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Tuesday, May 12, 2015

अवास्तविक आंबेडकर का विखंडन आनंद तेलतुंबड़े अनुवाद: रेयाज उल हक

अवास्तविक आंबेडकर का विखंडन

Posted by Reyaz-ul-haque on 5/12/2015 02:11:00 PM


आनंद तेलतुंबड़े
अनुवाद:
 रेयाज उल हक

 
अगर मूर्तियां, यादगार निशानियां, तस्वीरें और पोस्टर, गीत और गाथाएं, किताबें और पर्चे या फिर याद में होने वाले जलसों का आकार किसी की महानता को मापने के पैमाने होते, तो शायद इतिहास में ऐसा कोई नहीं मिले जो बाबासाहेब आंबेडकर की बराबरी कर सके. उनके स्मारकों की फेहरिश्त में नई से नई जगहें और रोज-ब-रोज नए आयोजन जुड़ते जा रहे हैं, जहां हर गुजरते साल के साथ ज्यादा जलसे आयोजित किए जा रहे हैं. ये एक ऐसी परिघटना बन गए हैं कि कुछ वक्त बाद लोगों के लिए यह यकीन करना मुश्किल होगा कि ऐसा एक इंसान कभी धरती पर चला भी था, जिसे बिल्लियों और कुत्तों तक के लिए खुले पानी के सार्वजनिक स्रोत से पानी पीने के लिए संघर्ष करना पड़ा था. यहां तक कि स्वर्ग के देवताओं तक को उनसे जलन होगी, बशर्ते कि उनका वजूद हो. इस चमत्कार के पीछे क्या बात हो सकती है? इसमें कोई शक नहीं है कि वे दलितों के मसीहा रहे हैं, शुरू में उनके एक तबके के लिए और अब ज्यादातर के लिए. बाबासाहेब ने अकेले और एक सोच के साथ जो किया, उसे देखते हुए उनके लिए बाबासाहेब का आभारी रहना एक कुदरती बात है. यह बात सच तो है, लेकिन यह सोचना पूरी तरह बचकानापन होगा कि इसकी अकेली और पूरी की पूरी वजह सिर्फ यही है. शासक वर्ग द्वारा आंबेडकर की एक छवि को गढ़ने और उसको बढ़ावा देने में निभाई गई उत्प्रेरक भूमिका महत्वपूर्ण और परस्पर मजबूत करनेवाली रही है. 

संघ परिवार ने हाल में आंबेडकर को जिस तरह से हथियाने की मंशाएं जाहिर की हैं, वे इतनी खुली हैं कि दलित को उनके भीतर की चाल को समझने में देर नहीं लगेगी. 

एक प्रतीक की रचना

राजनीतिक हिंदू की नुमाइंदगी करने वाली कांग्रेस आंबेडकर की मुख्य विरोधी थी. याद कीजिए किस तरह 1932 में गोलमेज सम्मेलन के दौरान दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र हासिल करने की आंबेडकर की कोशिश का गांधी ने तीखा विरोध किया था और आखिर में उन्हें ब्लैकमेल करते हुए पूना समझौते पर दस्तखत कराए थे और इस तरह दलितों के एक आजाद राजनीतिक अस्तित्व की गुंजाइशों को जड़ से खत्म कर दिया था. सत्ता के हस्तांतरण के बाद, कांग्रेस ने पक्षपात करते हुए इसको सुनिश्चित किया कि आंबेडकर संविधान सभा में दाखिल न होने पाएं. जल्दी ही, उसने पाला बदला. लोग इसको समझाते हुए चाहे जो बातें करते रहे हों, यह गांधी की रणनीतिक महारत थी कि उन्होंने आंबेडकर को संविधान सभा में चुना जाना मुमकिन बनाया, जब उनके पास इसमें दाखिल होने का कोई रास्ता नहीं बचा था और फिर उन्हें इसकी मसौदा समिति का अध्यक्ष बनाया. हालांकि इसके बदले में आंबेडकर ने एक सधे राजनीतिज्ञ की तरह व्यवहार करते हुए संविधान में दलितों के लिए कुछ सुरक्षात्मक उपाय हासिल किए, लेकिन यह नई नई बनी नजदीकी लंबे समय तक नहीं चल सकी. आंबेडकर को हिंदू कोड बिल के ऊपर पीछे हटने के मुद्दे पर नेहरू की कैबिनेट से इस्तीफा देना पड़ा. बाद में, आंबेडकर ने संविधान को यह कहते हुए नकार तक दिया कि उन्हें नौकर (हैक) की तरह इस्तेमाल किया गया था कि यह (संविधान) किसी के लिए भी किसी काम का नहीं है और इसको जलाने वाला मैं पहला इंसान हूंगा. उन्होंने कांग्रेस को 'दहकता हुआ घर' कहा था जिसमें दलितों के लिए खतरा ही खतरा है. लेकिन यह अनगिनत 'आंबेडकरियों' को 'आंबेडकरवाद' की सेवा करने के लिए उसमें शामिल होने से नहीं रोक पाया.

