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Friday, July 16, 2010

राम के होने का कोई प्रमाण नहीं है

राम के होने का कोई प्रमाण नहीं है

Posted by Reyaz-ul-haque on 11/04/2007 01:21:00 PMराम के अस्तित्व और अयोध्या नगरी की ऐतिहासिकता पर दिये गये अपने लंबे व्याख्यान में इस बार प्रो राम शरण शर्मा राम और अयोध्या की ऐतिहासिकता के प्रमाणों के अभाव की चर्चा कर रहे हैं. आठवीं किस्त.

प्रो राम शरण शर्मा

सा पूर्व 1000-800 के ग्रंथ अथर्ववेद (10.2.31-33) में अयोध्या का सबसे पहला उल्लेख मिलता है और वह भी एक काल्पनिक नगर के रूप में. इसे देवताओं की नगरी के रूप में चित्रित किया गया है, जो आठ चक्रों से घिरी है और नौ प्रवेश द्वारों से सज्जित है, जो सभी ओर से प्रकाश में घिरे हैं. संयुत्त निकाय (नालंदा संस्करण, खंड-3, पृष्ठ-358, खंड-4,पृष्ठ-162) में, जो लगभग ईसा पूर्व 300 का पालि ग्रंथ है, अयोध्या को गंगा नदी के कि नारे बसा हुआ दरसाया गया है, जिसका फैजाबाद जिले में सरयु नदी के किनारे बसी अयोध्या से कुछ भी लेना-देना नही है. आरंभिक पालि ग्रंथ इस विचार का समर्थन नहीं करते कि गंगा शब्द का इस्तेमाल सरयू सहित सभी नदियों के लिए आम अर्थ में किया गया है. वे मही (गंडक ) और नेरजरा (फल्गू) नदियों सहित, जिनके किनारों पर बुद्ध ने पर्यटन किया था, बहुत-सी नदियों का विशेष रूप से उल्लेख करते हैं. इनमें सरभू अथवा सरयू का भी उल्लेख है, पर एक ऐसे संदर्भ में, जिसका अयोध्या से कुछ भी लेना-देना नहीं. वाल्मीकि रामायण के आधार पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अतिरिक्त महानिदेशक, मुनीशचंद्र जोशी ने अयोध्या को सरयू से कुछ दूरी पर ढूंढ़ निकाला. वाल्मीकि रामायण का उत्तरकांड ईसा की आरंभिक सदियों में रचा गया है. उसके अनुसार अयोध्या सरयू से अध्यर्घ योजना दूर है. यह सस्कृंत अभिव्यित बालकांड (22.11) में भी मिलती है और टीकाकारों के मुताबिक इसका अर्थ है 6 कोस अथवा 12 मील. वे इसका अर्थ डेढ़ योजन लगाते हैं. इससे पुन: उलझन उठ खड़ी होती है क्योंकि वर्तमान अयोध्या तो सरयू तट पर स्थित है. यह नदी पूर्व की ओर बहती है तथा बलिया और सारन जिलों में इसे पूर्वी बहाव को घाघरा कहते हैं. सारन जिले में जाकर यह गंगा में मिल जाती है. सरयू अपना मार्ग बदलती चलती है. जिसकी वजह से कुछ विद्वान बलिया जिले के खैराडीह इलाके को अयोध्या मानना चाहते हैं. सातवीं शताब्दी के चीनी यात्री ह्वेनसांग द्वारा अयोध्या की अवस्थिति के संबंध में प्रस्तुत साक्ष्य से भी कठिनाइयां उठ खड़ी होती हैं. उनके अनुसार अयोध्या कन्नौज के पूर्व दक्षिणपूर्व की ओर 600 ली (लगभग 192 किलोमीटर) दूर पड़ती थी और गंगा के दक्षिण की ओर लगभग डेढ़ किमी की दूरी पर स्थित थी. अयोध्या को लगभग गंगा पर स्थित बता कर चीनी यात्री संभवत: उसकी अवस्थिति के बारे में आरंभिक बौद्ध परंपरा की ही पुष्टि करते हैं.


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ह्वेनसांग के अनुसार अयोध्या देश में 3000 बौद्ध भिक्षु थे और साधु-संन्यासियों व गैर बौद्धों की संख्या इससे कम थी. अयोध्या राज्य की राजधानी के विषय में बताते हुए वह एक पुराने मठ का जिक्र करते हैं, जो काफी समय से बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का केंद्र बना हुआ था (सीयूकी, खंड-1,लंदन, 1906 पृष्ठ 224-25). इससे सातवीं शताब्दी में अयोध्या में बौद्ध धर्म के प्रभुत्व का संकेत मिलता है. फिर भी ह्वेनसांग का कहना है कि अयोध्या देश में 100 बिहार तथा 10 देव (ब्राह्मणों के अथवा अन्यों के ) मंदिर थे. इससे पहले ईसा की पांचवी शताब्दी में फाह्यान साकेत में बुद्ध की दातौन (दंत काष्ठ) का उल्लेख करता है, जो कि सात-एक हाथ ऊंची उगी हुई थी. हालांकि ब्राह्मणों ने इस पेड़ को नष्ट कर दिया था, फिर भी वह उसी जगह पर फिर से उग आया (जेम्स लेगी, ए रिकार्ड ऑफ बुद्धिस्ट किंगडम, आक्सफोर्ड, 1886, पृष्ठ 54-55). अयोध्या को परंपरागत रूप से कई जैन तीर्थंकरों अथवा धार्मिक उपदेशकों की जन्मस्थली भी माना जाता है और जैनी इसे तीर्थ मानते हैं. जैन परंपरा में इसे कोसल राज्य की राजधानी बताया गया है पर यह ठीक कहां स्थित है यह नहीं दरसाया गया. गुप्तकाल के बाद जाकर ही कहीं वर्तमान अयोध्या को राम की लोक विश्रुत अयोध्या के साथ जोड़ा जाने लगा. उस समय तक राम को विष्णु का अवतार माना जाने लगा था.
अब तक विशेष रूप से अयोध्या का उल्लेख करने वाली मुहरों या सिक्कों का यहां पता नहीं चला है. हमें विभिन्न प्रकार के सिक्के जरूर मिलते हैं, जिन्हें अयोध्या सिक्कों के नाम से जाना जाता है, जो ईपू दूसरी शताब्दी से लेकर पहली शताब्दी और दूसरी शताब्दी ईस्वी तक के हैं. पर उन पर अयोध्या का नाम अंकित नहीं है. उदाहरण के लिए उज्जयिनी, त्रिपुरी, एरणु, कौशांबी, कपिलवस्तु, वाराणसी, वैशाली, नालंदा आदि की पहचान या तो मुहरों या फिर सिक्कों के आधार पर स्थापित की गयी है. अयोध्या से प्राप्त पहली शताब्दी के एक शिलालेख में पुष्यमित्र शुंग के एक वंशज का उल्लेख है पर सिक्के और शिलालेख राम दाशरथिवाली अयोध्या की पहचान नहीं करा पाते. यह सचमुच निराशाजनक बात है कि पर्याप्त उत्खनन और अन्वेषण के बावजूद हम वर्तमान अयोध्या को गुप्तकाल से पूर्व कहीं भी राम के साथ विश्ववासपूर्वक नहीं जोड़ सकते.
रामकथा को हिंदी भाषा क्षेत्र में हालांकि रामचरितमानस ने लोकप्रिय बनाया, तथापि अवधी भाषा का यह महाकाव्य वाल्मीकि के संस्कृत महाकाव्य रामायण पर आधारित है. मूल राम महाकाव्य कोई समरूप रचना नहीं है. मूल रूप से इसमें 6,000 श्लोक थे, जिन्हें बाद से बढ़ा कर 12,000 और अंतत: 24,000 कर दिया गया. विषयवस्तु के आधार पर इस ग्रंथ के आलोचनात्मक अध्ययन से पता चलता है कि यह चार अवस्थाओं से होकर गुजरा था. इसकी अंतिम अवस्था 12वीं शताब्दी के आसपास की बतायी जाती है और सबसे आरंभिक अवस्था ईपू 400 के आसपास की हो सकती है. किंतु यह महाकाव्य इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह वर्ग विभक्त, पितृसतात्मक और राज्यसत्ता आधारित समाज के व्यवस्थित कार्यचालन के लिए कतिपय आदर्श निर्धारित करता है. यह शिक्षा देता है कि पूत्र को पिता की, छोटे भाई को बड़े भाई की और पत्नी को पति की आज्ञा का पालन करना चाहिए. यह इस बात पर बल देता है कि विभिन्न वर्णों के लिए जो कर्तव्य निर्धारित किये गये हैं, उन्हें उनका पालन अवश्य करना चाहिए और वर्ण-जाति संबंधी कर्तव्यों से भटक जानेवालों को जब भी जरूरी हो निर्मम दंड दिया जाना चाहिए और अंत में यह राजा सहित सभी को आदेशि करता है कि धर्म के जो आदर्श राज्य, वर्ण और परिवार के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए निर्दिष्ट किये गये हैं, उन्हीं के अनुसार चलें. विभीषण अपने कुल, जो गोत्र आधारित समाज के सदस्यों को एक साथ बांधे रखने के लिए सर्वाधिक आवश्यक था, के प्रति निष्ठा की बलि देकर भी धर्म नाम की विचारधारा में शामिल हुआ. वाल्मीकि द्वारा निर्दिष्ट सामाजिक और सांस्कृतिक मानदंड जैन, बौद्ध और अन्य ब्राह्मण महाकाव्यों और लोक कथाओं में भी दृष्टिगोचर होते हैं, महाकाव्य और लोक कथाएं भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास में मानदंडों, अवस्थाओं और प्रक्रियाओं को समझने के लिए निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं, पर उनमें उल्लिखित कुछ ही राजाओं व अन्य महान विभूतियों की ऐतिहासिकता को पुरातत्व, शिलालेखों, प्रतिमाओं और अन्य स्त्रोतों के आधार पर सत्यापित किया जा सकता है. दुर्भाग्य से हमारे पास इस तरह का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जो ईसा पूर्व 2000 से ईसा पूर्व 1800 के बीच एक ऐसी अवधि, जिसे पुराणों की परंपरा पर काम करनेवाले कुछ विद्वानों ने राम का काल बताया है, अयोध्या में राम दशरथि की ऐतिहासिकता को सिद्ध कर सके.
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राम का अस्तित्व और अयोध्या

