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Sunday, December 7, 2014

दलित उत्पीड़न बढ़ा है और अल्पसंख्यकों का जीना हराम हो गया है इस व्यवस्था में : प्रो. आनंद तेलतुमड़े

दलित उत्पीड़न बढ़ा है और अल्पसंख्यकों का जीना हराम हो गया है इस व्यवस्था में : प्रो. आनंद तेलतुमड़े




इस देश के शासवर्ग का चरित्र जनता के साथ धोखाधड़ी का है : प्रो. आनंद तेलतुमड़े

छठे पटना फिल्मोत्सव प्रतिरोध का सिनेमा की शुरुआत 


पटना: 5 दिसंबर 2014

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'बोल की लब आजाद हैं तेरे' इस आह्वान के साथ कालीदास रंगालय में छठे पटना फिल्मोत्सव प्रतिरोध का सिनेमा उद्घाटन हुआ। यह त्रिदिवसीय फिल्मोत्सव प्रसिद्ध चित्रकार जैनुल आबेदीन, कवि नवारुण भट्टाचार्य, गायिका बेगम अख्तर, अदाकारा जोहरा सहगल और कथाकार मधुकर सिंह की स्मृति को समर्पित है। 

फिल्मोत्सव का उद्घाटन महाराष्ट्र से पटना आए चर्चित राजनीतिक विश्लेषक, लेखक और सोशल एक्टिविस्ट प्रो. आनंद तेलतुमड़े ने किया। आनंद तेलतुमड़े ने कहा कि आज विकास का मतलब आदिवासियों, दलितों को उनकी जमीन से उखाड़ देना और कामगारों के अधिकारों को खत्म करना हो गया है। जो भी शासकवर्ग के इस विकास माॅडल का विरोध करता है या जो उत्पीडि़त जनता की बात करता है, उसे नक्सलवादी घोषित कर दिया जाता है। आज दलित महिलाओ पर बलात्कार की संख्या दुगुनी हो गई है। साल भर मे करीब चालीस हजार दलित उत्पीड़न की घटनाएं इस देश में होती हैं। महाराष्ट्र में एक दलित परिवार को टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया, बिहार में दलितों की हत्या करने वालों की हाईकोर्ट से रिहाई हो गई। और जो अल्पसंख्यक हैं, उनका तो इस देश में जीना हराम हो गया है। दिल्ली में चर्च जला दिया गया। इशरत जहां और उनके साथियों की फर्जी मुठभेड़ में हत्या हो या मालेगांव में हिंदूत्ववादियों द्वारा मुसलमानों का वेष धारण करके की गई कार्रवाई, ये मुसलमानों को आतंकवादी बताने की साजिश का नमूना है। उन्होंने कहा कि इसमें आरएसएस-बीजेपी की तो भूमिका है ही, कांग्रेस भी कम दोषी नहीं है, बल्कि भाजपा के उत्थान के लिए कांग्रेस ही जिम्मेवार है। 

प्रो. तेलतुमड़े ने कहा कि शुरू से ही इस देश के शासकवर्ग का चरित्र बेहद खतरनाक था। औपनिवेशिक शासकों ने जिनको सत्ता सौंपी, उनका इतिहास जनता के साथ धोखाधड़ी का इतिहास है। उभरते हुए पूँजीपति वर्ग न केवल संविधान निर्माण के दौरान धोखाधड़ी की, बल्कि नेहरू ने पंचवर्षीय योजना और समाजवाद का नाम लेकर पूँजीपतियों के हित में ही काम किया। सन् 1944 में देश के आठ पूंजीपतियों ने निवेश के लिए जो एक पंद्रह वर्षीय योजना बनाई थी, पंचवर्षीय योजना का प्रारूप वहीं से लिया गया था, वह सोवियत रूस की नकल नहीं था। देश में जो भूमि सुधार हुए, उसका मकसद भी भूमिहीन मेहनतकश किसानों के बीच जमीन को वितरित करना नहीं था, बल्कि उसका मकसद अमीर किसानों को पैदा करना था। 

अस्सी और नब्बे के दशक में नवउदारवादी भूमंडलीकरण की नीतियों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि इसने समाज से व्यक्ति को अलहदा करके छोड़ दिया है। इसने खुद का स्वार्थ देखने और बाकी सबकुछ को बेमानी समझने के फलसफे को बढ़ावा दिया है। इसने जनता के प्रतिरोधी ताकत के प्रति आस्था को कमजोर किया है। हालांकि आज भी जनता में प्रतिरोध की भावनाएं जिंदा हैं। बेशक शासकवर्ग के प्रोपगैंडा को काउंटर करने लायक संसाधन प्रतिरोधी संस्कृतिकर्म में लगे लोगों के पास नहीं है, पर भी बहुत सारे लोग हैं, जिनकी इकट्ठी संख्या बहुत हो सकती है। ये अगर और रचनात्मक तरीके से जनता तक पहुंचे तो आज के माहौल को बदला जा सकता है। 

