तुकबंदी अच्छी है, लेकिन लालसाओं का क्या किया जाए!
अंजनी कुमार |
मार्क्स के निजी जीवन प्रसंगों पर एक टिप्पणी से शुरू हुई बहस के क्रम में अंजनी कुमार की एक अहम प्रतिक्रिया आई है जिसमें उन्होंने मार्क्स पर तानी गई ''मध्यवर्गीय क्रांतिकारिता की चारित्रिक विशेषता'' वाली दुनाली (विश्वदीपक और मेरी गेब्रियल) को उलटा मोड़ दिया है। यह देखना दिलचस्प है कि कैसे मार्क्स से दो सौ साल बाद उपजा भारत का मध्यवर्गीय मानस अपने ''प्रेम की पीड़ा'' से ग्रस्त होकर इतिहास के पुनर्लेखन को उद्धत हो उठता है और उसकी रूमानी चिंताओं का पहला शिकार सबसे पहले मार्क्सवाद ही बनता है। मार्क्सवाद में इस वर्ग की ''हिस्सेदारी का आग्रह'' क्या खुद इस बात को साबित नहीं करता कि समस्या की असल जड़ न तो मार्क्स में है और न ही मार्क्सवाद में, बल्कि ये हूक दरअसल कहीं और से उठ रही है? (मॉडरेटर)
मार्क्स के निजी प्रसंगों को लेकर एक और नई पोस्ट मेरी गेब्रियल की पुस्तक ''लव एण्ड कैपिटल'' की एक समीक्षा के तौर पर आई है। शायद यह सिद्ध करने की कोशिश की गई है कि विश्वदीपक ने जिन सवालों और प्रसंगों को उठाया है वे ठीक हैं। मेरी गेब्रियल की इस पुस्तक की समीक्षा में कोष्ठक में मार्क्स को उनके मित्रों, रिश्तेदारों द्वारा ''मूर'' पुकारने का जि़क्र है। जर्मनी में यह पुकारने का नाम होता था, लेकिन यहां गेब्रियल इसका प्रयोग यूरोप के उत्तर-मध्यकाल में यहूदी सूदखोर व्यापारियों को पुकारने के समानार्थ में प्रयुक्त करती हैं। शेक्सपियर के नाटकों में मूर- जिनका रंग आम यूरोपियों से अलग सांवला होता था- का वर्णन हिकारत के साथ आया है। ऑथेलो एक ऐसे ही ''मूर'' के त्रासद जीवन को रंगमंच पर उतारता है। पूरे यूरोप के इतिहास के रंगमंच पर 1945 तक यहूदियों के साथ हुआ बर्ताव बर्बरता की मिसाल है। मार्क्स की ''वित्तीय निर्भरता और अवैध संतान'' के संदर्भ में इस शब्द का प्रयोग प्रमाण के तौर पर पेश करना उसी बर्बर समझदारी का ही एक उदाहरण है। यह संयोग नहीं है कि मार्क्सवाद, कम्युनिज्म और यहूदी को यूरोपीय बुर्जुआ और साम्राज्यवादी पूंजी के मालिक एक ही श्रेणी में रख रहे थे और उन पर बर्बर हमला बोल रहे थे।
मेरी गेब्रियल के शब्दों में मार्क्स ''बहुधा अपने से असहमत होने वालों के साथ बुरी तरह तार्किक, बौद्धिक, अहंमन्य और खतरनाक ढंग से बेसब्र हो जाते थे।'' लेखिका की नज़र में ''कैपिटल'' लिखने वाला महान रचनाकार है लेकिन इस दौरान वह ''संपदा से भरी दुनिया में गरीबी की मार झेलने को अभिशप्त अपने अंतरंग लोगों की मरती हुई ऊर्जा से भी रूबरू हो रहा था।'' यह मार्क्स को मानवीय रंग में रंगने का प्रयास नहीं है। जिस समय गेब्रियल लिख रही हैं, उस समय तक मार्क्स को इस रंग में पेश करने का अर्थ होगा एक खूबसूरत पेंटिंग पर रंगरोगन चढ़ाना। यहां मार्क्स को उन''सच्चाइयों'' के साथ पेश कर उन्हें ''कमजोरियों और खूबियों'' से भरे एक ऐसे इंसान के तौर पर पेश करना है जो बहुत से लोगों का नुकसान कर, वादाखिलाफ और आत्मग्रस्त होकर एक महान काम कर गया। यह चिंतन की एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें मध्यवर्ग ''त्याग'' के बलबूते महान कार्य कर गुजरने या पूंजीपति बन जाने का लगातार स्वप्न देखता रहता है। मेरी गेब्रियल मार्क्स की पुनर्रचना इसी चिंतन प्रक्रिया से करती हैं।
