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जरा अपने घर में भी झांक कर देख लें घर वापसी कराने वाले
Posted by: हस्तक्षेप 2014/12/20 in आपकी नज़र Leave a comment
मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी है, जो कि शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक) का लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य असमान बंटवारे से उत्पन्न होती रही है। यही वह समस्या है जिसके खात्मे के लिए गौतम बुद्ध, मज्दक, सवोनरोला, विलियम गाड्विन, सेंट साइमन,वाल्टेयर, रॉबर्ट ओवन, मार्क्स, माओ, लेनिन, आंबेडकर इत्यादि जैसे ढेरों महामानवों का उदय हुआ। इनके प्रयत्नों से मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या से पार पाने की दिशा में ठोस काम हुए, बावजूद इसके कमोबेश इसकी व्याप्ति दुनिया में सारी जगह है। किन्तु इस मामले में भारत जैसी बदतर स्थिति विश्व के अन्य किसी देश में नहीं है। दुनिया के किसी भी देश में हजारों साल के परम्परागत रूप से विशेषाधिकारयुक्त व सुविधासंपन्न अल्पजन लोगों का शक्ति के स्रोतों पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा नहीं है। इस सुविधासंपन्न वर्ग द्वारा खड़ी की गयी विषमता की खाई के कारण देश गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा, विच्छिन्न्तावाद, आतंकवाद के दलदल में बुरी तरह फँस गया है। विषमता की यह स्थिति पूर्ववर्ती सरकारों की गलत नीतियों का परिणाम है, जिन्होंने शक्ति के स्रोतों के वाजिब बंटवारे की दिशा में सम्यक कदम नहीं उठाया। ऐसे में जब अच्छे दिन आने का सपना दिखा कर भारी बहुमत के साथ भाजपा की सरकार सत्ता में आयी तब इस पार्टी के ख़राब रिकार्ड के बावजूद अंततः इस लेखक को उम्मीद थी कि राष्ट्र-भक्ति का सब समय उच्च उद्घोष करने वाली यह पार्टी इस बार विषमता के खात्मे की दिशा में कुछ ठोस कदम उठाएगी तथा विभाजनकारी भावनात्मक मुद्दों से दूर रहेगी, जिसके लिए यह देश-विदेश में बदनाम है। किन्तु हुआ उल्टा। विषमता का मुद्दा पता नहीं कहाँ खो गया और अभूतपूर्व रूप से उभरकर आ गया वह विभाजनकारी मुद्दा जिसे तुंग पर पहुंचाने की इस पार्टी और इसके सहयोगी संगठनों को महारत हासिल है।
आज इस पार्टी के सहयोगी संगठनों के सौजन्य से सारे आवश्यक मुद्दे पृष्ठ में चले गए हैं, मुख्य मुद्दा बन गया है धर्मान्तरण जिसे 'घर वापसी' का नाम दिया जा रहा है। यही आज सड़क से लेकर संसद और बौद्धिक बहसों का प्रधान मुद्दा बन गया है। अभी तक घर वापसी के निशाने पर कुछ खास जिले ही थे, किन्तु अब भाजपा के मातृ संगठन संघ के एक अनुषांगिक संगठन की ओर से 2021 तक भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की खुली घोषणा कर दी गयी है। इसके नेता ने खुलकर कह दिया है कि 2021 तक मुस्लिम और ईसाईयों को हिन्दू बना लिया जायेगा। बहरहाल संघ के तीन दर्जन अनुषांगिक संगठनों की गतिविधियों से यह स्पष्ट है कि यह आर्थिक और सामाजिक विषमता को पूर्ववत रखना चाहता है। ऐसा इसलिए कि जिन विशेषाधिकार युक्त व सुविधासंपन्न अल्पजनों का शक्ति के समस्त स्रोतों पर प्रायः एकाधिकार है, यह संगठन उन्हीं के हित का पोषण करने के उद्देश्य से बना है। ऐसे में अल्पजनों के प्रभुत्व को अटूट रखने लिए यह वंचितों की उर्जा विषमता के खात्मे की बजाय अन्य दिशा में मोड़ना चाहता है। इसलिए ही वह जज्बाती मुद्दे को तूल दे रहा है। बहरहाल आज की तारीख में जब सुविधाभोगी वर्ग के हित में वंचितों की उर्जा घर वापसी में लगाने की दिशा में संघ के आनुषांगिक संगठन सुपरिकल्पित रूप से आगे बढ़ रहे हैं, यह लेखक उनसे अपने घर में झांकने की गुजारिश कर रहा है। क्या जिस घर में वर्षों पूर्व घर छोड़े लोगों की वापसी करने की कवायद हो रही है,उसमें पहले से रह रहे लोग संतुष्ट हैं? मेरा प्रश्न है क्या कुछ विशिष्ट किस्म के ब्राह्मणों को छोड़कर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण से कई सहस्रों मानव प्रजातियों में बंटे हिन्दू स्त्री-पुरुषों, जिनमे रंचमात्र भी आत्मसम्मान और विवेक है, को हिन्दू धर्म में रहना चाहिए?
