Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti basu is DEAD

Jyoti Basu: The pragmatist

Dr.B.R. Ambedkar

Memories of Another Day

Memories of Another Day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Monday, September 11, 2017

रवींद्र का दलित विमर्श-21 बौद्ध,वैष्णव,बाउल फकीर सूफी आंदोलन की जमीन ही रवींद्र की रचनाधर्मिता और यही लालन फकीर का उन पर सबसे गहरा असर। গীতাঞ্জলির গীতধারায় লালনের দর্শনের বা লালন কালামের পরিশীলিত রচনার ধারাবাহিকতা। कादंबरी की आत्महत्या ने रवींद्र को स्त्री अस्मिता का सबसे बड़ा प्रवक्ता बनाया और क्रूर जमींदार सामंत के पुत्र रवींद्र किसानों, मेहनतकशों, शूद्रों, अछूतों, आदिवास�

रवींद्र का दलित विमर्श-21

बौद्ध,वैष्णव,बाउल फकीर सूफी आंदोलन की जमीन ही रवींद्र की रचनाधर्मिता और यही लालन फकीर का उन पर सबसे गहरा असर।

গীতাঞ্জলির গীতধারায় লালনের দর্শনের বা লালন কালামের পরিশীলিত রচনার ধারাবাহিকতা।

कादंबरी की आत्महत्या ने रवींद्र को स्त्री अस्मिता का सबसे बड़ा प्रवक्ता बनाया और क्रूर जमींदार सामंत के पुत्र रवींद्र किसानों, मेहनतकशों, शूद्रों, अछूतों, आदिवासियों, मुसलमानों  के हकहकूक के हक में खड़े हो गये।

नरसंहार संस्कृति का धर्म और राष्ट्रवाद दोनों कृषि और किसानों के खिलाफ,बोलियों,भाषाओं और संस्कृतियों की साझा विरासत के खिलाफ है।

बदनाम हिंदी पट्टी की तुलना में दूसरे गैरहिंदी प्रदेशों में धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का तांडव,सामाजिक बदलाव की जमीन गायपट्टी में ही प्रतिरोध निरंकुश फासीवाद का प्रतिरोध संभव है।

मुक्बाजार में धर्म भी एक अंतहीन पाखंड है जो जाति, वर्ण ,नस्ल के आधार पर वर्ग वर्ण वर्चस्व सुनिश्चित करता है और इसीलिए कारपोरेट एकाधिकार के मुक्तबाजार में धर्मोन्माद का यह नंगा कत्लेआम कार्निवाल है,जिसे राष्ट्रवाद कहा जा रहा है।

यह आस्था का नहीं,राजनीति का मामला है,सत्ता समीकरण का मामला है।यही जनसंहार संस्कृति का जायनी तंत्र है तो मनुस्मृति विधान भी।

दूध घी की नदियां इसीलिए अब खून की नदियों में तब्दील हैं।


पलाश विश्वास

पांच अक्तूबर को मैं नई दिल्ली रवाना हो रहा हूं और वहां से गांव बसंतीपुर पहुंचना है।आगे क्या होगा,कह नहीं सकते।कोलकाता में बने रहना मुश्किल हो गया है और कोलकाता छोड़ना उससे मुश्किल तो गांव लौटना शायद सबसे ज्यादा मुश्किल। मैंने जिंदगी से लिखने पढ़ने की आजादी के सिवाय कुछ नहीं मांगा और गांव के घर से अलग कहीं और घर बसाने की नहीं सोची।इसलिए आगे लिखना हो सकेगा कि नहीं,कह नहीं सकते।होगा तो भी एक बड़ा अंतराल चाहिए फिर दोबारा खड़े होने के लिए।किखने पढ़ने का नया ठिकाना जुगाड़ना सबसे जरुरी है।वैसे भी जनता के हकहकूक के हम में खड़े होकर लिखने पढ़ने की आजादी अब खतरे में हैं तो लिख पढ़कर गुजारा करने के मौके नहीं के बराबर है।बाजार से जुड़ना हमारी सेहत के मुताबिक नहीं है और बिना बाजार से जुड़े जिंदा रहने की भी आजादी नहीं है।