उन्होंने रामायण और महाभारत सीरियल का हवाला देते हुए कहा कि इनसे भी हिंदुत्व का असर बढ़ा। दिन-रात टीवी और मुख्यधारा के सिनेमा के जरिए जनता के बीच प्रचारित आत्मकेंद्रित और सांप्रदायिक जीवन मूल्यों की चर्चा करते हुए प्रो. तेलतुमड़े ने कहा कि जो आॅडियो-विजुअल माध्यम है, वह काफी पावरफुल माध्यम है, उसके जरिए ज्यादा से ज्यादा लोगों तक जाना होगा। प्रतिरोध का सिनेमा साल में एक ही दिन नहीं, बल्कि प्रतिदिन लोगों को दिखाना होगा। 

माइकल मूर की फिल्म 'फॉरेनहाईट 9/11' की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि उसे देखने के लिए उन्हें लाइन में लगकर टिकट लेना पड़ा. पूरी फिल्म में दर्शकों का जबरदस्त रिस्पॉन्स देखने को मिला. उन्होंने बताया कि माइकल मूर का कहना है कि इस तरह की फिल्म को डाक्यूमेंट्री फिल्म कहना बंद होना चाहिए. वे चाहते हैं कि फिल्म से दर्शक अवसाद लेकर जाने के बजाए आक्रोश लेकर जाए. प्रो. तेलतुमड़े ने कहा कि हमें सामान्य दस्तावेजीकरण से आगे बढ़ना होगा. दर्शकों को आकर्षित करने के लिए रचनात्मक बातें इन फिल्मों में डालनी होगी. उन्होंने महान फ़िल्मकार गोदार के हवाले से कहा- don't make political film, make film politically.

प्रो. तेलतुमड़े ने क्रांतिकारी कवि गोरख पांडेय को लाल सलाम करते हुए उनके और जन संस्कृति मंच के साथ अपने पुराने जुड़ाव को याद किया। उन्होंने कहा कि पिछले चालीस वर्षों से उनका प्रतिरोधी जनांदोलनों से गहरा संबंध रहा है। 

उद्घाटन सत्र में डाॅ. सत्यजीत ने आयोजन समिति की ओर से स्वागत वक्तव्य दिया। मंच पर कवि आलोक धन्वा, डा. मीरा मिश्रा, प्रीति सिन्हा, कवयित्री प्रतिभा, रंग निर्देशक कुणाल, पत्रकार मणिकांत ठाकुर, कथाकार अशोक, प्रो. भारती एस कुमार, पत्रकार अग्निपुष्प, निवेदिता झा, दयाशंकर राय, अवधेश प्रीत, कवि अरुण शाद्वल, कथाकार अशोक, प्रतिरोध के सिनेमा के राष्ट्रीय संयोजक संजय जोशी आदि मौजूद थे। संचालन संतोष झा ने किया। 
इस सत्र में डा. मीरा मिश्रा ने फिल्मोत्सव की स्मारिका का लोकार्पण किया. स्मारिका में बेगम अख्तर, जोहरा सहगल, जैनुल आबेदीन, नबारुण भट्टाचार्य और मधुकर सिंह पर स्मृति लेख हैं. 'तकनालाजी के नए दौर में सिनेमा देखने-दिखाने के नए तरीके और उनके मायने' नामक संजय जोशी का एक महत्वपूर्ण लेख भी इसमें है. 'फंड्री' और 'आँखों देखी' फिल्मों पर अतुल और मिहिर पंड्या को दो लेख भी इसको संग्रहणीय बनाते हैं.


