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Wednesday, May 2, 2018

बाजार के चमकते दमकते चेहरों के मुकाबले किसी अशोक मित्र का क्या भाव? पलाश विश्वास

बाजार के चमकते दमकते चेहरों के मुकाबले किसी अशोक मित्र का क्या भाव?

पलाश विश्वास

मई दिवस को जनता के अर्थशास्त्री डा.अशोक मित्र का 9.15 पर निधन हुआ। प्राध्यापक इमानुल हक की फेसबुक पोस्ट से दस बजे के करीब खबर मिली।


पुष्टि के लिए टीवी चैनलों को ब्राउज किया तो 10.30 बजे तक कहीं कोई सूचना तक नहीं मिली।गुगल बाबा से लेकर अति वाचाल सोशल मीडिया के पेज खंगाले तो कुछ पता नहीं चला।फिर हारकर एबीपी आनंद पर पंचायत चुनाव को लेकर  पैनली चीख पुकार के मध्य स्क्रालिंग पर निधन की एक पंक्ति की सूचना मिली तो लिखने बैठा।


आज कोलकाता में कोई अखबार प्रकाशित नहीं हुआ और टीवी पर कहीं भी अशोक मित्र की कोई चर्चा नहीं है।रविवार से लेकर बुधवार तक दीदी की कृपा से दफ्तरों में अवकाश है तो कोलकाता में भी छुट्टी का माहौल है।कहीं पर अशोक मित्र पर कोई चर्चा नहीं है।


सुबह समयांतर के संपादक आदरणीय पंकज बिष्ट का फोन आया तो पता चला कि दिल्ली में आज अखबारों में खबर तो आयी है लेकिन टीवी चैनलों पर अशोक मित्र नहीं है।देश को मालूम ही नहीं पड़ा कि किसी अशोक मित्र का निधन हो गया है।


इसके विपरीत,आज के बांग्लादेश के अखबारों और टीवी चैनलों को देखा तो वहीं सर्वत्र इस उपमहाद्वीप के महान अर्थशास्त्री और साहित्यकार अशोक मित्र की चर्चा हर कहीं देखकर हैरत हुई कि उनके मुकाबले हमारी सांस्कृतिक हैसियत कहां है,यह सोचकर।


अभी हाल में एक बालीवूड अभिनेत्री के शराब पीकर विदेश में बथटब में दम घुटने से हुई मौत पर हफ्तेभर का राष्ट्रीय शोक का नजारा याद आता है तो अहसास होता है कि जो बिकाऊ है,वही मुक्त बाजार का सांस्कृतिक सामाजिक और राष्ट्रीय आइकन है।


वैसे भी हिंदी समाज को अपनी संस्थाओं,विरासत और इतिहास की कोई परवाह नहीं होती।बाकी भारतीय भाषाओं में भी पढ़ने लिखने का मतलब या तो साहित्य है या फिर धर्म या अपराध या सत्ता की राजनीति,राजनीति विज्ञान नहीं।


इतिहास के नाम पर हम मिथकों की च्रर्चा करते हैं।इतिहास लेखन हमारी विरासत नहीं है।इतिहास की चर्चा करने पर हम सीधे वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण ,महाभारत, मनुस्मृति, इत्यादि की बात करते हैं,जिसे साहित्य तो कहा जा सकता है,इतिहास कतई नहीं।


एशिया के मुकाबले यूरोप में मध्ययुग में गहन अंधकार कहीं ज्यादा था।अमेरिका का इतिहास ही कुश सौ साल का है।लेकिन यूरोप और अमेरिका में नवजागरण के बाद ज्ञान विज्ञान के सभी विषयों और विधाओं की अकादमिक चर्चा होती रही है।वस्तुगत विधि से समय का इतिहास सिलसिलेवार दर्ज किया जाता रहा है तो हम मध्ययुग से पीछे हटते चले जा रहे हैं और आदिम बर्बर प्राचीन असभ्यता के काल में,जहां हमारी संस्कृति में हिंसा और घृणा के सिवाय कुछ बचता ही नहीं है।