इसलिए रवींद्र दलित विमर्श लगातार जारी रखने की मजबूरी है।

हिंदी के पाठकों को कितना पहुंच पा रहा है यह विमर्श,हम नहीं जानते।लेकिन हिंदी वालों को खुशी होगी कि बांग्लादेश में हस्तक्षेप पर हिंदी में जारी यह रवींद्र मविमर्स बांग्लादेश में खूब पढ़ा और शेयर किया जा रहा है।

कोई अंतराल की गुंजाइश नहीं है।जितना समेट सकते हैं,समेटने की कोशिश करेंगे।पाठकों को इस बमबारी से तकलीफ हो रही होगी,हम समझते हैं।लेकिन यह तय है कि कुछ समय की बात है और फिर हमारे मोर्चे पर लंबा सन्नाटा होना है।तब तक झेलते रहें।

लालन फकीर और रवींद्र की चर्चा के मध्य हमने किसान आंदोलनों पर चर्चा की है क्योंकि साहित्य और संस्कृति का मूल आधार मनुष्य और प्रकृति के अंतर्संबंध हैं और यही धर्म कर्म का आधार भी है।

सभ्यता और मनुष्यता का विकास दुनियाभर में कृषि से हुई।

खानाबदोश कबाइली सभ्यता से पशुपालन और खेती के बाद सत्रहवीं सदी से औद्योगीकरण का सिलसिला शुरु हुआ।उत्पादन संबंधों की बुनियाद पर मनुष्य सामाजिक प्राणी बना तो कृषि आजीविकाओं और कृषि की वजह से।

औद्योगीकरण ने उस कृषि व्यवस्था को तहस नहस कर दिया है और उत्पादन संबंधों का ताना बाना सिरे से उलझ गया है।

पूंजी और मुनाफा की अर्थव्यवस्था में शहरीकरण के मार्फत जो नई सभ्यता का जन्म हुआ,उसकी जड़ें पश्चिम में हैं।

भारत ही नहीं समूची एशिया और अफ्रीका की सभ्यता का इतिहास किसानों का इतिहास है।जिसे विद्वतजनों का कुलीन तबका सिरे से नजरअंदाज कर रहा है।

विज्ञान और तकनीक से औद्योगीकरण तेज हुआ।

बाजार का विस्तार हुआ और शहरीकरण हुआ।

पूंजीवादी व्यवस्था साम्राज्यवादी व्यवस्था में बदल गयी है।

कृषि व्यवस्था का देश और पूंजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था के राष्ट्र में बहुत अंतर है।देश जनपदों से बनता है और जनपद किसानों से बनता है।राष्ट्र जनपदों और किसानों के सफाये का तंत्र है।

देशभक्ति अपनी जमीन से जुड़ी मनुष्यता की चेतना है तो राष्ट्रवाद अंध नस्ली वर्चस्व है जो पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के साथ साथ सामंती वर्ग वर्ण वर्चस्व को मजबूत करता है।यही सभ्यता का संकट है।

अंधाधुध शहरीकरण और पूंजीवादी औद्योगीकीकरण अब आधार नंबर और आटोमेशन से लेकर रोबोटिक्स के दौर में है और इस उ्त्पादन प्रणाली में मनुष्य की कोई भूमिका नहीं है।

इस कारपोरेट मुक्तबाजार में मनुष्य कृषि व्यवस्था की तरह न उत्पादक है और न सामाजिक है।वह उपभोक्ता मात्र है और मनुष्यता के आदर्शों और मूल्यों का कोई मायने उसके लिए नहीं है।मनुष्यविरोधी प्रकृतिविरोधी नरसंहार संस्कृति है यह। नरसंहार संस्कृति का धर्म और राष्ट्रवाद दोनों कृषि और किसानों के खिलाफ,बोलियों,भाषाओं और संस्कृतियों की साझा विरासत के खिलाफ है।

