपने पौरशत्व से जोड़ते हैं। इस अधिनियम के लागू होने के बाद महिलाओं से गाली-गलौच, बिना कारण मारपीट, जबर्दस्ती शारीरिक संबंध कायम करना, दर्द व तकलीफ पहुँचाना, घर से बाहर निकालने की धमकी देना, मार डालने की धमकी देना, जबर्दस्ती करने जैसे अत्याचार रुकेंगे, लेकिन इसमें कमी आने के बजाय ये बढ़ते जा रहे हैं। इसी तरह आबकारी अधिनियम व खनन अधिनियम को लिया जा सकता है। अवैध शराब का करोड़ों का कारोबार है तो कच्ची शराब से हर वर्ष सैकड़ों लोग देश भर में अपनी जान गँवाते हैं। वैध खनन से अधिक अवैध खनन हो रहा है। क्या दिन, क्या रात यह जारी है। खनन माफिया रातों-रात मालामाल हो रहे हैं तो वहीं सरकार को करोड़ों का चूना लग रहा है। रोड़ा, रेता माफियाओं की नई पौध तैयार हुई है। आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 लागू है लेकिन वस्तुओं की वास्तविक लागत के विपरीत वस्तुओं का क्रय-विक्रय जारी है। बाजार में मनमाने तरीके से रेट बढ़ा दिए जाते हैं, वस्तुओं की ब्लैकमेलिंग आम है। देश में अनैतिक व्यापार; निवारण अधिनियम 1956 लागू है लेकिन खुले आम यह व्यापार हो रहा है। कई किशोर-किशोरियाँ, महिलाएं वेश्यावृत्ति के धंधे में धकेली जा रही हैं। वेश्यावृत्ति कराने वालों के कई गिरोह फल-फूल रहे हैं। कई सफेदपोश भी इस अमानवीय कार्य में शामिल हैं। विस्फोटक पदार्थ अधिनियम 1908, पशु अतिचार अधिनियम 1871, मोटरगाड़ी अधिनियम 1988 ये सभी अधिनियम लाचार दिखते हैं। रेल अधिनियम 1989 का उल्लंघन करते हुए कई जनप्रतिनिधि विगत कई वर्षों से देखे गए हैं। रेलगाडि़यों मे बगैर टिकट सफर करना मानो ये अपनी शान समझते हों। किशोर न्याय अधिनियम 1986 के बाद भी कई गिरोह किशोरों से भीख मंगवा रहे हैं। नारकोटिक; नशीली दवाओं एवं मनःस्वायी; साईकोट्रोफिक 1985 का असर भी कम दिखाई देता है। कोकेन, चरस का धंधा जोरों पर है। भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 की तो इस देश के नेताओं ने धज्जियाँ उडाना मानो अपना परम कर्तव्य मान लिया हो। भारतीय दंड संहिता की धरा 375 के तहत बालात्कार के कई मामले दर्ज हैं लेकिन सुनवाई नहीं हो पा रही है। इसी तरह धारा 497 के व्यभिचार के सैकड़ों मामले आज भी इंतजार में है। धरा 409 लोक सेवकों के दुर्विनियोग से संबंधित है। इसमें आजीवन कारावास का दंड है। देश के कई लोक सेवक बेईमानी के मामलों में पकड़े गए लेकिन कितने लोकसेवकों को आजीवन कारावास की सजा मिली है।
भारत की अधिकांश आबादी को आज भी गिरफ्तारी व जमानत के संबंध में नागरिक अधिकारों एवं कर्तव्यों का ज्ञान न होने के कारण वे प्रथम सूचना रिपोर्ट तक दर्ज नहीं कराते। अच्छा पढ़ा-लिखा तबका भी पुलिस से इतना आतंकित है कि थाने का रुख करने से कतराता है। यानि लोकतंत्र का दंभ भरने वाले इस देश में अभी सुधारों की बहुत जरूरत है।
http://www.nainitalsamachar.in/laws-are-there-but-who-cares/
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