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Tuesday, September 10, 2013

इसीलिए गुजरात के बाद अब मुजफ्फरनगर!

इसीलिए गुजरात के बाद अब मुजफ्फरनगर!


पलाश विश्वास


अस्सी और नब्वे के दशक में भारत में देशी अर्थव्यवस्था और कुटीर उद्योग के पूरे तंत्र को तहस नहस करने के लिए एकाधिकारवादी कारपोरेट राज को बहाल  करने के मकसद से धर्मोन्मादी राष्ट्रीयता के झंडेवरदारों ने दंगे भड़काये।


उत्तर भारत में नब्वे के दशक से जारी सामाजिक उथल पुथल और वंचितों की बढ़ती सत्ता में बागेदारी की वजह से आर्यावर्त की धरित्री बिहार और उत्तर प्रदेश के सत्ता समीकरण में क्रांतिकारी परिवर्तन हो जाने से बाबरी विध्वंस के बाद भड़के उन्माद के सिलसिले को विराम लग गया था।सत्ता समीकरण में दलितों,पिछड़ों और मुसलमानों की एकता बन जाने से विश्वविख्यात गाय पट्टी में धर्मोन्मादियों का चेहरा बुरी तरह बेनकाब हुआ और नये सिर से भाईचारा का माहौल कायम हुआ।


लेकिन अब उत्तरप्रदेश को भी गुजरात बना देने के प्रयोग बतौर मुजफ्फर नगर के दंगे बेहद चिंताजनक है।


1984 से लेकर उत्तर प्रदेश के दो बड़े अखबारों `दैनिक जागरण' और `दैनिक अमरउजाला' में काम करने की वजह से उस वक्त भड़काये गये दंगों का मैं चश्मदीद गवाह रहा हूं।


मेरठ में हाशिमपुरा और मलियाना नरसंहार हमारी आंकों के सामने हुए।दंगों के समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र और भूगोल पर आधारित है मेरे पहले कहानी संग्रह `अंडे सेते लोग' की कहानियां।


मेरठ दंगों की पृष्ठभूमि पर लिखे मेरे लघु उपन्यास `उनका मिशन' उद्योग और कारोबार में कारपोरेट घुसपैठ की प्रक्रिया का ब्यौरा हैं और विश्लेषण भी।


गौरतलब है कि मेरठ और उत्तर प्रदेश,देश के बाकी हिस्सों में शहरों को केंद्रित दंगों का असर ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत कम रहा है।


सिखों के खिलाफ निरंतर चलाये गये घृणा अभियान का असर हालांकि 1984 के सिख संहार के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में भी संक्रमित हुआ।


मजे की बात है कि तब आस पास हो रही हिंसा के बीच दंगों के लिए हमेसा मशहूर मेरठ में अमन चैन कायम था।


मुजफ्फर नगर भारत भर में सबसे ज्यादा राजस्व देने वाला कृषि जनपद है,जो किसान आंदोलनों की निरंतरता बनाये रखने का गढ़ रहा है।कृषि आधारित आजीविका के दम पर इतना संपन्न जनपद शायद भारत में दूसरा कोई नहीं है।


जैसे गुजरात दंगों में अनुसूचितों की भूमिका से धर्मोन्माद का सबसे खतरनाक चेहरा सामने आया, देशभर में सबसे दक्ष,सबसे संपन्न किसानों की इस भूमिपर आयोजित यह दंगा हमारे लिए चिंता का कारण होना चाहिए।


निरकुंश कारपोरेटराज के संदर्भ में सबसे चिंता का विषय।


भारतीयकृषि जीवी बहुसंख्य जनसमुदायों के महाविनाश के संदर्भ में उससे भी बड़ा अशनिसंकेत है यह।


बदलते हुए सत्ता समीकरण के संदर्भ में निहित स्वार्थों को बेनकाब करने का निर्मम कार्यभार है हमारे सामने।


भोगे हुए यथार्थ,वर्चस्ववादी इतिहास और अस्पृश्य भूगोल,अस्मिताओं की मरुआंधियों,सत्ता मे हिस्सेदारी की भूलभूलैय्या गलियों के पार है आदमजाद नंगा समाज वास्तव, जिसे निरंतर झुठलाने का मिथ्या अभियान सतत जारी।


गौरतलब है कि बंगाल के ढाका में 1901 में मुस्लिम लीग के गठन के बावजूद अखंड बंगाल में 1921 तक दंगों का कोई इतिहास नहीं है।