मुक्बाजार में धर्म भी एक अंतहीन पाखंड है जो जाति,वर्ण,नस्ल के आधार पर वर्ग वर्ण वर्चस्व सुनिश्चित करता है और इसीलिए कारपोरेट एकाधिकार के मुक्तबाजार में धर्मोन्माद का यह नंगा कत्लेआम कार्निवाल है,जिसे राष्ट्रवाद कहा जा रहा है।यह आस्था का नहीं,राजनीति का माला ,सत्ता समीकरण का मामला है।यही जनसंहार संस्कृति का जायनी तंत्र है  तो मनुस्मृति विधान भी।

रवींद्र नाथ जमींदार थे।उनके पिता की विरासत की वजह से रवींद्रनाथ जमींदार बने।उनके पिता महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर ब्रहमसमाजी थे तो स्वभाव चरित्र से भद्रलोक बिरादरी से बाहर एक सामंती जमींदार भी थे।टैगोर की रचनाधर्मिता उनके बचपन से इस सामंती शिकंजे को तोड़ते हुए बनी।

जोड़ासांकू के ठैगोर परिवार में बच्चों की कोई आजादी नहीं थी और स्त्रियों की भी कोई आजादी नहीं थी।

ज्योतिंद्र नाथ टैगोर की पत्नी कादंबरी देवी ने आत्महत्या की तो इस मामले को रफा दफा करने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया गया।

इस प्रकरण का पर्दाफाश रवींद्र ने ही किया और कादंबरी देवी की उस मृत्यु ने रवींद्रनाथ को स्त्री स्वतंत्रता का सबसे बड़ा प्रवक्ता बना दिया।

नष्टनीड़ उपन्यास और उस पर बनी सत्यजीत रे की फिल्म चारुलता कादंबरी देवी की कुचल दी गयी स्त्री अस्मिता को नये सिरे से रवींद्र ने रचा तो आंख की किरकिरी,चोखेर बाली की विनोदिनी सामंती समाज के खिलाफ स्त्री अस्मिता का महाविस्फोट है।

महर्षि देवेंद्रनाथ क्रूर जमींदार थे।

पूर्वी बंगाल के ग्रामीण पत्रकार कंगाल हरनाथ ने जमींदार देवेंद्र नाथ टैगोर के खिलाफ अपनी पत्रिका में लगातार लिखा तो उनका भयानक उत्पीड़न हुआ।

प्रजाजनों पर अत्याचार करने के मामले में देवेंद्र नाथ टैगोर निरंकुश थे।यहीं नहीं,रवींद्र नाथ के दादा प्रिंस द्वारकानाथ टैगोर कोलकाता के फोर्ट विलियम के ठेके और शेयरबाजर से ही बड़े उद्योगपति नहीं बने,वे पश्चिमी देशों में काले गुलामों का निर्यात भी करते थे। असम के चायबागानों और पूर्वी बंगाल में आदिवासी मजदूरों को सप्लाई करना भी उनका धंधा था।

इस जमींदारी पृष्ठभूमि के जमींदार रवींद्रनाथ के किसानों और मेहनतकश तबके के हक हकूक के हक में खुलकर खड़े होने की रचनाधर्मिता में बंगाल के बाउल फकीरों के किसान आंदोलन और बंगाल के किसान समाज से जुड़ी उनकी रचनाधर्मिता की निर्णायक भूमिका रही है।

रवींद्र के मानस को सामंती जमींदारी पृष्ठभूमि से मुक्त करने में बौद्ध साहित्य,संत साहित्य और बाउलों का सबसे बड़ा योगदान है।