Posted by Reyaz-ul-haque on 10/19/2007 12:48:00 AMक्या राम का वास्तव में कोई अस्तित्व था? क्या अयोध्या एक ऐतिहासिक नगरी है? प्रख्यात इतिहासकार राम शरण शर्मा अपने लंबे व्याख्यान के इस हिस्से में (और आगे के हिस्सों में भी) मुख्यतः इसकी चर्चा कर रहे हैं. सातवीं किस्त.

प्रो राम शरण शर्मा

तिहास में लूटपाट करनेवाले आमतौर कब्जे में आयी लूटपाट के मामले में अपने सभी उत्पीड़ितों से एक जैसा ही व्यवहार करते हैं. इसी तरह तैमूर ने मध्य एशिया में मुस्लिम आबादी पर उससे कहीं अधिक विध्वंस बरपा किया, जितना उसने भारत में किया था. 1398-99 में भारत में काफी मुस्लिम आबादी थी पर तब भी गैर मुस्लिम आबादी उससे ज्यादा ही थी. इस तरह हालांकि तैमूर के हमले प्रथमत: मुसलमान शासकों के खिलाफ लक्षित थे पर जो प्रजा उसके हमलों की शिकार बनी, उसमें स्वभावत: ही हिंदू भी थे. ऐसे अनेकानेक उदाहरण दिये जा सकते हैं कि जब सत्ता और लूट के माल का मामला होता था तो हिंदू और मुस्लिम दोनों ही शासक वर्गों के सदस्य समान रूप से क्रूर सिद्ध होते थे. इसके विपरीत ऐसे बहुत से उदाहरण भी मिलते हैं, जिनमें हिंदु और मुस्लिम दोनों समुदायों के आम लोगों के बीच मौजूद सहिष्णुता की बात तो जाने दीजिए, हिंदु और मुस्लिम शासकों, दोनों ने सहिष्णुता दर्शायी. इसलिए मुस्लिम शासकों को क्रूर और हिंदू शासकों को दयालु व सहिष्णु शासकों के रूप में चित्रित करना गलत होगा. पर दुर्भाग्य से हिंदू संप्रदायवादी ऐसी ही छवि चित्रित कर रहे है तथा मुस्लिम कट्टरपंथी भी कोशिश में है कि इस मामले में उनसे पीछे न रहें.

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सांप्रदायिक प्रचार का एक महत्वपूर्ण नमूना बाबरी मसजिद की दीवारों पर अंकित एकदम हाल के 30 भित्ति चित्र हैं. इस मसजिद में राम की प्रतिमा को जबर्दस्ती बिठाया गया है. जिस जिला न्यायाधीश के फैसले की वजह से संप्रदायवादी बाबरी मसजिद को कब्जे में ले सके, उसकी प्रतिमा बड़े ही उत्साहपूर्वक मसजिद के प्रवेश द्वार पर स्थापित की गयी है. उस के बाद से तो लगता है कि संप्रदायवादी राम की पूजा करने से अधिक उस न्यायाधीश की छवि को महिमा मंडित करने में संलग्न रहे हैं. दरअसल राम को अपने निकृष्टतम राजनीतिक दुराग्रहों को छुपाने के लिए आड़ बना लिया गया है. एक भित्ति चित्र में यह दर्शाया गया है कि किस तरह बाबर के सैनिक राम के इस कल्पित मंदिर को ध्वस्त कर रहे हैं और हिंदुओं का कत्लेआम कर रहे हैं. इस भित्ति चित्र के नीचे लिखा है कि बाबर के सिपाहियों ने अयोध्या में राम मंदिर पर हमला करते समय 75000 हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया और उनके रक्त को गारे की तरह इस्तेमाल कर बाबरी मसजिद खड़ी की. आग लगानेवाली ऐसी झूठी बातें सांप्रदायिक भावनाओं को हवा देने के लिए प्रस्तुत की जाती हैं. यह प्रचार उतना ही झूठा है जितना यह विचार कि बाबर ने राम मंदिर को ध्वस्त किया और उसकी जगह पर बाबरी मसजिद बनवायी.
उत्तर प्रदेश के पुरातत्व विभाग के भूतपूर्व निदेशक, रामचंद्र सिंह ने अयोध्या में 17 स्थानों की खुदाई करवायी और ऋणमोचन घाट व गुप्तारघाट नाम के दो स्थलों का भी उत्खनन करवाया. उनके अनुसार वहां अधिकतर स्थानों पर ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से पहले आबादी होने के चिह्र नहीं मिलते. केवल मणिपर्वत और सुग्रीवपर्वत नाम के दो स्थानों को मौर्य काल का कहा जा सकता है. भारत सरकार के पुरात्तत्व विभाग के भूतपूर्व महानिदेशक ब्रजवासी लाल ने कई बार अयोध्या के कई स्थलों का उत्खनन करवाया और इस उत्खनन से पता चला कि ईसा पूर्व सातवीं सदी भी कुछ पहले ही जान पड़ता है क्योंकि उत्तरी छापवाले पोलिशदार बर्तनों की तिथि को आसानी से उक्त काल का नहीं ठहराया जा सकता.
यह बात याद रखनी होगी कि अयोध्या में बस्ती होने की सबसे पुरानी अवधि के लिए हमारे पास कोई कार्बन तिथि नहीं है. वहां प्रारंभिक आबादी की अधिक विश्वसनीय तिथि कुछ मृण्मूर्तियों के अस्तित्व द्वारा मिलती है. इनमें से एक जैन आकृति है, जो मौर्य युग की अथवा ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के अंत और ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के के आरंभ की हैं. बहरहाल, मध्य गंगा क्षेत्र की कछारी भूमि में जितने स्थानों का उत्खनन किया गया, उनमें से अधिकतर स्थान ईसा पूर्व सातवीं-छठी शताब्दी तक पर्याप्त रूप से बसे हुए प्रतीत नहीं होते. जो लोग राम की ऐतिहासिकता में विश्वास करते हैं, वे उनकी तिथि ईसा पूर्व 2000 के आसपास तय करके चलते हैं. यह इस आधार पर किया जाता है कि राम दाशरथि महाभारत युद्ध से लगभग 65 पीढ़ियों पूर्व हुए थे. आम तौर पर यह स्वीकार किया जाता है कि महाभारत युद्ध ईसा पूर्व 1000 के आसपास हुआ था. इसलिए हमारे सामने पर्याप्त रूप से अयोध्या के बसने और अयोध्या में राम के युग के बीच 1000 वर्षों से अधिक का अंतर प्रकट होता है. इसी कठिनाई की वजह से कुछ विद्वान अयोध्या को अफगानिस्तान में बताने की कोशिश करते हैं.
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मुसलिम हमलावरों की लूटपाट और अन्य ऐतिहासिक तथ्य

Posted by Reyaz-ul-haque on 10/18/2007 01:02:00 AMराम के अस्तित्व, सांप्रदायिक राजनीति और इतिहास के विभिन्न पहलुओं पर प्रख्यात इतिहासकार प्रो राम शरण शर्मा के व्याख्यान की छठी किस्त में इतिहासकारों द्वारा अपनायी गयी त्रुटिपूर्ण और एकांगी इतिहास दृष्टि की चर्चा की गयी है.