अविभक्त बंगाल,अखंड भारत में किसान आंदोलनों और जनविद्रोह में हिंदु मुसलमान और आदिवासी किसान साथ साथ औपनिवेशिक सत्ता और जमींदारी के खिलाफ लड़ते रहे हैं हजारों साल से।


सन्यासी विद्रोह कोई धार्मिक आंदोलन नहीं रहा है,यह हमने बार बार अंग्रेजी,बांग्ला और हिंदी में लगातार लिखा है।


लगातार आम सभाओं में कहा है।


देवी चौधरानी और भवानी ठाकुर के आत्मसमर्पण के बावजूद पूर्वी बंगाल में जनविद्रोह का नेतृत्व कर रहे मजनू शाह ने आत्मसमर्पण नहीं किया था।


बिहार से लोकर पूर्वी बंगाल और हिमालयी नेपाल में यह जनविद्रोह लंबे समय तक जारी रहा और उसकी निरंतरता संताल विद्रोह और मुंडा विद्रोह से लेकर पश्चिम भारत में भील विद्रोह और गोंडवाना में आदिवासी जनविद्रोह में अभिव्यक्त हुआ।


ये सारे जनविद्रोह भूमि सुधार और जल जंगल जमीन से बेदखली के खिलाफ किसान आंदोलन ही थे।


बंगाल में ही मतुआ आंदोलन कोई धार्मिक आंदोलन नहीं था।


हरिचांद ठाकुर और गुरुचांद ठाकुर ने कभी धार्मिक प्रवचन नहीं दिये।


हरिचांद ठाकुर न केवल नील विद्रोह के किसान नेता थे बल्कि भारत में औपचारिक तौर पर भूमि सुधार की मांग करने वाले पहले किसान नेता वे ही थे।हरिचांद ठाकुर।


हमारे विद्वान इतिहासकारों ने इस हकीकत को नजर अंदाज किया कि और भारत में इस्लामी राष्ट्रीयता व विशेषकर मुस्लीम लीग ही दंगों के लिए जिम्मेदर हैं तो बंगाल में ही 1901 में मुस्लीम लीग बन जाने के बावजूद बीस साल तक 1921 तक सांप्रदायिक दंगे क्यों नहीं हुए?


हम बार बार लिखते बोलते रहे हैं कि बंगाल 11वीं सदी तक बौद्धमय रहा।


पालवंश के पतन के बाद बंगाल में सेनवंश के राजकाज के दौरान वैदिकी कर्मकांड के लिए कन्नौज से ब्राह्मण आयातित हुए।


राजपूत या क्षत्रिय आज भी बंगाल में नहीं हैं।


पांच सौ साल पहले यानी पंद्रहवीं सदी में कवि जयदेव प्रेरित बाउल संस्कृति और सूफी संत परंपराओं के बीच महाप्रभु चैतन्य के आविर्भाव के बाद ही जयदेव की वैष्णव परंपारा के तहत विष्णु बंगाल में अवतरित हुए, जो वैदिकी कर्मकांड में यज्ञ के अधिष्टाता हैं।


बंगाल में पहला धर्मांतरण गौतम बुद्ध के अनुयायियों का हुआ और व्यापक पैमाने पर हुआ।


धर्मांतरित बौद्ध ही शूद्र बनाकर हिंदुत्व में समाहित हुए।


दूसरी ओर, तेरहवीं सदी में लक्ष्मण सेन के पराभव व पलायन के बाद मनुस्मृति अनुशासन से बचने के लिए बौद्धों ने इस्लाम अपनाया।


पूर्वी बंगाल के चटगांव में तो भारत विभाजन के बाद भी बौद्ध चकमा आदिवासी ही बहुसंख्य रहे हैं।


ऐतिहासिक व पारंपारित तौर पर बंगाल के सारे किसान आदिवासी, हिंदू और मुसलमान एक दूसरे के स्वजन बने रहे।


शासकों के विरुद्ध वे साथ साथ लड़ते रहे।


बंगाल में सत्ता में आयी कृषक प्रजा समाज पार्टी के फजलुल हक बंगाल के पहले निर्वाचित प्रधानमंत्री थे।


इस मंत्रिमंडल में शामिल ते हिंदू महासभा के नेता और भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी।


कृषक प्रजा समाज पार्टी का मुख्य एजंडा भूमि सुधार था।


बंगाल में अस्पृश्यता मोचन के आंदोलन चंडाल आंदोलन और मतुआ आंदोलन का भी प्रमुख एजंडा भूमि सुधार रहा है।