विश्वदीपक ने इन बातों को निष्कर्ष के बतौर लिखा है: ''मार्क्स निजी जीवन में संतान, नैतिकता, प्रेम, परिवार, यौन संबंध आदि विषयों पर उसी तरह की सोच रखते थे या उसी बचाव-दुराव से ग्रस्त थे जो हिंदुस्तान के किसी भी मध्यवर्गीय क्रांतिकारी में देखी जा सकती है।'' यहां विश्वदीपक के लिए''नैतिकता'' के बजाय ''सवाल कर्तृत्व की जिम्मेदारी का है''। इसलिए ''मार्क्स का जीवन विपर्यय, त्रासदी और संघर्षशीलता की अजब खिचड़ी है''। मार्क्स के ऊपर इस ''मध्यवर्गीय क्रांतिकारिता की चारित्रिक विशेषता'' को आरोपित करने के बजाय इसे उलटी दिशा में मोड़ दिया जाय तो इस ''अजब खिचड़ी'' के तत्व साफ दिखने लगेंगे क्योंकि इन दो श्रेणियों के बीच लगभग सौ साल का फर्क है। यदि मार्क्स के जन्म से आज के समय के बीच की दूरी देखें तो यह लगभग दो सौ साल का फर्क बैठता है। सिर्फ समय का ही नहीं स्थान का भी फर्क है। भारत की ''मध्यवर्गीय क्रांतिकारिता की चारित्रिक विशेषता'' का विश्लेषण मार्क्स के जीवन शैली से अनुकूलित कर किसी निष्कर्ष तक पहुंचना बुद्धिवाद की त्रासदी ही होगी। यह वही धार्मिक प्रवृत्ति होगी जिससे ''मार्क्सवादी ब्राह्मणों-राजपूतों'' का जन्म होता रहा है।
मार्क्स, एंगेल्स, स्तालिन, माओ की सैकड़ों जीवनियां लिखी गई हैं। उनके निजी प्रसंगों को लेकर भी खूब लिखा गया है। स्तालिन और माओ के जीवन पर फिल्में भी बनी हैं। खासकर माओ के जीवन पर उनके निजी सचिव से लेकर अमेरिका में बैठे पत्रकारों ने ''प्राधिकृत'' लेखन खूब किया है। मार्क्सवाद के इन विचारकों द्वारा लिखी हुई आत्मकथा भी उपलब्ध होती तो भी एक नए दृष्टिकोण, विचार और तथ्यों के आधार पर जीवनियों का लिखना बंद नहीं होता। यह एक विधा है जिससे सम-सामयिक स्थितियों में अतीत के जीवन प्रसंगों, रचनाधर्मिता और उसकी चुनौतियों तथा व्यवहारों की पुनर्रचना की जाती है। जाहिरा तौर पर जीवनी लेखक की अपनी मनोरचना इस लेखन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही होती है। काल, स्थान और विषय का प्रसंग ही वह निर्णायक बिंदू है जिससे हम जीवनी को परख सकते हैं। मसलन, माओ की जीवनी लिखने वाले उनके ही डॉक्टर ने उनके भोजन, निद्रा आदि का जिस विशाल पैमाने पर वर्णन किया उसे खुद डॉक्टरों ने ही खारिज कर दिया। इसी तरह सांस्कृतिक क्रांति के दौरान चीन में हुई मौतों का अमेरिकी और भगोड़े चीनी लोगों ने जिस तरह का वर्णन सामने रखा उसे दस साल बाद जनसंख्या की गिनती, संक्रमण आदि के आंकड़ों से गलत साबित पाया गया।