हम मिथकों और धर्मग्रंथ को इतिहास मानते हुए अत्याधुनिक तकनीक से ज्ञान विज्ञान की लगातार हत्या कर रहे हैं।यही हमारा राष्ट्रवादी उन्माद है,जिसका इलाज नहीं है।


एक छोटे से द्वीप इंग्लैंड की भाषा अंग्रेजी सिर्फ नस्ली और साम्राज्यवादी वर्चस्व से पूरी दुनिया पर राज कर रही है,इस धारणा के चलते हम अंग्रेजी से घृणा करते हैं।लेकिन अंग्रेजी भाषा और साहित्य में विश्वभर की तमाम संस्कृतियों,साहित्य और ज्ञान विज्ञान पर जो सिलसिलेवार विमर्श जारी है,उसके मुकाबले हमने भारतीय भाषाओं में साहित्य और धर्म के अलावा ज्ञान विज्ञान पर आम जनता को संबोधित किसी संवाद का उपक्रम शुरु ही नहीं किया है।ज्ञान हमारी शिक्षा का उद्देश्य नहीं रही है और न रोजगार का मकसद शिक्षा का है।यह हमारी क्रयशक्ति का अश्लील प्रदर्शन है।


आज जो लूट का तंत्र देश को खुले बाजार बेच रहा है,उसकी वजह यही है कि शिक्षा के अभूतपूर्व विकास के बावजूद ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में पाठ्यक्रम की परिधि से बाहर हम अब भी अपढ़ हैं और हम चौबीसों घंटे राजनीति पर चर्चा करते रहने के बावजूद राजनीति नहीं समझते।


हमारी कोई वैज्ञानिक दृष्टि नहीं है और न हमारा कोई इतिहास बोध है।


हमने देश को मुक्तबाजार बना दिया है  और धार्मिक कर्मकांड को ही सांस्कृतिक विरासत मानते हुए सांस्कृतिक बहुलता और विविधता के साथ साथ इतिहास और भूगोल की हत्या कर दी।


बाजार का व्याकरण ही हमारे लिए अर्थशास्त्र है और उत्पादन प्रणाली और श्रम से,उत्पादकों से हमारा कोई रिश्ता नहीं है।


गांव,खेत और किसानों के साथ साथ देशी उद्योग,धंधों के कत्लेआम के दृश्य देखने के लिए हमारी कोई आंख नहीं बची है।


छात्रों,युवाजनों,बच्चों,महिलाओं और वयस्कों की असहाय असुरक्षित स्थिति से हमें कोई फर्क तब तक नहीं पड़ता जबकि हम अपने गांव या नगर महानगर में बाजार में उपलब्ध भोग सामग्री के उपभोग से वंचित न हो जायें।


ऐसे परिदृश्य में में न परिवार बचा है और न समाज।

अब हम कह नहीं सकते कि मनुष्य सामाजिक प्राणी हैं।

हम पूरी तरह असामाजिक हो गये हैं।

हमारा कोई सामुदायिक जीवन नहीं है।

इसीलिए इतिहास,सांस्कृतिक विरासत, विविधता, बहुलता, लोकतंत्र, संप्रभुता,स्वतंत्रता,समानता,न्याय,प्रेम जैसी अवधारणाएं हमारे लिए बेमायने हैं।


टीवी पर जो नजर आये,जो जैसे भी हो करोड़पति अरबपति हो जाये, वे ही हमारे आदर्श है।हमारा न कोई पूर्वज है, न हमारा कोई मनीषी है, न हमारी कोई संस्कृति है, न हमारा कोई इतिहास है।


न हमारा कोई अतीत है और न वर्तमान, और न भविष्य।

न हमारा कोई राष्ट्र है और न कोई राष्ट्रीयता।

सिर्फ अंध राष्ट्रवाद है।

हमारे दिलोदिमाग में बाजार है बाकी हम डिजिटल इंडिया है,जिसका न कोई संविधान है और न कोई कानून।


बाजार के चमकते दमकते चेहरों के मुकाबले किसी अशोक मित्र का क्या भाव?



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