इसी वजह से बंगाल में 1901 में मुस्लिम लीग के गठन के बीस लाल बाद तक कोई सांप्रदायिक तनाव नहीं था।


कृषक प्रजा समाज पार्टी और खासकर फजलुल हक के भूमि सुधार में एजंडा में फेल हो जाने के बाद ही बंगाल के मुसलमानों ने धार्मिक कारण से नहीं, बल्कि कृषि व्यवस्था के अर्थशास्त्र के मुताबिक मुस्लिम लीग का समर्थन किया क्योंकि जमीन के मालिक जमींदार या तो कायस्थ थे या ब्राह्मण, जो स्वदेशी आंदोलन के तहत जमींदारी के हित साध रहे थे या सीधे हिंदुत्व राजनीति को हवा दे रहे थे।


जमींदारी और सवर्ण वर्चस्व की वजह से ही बंगाल और भारत के विभाजन से पहले तक बंगाल में मुस्लिम दलित आदिवासी एकता की हजारों सालों की परंपरा रही है।


जिसे खंडित करने के लिए जमींदारों ने ही दुर्गा पूजा का आयोजन किया वरना बंगाल में वैदिकी देवमंडल के बजाय आम जनता की ओर से अनार्य देव शिव और अनार्यदेवी काली की ही पूजा होती रही है।


गौड़ के शासक शैव यानी शिव उपासक थे।


इसका मतलब यह नहीं होता कि सम्राट शंशांक हिंदू ही थे।


काली चंडी नहीं हैं और न शिव रुद्र।


यह तेरहवीं सदी के बाद ही हुआ कि सतीपीठ की कथा गढ़कर तमाम अनार्यदेव देवियों को वैदिक देव देवियों में समाहित कर दिया गया।


बंगाल में कृषि जीवी आम जनता आज की तरह दुर्गा पूजा का आयोजन नहीं करती थी।


यहांतक कि बंकिम के `आनंदमठ' और विशेषतौर पर `वंदेमातरम' में वंदित भारत माता दुर्गा नहीं, बल्कि मुर्शिदाबाद के लाल गोला की श्रृंखलित काली मूर्ति है,जो आज भी मौजूद हैं।


वहां विद्रोही कवि काजी नजरुल इस्लाम और ऋषि अरविंद दोनों ने साधना की है।


दुर्गा का अवतार किसी मिथकीय महिषासुर मर्दन के लिए नहीं,बल्कि बंगाल में हजारों साल से चली आ रही आदिवासी,दलित और मुसलमान और पिछड़े किसानों की एकता खंडित करने का जमींदारी कर्मकांड है,जो सही मायने में भारत में सांप्रदायिक राजनीति का गर्भनाल है।


ब्राह्मण मोर्चा प्रचारित सांप्रदायिक सद्बाव का उत्सव नहीं यह, जघन्य एकाधिकारवादी जाति वर्चस्व की स्थाई सांप्रदायिकता और बहुसंख्यकृषिजीवी असुर जनगण के वध को सांस्कृतिक वैधता देने का मस्तिष्क नियंत्रण सर्जिकल आपरेशन है यह।


बंगाल में दलित मुस्लिम आदिवासी एकता को तोड़कर जमींदार के वर्चस्व व एकाधिकार को कायम रखने के लिए जमींदारों ने ही दुर्गोत्सव का आयोजन किया और उसे आधुनिककाल में मिथकीयरुप दिया।


हिंदुत्व का भारतीय कृषिजीवी समाज के विरुद्ध यह अमोघ रामवाण साबित हुआ।


बंगाल  से लेकर पूर्वी भारत के कृषिजीवी समाज असुर संस्कृति से हैं।झारकंड में अब भी असुर हैं तो बंगाल में भी।


दुर्गापूजा के आयोजन के जरिये बंगाल और भारत की कृषिजीवी जनता को अपने ही वध का उत्सव मनाने के लिए मजबूर कर दिया गया है।


बंगाल में भूमि सुधार की मांग लेकर मतुआ आंदोलन की परंपरा दो सौ साल से अबाध जारी है।