राष्ट्र में दलितों की दशा को दर्शाया 'फंड्री' ने

'फंड्री' के साथ उठा छठे प्रतिरोध का सिनेमा पटना फिल्म फेस्टिवल का पर्दा 

'फंड्री' महाराष्ट्र के एक दलित समुदाय 'कैकाडी' द्वारा बोले जाने वाली बोली का शब्द है जिसका अर्थ सूअर होता है। फिल्म एक दलित लड़के जामवंत उर्फ जब्या (सोमनाथ अवघडे) की कहानी है जो किशोरवय का है और अपनी कक्षा में पढ़ने वाली एक उच्च जाति की लड़की शालू (राजेश्वरी खरात) से प्यार कर बैठा है। लेकिन यह प्रेम कहानी वाली फिल्म नहीं है, बल्कि इस फिल्म के गहरे सामाजिक-राजनीतिक निहितार्थ हैं। पृष्ठभूमि में दिख रही स्कूल की दीवारों पर बनी अम्बेडकर और सावित्रीबाई फुले की तस्वीरें हो या कक्षा में अंतिम पंक्ति में बैठने को मजबूर दलित बच्चे, अपने घर की दीवार पर 'शुभ विवाह' लिख रहा जब्या का परिवार हो या फिर स्कूल में डफली बजा रहा जब्या या फिर एक अन्य दृश्य जहाँ जब्या का परिवार सूअर उठाकर ले जाता रहता है, तब भी पृष्ठभूमि में दीवार पर दलित आन्दोलनों से जुड़े सभी अगुआ नेताओं की तस्वीरें नजर आती हैं। 

इस फिल्म में एक अविस्मरणीय दुश्य है। जब्या स्कूल जाने की जगह गाँव के सवर्णों के आदेश पर अपने परिवार के साथ सूअर पकड़ रहा होता है. तभी अचानक स्कूल में राष्ट्र-गान बजना शुरू हो जाता है। राष्ट्र-गान सुनकर पहले जब्या स्थिर खड़ा हो जाता है और फिर उसका पूरा परिवार। इस दृश्य के गहरे राजनीतिक अर्थ हैं कि कैसे हमारा शासक वर्ग राष्ट्रीय प्रतीकों और एक कल्पित राष्ट्र के सिद्धांत के बल पर देश के वंचित तबकों को बेवकूफ बनाकर रखे हुए है।

फंड्री सच्चे अर्थों में एक नव-यथार्थवादी फिल्म है जहाँ एक दलित फिल्मकार नागराज मंजुले ने बिना भव्य-नकली सेटों की मदद के असली लोकेशन पर फिल्म शूट की है। फिल्म में जब्या के बाप का किरदार कर रहे किशोर कदम को छोड़कर लगभग सभी किरदार नए हैं। सोमनाथ कोई मंजा हुआ अभिनेता नहीं है बल्कि महाराष्ट्र के एक गांव का दलित लड़का है जो अभी कक्षा 9 में पढ़़़ रहा है वहीं उसके दोस्त पिरया का किरदार कर रहा सूरज पवार सातवीं कक्षा का छात्र है। फिल्म मराठी में है लेकिन कई जगह दलित कैकाडी समुदाय की मराठी बोली का भी प्रयोग किया है। अभी तक मराठी फिल्म निर्माण में सवर्णों का ही दबदबा रहा है. कुछ लोग व्यंग्य से कह रहे हैं कि फंड्री और इसकी भाषा ने मराठी फिल्मों की 'शुद्धता' को 'अपवित्र' कर दिया है। 

फिल्म में सोमनाथ सहित दूसरे सभी किरदारों का अभिनय बहुत ही स्वाभाविक रहा है। फिल्म में जब्या और उसका दोस्त पिरया अभिनय करते नहीं बल्कि अपनी रोजमर्रा की जिंदगी जीते दिखते हैं। फिल्म में सोमनाथ ने डफली बजायी है और उसे वाकई डफली बजाना आता भी है। दरअसल फिल्मकार की मुलाकात सोमनाथ से भी तब ही हुई थी जब वह अपने गाँव के एक कार्यक्रम में डफली बजा रहा था। फंड्री में कैमरा और साउंड का काम भी बेहतरीन रहा है। नागराज मंजुले का कहना कि जब तक अलग-अलग समुदाय, खासकर वंचित समुदाय के लोगों को फिल्म इंडस्ट्री में जगह नहीं मिलेगी तब तक हमारा सिनेमा हमारे समाज का सही मायने में प्रतिनिधित्व नहीं कर पाएगा। पिछले कुछ सालों में आए हिंदी के कथित प्रयोगधर्मी फिल्में फंड्री के आगे पानी भरते दिखती हैं। फंड्री सच्चे अर्थों में लोगों का सिनेमा है जिसकी हमारे समय में बहुत जरूरत है।


जैनुल आबेदीन की जन्म शताब्दी पर 'अकाल की कला और भूख की राजनीति' शीर्षक चित्र-प्रदर्शनी लगाई गई। 