कांग्रेस ने भूमि सुधारों और हरित क्रांति जैसी अच्छे नाम वाली नीतियों के जरिए देहाती इलाकों में सबसे बड़ी आबादी वाली शूद्र जातियों में से धनी किसानों के एक वर्ग को अलग निकाल लिया. जबकि यह वर्ग ज्यादातर कांग्रेस का सहयोगी बना रहा, इसकी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी विकसित हुईं, जिससे क्षेत्रीय दल उभरे और धीरे धीरे उन्होंने स्थानीय और राज्य के सत्ता के आधारों पर कब्जा कर लिया. चुनावी राजनीति में होड़ पैदा हुई, जिससे जातियों और समुदायों के रूप में वोट ब्लॉकों को अहमियत मिलने लगी. जातियों और समुदायों को क्रमश: सामाजिक न्याय और धार्मिक सुधारों के नाम पर संविधान में ही बड़ी महारत के साथ बचा कर रखा गया था. यही वह मुकाम था, जहां से शासक दलों द्वारा आंबेडकर को अपने भीतर समोने की सोची-समझी कोशिश शुरू हुई. बेशक, इसकी शुरुआत कांग्रेस ने की. आंबेडकर के मुख्य सरोकारों को अंधेरे में डाल दिया गया और उन्हें व्यवस्थित तरीके से एक राष्ट्रवादी, कुछ-कुछ कांग्रेसी, एक राजनेता और संविधान के निर्माता की छवि में ढाल दिया गया. इस प्रचार ने एक ही तीर से अनेक निशाने साधे: इसने आंबेडकरी जनता को जीत लिया, मौकापरस्त दलित नेताओं की कांग्रेस में शामिल होने की दौड़ को तेज किया, दलित आंदोलन को पहचान की राजनीति की में भटका दिया और धीरे-धीरे आंबेडकर को उनके उग्र सुधारवाद से वंचित (डी-रैडिकलाइज) कर दिया. धीरे-धीरे, दूसरे दल भी अपने आंबेडकर की छवियों को पेश करने की होड़ में शामिल हो गए.