इसीकी परिणति गीताजंलि है।

कृषि आधारित उत्पादन संबंधों की साझा लोकसंस्कृति में विकसित उनकी रचनाधर्मिता का मुख्य स्वर सामाजिक न्याय और समानता है तो इसके लिए लालन फकीर और बंगाल की सूफी संत परंपरा और उनके आंदोलन की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है।किसान समाज पर सामंती शिकंजे की दैवी सत्ता और राजसत्ता और फासिस्ट नस्ली राष्ट्रवाद के विरुद्ध उनकी रचनाधर्मिता का आध्यात्म किसानों के सामुदायिक जीवन और उनकी जीवन यंत्रणा पर आधारित है,जिसे भारत में किसान आंदोलनों के इतिहास में साधू संतों पीरों फकीरों बाउलों की निर्णायक भूमिका को समझे बिना समझना मुश्किल है।

रवींद्र का यह आध्यात्म चार्बाक दर्शन से लेकर शहीदे आजम भगतसिंह की नास्तिकता में एकाकार है।

हिंदी पाठकों के सामने समूचा संत साहित्य है।यह समूचा साहित्य जनपदों की पृष्ठभूमि में भारत के किसान समाज को संबोधित बोलियों में लिखा गया साहित्य है जिसमें मीरा बाई का जीवन और साहित्य भारतीय स्त्री अस्मिता को लोक विमर्श है तो कबीरदास सूरदास रहीमदास रसखान तुकाराम नामदेव और गुरुनानक का सारा साहित्य उस सामंती दैवी सत्ता के खिलाफ जो जनपदों और किसान समाज के दमन उत्पीड़न पर बनी है और इस साहित्य में नस्ली वर्ण वर्ग वर्चस्व के विरुद्ध न्याय और समानता का वह लोकतंत्र है जो शहरीकरण औद्योगीकीरण के आधुनिक साहित्य में सिरे से अनुपस्थित है।

संत कबीर का प्रतिरोध हो या सूफी संतों का प्रतिरोध,सत्ता की राजनीति सामाजिक शक्तियों के सामने टिक ही नहीं सकी।

आज अगर प्रतिरोध का साहित्य रचा नहीं जाता तो इसका सबसे बड़ा कारण है कि साहित्य और संस्कृति की जड़ें जनपदों से कट चुकी हैं और सामाजिक शक्तियों के एकाधिकार नस्ली वर्चस्व के निरंकुश फासिस्ट सैन्यतंत्र में खत्म होते जाना है।

किसान के साहित्य और संस्कृति से बाहर होना उत्पादन प्रणाली के कायाकल्प की कथा है और इस उत्पादन प्रणाली या राष्ट्र के विकास दर में कृषि और किसानों की कोई भूमिका न होना है।

कबीरदास ने जिस दो टुकभाषा में मूर्ति पूजा,पंडित पुरोहित मौलवी मुल्ला,पोथी पुराण,धर्मस्थल,तीर्थ,कर्मकांड,मंदिर मस्जिद और धर्म जाति अस्मिताओं का विरोध किया है,आज आजाद भारत में दाभोलकर,पनसारे कुलबर्गी,रोहित वेमुला और गौरी लंकेश की हत्या की पृष्ठभूमि में उसकी कल्पना करना असंभव है।

इनमें गौरी लंकेश लिंगायत थीं और कन्नड़ के जिन 25 साहित्यकारों के लिए सुरक्षा इंतजाम करना पड़ रहा है,वे सभी अनार्य द्रविड़ है तो उनमें भी अनेक लिंगायत आंदोलन से जुड़े हैं।

कर्नाटक में ब्राह्मण तंत्र के खिलाफ लिंगायत आंदोलन का व्यापक असर रहा है और कर्नाटक में जीवन के सभी क्षेत्रों में लिंगायत वर्चस्व है।इसके बावजूद कर्नाटक में जो हो रहा है,वह उत्तर भारत की बदनाम गायपट्टी से भयंकर है।

यहीं नहीं,जिन लेखकों पर हिंदुत्व के ब्राह्मणवादी पुनरूत्थान के खिलाफ लिखने के लिए हमले हुए,वे महाराष्ट्र और कर्नाटक के हैं तो रोहित वेमुला की हत्या तेलंगना राष्ट्रीयता और तेलंगना किसान आंदोलन की जमीन हैदराबाद में हुई।

