अस्मिता की लड़ाई और वाम
Author: सुभाष गाताडे Edition : February 2013
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मौजूदा दौर में पहचान की राजनीति के अधिक सादृश्यता हासिल करने का मतलब क्या यह कहना मुनासिब होगा कि यह मसला अपने आप में अनोखा है, जिसका कोई इतिहास नहीं है। इतिहास के बीते दौर का सिंहावलोकन इसी सच्चाई को रेखांकित करता है कि तमाम चरणों एवं युगों में यह ज्वलंत मसला रहा है। असमानताओं, उत्पीडऩों, शोषणों,भेदभावों और बेदखलियों का आधार बनने वाली पहचानों के खिलाफ लोग, समुदाय समानता, न्याय, उत्पीडऩ और शोषण से मुक्ति की मांग को लेकर संघर्षरत रहे हैं।
आप इसे सोवियत संघ एवं उसके करीबी देशों में समाजवाद की ताकतों को झेलनी पड़ी शिकस्त का नतीजा कहें या चीन में पूंजीवाद की ओर वापसी का परिणाम कहें, मगर यह स्पष्ट है कि वर्ग आधारित राजनीति को विगत दो-तीन दशकों से जो बचावात्मक पैंतरा अख्तियार करना पड़ा है, उसके चलते अस्मिता अर्थात पहचान का सवाल बीसवीं सदी की अंतिम दहाई से दुनिया के पैमाने पर अधिक मौजूं हो उठा है। चाहे आंदोलन के स्तर पर हो या वैचारिक बहस मुबाहिसों में हम इसे उजागर होते देख सकते हैं। जहां साठ के दशक तक पहचान की राजनीति जैसी अवधारणा भी अधिक सुनाई नहीं पड़ती थी, वहीं हम यह भी देख रहे हैं कि अस्सी के दशक के बाद से अस्मिता की सियासत का मसला लगातार सुर्खियां बना है।
मौजूदा दौर में पहचान की राजनीति के अधिक सादृश्यता हासिल करने का मतलब क्या यह कहना मुनासिब होगा कि यह मसला अपने आप में अनोखा है, जिसका कोई इतिहास नहीं है। इतिहास के बीते दौर का सिंहावलोकन इसी सच्चाई को रेखांकित करता है कि तमाम चरणों एवं युगों में यह ज्वलंत मसला रहा है। असमानताओं, उत्पीडऩों, शोषणों, भेदभावों और बेदखलियों का आधार बनने वाली पहचानों के खिलाफ लोग, समुदाय समानता, न्याय, उत्पीडऩ और शोषण से मुक्ति की मांग को लेकर संघर्षरत रहे हैं। आधुनिकता के आगमन ने जिसने समूची इंसानियत को तर्कशीलता, वैज्ञानिक चिंतन, आत्मप्रश्नेयता, प्रगति के रास्ते पर डाला तथा मानवीय समानता के प्रश्न को एजेंडे पर ला दिया, गैरबराबरियों को शह देने वाली सामाजिक और दैवी मान्यताओं को चुनौती दी, उन्हें वैचारिक क्षेत्रों में शिकस्त दी, वहां पर भी औपचारिक समानता ठोस समानता में रूपांतरित होने में असफल रही है।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वाम की कतारों में इस मसले पर पहले स्पष्टता नहीं रही है।
मालूम हो कि मार्क्सवाद के अंतर्गत यह समझदारी अधिक प्रचलित रही है कि पूंजीवादी समाज की बुनियाद शोषण पर टिकी है, जिसका समाधान समाजवादी पुनर्वितरण है, राजनीतिक अर्थशास्त्र के गहरे रूपांतरण में है, ताकि वर्गीय विभाजन एवं भिन्नताएं खत्म हों। इसके बरक्स पहचान की राजनीति की इस धारा के अंतर्गत लोग यह मानते हैं कि समकालीन समाज का बुनियादी अन्याय 'समूह के भिन्नता का सांस्कृतिक अस्वीकार' है, जिसके समाधान के तौर पर वह "स्वीकार की सियासत" (पॉलिटिक्स ऑफ रिकॉग्नेशन) अर्थात् अवमूल्यन किए गए समूहों की पहचानों के पुनर्मूल्यांकन में देखते हैं। आम तौर पर मार्क्सवाद और बहुसंस्कृतिवाद को एक दूसरे के विलोम के तौर पर समझा जाता है। यह अकारण नहीं कि हमें पुनर्वितरण और स्वीकार में से, वर्गीय राजनीति और पहचान की राजनीति, समाजवाद और बहुसंस्कृतिवाद में से एक को चुनने के लिए कहा जाता है।