आंबेडकर का भगवाकरण

हिंदू श्रेष्ठतावादी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने सार्वजनिक दायरे के मुख्य क्षेत्रों के लिए ( जैसे कि राजनीतिक क्षेत्र के लिए जन संघ, धार्मिक क्षेत्र के लिए विहिप आदि) संगठन गठित कर संघ परिवार बनाया और मुख्य सामाजिक श्रेणियों को अपना लक्ष्य बनाते हुए (जैसे कि महिलाओं के लिए राष्ट्रीय सेविका संघ, छात्रों के लिए एबीवीपी, मजदूरों के लिए बीएमएस, आदिवासियों के लिए वीकेए) अपनी विचारधारा को फैलाने के लिए अगली पीढ़ी के ऐसे संगठनों की भी शुरुआत की, जो रणनीतिगत और उभर रहे मुद्दों से निबट सकें. सामाजिक समरसता मंच दलितों को अपने पक्ष में लुभा कर ले आने के लिए बना था. आरएसएस 1925 में बना था, उन्हीं दिनों जब दलित और कम्युनिस्ट आंदोलन पैदा हुए थे, और यह शुरू में अपनी खयाली दुनिया की हिंदू बहुसंख्या पर आधारित था, लेकिन यह 1977 तक कोई सामाजिक या राजनीतिक छाप छोड़ने में नाकाम रहा, जब उसके कांग्रेस विरोधी लहर पर सवार होकर 94 सांसद जीते थे. शुरू में आंबेडकर की हिंदू धर्म विरोधी बातों से नाराज संघ परिवार उनसे सख्ती से नफरत करता रहा और ज्यादातर उन दलितों पर ही भरोसा करता था, जिन्हें बाद में बाल ठाकरे ने गैर-आंबेडकरी दलित घोषित किया. हालांकि राजनीतिक सत्ता का मांस मुंह लग जाने के बात इसे यह महसूस हुआ कि यह आंबेडकर की अनदेखी नहीं कर सकता जो एक अखिल भारतीय दलित प्रतीक के रूप में विकसित हो चुके थे. इसने आंबेडकर के लेखन और भाषणों में से यहां वहां से कुछ (बिखरी हुई) पंक्तियां उठाईं, फिर उन्हें उनके संदर्भों से काटकर और अपने गोएबलीय सफेद झूठ में मिलाकर आंबेडकर का भगवाकरण करने की रणनीति बनाई. आंबेडकर पर भगवा गिरोह का पहला हमला दो ऐसे लोगों की तुलना करना था, जिनकी आपस में तुलना ही नहीं हो सकती: हेडगेवार के साथ आंबेडकर को बिठाकर उन्हें 'दो डॉक्टर' कहना, हालांकि हेडगेवार और आंबेडकर में कोई तुलना ही नहीं हो सकती थी, क्योंकि हेडगेवार मात्र एक लाइसेंसधारी मेडिकल डॉक्टर थे, यह एक डिप्लोमा है जो मैट्रिक के बाद मिल जाता है, जबकि आंबेडकर ने दुनिया के एक जानेमाने संस्थान से दो डॉक्टरल डिग्रियां हासिल की थीं. उनके बीच कौन सी समान बात हो सकती थी?