प्रो राम शरण शर्मा

रंभिक मध्यकालीन बिहार की विभिन्न प्रतिमाएं स्पष्ट रूप से यह संकेत करती हैं कि बौद्धों और ब्राह्मण धर्म के अनुयायियों के बीच खुला और हिंसक टकराव रहा था. इन प्रतिमाओं में अपराजित सहित कई बौद्ध देवताओं को शैव देवों को पैरों से रौंदते हुए चित्रित किया गया है. धर्मग्रंथों में यह टकराव बौद्धों के खिलाफ शंकर द्वारा व्यापक पैमाने पर चलाये गये अभियान में प्रतिबिंबित होता है. यह सोचना गलत होगा कि बौद्धों का इस देश से सफाया केवल इस वजह से हुआ कि उनके खिलाफ वैचारिक प्रचार किया गया था. ऐसा लगता है उनका बाकायदा उत्पीड़न किया गया था. इससे उनके सामने केवल दो विकल्प बच रहे थे. या तो वे भाग कर दूसरे देशों में चले जायें या फिर सामाजिक विषमताओं से छुटकारा पाने के लिए इस्लाम धर्म अपना ले. विचार करने की बात है कि भारत में धर्म के रूप में इस्लाम केवल उन क्षेत्रों में ही पैर जमा सका जो बौद्ध धर्म के मजबूत गढ़ थे. यह बात कश्मीर, उत्तर पश्चिमी सीमांत क्षेत्र, पंजाब और सिंध के बारे में सच लगती है. उसी तरह नालंदा (बिहार शरीफ), भागलपुर (चंपारण) और बांगलादेश में, जहां बौद्ध काफी संख्या में रहते थे, मुसलिम आबादी है. बौद्ध भारत से वस्तुत: गायब क्यों हो गये इस बात को केवल इस आधार पर ही स्पष्ट नहीं किया जा सकता कि उनका धर्म आंतरिक तौर पर परिवर्तित हो रहा था. इस प्रश्न पर विचार करने के लिए उनके प्रति मध्यकालीन हिंदू शासक वर्गों और धार्मिक नेताओं के दृष्टिकोण पर ध्यान देना होगा. जैनियों का भी उत्पीड़न किया जाता रहा था. लखनऊ संग्रहालय में रखी जैन देवी देवताओं की कई प्रस्तर मूर्तियां, विरूपित अवस्था में मिली हैं. स्पष्टत: ही यह काम इन मूर्तियों को वैष्णव जामा पहनाने के लिए कुछ वैष्णवों द्वारा किया गया था. जैनियों ने अपने कर्मकांडों और सामाजिक रीति-रिवाजों को काफी हद तक संशोधित करके, अपने को प्रभुत्वशाली ब्राह्मणवादी जीवन पद्धति के अनुरूप ढाल लिया. इस बात पर जोर देना गलत होगा कि हिंदू एक समेकित समुदाय थे. जाने-माने पुनरुत्थानवादी और मुस्लिम विरोधी इतिहासकार रमेशचंद्र मजूमदार तक इस बात को मानते हैं कि हिंदू शासक वर्ग की कतारों में एकजुटता का अभाव था और वे अंतर्विरोधों से बुरी तरह ग्रस्त थे. उन्हें यह बात बहुत ही दुखद लगती है कि जब एक हिंदू राज्य पर मुसलमानों ने हमला किया तो एक पड़ोसी हिंदू राजा ने इस अवसर का लाभ उठा कर पीछे की तरफ से उस राज्य पर वार किया. (हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ इंडियन पीपुल, खंड-5, प्रस्तावना, पृष्ठ 14-16).

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विंध्याचल के दक्षिणवर्ती क्षेत्र तक में मुस्लिम खतरे को इतना कम करके आंका गया कि दक्कन के शक्तिशाली यादव शासकों ने गुजरात के चालुक्यों पर दक्षिण से ठीक उस समय हमला बोल दिया जब वे उत्तर में आये मुस्लिम हमलावरों के साथ जीवन-मरण के संघर्ष में लगे थे (वही पृष्ठ 14).
हिंदू धार्मिक नेताओं के बीच सांप्रदायिक असहिष्णुता का स्पष्ट उदाहरण अयोध्या के मध्यकालीन इतिहास से लिया जा सकता है. जब तक औरंगजेब का शासन था, उसके लौह हस्त के नीच अयोध्या में सब कुछ शांत रहा. पर 1707 में उसकी मृत्यु के बाद हम वहां शैव संन्यासियों और वैष्णव वैरागियों के संगठित दलों के बीच खुला और हिंसक टकराव देखते हैं. इन दोनों के बीच विवाद का मुद्दा यह था कि धार्मिक स्थलों पर किसका कब्जा रहे और तीर्थयात्रियों को भेंट और उपहारों में प्राप्त होनेवाली आय किसके हाथ लगे. 1804-05 की एक पुस्तक से इन दोनों संप्रदायों के बीच होनेवाले हिंसक टकरावों के बारे में उद्धरण दिये जा सकते हैं : उस समय जब राम जन्म दिवस का अवसर आया, लोग बड़ी संख्या में कौसलपुर में एकत्र हुए. कौन उस जबर्दस्त भीड़ का वर्णन कर सकता है. उस स्थान पर हथियार लिये जटाजूटधारी और अंग-प्रत्यंग में भस्म रमाये असीमित(संख्या में) संन्यासी वेश में बलिष्ठ योद्धा उपस्थित थे. वह युद्ध के लिए मचलती सैनिकों की असीम सेना थी. वैरागियों के साथ लड़ाई छिड़ गयी. इस लड़ाई में (वैरागियों को) कुछ भी हाथ न लगा क्योंकि उनके पास रणनीति का अभाव था. उन्होंने वहां उनकी ओर बढ़ने की गलती की. वैरागी वेशभूषा दुर्गति का कारण बन गयी. वैरागी वेशभूषावाले सारे लोग भाग खड़े हुए उनसे बहुत दूर (यानी संन्यासियो से) उन्होंने अवधपुर का परित्याग कर दिया. जहां भी उन्हें (संन्यासियों को) वैरागी वेष में लोग नजर आते, वे उन्हे भयावह रूप से आतंकित करते. उनके डर से हर कोई भयभीत था और जहां भी संभव हो सका लोगों ने गुप्त स्थानों में शरण ली और अपने को छिपा लिया. उन्होंने अपना बाना बदल डाला और अपने संप्रदाय संबंधी चिह्र छिपा दिये. कोई भी अपनी सही-सही पहचान नहीं प्रकट कर रहा था. (हैंसबेकर, अयोध्या, गोरनिंगनन, 1986, पृष्ठ 149 में श्रीमहाराजचरित रघुनाथ प्रसाद से उद्धृत)
उक्त उद्धरण मध्यकालीन धार्मिक हिंदू नेताओं द्वारा सहिष्णुता बरतने के मिथक का भंडाफोड़ कर देता है. हम लक्षित कर सकते हैं कि सदियों के मतारोपण से एक समेकित हिंदू समुदाय का निर्माण नहीं हुआ. आज तक भी तथाकथित अनुसूचित जातियां पशुओं का मांस खाती हैं, जिनमें गायें भी शामिल हैं तथा कुछ मामलों में अपने मृतकों को दफनाती तक हैं.
उत्पीड़ित वर्गो की ठीक यही वह कोटि है, जिसे महात्मा गांधी ने हरिजन की संज्ञा दी थी और बिहार और अन्यत्र गांवों में जिनके मकानों को मुख्यत: आर्थिक कारणों से जला कर राख कर दिया जाता है और जिनके परिवार के सदस्यों को भून डाला जाता है. एकदम हाल में जब बड़ी संख्या में अनुसूचित जाति के लोगों ने दक्षिण में ईसाई धर्म अपनाने का फैसला किया तो इससे हिंदुत्व के तथाकथित संरक्षकों के बीच बड़ा कोहराम मच गया.
इसी तरह, पुराणपंथियों के हिंसक प्रचार के बावजूद, मुसलमानों को समेकित समुदाय नहीं माना जा सकता. भारत में और अन्यत्र शियाओं और सुन्नियों के बीच खूनी टकराव सर्वविदित है. ईरान और इराक के बीच लंबे समय तक चले खूनी टकराव की तो चर्चा ही क्या. भारत में बहुत से ऊंचे दर्जे के और संपन्न मुस्लिम परिवार, हिंदुओं के उच्चतर तबकों और संपन्न परिवारों की तरह ही जुलाहों, पंसारियों और मुसलमानों के अन्य तथाकथित निम्न समुदायों को नीची नजर से देखते हैं. दंगा जांच आयोग की रिपोर्टो से पता चलता है कि दंगों के दौरान हिंदू और मुसलिम दोनों संप्रदायों के निम्न तबकों के लोग ही बड़ी संख्या में उत्पीड़न और खून-खराबों के शिकार बनते हैं. रमेशचंद्र मजूमदार मुसलमानों को हिंदुओं के साथ अनवरत रूप से वैरभाव में लिप्त एक समेकित धार्मिक समुदाय मानते हैं. महमूद गज़नी और तैमूर का भूत ऐतिहासिक रूप से उन्हें संत्रस्त किये रहता है. जैसाकि वह कहते है- 400 वर्ष पहले सुलतान महमूद के समय से भारत में कभी भी हिंदुओं के सोचे-समझे तौर पर किये गये ऐसे नृशंस हत्याकांड नहीं देखे गये (जैसेकि तैमूर के समय में). उसके धर्मोन्मादी सैनिकों ने अनियंत्रित हिंसा और बेरोक बर्बरता बरपा करने में कल्पना के सारे बांध तोड़ दिये और उसकी चरम सीमा वह थी, जब दिल्ली के मैदानों के बाहर एक लाख हिंदू कैदियों का नृशंस नरमेध रचाया गया. एक ऐसी घटना, जिसकी दुनिया के इतिहास में कोई मिसाल नहीं (हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ द इंडियन पीपुल, प्रस्तावना, पृष्ठ-24).
ऐसे वक्तव्य महमूद गजनी, मोहम्मद गौरी और समरकंद के तॅमूर द्वारा मुस्लिम जन समुदाय और मध्य एशिया के शासकों पर ढहाये गये कहर को पूरी तरह नजरअंदाज कर देते हैं. उनका मुख्य उद्देश्य था दूसरे देशों की लूटपाट करना, अपना खजाना भरना तथा अपनी संपदा में वृद्धि करना. जब महमूद गजनी और मोहम्मद गौरी ने भारत पर चढ़ाई की, तब उसके आक्रमण के शिकार क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी वस्तुत: अस्तित्वहीन थी. लेकिन 10वीं-11वीं शताब्दियों तक लगभग पूरा मध्य एशिया इस्लाम धर्म में परिवर्तित हो चुका था और फिर भी अपने इन सहधर्मियों को इन आक्रांताओ ने नही बख्शा. मध्य एशिया के मुसलमानों की उन्होंने जो लूटमार मचायी वह उत्तर भारत के हिंदुओं की उनके द्वारा की गयी लूटमार से व्यापकता और बर्बरता में कहीं कम नहीं थी.