मनुष्य की बहुविध पहचानें (उदाहरण के लिए एक श्रमिक का किसी खास समुदाय, नस्ल, जेंडर या इलाके से संबंधित होना आदि) – सामाजिक प्राणी के तौर पर कई पहचानों को साथ में लेकर चलने की उसकी स्थिति – इन पहचानों के अपने भौतिक आधार, मुख्यत: सामाजिक और सांस्कृतिक कल्पना में निर्मित होती दिखती या अपने आप को महज अधिरचनात्मक आयामों में प्रस्तुत करती इन पहचानों की जड़ों का ठोस सामाजिक आर्थिक यथार्थ से निकलना और उन बुनियादों को भी गढऩे में उनके योगदान आदि बातें अब अधिक चर्चा में आ रही हैं। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि यह पहचानें विभिन्न किस्म की गैरबराबरियों, उत्पीडऩों, भेदभावों और बेदखलियों की लंबी शृंखला के लिए आधार तैयार करती हैं, इतना ही नहीं वे उत्पादन की पद्धतियों में भी अभिव्यक्त होती हैं और शोषण की व्यवस्था को भी पुख्ता करती हैं। (देखें: 'कामगारों के लिए दुनिया, दुनिया के लिए भविष्य, मसविदा घोषणापत्र, न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव)। मिसाल के तौर पर जेंडर, जाति, नस्ल, नृजातीयता, राष्ट्रीयता, धार्मिक पहचान आदि को उन सामाजिक रिश्तों के उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है जो वर्गसंबंधों की धुरी को विभिन्न प्रकार से काटते हैं और उसके साथ ही सामाजिक यथार्थ को गढ़ते हैं।
बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में जबकि अक्टूबर इंकलाब के बाद विभिन्न देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों के बनने एवं मेहनतकशों के आंदोलनों के तेज होने का सिलसिला चला, उस तूफानी दौर में यह एकरेखीय चिंतन हावी रहा कि सामाजिक संबंधों और उनसे पैदा होने वाली सभी सामाजिक पहचानों को लाजिमी तौर पर आर्थिक, राजनीतिक या वर्गीय जड़ों में चिह्नित किया जा सकता है। लाजिम था कि पहचान आधारित सामाजिक असमानताओं की गहरी जड़ें, उनकी गतिशीलता, नई परिस्थितियों में नई जड़ों को जमा पाने की उनकी क्षमता, अपने हितों की पूर्ति करने वाले प्राक् आधुनिक संबंधों को अपनी सामाजिक संरचना में समाहित करने की पूंजीवाद की क्षमता और एक दूसरे को काटती सामाजिक संबंधों की धुरियां आदि मसलों पर समग्रता में विचार नहीं हो सका। पश्चात्दृष्टि के तहत आज भले हम समझ पा रहे हों कि वर्गीय अंतर्विरोधों का समाधान खुद ब खुद अन्य सामाजिक अंतर्विरोधों का समाधान नहीं कर सकता, अन्य सामाजिक अंतर्विरोधों के मुद्दों को उनके लिए संबोधित करना लाजिमी है, मगर जिन दिनों भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन की नींव पड़ी, उन दिनों यह बात कम से कम नेतृत्व के लिए स्पष्ट नहीं थी और लंबे समय तक यह स्थिति बनी रही।