याद करें भूमिहार, उपाध्याय, आचार्य, महापात्र, दुबे, तिवारी, चौबे वगैरह की नम्बुदरीपाद, वाजपेयी, मिश्र इत्यादि ब्राह्मणों के समक्ष सामाजिक मर्यादा। क्या इनकी तुलनात्मक सामाजिक मर्यादा हिन्दू धर्म से मुक्त होने के लिए प्रेरित नहीं करती? इसी तरह हिन्दू समाज में सिंहों की भांति विचरण करने वाले क्षत्रियों से हिन्दू धर्म यह कहता है कि सत्तर वर्ष के क्षत्रिय को चाहिए कि वह दस वर्ष के ब्राह्मण बालक को पिता जैसा मानते हुए प्रणाम करे, और बड़ी-बड़ी मूंछे फहराए क्षत्रिय ऐसा करते भी हैं। क्या यह शास्त्रादेश क्षत्रियों को हिन्दू-धर्म से मोहमुक्त होने के लिए प्रेरित नहीं करता ? और हिन्दू धर्म में वैश्य मात्र वित्तवान होने के अधिकार से समृद्ध हैं, पर ब्राह्मण और क्षत्रियों के समक्ष उनकी हीनतर स्थिति क्या हिन्दू धर्म के परित्याग का आधार नहीं बनाती? आत्मसम्मान के अतिरिक्त हिन्दू-धर्म अर्थात वर्ण-धर्म के मात्र आंशिक अनुपालन से उपजी विवेकदंश की समस्या तो इनके साथ है ही, पर आत्मसम्मान और विवेक विसर्जित कर भी सवर्णों के हिन्दू धर्म में रहने की कुछ हद तक युक्ति है क्योंकि इसके विनिमय में उन्हें हजारों साल से शक्ति के स्रोतों में पर्याप्त हिस्सेदारी मिली है। पर, आत्मसम्मान व विवेक से समृद्ध सवर्ण नारियां व शुद्रातिशुद्रों से कैसे कोई प्रत्याशा कर सकता है कि वे हिन्दू धर्म में बने रहेंगे?
जिन्हें हिन्दू माना जाता है उनका हिंदुत्व वर्ण-धर्म के पालन पर निर्भर है। और वर्ण-धर्म के पालन का अर्थ है कि सच्चा हिन्दू वर्ण और कर्म-संकरता से दूर रहेगा। वर्ण-संकरता से बचने का मतलब एक सच्चे हिन्दू को जाति सम्मिश्रण की सम्भावना को निर्मूल करते जाना होगा। वहीँ कर्म-संकरता से बचने का एकमेव मार्ग प्रत्येक जाति/वर्ण के हिन्दू को जन्मसूत्र से निर्दिष्ट कर्म/पेशे में ही लगा रहना होगा। अर्थात चमार व दुसाध जैसे चर्मकारी व सुअर पालन छोड़कर अध्यापक, पुजारी सैनिक इत्यादि नहीं बन सकते, उसी तरह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य क्रमशः हलवाही, कुलीगिरी, धोबीगिरी इत्यादि जैसा सेवा कर्म नहीं कर सकते। लेकिन किसी भी समाज को वर्ण व कर्म संकरता से बचाए रखना असंभव कार्य लगता है क्योंकि यह मानवीय इच्छा की पूर्णतया हत्या किये बिने संभव ही नहीं है। वैसे दुनिया में हिन्दू समाज को छोड़कर अन्य समाजों ने इसकी जरुरत ही महसूस नहीं की। लेकिन भारत में असंभव सा काम ब्रिटिशराज स्थापित होने के पूर्व तक ब्राह्मणों के शास्त्रों और क्षत्रियों शस्त्रों के सम्मिलित प्रयास से सफलता पूर्वक अंजाम दिया गया। हिन्दू समाज को वर्ण व कर्म-संकरता से बचाए रखने में सवर्ण नारियों और शुद्रातिशुद्रों को जिस तरह इस्तेमाल होना पड़ा है, वह अपने आप में एक इतनी गहरी तिक्त अभिज्ञता है जो इनके आत्मसम्मान को गहराई से ललकारते हुए हिन्दू-धर्म से भागने की विकत आवाज लगाती है।