क्रमशः

2 टिप्पणियां           | Posted in »     आरएस शर्मा, इतिहास, राम की अयोध्या, सांप्रदायिकता     

वे मंदिर, जो लूटे और तोडे़ गये

Posted by Reyaz-ul-haque on 10/06/2007 02:46:00 PMइतिहास में बार बार हिंदू मंदिरों के लूटे और तोडे़ जाने का ज़िक्र आता है. इसके लिए सांप्रदायिक इतिहासकार और राजनीतिक दल शासकों के मुसलमान होने को ज़िम्मेवार ठहराते हैं. प्रख्यात इतिहासकार प्रो रामशरण शर्मा सांप्रदायिक राजनीति और राम के अस्तित्व संबंधी अपने व्याख्यान के इस चरण में उन्हीं मंदिरों की कहानी कह रहे हैं.

राम और कृष्ण के अस्तित्व, इतिहास के सांप्रदायिकीकरण और धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल पर प्रोफेसर राम शरण शर्मा के व्याख्यान की पांचवीं किस्त.



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सांप्रदायिक राजनीति और राम की ऐतिहासिकता-5

प्रोफेसर आरएस शर्मा

र्तमान में पुनरुत्थानवादी विचारों को कुछ सांप्रदायिक मानसिकतावाले लेखक इस्तेमाल कर रहे हैं और उन्हें समर्थन दे रहे हैं. यह दावा किया जा रहा है कि अतीत में दुनिया में जो कुछ भी अच्छा और महान रहा है, वह भारत से ही उद्भूत हुआ और यहीं से दुनिया के दूसरे भागों में फैला. लेकिन इतिहासकार, जिन्हें ठोस प्रमाणों को आधार बनाना होता है, ऐसे विचारों को स्वीकार नही कर सकते. बात चाहे विभिन्न प्रकार की धातुओं और सिक्कों के इस्तेमाल की हो या लेखन के प्रयोग और सभ्यता के ऐसे ही अन्य तत्वों की, हमें तो बड़ी ही सावधानी से प्रमाणों की छानबीन करनी होती है. जैसाकि पता चलेगा तमाम अति पुनरुत्थानवादी विचार ऐसे इतिहासकार प्रस्तुत करते हैं, जो हिंदू संप्रदायवादी और इसलामी रुढ़िपंथी विचारों से प्रतिबद्ध है.
भारत में संप्रदायवाद की समस्या को बुनियादी तौर पर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संबंधों की समस्या के तौर पर देखा जाता है. यह समस्या इस तरह नहीं सुलझायी जा सकती कि एक धर्म विशेष को माननेवाले शासकों द्वारा दूसरे धर्म को माननेवाले शासकों और अधीनों के खिलाफ की गयी दमन-उत्पीड़न की कार्रवाइयों पर परदा डाला जाये. इतिहास बतलाता है कि शासक वर्ग चाहे किसी भी धर्म के रहे हों, उनका यह विशेषाधिकार रहा है कि वे अपनी प्रजा को और अपने दुश्मनों को लूटें और उनका उत्पीड़न करें और जो मालमत्ता मिले उसकी मुख्यत: शासक वर्ग के ऊपरी तबकों के सदस्यों के बीच बंदरबांट कर लें. अगर इसलामी बादशाहों और राजाओं ने हिंदू मंदिरों की लूटपाट की तो इतिहासकार इस तथ्य को नजरअंदाज करके उनके प्रति कोई सद्भावना पैदा नहीं कर सकते. पर ऐसी लूटपाट के कारणों का विश्लेषण करना होगा और उनकी व्याख्या करनी होगी जैसा कि मोहम्मद हबीब ने अपनी पुस्तक सुल्तान महमूद आफ गजनीन में महमूद गजनी द्वारा की गयी लूटपाट के मामले में किया है. साधारण व्यक्ति भी इस बात को देख सकता है कि चाहे सभी हिंदू मंदिर सोमनाथ और तिरुपति के मंदिरों की तरह समृद्ध न रहे हों तो भी आम तौर पर मसजिदों के मुकाबले मंदिर कहीं अधिक समृद्ध हुआ करते थे. ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में, सोमनाथ मंदिर में 500 देवदासियां, 300 हजाम और बहुत से पुजारी थे. इस मंदिर के स्वामित्व में 10 हजार गांव थे. पर मसजिदों की वास्तु संबंधी बनावट ही ऐसी है कि संपत्ति संग्रह के लिए वहां कोई जगह नहीं होती. यह तो प्रार्थना के लिए एक खुली इमारत होती है. मंदिरो में संपदा के संचय के कारण ही कुछ हिंदू राजा कीमती धातुओ से बनायी गयी मूर्तियों को ध्वस्त करने और राजकोष के लिए धन संपत्ति पर कब्जा करने के लिए विशेष अधिकारी नियुक्त करते थे. ग्यारहवीं शताब्दी के अंत में कश्मीर के शासक हर्ष ने ऐसा ही किया था. उसने एक अधिकारी नियुक्त किया था, जिसका काम मूर्तियों को ध्वस्त करना था (देवोत्पाटन). ऐसे अधिकारियों की नियुक्ति और कौटिल्य द्वारा अर्थशास्त्र में अंधविश्वासपूर्ण युक्तियों से भोले-भाले लोगों से पैसा उगाहने के लिए सुझाये गये उपायों से यह विचार खारिज हो जाता है कि हिंदू शासक वर्ग के लोग अपनी प्रजा के प्रति लगातार सहिष्णु रहते आये थे. पतंजलि के महाभाष्य, यानी ईसा पूर्व 400 के लगभग के पाणिनी के प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ अष्टाध्यायी पर ईसा पूर्व 150 के लगभग लिखित उनकी टीका के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि अपना खजाना भरने के लिए मौर्य शासक धातु मूर्तियों को पिघलाते थे. अत: धन की अदम्य लालसा के चलते मौर्यों और अन्य शासकों ने धार्मिक मूर्तियों की पवित्रता तक को नहीं बख्शा.

निश्चय ही अशोक ने जो कुछ किया वह कहीं अधिक श्लाघ्य और सराहनीय था, पर उसकी नीति से ब्राह्मणों को आर्थिक धक्का लगा. मौर्यों की सत्ता के रहे-सहे अवशेषों का सफाया करनेवाला और ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के अंत के आसपास ब्राह्मण राजवंश का संस्थापक, पुष्यमित्र शुंग दूसरी तीसरी शताब्दि के आसपास लिखित ग्रंथ दिव्यावदान में बौद्ध मतावलंबियों के घोर उत्पीड़क के रूप में प्रकट होता है. वह अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ स्तूपों को नष्ट करता, विहारों को जलाता, भिक्षुओं की हत्याएं करता, शाकल यानी आधुनिक सियालकोट तक आगे बढ़ता चला गया था. सियालकोट में उसने घोषणा की थी कि जो भी उसे एक बौद्ध भिक्षु का सिर लाकर देगा, उसे सोने के सौ सिक्के पुरस्कार में मिलेंगे. यह बात अतिरंजनापूर्ण भी हो सकती है, क्योंकि शुंग शासन के अंतर्गत बौद्ध स्तूपों का निर्माण भी किया गया था. लेकिन पुष्यमित्र शुंग और भिक्षुओं के बीच शत्रुतापूर्ण वातावरण से इनकार नहीं कि या जा सकता. हमें यह भी पता चलता है कि पश्चिम बंगाल में गौड़ के शैव शासक शशांक ने उस बोधिवृक्ष को कटवा डाला था, जिसके नीचे बैठ कर बुद्ध को ज्ञान (बुद्धत्व) प्राप्त हुआ था. सातवीं शताब्दी के उसके समकालीन राजा हर्ष को सहिष्णु शासक माना जाता है पर उसने भी उन ब्राह्मणों को कारावास में डाला और उनका संहार किया था जिन पर कन्नौज की सभा में बुद्ध के सम्मान में खड़ी की गयी मीनार को जलाने का षड़ंयत्र रचने का आरोप था. मध्यकाल के आरंभ में दक्षिण भारत के जैनियों और शैवों के बीच हमें खुली शत्रुता की बातें सुनने को मिलती हैं और परंपरागत कथनों से पता चलता है कि 8000 जैनियों को सूली पर चढ़ा दिया गया था. यह घटना मंदिर के उत्कीर्णनों में भी परिलक्षित है.