दाभोलकर और पानसारे उस महाराष्ट्र में मारे गये जहां शिवाजी महाराज ने दिल्ली की निरकुंश सत्ता को चुनौती देकर महाराष्ट्र में ब्राह्मण तंत्र के खिलाफ शूद्रों का राज कायम किया,जहां महात्मा ज्योतिबा फूले और सावित्रबाी फूले की कर्म भूमि है,जहां से बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने जाति उन्मूलन के एजंडे के साथ समानता, न्याय और संवैधानिक हकहकूक का मिशन शुरु किया,जहां आज भी लाखों अबेंडकरी संगठन सक्रिय हैं।

कर्नाटक,महाराष्ट्र,पेरियार के तमिलनाडु और नारायण स्वामी,अयंकाली के केरल में जनपदों और किसान समाज का व्यापक हिंदुत्वकरण हुआ है वैसे ही जैसे बंगाल,बिहार और असम का।

हिंदी पट्टी में संतों के आंदोलन और सूफी आंदोलन के पीछे जो किसान समाज है, वही बंगाल के फकीर बाउल आंदोलन का किसान समाज है।

रवींद्र साहित्य का आध्यात्म और प्रेम मनुष्यता का धर्म और विश्व मानवता का दर्शन इसी जमीन की उपज है।

इस जमीन के पकाने का काम किया है बाउल फकीर आंदोलन ने।

इसी फकीर बाउल आदिवासी किसान आंदोलन के हिंदुत्वकरण से जन्मा फासिज्म का नस्ली राष्ट्रवाद,जिस कारण भारत का विभाजन हुआ और फिर फिर फिर विभाजन का खतरा देश और जनता को लहूलुहान कर रहा है।

दूध घी की नदियां इसीलिए अब खून की नदियों में तब्दील हैं।

गीतवितान में दो हजार से ज्यादा रवींद्र नाथ के गीत हैं जिनमें सैकड़ों बाउल गान से सीधे प्रभावित हैं,जिनकी एक आधिकारिक सूची भी हमने शेयर की है।

गीतांजलि की चर्चा हमेशा भारतीय आध्यात्म और रहस्यवाद,आस्था और धर्म के संदर्भ और प्रसंग में होती है।लेकिन यह आध्यात्म वैदिकी सभ्यता और ब्राह्मण धर्म का आध्यात्म नहीं है।यह बौद्ध विरासत,वैष्णव बाउल और फकीर,सूफी आंदोलन की साझा विरासत की पूर्वी बंगाल के शूद्र अछूत मुसलमान किसानों की लोकसंस्कृति है,जिसके सबसे बड़े प्रतिनिधि लालन फकीर हैं।

हिंदी के पाठक अगर गोस्वामी तुलसीदास के मर्यादा पुरुषोत्तम राम को मनुस्मृति संविधान का रक्षक मानते हैं तो वे राम चरित मानस में मनुष्यता के धर्म को समझ नहीं सकते।कबीर दास,रसखान,सूरदास,रहीम दास,तुकाराम,नामदेव और गुरु नानक की साझा विरासत को अगर नहीं समझते तो समता न्याय का विमर्श रहा दूर,भारते के संविधान ,कानून के राज,लोकतंत्र और लोक गणराज्य को बी नहीं समझेंगे और जिस राजसत्ता और धर्मसत्ता के खिलाफ जनपदों और किसान समाज की आजादी के लिए संतों गुरुओं का आंदोलन है,उसी के शिकंजे में फंसते चले जायेेंगे और सामाजिक शक्तियों की जगह फासीवादी निरंकुश नस्ली सत्ता की नरसंहार संस्कृति के शिकार हो जायेंगे।