इसका सीधा असर भारतीय समाज की विशिष्टता कही जाने वाली जाति के मसले को देखने को लेकर हुआ। ऊंच-नीच सोपानक्रम पर टिकी यह प्रणाली जो – 'उस बहुमंजिली इमारत की तरह थी जिसमें एक से दूसरी मंजिल जाने की गुंजाइश नहीं थी' – जिसने महज 'श्रम का ही नहीं श्रमिक का भी विभाजन' उसकी समाप्ति के लिए खास किस्म की कोशिशें करनी पड़ेंगी इस बात का एहसास भी आंदोलन के भीतर नहीं बन सका। 'ए कान्ट्रिब्यूशन टू द क्रिटिक ऑफ पोलिटिकल इकोनॉमी' शीर्षक अपनी रचना में जहां मार्क्स उत्पादन संबंधों के उत्पादक शक्तियों के विकास में बेडिय़ां बनने एवं सामाजिक क्रांतियों के युग के शुरू होने की जहां चर्चा करते हैं, वहीं पर उद्धृत मूलाधार एवं अधिरचना का हवाला देते हुए यह बात भी चलती रही कि जाति भारतीय पूंजीवाद के अधूरे विकास का लक्षण है और जैसे-जैसे पूंजीवादी विकास आगे बढ़ेगा, जातिप्रथा भी अपने आप ही समाप्त होगी। यहां यह बात भी मद्देनजर नहीं रखी गई कि यहां पूंजीवाद का आगमन किसी 'फ्रांसिसी क्रांति' के जरिए नहीं बल्कि उपनिवेशवाद की छत्रछाया में हो रहा है।
स्पष्ट था कि प्रतिक्रियावादी वर्ण एवं जाति व्यवस्था ने हजारों सालों से भारतीय समाज में कहर बरपा रखा था। यह ऐसी प्रणाली थी जिसे हिंदू धर्म एवं वैदिक ग्रंथों से स्वीकृति एवं वैधता हासिल थी। मनुस्मृति, जिसमें सामाजिक नियमों को सूत्रबद्ध किया था, उसने शूद्रों, अतिशूद्रों और महिलाओं को बेहद असमान और पीड़ादायक अस्तित्व तक सीमित कर दिया था। जातिव्यवस्था की खासियत यह थी कि वह आनुवंशिक, अनिवार्य और सगोत्र (एंडोगेमस) थी। समाज के एक बड़े हिस्से को सभी मानवाधिकारों से – यहां तक कि ईश्वर के दर्शन से भी – वंचित रखनेवाली इस प्रणाली के खिलाफ आवाज बुलंद करना कम्युनिस्टों का पहला फर्ज बनता था, मगर वर्गीय अंतर्विरोधों के समाधान के जरिए बाकी अन्य सामाजिक अंतर्विरोधों के हल निकलने की बात चूंकि आंदोलन में हावी थी ; लिहाजा यह मसला संबोधित नहीं हो सका।
ऐसा नहीं था कि कम्युनिस्टों ने जातिप्रथा द्वारा सबसे दमित, शोषित, उत्पीडि़त इन तबकों में काम नहीं किया; उन्हें अपने हक-हुकूक की लड़ाई के लिए गोलबंद नहीं किया, उन्हें मानवीय सम्मान दिलाने के लिए संघर्ष नहीं किया; यह अकारण नहीं था कि ऐसे तमाम इलाके जहां आधार बनाने में वह कामयाब हुए वहां 50-60 के दशकों में उन्हें 'दलितों का नेता' समझा जाता था, मगर इस विशिष्ट उत्पीडऩ को खतम करने के लिए उन्होंने कोई रणनीति नहीं बनाई। प्रोफेसर सुमित सरकार (रायटिंग सोशल हिस्ट्री) बिल्कुल ठीक लिखते हैं कि "…इस हकीकत से इंकार करना अनैतिहासिक होगा कि वाम नेतृत्व और वर्ग की लामबंदी की पड़ताल के मद्देनजर निम्न जातियों एवं दलित समूहों को महज आर्थिक लाभों के तौर पर नहीं बल्कि मानवीय गरिमा के संदर्भ में भी ठोस नतीजे देखने को मिले …मगर …वाम ने तमाम इलाकों में काफी कीमत चुकायी क्योंकि जाति को निम्नस्तरीय दावेदारी के रूप के तौर पर देखते हुए उसकी अहमियत को उन्होंने लंबे समय तक कम आंका।"