क्रमशः

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सांप्रदायिक राजनीति और राम की ऐतिहासिकता-4

Posted by Reyaz-ul-haque on 10/05/2007 01:52:00 AMराम और कृष्ण के अस्तित्व, इतिहास के सांप्रदायिकीकरण और धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल पर प्रोफेसर राम शरण शर्मा के व्याख्यान की चौथी किस्त.

प्रोफेसर आरएस शर्मा

कुछ महत्वपूर्ण भारतीय इतिहासकार ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा बिछाये सांप्रदायिक जाल में फंस गये. 19वीं शताब्दी के दौरान मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल करने की औपनिवेशिक नीति पर चलते हुए ब्रिटिश इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ताओं ने मुसलमान शासकों पर आरोप लगाया कि उन सभी ने समान और अनवरत रूप से हिंदू मंदिरों को नष्ट किया तथा हिंदुओं का दमन-उत्पीड़न किया ताकि मुसलिम राजाओं के शासन की तुलना में ब्रिटिश शासन की बेहतर छवि प्रस्तुत की जा सके. अंगरेज़ों द्वारा सांप्रदायिक इतिहास लेखन का सर्वाधिक स्पष्ट उदाहरण 1849 में भारत सरकार के सचिव एचएम इलियट की कलकत्ता से प्रकाशित पुस्तक, बिब्लियोग्राफिकल इंडेक्स : द हिस्टोरियंस ऑफ मुहम्मडन इंडिया के पहले खंड की उनके द्वारा लिखित प्रस्तावना में मिलता है. इलियट महोदय, जो बाद में चल कर डावसन के साथ सुल्तानों और मुगल बादशाहों के शासन से संबंधित आठ खंडोंवाली पुस्तक हिस्ट्री ऑफ इंडिया एज टोल्ड बाइ इट्स हिस्टोरियंस के लेखक के रूप में प्रसिद्ध हुए, मुसलिम शासकों की कठोरतम शब्दों में भर्त्सना करते हैं. उनका रोष यह है कि `अंगरेजों द्वारा गद्दी पर बिठाये गये मुसलिम राजा भी आलस और भोगविलास के गर्त में डूब गये तथा दुर्गुणों में वे कालीगुला या कोमोडोस से होड़ देने लगे.' इलियट के अनुसार मुसलिम शासकों ने हिंदू शोभायात्राओं, पूजा-आराधना आदि पर रोक लगा दी. मूर्तियों का अंग-भंग किया, मंदिरों को धराशायी कर डाला. लोगों का जबरन धर्म परिवर्तन किया और बड़े पैमाने पर खून-खराबा किया, संपत्ति की लूटपाट की आदि. उन्होंने पुस्तक के पहले खंड में इन सभी असहनीय कार्रवाइयों के उदाहरण प्रस्तुत किये. इलियट ने जो तसवीर प्रस्तुत की है वह लगभग एक तरफा है और निर्लज्जताभरी दुर्भावना से प्रेरित है. इलियट को पूरी आशा थी कि एक बार उसकी पुस्तक छप जाये तो अंगरेजों को `अपनी सरकार के तहत अधिकतम व्यक्तिगत स्वतंत्रता भोगनेवाले बड़बोले बाबुओं की देशभक्ति और अपनी वर्तमान हालत के पतन को लेकर चीख-पुकार सुनने को नहीं मिलेगी.' वह आशा प्रकट करते हैं कि `थोड़े से समय में ही' वे अब `उस अंधकारपूर्ण अवधि के दिनो' की वापसी के बारे में `आहें भरना' बंद कर देंगे. बहरहाल इलियट को यहां तक यकीन था कि अपने शारीरिक और नैतिक गठन में त्रुटियों के कारण, जिन्हें न तो भोजन से और न शिक्षा से दूर किया जा सकता है. भारतवासी राष्ट्रीय स्वतंत्रता तक का प्रयास नहीं करेंगे.


पहली किस्तें : एक, दो, तीन
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उपनिवेशवादी पुरातत्वेत्ता भी इलियट की ही भावनाओं को दोहराते हैं. इस तरह 1891 में अयोध्या के स्मारकों की चर्चा करते हुए, ए फ़्युहरर अविवेक पूर्ण ढंग से इस कुप्रेरित स्थानीय परंपरा को अपना लेते हैं कि जन्मस्थान पर स्थित मंदिर सहित अयोध्या के तीनों मंदिरों को मुसलमानों ने ही ध्वस्त किया था. (द मोनूमेंटल एंटीक्विटीज एंड इंस्क्रिप्शंस इन दि नार्थ वेस्टर्न प्रोविंसेज एंड अवध, आरकियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, इलाहाबाद,1891 पृ 297). आगे वह कहते हैं कि `अधिकतर आधुनिक ब्राह्मण और जैन मंदिर अपने से भी प्राचीन उन मंदिरों की जगह पर अवस्थित हैं, जिन्हें मुसलमानों ने नष्ट कर दिया था' (वही, पृ 296-97). इन अतिरंजनापूर्ण टिप्पणियों का कोई आधार नहीं है, जो उस समय की गयी थीं, जब सन सत्तावन के विद्रोह की स्मृतियां ताजी ही थीं तथा ब्रिटिशविरोधी वहाबी आंदोलन की अनुगूंजें अभी मंद नहीं पड़ी थीं. ऐसा लगता है कि डब्ल्यूडब्ल्यू हंटर द्वारा मुसलमानों के सहायतार्थ दिये गये प्रवचन (इंडियन मुसलमांस, 1870) केवल शासकों तक ही सीमित थे और शैक्षिक जगत के उनके भाईबंदों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा था.

यह साफ जाहिर है कि 19वीं शताब्दी के औपनिवेशिक इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता भारतीय इतिहासकारों को सांप्रदायिकता की घुट्टी पिलाने में सफल हो गये थे. यही कारण था कि बंगाल के प्रमुख इतिहासकारों ने पूर्वी भारत में ब्रिटिश हुकूमत की स्थापना को वरदान समझा. हालांकि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के लिए समान रूप से उत्पीड़नकारी था, तो भी जदुनाथ सरकार जैसे महान इतिहासकार उसे परित्राणकारी कृत्य के रूप में देखते हैं. यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि उनके विचारों को आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव जैसे इतिहासकारों ने अपना लिया और उन्हें बेतुकेपन की हद तक खींच ले गये. श्रीवास्तव पाकिस्तान के निर्माण के लिए सिंध पर 712 में हुए अरबों के हमले को जिम्मेदार समझते है. यह बात सुविदित है कि सिंध पर अरबों द्वारा हमला भारत के इतिहास में निष्प्रभावी घटना थी. हालांकि अरबों ने भारतीय संस्कृति के कुछ तत्वों को पश्चिम में छितराया जरूर था पर सिंध पर उनके चार शताब्दियों के शासन ने भारतीय राज्यतंत्र संस्कृति और समाज पर कोई वास्तविक छाप नहीं छोड़ी.

बंगाल के कुछ अग्रणी शिक्षाशास्त्रियों और इतिहासकारों के दिमाग चूंकि सांप्रदायिक ढर्रे पर काम कर रहे थे. अत: वे इतिहास के एक ऐसे समेकित विभाग के बारे में नहीं सोच सकते थे, जिसमें इतिहास के सभी कालों और पहलुओं को पढ़ाया जा सके. स्पष्ट ही प्राचीन भारत के महिमामंडन के लिए ही पहली बार देश में कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास तथा संस्कृति का अलग से एक विभाग खोला गया. इसी तरह हिंदू इतिहास के अध्ययन के समकक्ष इसलामिक इतिहास का एक विभाग भी खोला गया. यह महत्वपूर्ण है कि कलकत्ता विश्वविद्यालय में भारतीय इतिहास के अध्ययन के लिए अनुशंसित पाठ्यक्रम में राजपूत इतिहास, मराठा आदि पर प्रबंध भी लिखे गये. इसके विपरीत अंगरेजों के औपनिवेशिक शासन के खिलाफ बंगाल में अनेकानेक विद्रोहों की मिसाले होने के बावजूद उनके संबंध में कोई पाठ्यक्रम नहीं अपनाये गये. अत: ऐसा लगेगा कि मुसलमानों को विदेशी मानने का विचार-हालांकि वे स्थायी रूप से देश में बस गये थे और देश की मिली-जुली संस्कृति का अभिन्न अंग बन गये थे- सांप्रदायिक ढर्रे पर ऐतिहासिक अध्ययनों के संगठन द्वारा पोषित किया गया और विधि सम्मत करार दिया गया. विश्वविद्यालयों में ऐतिहासिक और अन्य अध्ययनों का नमूना कलकत्ता ने ही बंगाल, बिहार व अन्य पड़ोसी क्षेत्रों के विश्वविद्यालयों के लिए प्रस्तुत किया. जब एकबार कलकत्ता में प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति का विभाग खुल गया तो बाद में चल कर बनारस और दूसरे विश्वविद्यालयों में भी ऐसे विभाग खोले गये. इसमें कोई संदेह नही कि इन विभागों के कई सदस्यों ने बहुमूल्य शोधकार्य किया पर इसके साथ इनमें से बहुत से विभाग बहुत दिन तक रूढिवाद और हिंदू सांप्रदायिकता के गढ़ बने रहे और उन्होंने प्राचीन भारत में जो कुछ भी हुआ उसकी प्राचीनता और अनूठेपन पर जोर दिया तथा प्रकारांतर से यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि हिंदू धर्म मूलत: इसलाम और अन्य धर्मों से श्रेष्ठ है.