वीरसा मुंडा ने किसान विद्रोह को संगठिक करने के लिए जिसतरह खुद को भगवान बताकर शासकों के भगवान को खारिज करते रहे हैं,मतुआ आंदोलन को हरिचांद ठाकुर ने मतुआ धर्म कहा ब्राह्मण धर्म और पुरोहिती कर्मकांड को सिरे से खारिज करने के लिए,लेकिन उन्होंने और उनके पुत्र ने कभी कोई धार्मिक प्रवचन नहीं दिया और न वे राजनीति में कभी शामिल हुए,जैसे खंडित भारत में उनके वंशज राजनीति में शामिल होकर अपने अनुयायियों के राजनीतिक इस्तेमाल व दलित मुस्लिम एकता को खंडित करने का काम कर रहे हैं।


मतुआ आंदोलन कुल मिलाकर महात्मा फूले की तरह ही कृषि जीवी भारतीय जनपद समाज का संयुक्त मोर्चा रहा है और इसी समाज के जागरण और सशक्तिकरण का मिशन भी,जाति अस्मिता का आंदोलन कभी नहीं।कभी नहीं।बंगाल में राजवंशी,नमोशूद्र और पौंड्र की अगुवाई में दलितों का महापेडरेशन डा.अंबेडकर के सिड्युल्टकास्ट फेडरेशन से पहले सक्रिय रहा है,जसिमे तमाम दलित पिछड़ी कृषक जातियां,आदिवासी और मुसलमान शामिल रहे।भारत विभाजन के जरिये नमोशू्द्र और पौंड्र की बहुसंख्यआबादी बंगाल के इतिहास भूगोल से बाहर कर दी गयी तो बंगाल में रह गये नमोशूद्र पौंड्र और राजवंशी समुदायों में वैमनस्य पर्स्थापित कर दिया गया।उनके दिलो दिमाग में बारत विभाजन के दौरान हुई हिंसा की पृष्ठभूमि में स्थाई मुसलमान घृणा के बीज डाल दिये गये।आदिवासी भूगोल को भारतभर में खंडित कर दिया गया।


हमारे इतिहासकार भारत विबाजन के संदर्भ में बंगाल,पंजाब और कश्मीर के विभाजन की चर्चा करते हैं। सिंधु घाटी की सभ्यता और विरासत के खंडन का विवेचन हरगिज हरगिज नहीं। राजस्थान,गुजरात,बंगाल ,बिहार,आंध्र,महाराष्ट्र,मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़, उड़ीसा,हिमालय और पूर्वोत्तर में आदिवासी भूगोल के सतत विखंडन,विस्थापन, दमन और उत्पीड़न की नहीं है कोई चर्चा कहीं। कहीं भी नहीं।



इस पर भी कतई ध्यान नहीं दिया गया कि बंगाल में कृषक प्रजा समाज पार्टी और किसान नेता फजलुल हक के फेल हो जाने के बाद ही हिंदुत्व व मुस्लिम लीग की राजनीति के आधार पर भारत का दो राष्ट्र के सिद्धांत के आधार पर ध्रुवीकरण और विभाजन संभव  हुआ।


गौरतलब है कि  जब बंगाल विभाजन और जनसंख्या स्थानांतरण की हिंसा में जल रहा था तब भी आरोपित राजनीतिक सीमा के इसपार उसपार दोनों तरफ तेभागा आंदोलन में आदिवासी ,मुसलमान,दलित और पिछड़े किसान कंधे से कंधा मिलाकर जमींदारों जोतदारों के खिलाफ लड़ रहे थे।


भारतीय किसानों की इसी एकता को खंडित करने के लिए ही सांप्रदायिकता का अचूक हथियार का प्रयोग किया शासक जमींदार श्रेणी ने।


बंगाल के जनपद साहित्य के किंवदंती पल्ली कवि जसीमुद्दीन के दोनों काव्यों `नक्शी कांथार माठ' और `सोजन बादियार घाट' में इस साजिश को परत दर परत बेनकाब किया गया।


भारतीय जनपदों,भारतीय बहुजनों के कृषिसमाज के हितों के विपरीत बंकिम के हिंदुत्व राष्ट्रवाद को तो विद्वतजनों ने क्लासिक बताकर सर्व भारतीयप्रचार के जरिये धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की जड़ें मजबूत कर दीं,लेकिन बंगाल से बाहर न `नक्शी कांथार माठ' और न `सोजन बादियार घाट' की कोई चर्चा हुई।जबकि बाकी दुनिया में यूरोप और बाकी विश्व में इन दोनों किताबों को क्लासिक साहित्य ही माना जाता है।