दिल्ली की सत्ता के लिए हिंदी पट्टी बेकार बदनाम हो रही है।हिंदुत्व या इस्लामी राष्ट्रवाद,नस्ली और क्षेत्रीय राष्ट्रवाद का तांडव गैर हिंदी प्रदेशों में सबसे ज्यादा है।कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र,असम,बंगाल जैसे राज्यों में,जहां नस्ली वर्चस्व के खिलाफ,ब्राह्मणधर्म के खिलाफ सामंतवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ आदिवासियों किसानों के साथ साथ साधु संतों फकीरों बाउलों का आंदोलन चलता रहा है और समता न्याय के संघर्ष भी जहां तेज हुए हैं।

इस लिहाज से उत्तर भारत की हिंदी पट्टी में सामाजिक बदलाव बाकी भारत की तुलना में ज्यादा हुआ है और सत्ता में और जीवन के दूसरे क्षेत्रों में भी  दलितों, मुसलमानों, पिछडो़ं, आदिवासियों को ज्यादा प्रतिनिधित्व मिला है और स्त्री अस्मिता के स्वर भी इन्हीं क्षेत्रों में सबसे मुखर हैं तो इस निरंकुश नस्ली सत्ता के प्रतिरोध की जमीन भी गाय पट्टी में बनेगी।इसकी तैयारी में रवींद्र का दलित विमर्श और नस्ली राष्ट्रवाद के मुकाबले बाउल फकीरोें आदिवासियों किसानों के आंदोलन के इतिहास को समझना बेहद जरुरी है।

बांग्लादेश के कबीर हुमायूं ने गीताजंलि में लालन फकीर के असर का सिलसिलेवार विश्लेषण किया है।उनके मुताबिक लालन की रचनाओं का परिष्कार गीतांजलि में रवींद्रनाथ ने किया है।उनके इस दावे की पुष्टि दूसरे तमाम अध्ययनों से होती रही है।फिलहाल उनके आलेख में रवींद्र और लालन के गीतों का यह  तुलनात्मक अध्ययन देखें और रचनाधर्मतिा में किसान समाज की प्रासंगरिकता को समझेंः

রবীন্দ্রনাথের গীতাঞ্জলির গীতধারায় যদি আমরা আধ্যাত্মিকতার চেতনায় নিবিষ্টতায় রসাস্বাদন করি তা'হলে আমরা দেখবো যে লালনের দর্শনের বা লালন কালামের পরিশীলিত রচনার ধারাবাহিকতা।লালনের কালামে বিনয় ও মানবীয় আমিত্ব শূন্যতার এক কৌশল মাত্র। গুরুর চরণে নিজেকে অধম ও গুরুত্বহীনভাবে তুলে ধরে গুরুকে সর্বোত্তমরূপে প্রকাশ করার এক কৌশল সাঁইজী তুলে ধরেছেন তাঁর সুরে ও কালামে। পরম আত্মাকে কল্পনা করেছেন গুরুর ভনিতায়। সেই কথাই যেন আমরা শুনতে পাই কবিগুরু রবী ঠাকুরের কন্ঠে -


'তুমি কেমন করে গান কর যে, গুণী,

অবাক হয়ে শুনি কেবল শুনি।

সুরের আলো ভূবন ফেলে ছেয়ে,

সুরের হাওয়া চলে গগন বেয়ে,

পাষান টুটে ব্যাকুল বেগে ধেয়ে

বহিয়া যায় সুরের সুরধুনী।'




রবীন্দ্রনাথ অরূপের (নিরাকার) অপরূপ রূপে অবগাহনের নিমিত্তে অতল রূপ সাগরে ডুব দিয়েছেন অরূপ রতন (অমূল্য রতন) আশা করি, তাঁর ভাষায়-


'রূপসাগরে ডুব দিয়েছি

অরূপ রতন আশা করি ;

ঘাটে ঘাটে ঘুরব না আর

ভাসিয়ে আমার জীর্ণ তরী ।

সময় যেন হয় রে এবার

ঢেউ-খাওয়া সব চুকিয়ে দেবার

সুধায় এবার তলিয়ে গিয়ে

অমর হয়ে রব মরি।'