क्रमशः

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सांप्रदायिक राजनीति और राम की ऐतिहासिकता-3

Posted by Reyaz-ul-haque on 9/30/2007 01:12:00 PMराम और कृष्ण के अस्तित्व, इतिहास के सांप्रदायिकीकरण और धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल पर प्रोफेसर राम शरण शर्मा के व्याख्यान की तीसरी किस्त.

प्रोफेसर आरएस शर्मा

मेशचंद्र मजूमदार (1888-1980) की रचनाओं में तो हिंदू पुनरुत्थानवाद का तत्व प्रबलतर दिखायी देता है. वे भारतीय जनता के इतिहास और संस्कृति पर बहुत से खंडों में प्रकाशित उस पुस्तक के प्रमुख संपादक थे, जिसे पुनरुत्थानवादी कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की देखरेख में बिड़लाओं की वित्तीय मदद से बंबई से भारतीय विद्या भवन द्वारा प्रकाशित किया गया था. काल विभाजन की दृष्टि से हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ दि इंडियन पीपुल में उन कालों के बारे में अधिक खंड दिये गये, जिन्हें मजूमदार हिंदू गौरव और प्रभुत्व के काल समझते थे तथा उन कालों के बारे में कम खंड थे, जिन्हें वह मुसलिम प्रभुत्व के काल समझते थे. वह बृहत भारत के कट्टर पक्षपोषक थे. उन्होंने दक्षिणपूर्व एशिया की देशीय संस्कृतियों की उपेक्षा की और उसके हिंदूकरण पर जोर दिया. कहना न होगा कि मजूमदार इतिहास के प्रति सांप्रदायिक दृष्टि के मुखर प्रवर्तक थे. उनकी ऐतिहासिक दृष्टि तुर्क सल्तनत की स्थापना संबंधी उनकी टिप्पणियों से स्पष्ट होती है:


पहली किस्तें : एक, दो
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अब तक के भारतीय इतिहास में पहली बार दो एकदम अलग-अलग, लेकिन प्रमुख समुदाय और संस्कृतियां एक -दूसरे के बिल्कुल रू-ब-रू खड़ी थीं और भारत दो शक्तिशाली इकाइयों में स्थायी रूप से विभाजित हो गया था, जिनमें से प्रत्येक इकाई की अपनी विशिष्ट पहचान थी, जो दोनों के किसी भी प्रकार के विलयन या दोनों के बीच किसी भी तरह की धनिष्ठ स्थायी समन्वय के लिए उपयुक्त नहीं थी. (हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ दि इंडियन पीपुल-5, पृष्ठ-xxviii)
इस दृष्टि के आधार पर मजूमदार ने उन सभी लोगों को आड़े हाथों लिया है जो हिंदुओं और मुसलमानों के बीच भाईचारे और सद्भाव के उदाहरणों का उल्लेख करते थे. उन्होंने हिंदु और मुसलमान शासकों के सम्मिलित शासन के पूरे विचार को ही कठोरता से ठुकरा दिया. उनके अनुसार :
प्रमुख हिंदू राजनीतिक नेता यह उद्घोषित करने की स्थिति तक बढ़ गये कि मुसलिम हुकूमत के दौरान हिंदू कतई शासित जाति नहीं थे. इस तरह के बेढंगे विचार, जिन पर 19वीं शताब्दी के प्रारंभ के भारतीय नेता हंस ही सकते थे, उस शताब्दी के अंत में राजनीतिक जटिलताओं के तकाजों के कारण इतिहास का अंग बन गये. (वही,पृष्ठ xxix)
इतना ही नहीं मजूमदार के अनुसार, हिंदू शासक राजवंशों के पतन के बाद, मुसलिम हमलावरों और शासकों ने मंदिरों और मठों का लगभग पूरी तरह विनाश किया. इस तरह उन्होंने हिंदू संस्कृति को पोषित और पल्लवित करनेवाले स्रोतों को नष्ट करके उसका लगभग सफाया ही कर डाला. उसका आगे का विकास रुक गया तथा उसके ऊपर लगभग अभेद्य अंधकार छा गया. वह हिंदू संस्कृति के विकास के 'अचानक रुक जाने' की चर्चा इस प्रकार करते हैः 'अतीत के गौरव और संस्कृति की मशाल उत्तर में केवल मिथिला और दक्षिण में विजयनगर में ही जलाये रखी गयी. (वही पृष्ठ-xxxi).

मजूमदार का यह विचार कि मध्य एशिया से आये हमलावरों को सल्तनत काल के हिंदू विशुद्ध धार्मिक अथवा इसलामिक रूप में ही देखते थे, आधारहीन है. भारतीय लोग मध्य एशियाइयों और उनके शासन को नृवंशीय, सामाजिक और सांस्कृतिक समुदाय की प्रभुता के रूप में देखते थे. यही वजह है कि गाहड़वाल के अभिलेखों में तुरुष्कदंड का उल्लेख मिलता है, यानी ऐसा कर जो तुर्कों से लड़ने के लिए जनता पर लगाया गया था. क्षेत्रीय भाषाओं में अक्सर ही हमें तुरूक शब्द मिल जाता है और इससे ऐसे लोगों का बोध नहीं होता, जिनकी धार्मिक भिन्नता पर बल दिया गया हो. 'मुसलिम' और 'इसलाम' शब्द कदाचित ही प्रयुक्त हुए हैं. ऐसा भारतीय आर्य भाषाओं और साथ ही द्रविड़ भाषाओं, दोनों में मिलता है. दक्षिणवासी भी अक्सर सुल्तानों द्वारा भेजी गयी सेनाओं को तुर्क ही समझते थे. मजूमदार मिथिला में हिंदु संस्कृति की उदीप्त चमक की बात करते हैं पर मैथिली के महान कवि विद्यापति तो मिथिला के मुसलमानों के लिए हर जगह तुरुक शब्द का इस्तेमाल करते हैं. इस तरह मध्य एशियाई आक्रामकों के संबंध में मध्यकालीन हिंदू धारणा उनके धर्म पर जोर नहीं देती थी. वह आधुनिक काल के मजूमदार द्वारा प्रतिपादित पूर्णत: सांप्रदायिक धारणा से बिल्कुल भिन्न थी.

यह कहना कि 'इसलाम' ने हिंदू संस्कृति को लगभग पूरी तरह से विनष्ट कर दिया था, इतिहास का एक और मिथ्याकरण है. अगर हम आंतरिक और बाहरी कारकों की अनुक्रिया में भारतीय संस्कृति के विकास और संश्लेषण की प्रक्रिया को देखें तो पता चलता है कि मध्यकाल में संस्कृति की निश्चित तौर पर प्रगति हुई. खुद मजूमदार ने सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलनों के महत्व पर जोर दिया है. यहां हम भारतीय इसलामी कला, वास्तु, साहित्य आदि के विकास की, जिससे इतिहास के विद्यार्थी भली-भांति परिचित हैं, अधिक चर्चा नहीं करेंगे. पर यदि हम केवल ब्राह्मण संस्कृति और संस्कृत साहित्य के अध्ययन की प्रगति तथा भारतीय आर्य और द्रविड़ भाषाओं के विकास की समीक्षा करें, तब भी मध्यकाल भारतीय इतिहास का निर्विवाद रूप से महान रचनात्मक काल सिद्ध होगा. सुलतानों और मुगल राजाओं के शासनकाल में ही बंगाल सहित भारत के प्रत्येक महत्वपूर्ण क्षेत्र ने अपनी सांस्कृतिक पहचान विकसित की और इस तरह भारतीय संस्कृति के बहुरंगी वितान में अपना योगदान किया. असल में क्षेत्रीय भाषाओं और साहित्य के विकास की दृष्टि से मध्यकाल सर्वाधिक महत्वपूर्ण समय था. मजूमदार सोचते हैं कि हिंदू संस्कृति केवल दो अलग-अलग द्वीपवत क्षेत्रों में, उत्तर में मिथिला में और दक्षिण में विजयनगर में पुष्पित-पल्लवित हुई. पर संस्कृत की सबसे अधिक पांडुलिपियां हमें 'मुसलिम' शासित राज्य कश्मीर से प्राप्त हुई हैं, जहां के पंडितों को फारसी और संस्कृत दोनों में समान रूप से प्रवीणता प्राप्त थी. अगर तर्क यह है कि नालंदा की समस्त बौद्ध पांडुलिपियां मुसलमानों द्वारा नष्ट कर दी गयी थीं, तब गुजरात के सुलतानों के समय क्यों जैन पांडुलिपियों को भली-भांति संरक्षित रखा गया? ऐसी अधिकतर पांडुलिपियां, जिनके आधार पर प्राचीन भारतीय विरासत का उद्धार हुआ खास कर कश्मीर, पश्चिमी और दक्षिणी भारत तथा मिथिला और पूर्वी भारत में सुलतानों और मुगलों के शासन के दौरान, लिखी गयीं और संरिक्षत की गयीं. जिसे आधुनिक 'हिंदू नवजागरण' कहा जाता है, वह इन मध्यकालीन पांडुलिपियों के बिना संभव ही न हुआ होता.
तुर्क सुल्तानों और मुगल बादशाहों के शासनकाल में, मूल रचनाओं के अलावा न केवल महाकाव्यों, काव्यों, धर्मसूत्रों और स्मृतियां पर बल्कि श्रोतसूत्रों और गुह्यसूत्रों, दर्शन, तर्क शास्त्र, व्याकरण, खगोल विज्ञान, गणित आदि सहित वैदिक ग्रंथों पर भी अनेकानेक विद्वत्तापूर्ण टीकाएं लिखी गयीं. प्राचीन पाठों पर टीकाएं लिखने की प्रक्रिया में टीकाकारों ने काफी कुछ मौलिक योगदान किया. यही नहीं, तर्क शास्त्र की नव्यन्याय प्रणाली, जिसके लिए भारत प्रसिद्ध है न केवल मिथिला में विकसित हुई, बल्कि सुलतानों के शासन के अंतर्गत बंगाल में भी उसका विकास हुआ. धर्मशास्त्र के टीकाकारों ने समाज में हो चुके परिवर्तनों को यथोचित लक्षित किया और धर्मशास्त्र के प्रावधानों की तदनुसार व्याख्या करने का प्रयास किया. निश्चय ही भारत में उत्तर मध्यकाल के दौरान ठीक उस तरह की सामाजिक और आर्थिक प्रगति नहीं हुई, जिस तरह की ग्रति पश्चिमी यूरोप के देशों में हुई थी. किंतु यह बात लगभग संपूर्ण एशिया के बारे में सच है, जिसका कि केवल एक हिस्सा इसलामी शासकों के शासन के अंतर्गत था. फिर भारत में ही मुसलिम शासन को क्यों भला-बुरा कहा जाये? यह तो केवल सांप्रदायिक आधार पर ही किया जा सकता है.