मुझे मुजफ्फर नगर में `नक्शी कांतार माठ' और `सोजन बादियार घाट' दोनों दिख रहे हैं।


भारत विभाजन के बाद भी भारतीय किसानों और कृषिजीवी जनपदों में कृषिसमाज की एकात्मकता बंगाल के खाद्य आंदोलन में, तेलगांना महाविद्रोह, श्रीकाकुलम गण अभ्युत्थान, ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह से लेकर सीधे भूमि सुधार की मांग लेकर शुरु नक्सलबाड़ी जनविद्रोह और अब भी जारी जल जंगल जमीन की लड़ाई में निरंतर अभिव्यक्त होती रही है,जिसके मूल में प्राकृतिक संसाधनों पर जनता के हक हकूक का मसला है और भूमि सुधार की मांग है।


जैसे अस्सी और नव्बे के दशक में हुए दंगो में भारतीय उत्पादन प्रणाली और उत्पादन संबंधों को खत्म कर दिया गया,मुजफ्फरनगर का दंगा भारतीय कृषि समाज के फिर संगठित होने की संभावना के खिलाफ कारपोरेट साम्राज्यवाद और धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के संयुक्त जायनवादी मोर्चा से दागा गया गाइडेड मिसाइल है।पैट्रियट प्रक्षेपास्त्र।


भारत विभाजन की राजनीति ने न सिर्फ वर्चस्ववादी एकाधिकारी कारपोरेट सत्ता का निर्माण किया है बल्कि इसने हमेशा के लिए भारतीय कृषि समाज की बुनियादी इकाइयों को अस्मिता और क्षेत्र वाद की राजनीति में निष्णात कर दिया है।


इसी राजनीति के तहत भारत में दलित आदिवासी मुस्लिम कृषिजीवी बहुजन समाज के मसीहा महाप्राण जोगेंद्रनाथ मंडल सबसे बड़े खलनायक बना दिये गये हैं,जिन्होंने सारी बंद खिड़कियों और बंद दरवाजों को तोड़ते हुए इस कृषि समाज की एकता की नींव से न सिर्फ बाबासाहेब डा. अंबेडकर को बंगाल से संविदान सभा में निर्वाचित कराया बल्कि भारतीय संविधान का रचयिता बनाकर पांचवीं छठीं अनुसूचियों के संवैधानिक रक्षा कवच के अलावा भारतीय जनता को मौलिक अधिकारों से भी लैस किया।


यह धर्मांध भारत के विरुद्ध धर्म निरपेक्ष भारत की निर्णायक जीत थी।


इस धर्मनरपेक्ष भारत की बुनियाद को तहस नहस करने के लिए ही भारत के सबसे संपन्न कृषि जनपद को सुनियोजित तरीके से सांप्रदायिक हिंसा का बलि बनाया गया है।


गौरतलब है कि बंगाल के कृषि जीवी दलित और पिछड़े और आदिवासी अब बाकी देश की तरह अपनी हजारों साल की साझा विरासत के खिलाफ एक दूसरे के विरुद्ध अलगाव में खपती मरती जमाते हैं और बंगाल में अखंड ब्राह्मण मोर्चे का राज है वाम मोर्चे के अवसान के बाद भी।


बंगाल के हिंदु किसान संघियों की इतिहास दृष्टि से ही जनसंख्या स्थानांतरण के उस महाविपर्यय का मूल्यांकन करने को अभ्यस्त हैं और किसी भी कीमत पर बंगाल में दलित पिछड़ा मुसलमान एकता के विकल्प के निर्माण के जरिये ब्राह्मणवादी सत्ता का अंत करने को तैयार नहीं है।


वैदिकी संस्कृति की गाय पट्टी में बंगाल के अतीत के पुनरुत्थान से जो धर्मनिरपेक्ष अब्राह्मण सामजिक कृषि संरचना तैयार होने लगी थी,उसे समूल नष्ट करने का आंदोलन धर्मस्थल आंदोलन है,जिसकी कोख में गुजरात प्रयोग बीच उदारीकरण कारपोरेटराज संभव हुआ।


धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद और कारपोरेट राज में चोली दामन का संबंध है।


अकारण पूरी कारपोरेट दुनिया नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए आर्थिक संकट नहीं रच रही है।


भारतीय कृषिजीवी समाज और अर्थव्यवस्था के विध्वंस और कृषिजीवी जनसमूहों के नरसंहार अश्वमेध की पूर्णाहुति से ही भारत को कारपोरेट साम्राज्यवाद का स्थाई उपनिवेश और आर्थिक सुधारों का अनंत वधस्थल बनाना संभव हैं।


इसीलिए गुजरात के बाद अब मुजफ्फरनगर!





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