इतना ही नहीं भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के उद्गम से लगभग 75 साल से अधिक समय से सामाजिक क्रांतिकारियों ने संघर्ष एवं रचना का जो सिलसिला चलाया था – महात्मा फुले, सावित्रीबाई फुले से लेकर ज्योति थास, अछूतानंद, पेरियार, शाहू महाराज, आंबेडकर जैसी महान शख्सियतों की अगुआई में स्त्रियों, शूद्रों, अतिशूद्रों के लिए स्कूल कायम करने से लेकर विभिन्न किस्म के सत्याग्रहों की जो प्रक्रिया चली थी, उसकी अहमियत समझने में, उस धारा से जुडऩे में, उसके अनुभवों को अपने आंदोलन में समाहित कर उसे समृद्ध करने में भी उन्होंने रुचि नहीं दिखायी। इस धारा ने भारतीय समाज के बुनियादी रूपांतरण की दिशा में जो नई जमीन तोड़ी, जिन नए प्रयोगों को अंजाम दिया, फिलहाल इसके विवरण में जाना मुमकिन नहीं है – मगर संक्षेप में यह जरूर बताया जा सकता है कि यह वही धारा थी जिसने भारत में कामगार आंदोलन की नींव डालनेवाले लोखंडे जैसे अग्रणी को पैदा किया जिन्होंने 19 वीं सदी के उत्तराद्र्ध में बांबे मिलहैंड्स एसोसिएशन बनाकर मजदूरों के संगठनों की नींव डाली थी, यही वह धारा थी जिसने ताराबाई शिंदे जैसी 'पहली नारीवादी विचारक' (बकौल सुसी थरू) को जनम दिया जिनकी रचना 'स्त्री पुरुष तुलना' ने आज एक क्लासिक का रूप ग्रहण किया है, इसी धारा की निर्मिति थे डॉ. आंबेडकर के समकालीन उत्तर प्रदेश के अछूतानंद – जिन्होंने मनुवादी समाज द्वारा हेय समझे गए अछूत शब्द को सर के बल खड़ा किया और कहा कि अछूत वह है जो इतना दीप्तिमान है कि उसे कोई स्पर्श नहीं कर सकता। न वाम ने डॉ. आंबेडकर के साथ कोई स्थायी साझा मोर्चा बनाने की कोशिश की जिनकी अगुआई में अगस्त 1936 में 'स्वतंत्र मजूर पक्ष' अर्थात 'इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी' की स्थापना हुई थी या फिरवरी 1938 में ही मनमाड, महाराष्ट्र में जी आर पी रेलवे के दलित वर्ग कामगार सम्मेलन में डॉ. आंबेडकर अपना ऐतिहासिक भाषण पेश करते हुए भारतीय श्रमिक आंदोलन की दशा-दिशा के बारे में एक अलग परिप्रेक्ष्य रखा था और दलित कामगारों को उनके दो दुश्मनों 'ब्राह्मणवाद' और 'पूंजीवाद' के बारे में आगाह किया था।
ऐसा नहीं था कि वाम के अंदर ऐसी आवाजें नहीं थीं जिन्होंने इस परिघटना की विशिष्टता को समझने की कोशिश नहीं की, या जिन्होंने मार्क्सवादी नजरिये को जातिविरोधी कार्यक्रम के साथ जोडऩे की कोशिश नहीं की, मगर उनकी आवाज मद्धिम ही रही। फिर चाहे डॉ. भीमराव आंबेडकर का संतुलित आकलन करनेवाले महान दलित उपन्यासकार अण्णाभाउ साठे हों, जो कम्युनिस्ट पार्टी से अभिन्न रूप से जुड़े थे; तमिलनाडु से सिंगरावेलु हों, जिन्होंने जाति व्यवस्था की समाप्ति के लिए शुरुआत में पेरियार की अगुआईवाले आत्मसम्मान आंदोलन के साथ काम किया, और बाद में कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़े या पार्टी के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता कामरेड आर बी मोरे हों, जो डॉ. आंबेडकर के सहयोगी थे तथा, जिन्होंने महाड़ सत्याग्रह (1927) में आंबेडकर का साथ दिया था, उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो को 'अस्पृश्यता की समस्या और जातिप्रथा' चिट्ठी भेजी हो जिसमें उन्होंने साफ लिखा था:
'हमारे पांच करोड़ अस्पृश्य सर्वहाराओं की समस्या पार्टी के समक्ष खड़ी प्रमुख समस्या है। पार्टी ने कभी इस समस्या को मार्क्सवादी-लेनिनवादी नजरिये से सही तरीके से विश्लेषित नहीं किया और जिसका नतीजा यही हुआ है कि पार्टी को काफी नुकसान उठाना पड़ा …हम लोगों ने अस्पृश्यता की समस्या को अर्थवाद आधारित नजरिये से विश्लेषित किया है। …अस्पृश्यता की परिघटना को सामंती परिघटना कहते हुए विश्लेषित करना काफी नहीं है। हमें भारतीय सामंतवाद की अलग विशिष्टताओं का अध्ययन करना होगा और उन्हें विश्लेषित करना होगा। वर्णाश्रम व्यवस्था और जातिप्रथा भारतीय सामंतवाद की खास विशिष्टताएं हैं। दुनिया में कहीं भी उनको देखा जा सकता है …हम लोगों ने अभीभी वर्ण हिंदू सर्वहारा की पुरानी मध्ययुगीन वर्ण हिंदू चेतना के खिलाफ संघर्ष करने की आवश्यकता को पहचाना भी नहीं है। वर्ण हिंदू कामगार अभीभी यही सोचता है कि वह सबसे पहले मराठा या ब्राह्मण है और बाद में कामगार है। वर्ग चेतना की तुलना में जाति चेतना अधिक ताकतवर दिखती है। यह जाति चेतना वह बड़ी बाधा है जो हमारे मजदूर वर्ग में सर्वहारा की वर्ग चेतना के विकास को बाधित कर रही है। …अब जहां तक अस्पृश्यता के खिलाफ संघर्ष का सवाल है तो बाबासाहब आंबेडकर की भूमिका सबसे अधिक लड़ाकू और सबसे अधिक समझौताविहीन दिखती है। उन्होंने ही अकेले इस बात को रेखांकित किया कि अस्पृश्यता की जड़ में वर्णव्यवस्था और जाति प्रथा है, जिसे पूरी तरह जड़मूल से समाप्त करना होगा। उन्होंने बेहद निर्ममता के साथ सभी पुराने हिंदू धर्मग्रंथों पर हमला किया और इसमें कोई आश्चर्य नहीं जान पड़ता कि वह आज अस्पृश्यों के सबसे दमित तबकों के लिए एक किस्म के मसीहा हैं।
अगर हम आज के वाम आंदोलन को देखें तो यह स्पष्ट है कि चीजें उस मुकाम से आगे बढ़ गई हैं। जैसे-जैसे हम इक्कीसवीं सदी की दूसरी दहाई में पहुंचे हैं, हम कह सकते हैं कि समग्र परिस्थिति में आंशिक बदलाव हुआ है। अलग-अलग धाराओं से जुड़े कहे जा सकनेवाले वामपंथियों की जाति के प्रति और खासकर दलित मुक्ति के प्रति आकलन एवं समझदारी बेहतर हुई है और उन्होंने बेहद सृजनात्मक ढंग से उसे उठाने की कोशिश की है। इस मुद्दे को उठाने के लिए उन्होंने अपने कार्यक्रमों में भी अनुकूल बदलाव लाने की कोशिश की है, अलग मंच भी बनाए हैं, सत्याग्रहों, आंदोलनों का आयोजन किया है ताकि उत्पीडि़त जातियों के साथ भेदभाव खत्म हो, और अपनी सांगठनिक प्रणालियों में भी ऐसे बदलाव लाने की कोशिश की है ताकि वे अधिक समावेशी बनें। मगर इसके बावजूद हम कह सकते हैं कि यह एक बड़ी त्रासदी है कि यह दो आंदोलन – वाम और दलित आंदोलन – जो शोषित और उत्पीडि़त अवाम की मुक्ति के लिए काम करने का दावा करते हैं, आज की तारीख में अलग-अलग दिशाओं में बढ़ते प्रतीत होते हैं और आनंद तेलतुमड़े की बात से सहमत हुए बिना नहीं रहा जा सकता कि "दुनिया में कहीं भी सर्वहाराओं के आंदोलन इतने निराशाजनक ढंग से आपस में बंटे हुए नहीं दिखते, जितने वह भारत में नजर आते हैं।" जाहिर है इसका खामियाजा दोनों को भुगतना पड़ा है।
अगर हम दलित आंदोलन की बात करें तो यह बिखराव का शिकार हुआ है और राजनीतिक-सामाजिक दायरों में कोई चुनौती खड़ी करने की स्थिति में भी नहीं दिखता। आंदोलन की आंतरिक कमजोरी का परिचायक यह है कि दलितों का एक हिस्सा हिंदुत्व की जनद्रोही राजनीति के साथ समाहित होने में शामिल है। स्थूल रूप में कहें तो इसमें चार धाराओं को चिह्नित किया जा सकता है:
1. धर्मांतरण: अपने जीवन के अंतिम दौर में डॉ. आंबेडकर द्वारा किया गया बौद्ध धर्म का स्वीकार और उनका यह कथन कि वह समूचे भारत को बौद्ध बनाना चाहते हैं, इस धारा का केंद्रीय सरोकार है। 'स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व' पर आधारित समाज बनाने का जो सपना डॉ. आंबेडकर ने देखा था उसको एक तरह से अलग करके आंबेडकर के ये अनुयायी धर्मांतरण पर ही जोर देते हैं। विडंबना यही है कि बौद्ध धर्म जिसे आंबेडकर ने हिंदू धर्म के एक रेडिकल एवं आधुनिक विकल्प के तौर पर पेश किया था, उसका प्रगतिकामी तेवर भी यहां भोथरा हो चुका है और एक तरह से यहां बौद्ध धर्म के आचार-विचार हिंदू सांस्कृतिक नियमों से ही निर्धारित होते दिखते हैं।
2. सत्ताधारी जमात बनो: विदित है कि अपनी जिंदगी के उत्तरार्ध में डॉ. आंबेडकर ने हिंदुओं को प्रभावित करने, दलितों को नागरिक अधिकार प्रदान करने के लिए आंदोलनों के कार्यक्रम को स्थगित किया और राजनीतिक सत्ता हासिल करने पर जोर दिया। डॉ. आंबेडकर को जब हिंदुओं का मानस बदलने की कोशिशों की व्यर्थता समझ में आई, तब उन्होंने राजनीतिक सत्ता हासिल करने की बात कही। लेकिन जहां तक आंबेडकर के अनुयायियों का सवाल है उन्होंने इसे किसी भी तरह राजनीतिक फायदा हासिल करने के संदर्भ में देखा और उसके लिए हर किस्म के अवसरवादी गठबंधनों को कायम करने से भी परहेज नहीं करते।
3. व्यक्तिगत तरक्की का रास्ता: यह समझदारी 'आरक्षण' द्वारा प्रदत्त लाभों पर उपजी है, जिसका सारतत्त्व यही है कि अगर दलित व्यक्ति को लाभ पहुंचता है तो उसके परिवार को लाभ पहुंचता है और अगर तमाम परिवार लाभान्वित होते हैं तो यह समूचे समुदाय के मुक्ति को सुगम बनाता है।
4. न्यूनतम व्यवहारवाद: यह समझदारी इस व्यवहारिक अवधारणा पर टिकी है कि हिंदू समाज में कोई रैडिकल बदलाव मुमकिन नहीं है और इसलिए विचारधारात्मक मुद्दों पर ऊर्जा व्यर्थ करने के बजाय दलितों को चाहिए कि वह अपनी जिंदगी को जीनेलायक बनाने के लिए छोटे-छोटे लाभों पर ध्यान दें। यह परिप्रेक्ष्य अपने अस्तित्व के पहलुओं को मद्देनजर रखता है और बिना किसी विचारधारात्मक आकांक्षाओं के उन्हें संबोधित करता है।
यह अकारण नहीं कि दलित आंदोलन का एक बड़ा हिस्सा व्यवस्थापोषक, सत्तामुखी राजनीति का अंग बन गया है, जिससे हम यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह दलित मुक्ति की परियोजना को अपने मुकाम तक पहुंचाने में योगदान देगा। इस बात को देखते हुए मेहनतकशों के हक के लिए प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट जमातों ने इस मसले पर आत्ममंथन किया है और दलित मुक्ति की परियोजना की अहमियत को जाना है, कोईभी यह उम्मीद करेगा कि दलित आंदोलन की भविष्ययात्रा को बेहतर बनाने में उनका अहम योगदान रहेगा। अगर दलित आंदोलन का रैडिकल धड़ा, महिलाओं के आंदोलन के साथ या कम्युनिस्टों की ईमानदार, क्रांतिकारी धारा के साथ साझा मोर्चा बनाने के प्रति सचेत होता है, तो यह दलित मुक्ति को साकार करने में कारगर कदम होगा।
(सुभाष गताडे वरिष्ठ पत्रकार और एक्टिविस्ट हैं।)
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