क्रमशः

नोट :शब्दों पर जोर खुद आर एस शर्मा का है.

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सांप्रदायिक राजनीति और राम की ऐतिहासिकता-2

Posted by Reyaz-ul-haque on 9/27/2007 11:58:00 AMआज देखते हैं कि किस तरह देश के इतिहास को विकृत किया गया और उसमें आधारहीन बातों की मिलावट की गयी, जिनके आधार पर आज फ़ासिस्ट सांप्रदायिक गिरोह अपनी स्थापनाएं प्रस्तुत करते हैं. दूसरी किस्त.

प्रोफेसर आरएस शर्मा
मय-समय पर, जब धर्म के पुराने सिद्धांत बदलती हुई सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के संदर्भ में संगत नहीं रह जाते, तो धर्मों में सुधार करने तथा उनके अनुयायियों से उन्हें स्वीकार्य बनाने के लिए आंदोलन चलाये जाते हैं.
आधुनिक काल में आर्य समाज, प्रार्थना समाज और ब्रह्म समाज इसके महत्वपूर्ण उदाहरण है. इनमें से आर्यसमाज आंदोलन सर्वाधिक महत्वपूर्ण जान पड़ता है. आर्यसमाज आंदोलन ने महिलाओं और शूद्रों पर, जिन पर कि वेदों का पठन-पाठन करने की पाबंदी थी और खास करके महिलाओं पर, जिन्हें कि बालविवाह व आजीवन वैधव्य का शिकार बनाया जाता था, लगायी गयी पाबंदियों के विरुद्ध अभियान चलाया. उसने मूर्ति पूजा का विरोध किया और उससे जनित बुराइयों के खिलाफ संघर्ष चलाया. आर्यसमाजियों ने काफी शोघ और अनुसंधान किया तथा अन्य सुधारकों के साथ मिल कर प्राचीन ग्रंथों से, खास कर वेदों से, अनेक ऐसे उदाहरण एकत्र किये, जिनसे हिंदू समाज में महिलाओं और निचले तबकों की स्थिति को ऊपर उठाने के लिए समर्थन प्राप्त हो. पर अब आर्यसमाज के प्रारंभिक संस्थापकों द्वारा हिंदू समाज के सुधार के लिए दरसाया गया, उत्साह नहीं रहा. उसकी जगह मुसलिम विरोधी अभियान ने ले ली है. इससे भी बुरी बात यह कि संसार के सारे बुद्धि-वैभव और उपलब्धियों को, आंख बंद कर, वेदों में ही स्वीकार करने की विचारग्रस्तता हावी है. इस तरह के प्रचार को कोई भी इतिहासकार, जिसे अपने को तथ्यों और प्रमाणों पर आधारित करना होता है, गले के चे नहीं उतार सकता. जब तक इस तरह के घृणित प्रचार का तथ्यों और आंकड़ों द्वारा प्रतिकार नहीं किया जाता, जिनकी प्राचीन ग्रंथों में कोई कमी नहीं, तब तक शिक्षित समुदाय के लोगों दिमागों के संप्रदायीकरण को नहीं रोका जा सकता और शिक्षितों के प्रभाव में रहनेवाले साधारणजनों को भी भ्रमित होने से बचाया नहीं जा सकता. अन्य कारणों के साथ इस तरह के जहरीले धार्मिक प्रचार के चलते ही मध्यकाल में जेहाद हुए और कैथोलिकों व प्रोटेस्टेटों के बीच धर्मोन्मादपूर्ण युद्ध हुए. इस समय इस तरह का प्रचार भारत की राष्ट्रीय एकता के ध्येय के लिए खतरा खड़ा करता है.

पहली किस्त यहां पढें
औपनिवेशिक आधिपत्य के तहत एशियाई देशों के राष्ट्रवादियों ने, जो उस समय सभ्य देश बन चुके थे, जब औपनिवेशिक देश सांस्कृतिक रूप से बहुत पिछड़े हुए थे-स्वभावत: अपने अतीत से प्रेरणा ग्रहण की. भारत, अरब देशों, तुर्की और कई अन्य देशों में अभी यही हुआ. स्वतंत्रता सेनानी अपने देश के सामंती पिछड़ेपन तथा अपने शासकों की औद्योगिक -पूंजीवादी प्रगति से जरा भी विचलित नहीं हुए. उपनिवेदशवादियों की हुकूमत का प्रतिरोध करने के लिए उन्होंने अतीत की अपने देश की उपलब्धियों को याद किया. इनसे उन्होंने विश्वास और प्रेरणा हासिल की. भारत में और अन्यत्र यह कार्य कुछ खतरा मोल लेकर इतिहासकारों ने किया. अपने निरंकुश शासन को न्यायोचित ठहराने के लिए ब्रिटिश इतिहासकारों ने यह सिद्ध करने की कोशिश की कि भारतीय स्वशासन चला सकने में असमर्थ हैं और यह कि वे अपने समूचे इतिहास के दौरान निरंकुश सत्ता के आदी रहे है. इसके जवाब में भारतीय इतिहासकारों ने यह दरसाने की कोशिश की कि भारत में स्थानीय स्तर पर और राज्य स्तर पर भी, अनेक स्वशासित संस्थाओं का अस्तित्व रहा है. ब्रिटिश इतिहासकारों ने खास तौर से और पश्चिमी इतिहासकारों ने आम तौर से यह दावा किया कि सभ्यता के अनेक तत्व भारत में बाहर से आये थे. इसके जवाब में भारतीय राष्ट्रीय इतिहासकारों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि उनकी संस्थाएं और सांस्कृतिक तत्व विशुद्ध देशीय थे. निस्संदेह, भारत के अतीत को अंगरेज़ों द्वारा मलिन करने के प्रत्युत्तरस्वरूप अच्छा शोध कार्य किया गया. राष्ट्रवादियों द्वारा भारत के अतीत की जो खोज की गयी, उसने देश के इतिहास के अनेक पक्षों को उजागर किया, किंतु साथ ही पुनरुत्थानवाद के कतिपय प्रबल तत्वों को भी उछाला.

प्राचीन भारत का अध्ययन करनेवाले कुछ प्रमुख इतिहासकारों में, जिन्होंने देशभक्तिपूर्ण स्थिति अपनाने का प्रयास किया, काशीप्रसाद जायसवाल, हेमचंद्र रायचौधरी और केए नीलकंठ शास्त्री आते हैं. जायसवाल पहले इतिहासकार थे, जिन्होंने प्राचीन भारत में गणतंत्रों के अस्तित्व के बारे में ठोस प्रमाण प्रस्तुत किये. इसी तरह नीलकंठ शास्त्री ने सबसे पहले चोलों और पल्लवों के तहत ग्राम और जिला स्तरों पर स्वशासन संस्थानाओं के महत्व को रेखांकित किया. ऐसे अनुसंधानों ने निश्चत ही उन लोगों की वाणी को मुखर किया, जो अंगरेजों की इस बात का खंडन करना चाहते थे कि भारत में निरंकुश शासन की ही परंपरा रही है. पर कभी-कभी ये लेखक विज्ञानसम्मत ऐतिहासिक पुनर्रचना की सीमाओं का अतिक्रमण कर जाते थे. जायसवाल ने हिंदू राज्यतंत्र नामक अपनी पुस्तक का समापन इस सूक्ति से किया: जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी, जिसका अर्थ है कि जननी तथा जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़ कर है. उन्होंने प्राचीन भारतीय राजनीतिक संस्थाओं का बड़ा ही प्रेरणाप्रद वर्णन प्रस्तुत किया. नीलकंठ शास्त्री ने तो ब्राह्मणों की सांस्कृतिक सर्वोच्चता तक पर जोर दिया है और कहीं-कहीं यह माना है कि हिंदू मुसलमानों से अधिक सहिष्णु थे, एक ऐसी उक्ति जो अब संप्रदायवादियों के बीच काफी चल पड़ी. जायसवाल, नीलकंठ शास्त्री और अन्य इतिहासकारों ने शकों और मौर्य युग के बाद भारत आनेवाले अन्य लोगों के विजातीय चरित्र पर भी जोर दिया. के गोपालाचारी ने सातवाहनों की इस बात के लिए सराहना की कि उन्होंने शकों को इस आधार पर भारत में अपना पैर नहीं जमाने दिया कि वे विदेशी थे. इस तरह उनलोगों तक को, जो स्थायी रूप से भारत में बस गये और उसके सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ताने-बाने का अभिन्न अंग बन गये, विदेशी कहने का यह रवैया अब कुछ राजनीतिज्ञों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है तथा हिंदू संप्रदायवादी बार-बार मुसलमानों को विदेशी कहते हैं.