লালন তাঁর একতারার তারে সুরে ও ছন্দে গেয়ে গেছেন -


'রূপের তুলনা রূপে।

ফণি মণি সৌদামিনী

কী আর তাঁর কাছে শোভে ।

যে দেখেছে সেই অটল রূপ

বাক্ নাহি তার, মেরেছে চুপ।

পার হলো সে এ ভবকূপ

রূপের মালা হৃদয়ে জপে ।'


এই রূপের তুলনা মানবসত্ত্বায় নিহিত বস্তুমোহমুক্ত নিষ্কামী মহা মানবের স্বরূপ। যে মহা মানব সম্যক গুরুদেবের কাছে সম্পূর্ন আত্ম-সমর্পিত চিত্তে কঠিন ধ্যানব্রত অবস্থায় শিক্ষা গ্রহন করেন। যেখানে অরূপে( অস্থিত্বহীনতায়) খুঁজে ফেরে রূপের সন্ধান। যেখানে 'নিজেকে জানা' এর জন্য পরিপূর্ন আত্মদর্শনে ব্যাপৃত থাকে। তাই লালন ফকির দ্বিধাহীন চিত্তে প্রকাশ করেছেন -


'যার আপন খবর আপনার হয় না।

একবার আপনারে চিনতে পারলেরে

যাবে অচেনারে চেনা ।

আত্মরূপে কর্তা হরি,

নিষ্ঠা হলে মিলবে তাঁরই ঠিকানা।

ঘুরে বেড়াও দিল্লি লাহোর

কোলের ঘোর তো যায় না ।'


ধর্ম তত্ত্বে পরমাত্মা বা ঈশ্বরকে অনুসন্ধানের জন্য বৈরাগ্য সাধন প্রক্রিয়ায় বনে-জঙ্গলে, পাহার-পর্বতে, অথবা মক্কা-কাশীতে যাওয়ার তাগিদ অনুভব করেনি লালন শাহ; তেমনি তাঁর ভাবশিষ্য রবীন্দ্রনাথ ঠাকুরও লালন দর্শনের মতোই ঈশ্বরের মহিমা খুঁজে ফিরেছেন মানুষের মাঝে। মানুষই ঈশ্বর, মানুষই দেবতা, মানুষের মাঝেই পরমাত্মার অস্থিত্ব লীন। তাই লালন শাহের কন্ঠে যেমন শুনি-


' ভবে মানুষ গুরুনিষ্ঠা যার।

সর্বসাধন সিদ্ধি হয় তার ।

নিরাকারে জ্যোতির্ময় যে

আকার সাকার হইল সে

যে জন দিব্যজ্ঞানী হয়, সেহি জানতে পায়

কলি যুগে হল মানুষ অবতার ।'


অপরদিকে রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর লালন শাহের ভাব দর্শনের দ্যোতনাকে আরও উচ্চমার্গ্মে তুলে ধরেছেন। মনে হয় লালনের চিন্তা-চেতনাকে শালীন ও সুন্দরভাবে তুলে ধরেছেন স্বয়ং কবিগুরু। মার্জিত ভাষার পরিশীলিত সুরের মাধুর্য দিয়ে কবিগুরু একতারার সুরের স্থানে বীণার তারে ঝংকৃত করেছেন মানব ও মানবতার মাঝেই পরমাত্মার অস্তিত্ব। সেই পরমাত্মাকে পেতে হলে আমিত্বের অহংবোধকে লীন করে দিতে হবে মানুষ-গুরু সাধনে; মানবতার পরাকাষ্ঠা দেদীপ্যমান করে। কবিগুরুর ভাষায় তা হলো -


'ভজন পূজন সাধন আরাধনা

সমস্ত থাক পড়ে।

রুদ্ধদ্বারে দেবালয়ের কোণে

কেন আছিস ওরে।

তিনি গেছেন যেথায় মাটি ভেঙে

করছে চাষা চাষ -

পাথর ভেঙে কাটছে যেথায় পথ,

খাটছে বারো মাস।

রৌদ্রে জলে আছেন সবার সাথে,

ধূলা তাঁহার লেগেছে দুই হাতে -

তাঁরই মতন শুচি বসন ছাড়ি

আয় রে ধুলার 'পরে।'