हालांकि आंबेडकर के व्यवहारवाद के कारण अनगिनत असंगतियां रह गई थीं लेकिन कोई भी उनके जीवन के केंद्रीय मुद्दे को देखने से चूक नहीं सकता जो कि उन्हीं के शब्दों में एक ऐसे समाज में दाखिल होना था, जो 'आजादी, बराबरी और भाईचारे' पर आधारित हो. उन्होंने इन तीनों की एक साथ एक ही जगह पर मौजूदगी पर जोर दिया. उन्होंने जातियों के जड़ से खात्मे और समाजवाद (वर्गों के जड़ से खात्मे) को इसकी बुनियादी शर्त के रूप में देखा; उन्होंने जनवाद को इसे बनाने वाली ताकत और बौद्ध धर्म को इसकी नैतिकताएं तय करने वाली ताकत माना. आरएसएस दुनिया को जिस तरह देखता है, वह इसमें से हरेक बात का ठीक उल्टा है. भगवा आंबेडकर एक राष्ट्रवादी है; सच्चे आंबेडकर ने भारत को एक राष्ट्र मानने से इन्कार किया था, और खास तौर से यह चेताया था कि 'हिंदू राष्ट्र' तबाही लाने वाला होगा. आरएसएस का आंबेडकर एक महान हिंदू है, बावजूद इसके कि आंबेडकर ने यह शपथ ली थी कि वे एक हिंदू के रूप में नहीं मरेंगे. आरएसएस उस बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म के एक संप्रदाय के रूप में पेश करता है, जिसे आंबेडकर ने हिंदू धर्म को नकारने के बाद अपनाया था. इस तरह आरएसएस बौद्ध धर्म के उस पूरे इतिहास को परे धकेल देता है कि यह हिंदू धर्म के खिलाफ श्रमणों के विद्रोह का प्रतीक है और हिंदू धर्म की खूनी प्रतिक्रांति ने बौद्ध धर्म को इसकी जन्मभूमि से मिटा दिया था. यह कहा जाना कि आंबेडकर संस्कृत को राष्ट्रीय भाषा, एक भगवा झंडे को राष्ट्रीय झंडा बनाना चाहते थे और यह कि उन्होंने अच्छे कामों के लिए आरएसएस की तारीफ की थी और वे 'घर वापसी' के पक्ष में थे, ऐसे बयान आंबेडकर को विहिप के बंदरों जैसा बौना बनाने की कोशिश करते हैं और वे इस लायक भी नहीं हैं कि उन पर टिप्पणी की जा सके. वे यह कहते रहे हैं कि आंबेडकर मुसलमानों के खिलाफ हैं, इसके लिए वे उनकी किताब थॉट्स ऑन पाकिस्तान में से यहां वहां से वाक्यों को उठा कर पेश करते हैं. यह किताब वाद-विवाद शैली में लिखी गई थी, आंबेडकर हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों के वकील का बाना पहने हुए हैं. जब तक कोई इसे मेहनत से नहीं पढ़ता, वह उनकी कई दलीलों को उनकी अपनी राय मानने की गलती कर सकता है. मैंने इस 2003 में लिखी गई अपनी किताब आंबेडकर ऑन मुस्लिम्स: मिथ्स एंड फैक्ट्स में झूठ की धज्जियां उड़ाने की कोशिश की है. उनकी उदारवादी शख्सियत और ऐसे दीगर हवालों की भरमार को देखते हुए, जिनमें वे मुसलमान समुदाय की इस हद तक तारीफ करते हैं कि इस्लाम, धर्मांतरण के लिए उनके पसंदीदा धर्म के रूप में दिखता है (मुक्ति कोण पथे, 1936), उन्हें एक तुच्छ विचारों वाले मुस्लिम विरोधी इंसान के रंग में नहीं रंगा जा सकता. आरएसएस के लिए यह समझ लेना बेहतर होगा कि वह सस्ते तरीके से किसी दलित पिट्ठू को अपने मंच पर भले परोस ले जाए, लेकिन यह आंबेडकर को एक मामूली सांप्रदायिक के रूप में दिखाने में कभी कामयाब नहीं हो पाएगा.