कविता पोस्टर और किताबों और सीडी का स्टाॅल भी परिसर में मौजूद है

फिल्मोत्सव के मुख्य अतिथि आनंद तेलतुमड़े ने चित्रकार जैनुल आबेदीन की जन्म शताब्दी के अवसर पर आयोजित 'अकाल की कला और भूख की राजनीति' शीर्षक से उनके चित्रों की प्रदर्शनी का उद्घाटन किया। जैनुल आबेदीन का जन्म 9 दिसंबर 1914 को मैमन सिंह, जो अब बांग्ला देश में है, के किशोरगंज गांव में हुआ था। शासकवर्गीय कला आम लोगों की जिंदगी के जिस यथार्थ से मुंह फेर लेती है, उस यथार्थ को दर्शाने वाले चित्रकारों में चित्तो प्रसाद, कमरुल हसन, सोमनाथ होड़, रामकिंकर बैज, सादेकैन जैसे चित्रकारों की कतार में जैनुल आबेदीन भी शामिल थे। जैनुल आबेदीन ने बंगाल के अकाल पर चित्र बनाए थे। उनके ये चित्र अकाल की अमानवीय हकीकत से हमारा सामना कराते हैं, और यह भी दिखाते हैं कि यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि मानव निर्मित 'राजनीतिक' अकाल है। उनके इन चित्रों में ड्राइंगरूम में लटकाने वाली सुदंरता नहीं मिलती, बल्कि सहस्राब्दियों में जो सभ्यता मनुष्यों ने बनाई है, उसकी सारी कुरूपताएं इनमें से झांकती हैं। किसी ने आबेदीन से पूछा कि उन्होंने अकाल को ही क्यों चित्रित किया, बाढ़ को क्यों नहीं? तो उनका जवाब था कि बाढ़ एक प्राकृतिक विपत्ति है, जबकि अकाल मानवनिर्मित है। उनका स्पष्ट तौर पर कहना था कि 'कलाकार का असली काम मनुष्य के द्वारा मनुष्य के खिलाफ रचे जा रहे षड्यंत्र को उजागर करना है।' यह और बात है कि हाल के वर्षों में हम मनुष्य द्वारा निर्मित बाढ़ से भी परिचित हो चुके हैं। 

जैनुल आबेदीन की चित्र प्रदर्शनी के अलावा फिल्मोत्सव के हाॅल के बाहर कविता पोस्टर भी प्रदर्शित किए गए हैं। कालीदास रंगालय का परिसर भी कलात्मक तौर पर सजाया गया है। परिसर में किताबों और सीडी का स्टाॅल भी लगाया गया है। 

कवि नवारुण भट्टाचार्य के जीवन और कविता पर फिल्म का प्रदर्शन हुआ 
आज फिल्मोत्सव का आकर्षण क्रांतिकारी कवि नवारुण भट्टाचार्य के जीवन और कविता पर पावेल द्वारा निर्देशित फिल्म 'ए मृत्युउपत्यका जार देश ना' भी थी। यह इस फिल्म का भारतीय प्रीमियर था। इस फिल्म से पहले प्रेस कांफ्रंेस को संबोधित करते हुए पावेल ने कहा कि नवारुण से उनका ताल्लुक छात्र जीवन से ही हो गया था। नंदीग्राम और सिंगूर में जो जनता का आंदोलन था, उसके साथ नवारुण ने उन्हें जोड़ा। उन्होंने यह भी बताया कि उन्होंने नवारुण के अंतिम कविता संग्रह 'बुलेटप्रूफ कविता' का डिजाइन और प्रकाशन किया। उन्होंने कहा कि नवारुण को उनके पिता ने कहा था कि लेखक बनना पर पैसे के लिए मत लिखना। आज जो कारपोरेट पूंजी 200 फिल्में बना रही हैं, उसकी तुलना में 20 फिल्में भी अगर वैकल्पिक या प्रतिरोधी फिल्मकारों की ओर से बनाई जाई तो उनका मुकाबला किया जा सकता है। पावेल ने कहा कि नवारुण का धनी प्रकाशकों से हमेशा टकराव रहा, उन्होंने पद-प्रतिष्ठा को भी ठुकराया, लेकिन उनकी किताबें इतनी पढ़ी जाती थी कि एक दौर में आनंद बाजार पत्रिका अखबार उनके उद्धरण छापने लगा था, क्योंकि वे उसे अपनी रचनाएं नहीं देते थे। पावेल ने कहा कि जो वैकल्पिक सिनेमा है वही भविष्य का सिनेमा है। जो क्षेत्रीय सिनेमा है, वह भी घाटे में जा रहा है, क्योंकि वह मुंबइया फिल्मों का वल्गर संस्करण होकर रह गया है। 

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