অপরদিকে, ফকির লালন শাহ মানবদেহে নিহিত আলোকিত সত্তার উন্মেষের ইচ্ছায় স্বীয় কন্ঠে উচ্চারন করেন -


'মানুষ ভজলে সোনার মানুষ হবি।

মানুষ ছাড়া ক্ষ্যাপারে তুই

মূল হারাবি ।

মানুষ ছাড়া মনরে আমার

দেখিরে সব শূন্যকার

লালন বলে মানুষ আকার

ভজলে পাবি ।'


লালন ফকির তাঁর পরমাত্মার সাথে মিলনের প্রচন্ড আকাঙ্খা তাঁকে উন্মাতাল করে রাখতো, তাই সে প্রভুর সাথে মিলনের আকাঙ্খায় বেদন সুরে গেয়ে বেড়ায়-


' মিলন হবে কতোদিনে।

আমার মনের মানুষের সনে ।

ঐ রূপ যখন স্মরণ হয়

থাকে না লোক লজ্জার ভয়

লালন ফকির ভেবে বলে সদাই

ও প্রেম যে করে সেই জানে ।'


প্রভুর সাথে মিলনের ইচ্ছা লালনকে যেমন চাতক প্রায় জোছনালোকের প্রত্যাশায় দিন গুনতো , তেমনি প্রভুর সান্নিধ্য পাবার আশায় রবীন্দ্রনাথ ব্যাকুল হৃদয়ে গাইতেন -


'যদি তোমার দেখা না পাই প্রভু,

এবার এ জীবনে,

তবে তোমায় আমি পাইনি যেন,

সে কথা রয় মনে ।

যেন ভুলে না যাই, বেদনা পাই

শয়নে স্বপনে।'


অথবা


'আমার মিলন লাগি তুমি

আসছ কবে থেকে।

তোমার চন্দ্র সূর্য তোমায়

রাখবে কোথায় ঢেকে।

কত কালের সকাল-সাঁঝে

তোমার চরণধ্বনি বাজে,

গোপনে দূত হৃদয়-মাঝে

গেছে আমায় ডেকে।'


বাউল সম্রাট লালন ফকির এবং কবিগুরু রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর- এ দু'জন মহৎ-প্রাণ ও সাধুর কর্ম ও রচনার কিছু দিক নিয়ে আলোকপাত করেছি বটে। লালন শাহের প্রয়াণের সময়কালে রবীন্দ্রনাথের পূর্ণ যৌবনকাল। তখন তাঁর বয়স ২৮/২৯ বছর। যে 'গীতাঞ্জলি' রবীন্দ্রনাথ ঠাকুরকে এবং বাংলা ভাষাকে এনে দিয়েছে সুনাম, সম্মৃদ্ধি ও বিশ্বজনীনতা। সেই গীতাঞ্জলির প্রতিটি 'গীত' ধীর-স্থীরতার সাথে পাঠ করলে নিজের অজান্তে মনে হবে - এ কথাগুলোতো তাঁর পূর্ব-পুরুষ বাউল কবি ফকির লালন শাহ আগেই বলে গেছেন। অর্থাৎ, গীতাঞ্জলির গানগুলো লেখার সময় কবিগুরু প্রচন্ডভাবে বাউল কবি লালনের রচনার দ্বারা প্রভাবিত হয়েছিলেন। কিন্তু বড়ই পরিতাপের বিষয় এশিয়ার প্রথম নোভেল বিজয়ী কবিগুরু রবীন্দ্রনাথকে নিয়ে যেভাবে দুই বাংলায় বাঙালীগণ উচ্ছ্বাসিত ও উদ্বেলিত হয়ে স্মরন করেন; সেইরূপ হয়না বাউল সম্রাট লালন শাহের ক্ষেত্রে।

https://www.amarblog.com/kabirkabir/posts/154289


No comments:

Post a Comment