बहरहाल, मार्क्स के निजी प्रसंगों को जिन ऐतिहासिक हवालों से लिया जाता है वे मुख्यतः पत्र और बातचीत हैं। इन हवालों का उल्लेख इसलिए लाया गया है क्योंकि (विश्वदीपक के शब्दों में) ''इसका संबंध प्रेम से है। इसका संबंध इतिहास के पुनर्लेखन से है। इसका संबंध पत्नी से बेवफाई, राज्य-परिवार और संपत्ति (फ्रेडरिक एंगेल्स की किताब का नाम) से है। इसका संबंध कार्ल मार्क्स है।'' यहां तुकबंदी अच्छी है। 1980 के बाद उभरा भारत का मध्यवर्ग दरअसल प्रेम की पीड़ा से त्रस्त है। यह इतिहास के पुनर्लेखन के लिए भी उतना ही उतावला है। ऐसे में मार्क्सवाद की चिंता होना स्वाभाविक है। यह चिंता मार्क्स की ''महानता'' से है, उसके ''अनुयायियों'' से है और भारतीय वामपंथ के ''अतार्किक और कृपण'' रवैये से है। अन्यथा''लव एण्ड कैपिटल'' की समीक्षक ट्राय जिलिमोर के शब्दों में ''कार्ल मार्क्स के बारे में हम जो जानते हैं वैसा वे खुद नहीं जानते थे। वे यह नहीं जानते थे कि वे कार्ल मार्क्स हैं'', ''कि उनका लेखन किसी के काम भी आ सकेगा'', यह जानते तो उन्हें संतोष मिलता। यह अपने किए का फल मिलने की मध्यवर्गीय आतुर इच्छा का मार्क्स के ऊपर आरोपण भर नहीं है, यह नए समाज के निर्माण में लगे लोगों के ऊपर एक गहरी टिप्पणी भी है। यह कार्ल मार्क्स की पुनर्रचना है जिसमें सम-सामयिक चिंता, सरोकार और हिस्सेदारी का आग्रह शामिल है।
यह आग्रह क्या है? सरोकार और हिस्सेदारी की प्रकृति क्या है और किनकी चिंता है? रूस के वामपंथियों ने मार्क्स से लेकर लेनिन, स्तालिन तक को सुधारते, तोड़ते-मरोड़ते, मूर्तियों को तोड़ फेंका। भारत के वामपंथी, जिन्हें यदि पार्टी की संख्या के आधार पर वर्गीकृत किया जाए, तो उन्होंने मार्क्स से लेकर माओ तक के सिद्धांत को सुधारकर आज संसद के अनुकूल बना दिया है। मार्क्स के निजी प्रसंगों से कौन से वे सैद्धांतिक पहलू निकलते हैं जिनका प्रयोग अपेक्षित है? इन निजी प्रसंगों से वे कौन से ''मानवीय'' व्यावहारिक पहलू निकलते हैं जिनका अनुकरण मार्क्सवादियों के लिए ज़रूरी है? आज के समय के माओवादियों के सैद्धांतिक, दार्शनिक और व्यावहारिक पहलुओं में कौन से पक्ष छूट गए हैं जिनका मार्क्स से लेकर माओ तक के निजी प्रसंगों की भूमिका तय हुए बिना सब कुछ ''भगवत-भक्त'' जैसा ही बना रह जाएगा?
यहां हम महान सवालों का महान जवाब पाने का सूत्रीकरण या मार्क्स के निजी प्रसंगों को लेकर आ रही आलोचनाओं की सीमा तय नहीं कर रहे हैं। हम अपने आसपास के बौद्धिक समाज और उसमें सक्रिय लोगों की वैचारिक पुनर्रचना और उसकी संभावना को समझने की कोशिश कर रहे हैं। तथ्य और सत्य संदर्भों के बिना अहं को पुष्ट करते हैं और अहं जिम्मेदारियों से बचकर निकल जाने का अत्यंत सम्मानजनक तरीका होता है, लेकिन होता है बचकर निकलना ही।
बहरहाल यहां तथ्य, सत्य, संदर्भ और अहं सब कुछ एक संदिग्ध अवस्था में है। यह उस ''कॉमन सेंस'' की मनोरचना का परिणाम है जिसे उदारीकरण और वैश्वीकरण की अर्थशास्त्रीय राजनीति ने मजबूत किया है। यह मार्क्सवाद का अनुयायी होने से बच निकलने, ''दाग, धब्बों को छुड़ा लेने'' से ही उपजा हुआ तर्क नहीं है, बल्कि यह उस वैचारिक दावेदारी को सिद्ध करने की लालसा का परिणाम भी है जिसके तहत अपनी ''ईमानदारी, जिम्मेदारी, उदारता, आधुनिकता और संवदेनशीलता'' को सिद्ध किया जा सके। यहां यह मार्क्स के बहाने किया गया। यह माओ और स्तालिन के बहाने भी हो सकता है।
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