हिन्दू- धर्म स्त्रियों को किस रूप में देखता है इस तथ्य से गाँव की अनपढ़ चमारिन, दुसाधीन, अहिरिन वगैरह तो अनजान हो सकती हैं, किन्तु इंदिरा गाँधी, किरण बेदी, ऐश्वर्या राय बनने की आकांक्षी शहरी पढ़-लिखी महिलाएं तो जानती ही हैं कि हिन्दू-धर्म नारियों को जिस रूप में देखता है उससे कोई भी स्वाधीन नारी एक पल भी इसमें नहीं रहना चाहेगी। वैसे तो आमतौर पर सभी नारियों को ही कुटिल, मिथ्याभाषिणी, रूप और उम्र का विचार किये बिना सदैव परपुरुष के सम्भोग की आकांक्षी इत्यादि बताते हुए हिन्दू-धर्म उन्हें सदा पुरुष की छाया में रखने की हिदायत देकर नीच साबित करता रहता है। किन्तु वर्ण-संकरता से समाज को बचाए रखने के लिए सती-विधवा-बालिका विवाह और बहु-पत्निवादी-प्रथा के माध्यम से उच्च-वर्ण (ब्राह्मण-क्षत्रिय) नारियों का जीवन जिस तरह नारकीय बनाया गया है, वह किसी भी सभ्य व सुशिक्षित नारी को हिन्दू-धर्म परित्याग की घोषणा करने के लिए प्रेरित करेगा। पर भारत की सभ्य व सुशिक्षित माने जाने वाली नारियां, जो मुख्यतः सवर्ण समुदाय से हैं, अभी भी पराधीन हैं और पति की दासी के रूप में जीवन का उपभोग करने की अभ्यस्त हैं, इसीलिए हिन्दू-धर्म में बनी हुई हैं. लेकिन इन्होने भी अब खुद को दलित कहना शुरू कर दिया है। जिस दिन इनमें आंबेडकरवाद से दीक्षित दलितों का अहसास आ जायेगा उस दिन….
जहां तक अहसास का सवाल है सवर्ण नारियों की तरह सछूत- शूद्र (ओबीसी) भी इससे मीलों दूर हैं। एक मशहूर एक्टिविस्ट के मुताबिक, 'विदेशों में जिन्हें स्लेव (दास) कहते हैं, हिन्दू धर्म में वही शूद्र हैं। जिस दिन शूद्रों के अपने शुद्र्त्व का अहसास हो जायेगा उस दिन भारत में सामाजिक क्रांति हो जाएगी।' शूद्र चूंकि आत्मसम्मान और दासत्व के अहसास से शून्य हैं इसलिए ही ये अभी भी हिन्दू धर्म में बने हुए हैं। पर क्या एक मिनट के लिए भी इनके हिन्दू धर्म में रहने की युक्ति है? आजहिन्दू आरक्षण-व्यवस्था (वर्ण-व्यवस्था) के विकल्प के रूप में विकसित अम्बेडकरी आरक्षण व्यवस्था के सहारे कई हजार सालों से शक्ति के स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत शुद्रातिशूद्र (दलित –पिछड़े) शासक-प्रशासक, अध्यापक, डाक्टर, इंजीनियर, व्यवसायी इत्यादि बनकर बेहतर जीवन जीने की ओर अग्रसर हैं। ऐसे लोग यदि उपलब्धि कर लें कि हिन्दू-धर्म के कारण ही हजारों सालों से उनके पुरुखों को शक्ति के स्रोतों से पूरी तरह वंचित होकर सवर्णों की मुफ्त सेवा में लगा रहना पड़ा तो क्या उनका आत्मसम्मान एक पल भी हिन्दू-धर्म में बने रहने की इजाजत देगा?
आज आंबेडकरवाद से दीक्षित जिन लोगों में आत्मसम्मान व विवेक जाग्रत हो गया है,वे हिन्दू धर्म का परित्याग कर रहे हैं.अफ़सोस यही है कि ऐसा सिर्फ शिक्षित दलितों में ही हो पाया है, सवर्ण नारियों और शूद्रों में जाग्रत होना बाकी है। पर क्या इनका इनका आत्मसम्मान व विवेक सदा सुप्त ही रहेगा? नहीं संघ के लोग यह जान गए हैं कि देर- सवेर उनका भी आत्मसम्मान व विवेक जाग्रत होगा, फिर हिन्दू-धर्म तो वे हिन्दू धर्म को वीरान कर देंगे। इस अप्रिय भविष्य को ध्यान में रखकर ही सवर्णवादी संघ के आनुषांगिक संगठन मुस्तैद हो गए हैं। उनके घर वापसी अभियान का मुख्य लक्ष्य यह है कि धर्मान्तरण के मुद्दे को गरमा कर किसी तरह थोक भाव से होने वाले धर्मान्तरण पर रोक लगाने का कानून बनवा लिया जाय। बिना ऐसा किये वे अपने घर में रह रहे लोगों को घर छोड़ने से रोक नहीं पाएंगे।
O- एच. एल. दुसाध
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