नवउदारवादी मजबूरियां

भारत के चुनावी बाजार में राजनीतिक निर्माताओं द्वारा तैयार किए गए और एक दूसरे से होड़ लगाते आंबेडकर के प्रतीक, सच्चे आंबेडकर पर छा गए हैं और उन्होंने दलितों की मुक्ति के एक संभावित हथियार को बरबाद कर दिया है. हालांकि ये प्रतीक अलग अलग रंगों के हैं, लेकिन उन सबने आंबेडकर को नवउदारवादी रंग में रंगा हुआ है. आंबेडकर के इस प्रतीक ने राज्य के शुभंकर के रूप में गांधी को करीब-करीब बेदखल ही कर दिया है, जो 1947 से 1980 के दशकों तक कारगर रहा था. गांधी, नीतियों के प्रबंधन में, जन निरोधी रणनीतिगत इरादों को छुपाने में, इसकी कल्याणकारी लफ्फाजी और इसकी वृद्धि की हिंदू दर के दौर के अनुकूल थे. इसकी चमक-दमक खत्म होने लगी, जब पैदा हुए पूंजीवादी संकट ने शासकों को नवउदारवादी सुधारों को अपनाने पर मजबूर किया. उग्र विकास, आधुनिकता, खुली होड़, मुक्त बाजार आदि की लफ्फाजियों ने एक नए प्रतीक की जरूरत पैदा की, जो लोगों को भरोसा दिला सके, खास तौर से निचले तबके को जिनको इससे सबसे ज्यादा नुकसान होने वाला था, यह उम्मीद पैदा कर सके कि मुक्त बाजार के विचार के तहत 'गरीब भी अमीर' बन सकते हैं. किसी और में नहीं, बल्कि आंबेडकर में ये सारी खूबियां थीं. यह वैसी ही रणनीतिक जरूरत थी, जैसी गांधी को अभी अभी पैदा हुए एक बीमार भारत के लिए संविधान तैयार करने के वक्त महसूस हुई थी. नवउदारवाद के सामाजिक डार्विनवादी तौर-तरीकों के सुर, श्रेष्ठतावादी आरएसएस की विचारधारा से खास तौर पर मिलते रहे हैं, जिसने भाजपा को राजनीतिक सत्ता सौंपी है.

 जहां सभी दलों के लिए दलितों को रिझाने के लिए आंबेडकर के प्रतीक की जरूरत है, आरएसएस को सबसे ज्यादा है. इसीलिए नब्बे के दशक से भाजपा आरक्षित सीटों पर कांग्रेस से ज्यादा जीतती आई है. नवउदारवादी शासन को बुरी तरह से, दलितों के बीच से गाथा गानेवालों की जरूरत है और वे उन्हें मिल गए हैं. एक खासे प्रभावशाली दलित मध्यम वर्ग ने, जिनका नेतृत्व उनके कुछ नायक कर कर रहे हैं, शुरुआती दिनों में जबरदस्ती दलितों को यह समझाने की कोशिश की कि कैसे नवउदारवाद उनके लिए फायदेमंद होगा, कैसे आंबेडकर एक नवउदारवादी थे और कैसे दलितों ने इन नीतियों के तहत कमाल की तरक्की की है और दलित बुर्जुआ की एक 'क्रांति' शुरू की है. उन्हें भाजपा से एक खास नजदीकी मिलती है और वे कभी कभी इसके मंचों पर पाए जाते हैं. इसीलिए ज्यादातर दलित नेता आज भाजपा के पाले में हैं (देखें मेरा तीन दलित राम बने भाजपा के हनुमानहाशिया, 06.04.2014). इस साल कमाल की महारत के साथ भाजपा ने लंदन में एक नुकसान रहित घर को 44 करोड़ में महज इसलिए खरीदा क्योंकि आंबेडकर उसके अनेक अपार्टमेंटों में से एक में छात्र के बतौर रहे थे; इसने मुंबई में भव्य आंबेडकर स्मारक के लिए इंदु मिल की जमीन के मुद्दे को निबटाया और दिल्ली में उतने ही भव्य आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर की योजना बनाई है.

यह सब दलितों में जहर भर रहा है, जिनमें से 90 फीसदी वहीं हैं, जहां वे पिछली सदी की शुरुआत में थे या शायद उससे भी बदतर क्योंकि उनके पास तब उम्मीदें थीं और आज उनके पास कोई उम्मीद नहीं है. वे यह नहीं समझेंगे कि आंबेडकर का 'समता', 'समरसता' नहीं है या आंबेडकर का दुनिया को देखने का नजरिया नवउदारवादी सामाजिक डार्विनवाद नहीं है, जो असल में उनकी हत्या करने ही निकला है. वे यह भी नहीं समझेंगे कि आंबेडकर स्मारक पर कुछ सौ करोड़ रुपए तो 5 लाख करोड़ की उस रकम की तुलना में कुछ भी नहीं है, जिसे सरकार ने पिछले महज एक दशक में बजट में, उनके हिस्से से चुराया है.

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