क्रमशः

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सांप्रदायिक राजनीति और राम की ऐतिहासिकता

Posted by Reyaz-ul-haque on 9/26/2007 12:11:00 AMज्यों-ज्यों और जब-जब सत्ता का संकट गहराता है, धर्म और सांप्रदायिक राजनीति की शरण में पूरी व्यवस्था चली जाती है. याद करिए 1991-1992 का दौर, जब देश पर आर्थिक उदारीकरण के रूप में नव उदारवाद थोपा जा रहा था, सांप्रदायिक राजनीति उफान पर थी. आम लोग लोग मंदिर-मसज़िद के चक्कर में पडे़ थे और देश में अमेरिकी साम्राज्यवादी हस्तक्षेप मज़बूत हो रहा था. बाज़ार खोले जा रहे थे और लोगों की जेब तक बहुराष्ट्रीय पंजों की पहुंच संभव बना दी गयी थी. यह केवल एक उदाहरण है. उसके पहले और उसके बाद भी, जब-जब राजसत्ता संकट में फंसी है और उससे निकलना मुश्किल लगा है-धर्म ने उसकी मदद की है-यह एक ऐतिहासिक तथ्य है. अभी, जब सरकार को लगा कि वह परमाणु करार पर फंस रही है, रामसेतु सामने आया. यहां साफ़ होना चाहिए कि यह संकट तथाकथित वामदलों की तरफ़ से नहीं था, बल्कि वामदलों ने किसी भी तरह का संकट नहीं खडा़ किया, वे तो बस नूराकुश्ती करते रहे. उन्होंने वे असली सवाल खड़े ही नहीं किये जो इस करार के संदर्भ में किये जाने चाहिए थे. कुल मिला कर वाम दलों ने विरोध का दिखावा किया (उनसे हम इसके अलावा किसी और चीज़ की अपेक्षा भी नहीं करते). संकट यह था कि सरकार (मतलब यह पूरी व्यवस्था ही) लोगों के सामने इसके लिए बेपर्द हो रही थी कि उसने अमेरिका के सामने घुटने टेक दिये थे और लोग देख रहे थे कि इस 'महाशक्ति' को एक अदना-सा अमेरिकी अधिकारी भी घुड़क सकता था. वाम दल अब नौटंकी करते-करते थक चुके थे और कोई दूसरी स्क्रिप्ट उन्हें नहीं मिल पा रही थी. रामसेतु इसी मौके पर त्राता के रूप में सामने आया.
मगर रामसेतु ने कई और सवाल भी खडे़ किये. इस पूरे प्रसंग पर लोगों ने यह कहा कि किसी की आस्था से छेड़्छाड़ ठीक नहीं. बिलकुल. आस्थाओं से क्यों छेड़छाड़ हो? यह ज़रूरी भी नहीं. कोई कुछ भी आस्था रखे, इससे किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? मगर जब इसी आस्था के नाम पर हज़ारों-लाखों का कत्लेआम किया जाने लगे (किया जा चुका ही है) तो इस आस्था को माफ नहीं किया जाना चाहिए. यह किसी की भी आस्था हो सकती है कि राम हुए थे, मगर इसे लेकर जब वह हत्याकांड रचने लगे तो फिर उसे यह बताना ज़रूरी है कि वह गलती पर है. ऐतिहासिक तौर पर यह साबित नहीं होता कि राम और कृष्ण का अस्तित्व था. कोई कुछ भी कहता और मानता रहे, वह मानने को आज़ाद है. मगर इससे इतिहास लिखनेवाले और वैज्ञानिक नज़रिया रखनेवाले अपनी धारणा क्यों बदलें? क्या एएसआइ यह मान ले कि राम का अस्तित्व था? भगवा ब्रिगेड तो यही चाहता है.
प्रोफेसर रामशरण शर्मा प्राचीन भारत के इतिहास के प्रख्यात विद्वान हैं. वे उन इतिहासकारों में से हैं, जिन्होंने प्राचीन भारत के बारे में पुरानी धारणाओं और नज़रिये को बिल्कुल बदल डाला. इसीलिए वे हमेशा से भगवा ब्रिगेड के निशाने पर रहे हैं. उनपर कई जानलेवा हमले तक किये गये हैं. इस व्योवृद्ध इतिहासकार का एक लंबा व्याख्यान हम किस्तों में यहां प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसमें उन्होंने धर्म, सांप्रदायिकता और राजनीति के विभिन्न आयामों और राम-कृष्ण की ऐतिहासिकता पर विस्तार से चर्चा की है. यह व्याख्यान उन्होंने 1990 में काकतिया विश्वविद्यालय में हुए आंध्र प्रदेश इतिहास कांग्रेस के 14वें अधिवेशन में दिया था. इसका अनुवाद यश चौहान ने किया है. व्याख्यान का प्रकाशन पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने किया है. साभार प्रस्तुति.

सांप्रदायिक इतिहास और राम की अयोध्या

आरएस शर्मा
ब राजनीतिक उद्देश्य से धर्म के नाम पर उसके अनुयायियों को उभारा जाता है तब सांप्रदायिकता का उदय होता है. अपने संप्रदाय की सुरक्षा के नाम पर दूसरे संप्रदाय के लोगों को सताना भी सांप्रदायिकता है. भारत में संप्रदायवाद को खास तौर पर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संबंधों की प्रकृति की रोशनी में देखा जाता है, हालांकि हाल में सिख धर्म के आधार पर संगठित समुदाय को भी जोरों से उभारने की चेष्टा चल रही है.
प्रकृति द्वारा खड़ी की गयी बाधाओं को हटाने के लिए मानव को अनवरत संघर्ष करना पड़ता है, जिससे धार्मिक विश्वास, कर्मकांड और रीति-रिवाजों का उदय और विकास होता है. उसी प्रकार सामाजिक मसलों पर मानव के विरुद्ध मानव के संघर्ष में भी धर्म और कर्मकांड उभरते व विकसित होते हैं. जब लोगों के लिए प्रकृति द्वारा प्रस्तुत कठिनाइयों की युक्तिपूर्वक विवेचना कर पाना कठिन हो जाता है, तो वे चमत्कारिक और अंधविश्वासपूर्ण स्पष्टीकरणों का सहारा लेने लगते हैं. इन्हीं से जन्म लेते हैं, अनेकानेक देवी-देवता. ऋग्वेद में वर्णित अधिकतर देव प्रकृति की या तो उपकारी या फिर अपकारी शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं.
फिर जब किसानों, दस्तकारों और अन्य मेहतकशों की कमाई पर आधारित अपनी सत्ता और विशेषाधिकारों को बरकरार रखने में विशेषाधिकार-संपन्न लोग कठिनाई अनुभव करते हैं, तो वे कर तथा खिराज वसूल करने के लिए अंधविश्वास के इस्तेमाल के तरीके ढूंढ़ निकालते हैं. इसी तरह जब अभावों के बोझ से पिस रहे जनसमुदाय सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करते हैं, तो वे देवता को सहायता के लिए पुकारते हैं क्योंकि उन्हें विश्वास कराया जाता है कि देवता ने मुक्त और समान मानव प्राणियों का सृजन किया है. इस तरह, धर्म का प्रयोग समाज के विशेषाधिकार संपन्न और सुविधाहीन वर्ग, दोनों करते हैं. पर यह कार्य अधिकतर विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के लोग करते हैं, क्योंकि उनकी विचारधारा, जैसाकि भारतीय स्थिति में दरसाया जा सकता है, प्रभुत्वपूर्ण विचारधारा में तब्दील कर दी जाती है और जनता के दिलो-दिमाग में गहरे बिठा दी जाती है.
प्राचीन और मध्यकाल के पूंजीवाद पूर्व के समाजों में धर्म ने वही भूमिका निभायी, जो भूमिका आधुनिक काल के पूंजीवादी और अन्य समाजों में विभिन्न प्रकार की विचारधाराएं निभा रही हैं. इस कथन का आशय यह नहीं कि पूंजीवाद पूर्व के राज्य धर्म शासित राज्य थे. उनकी नीतियां अधिकतर शासक वर्ग के आर्थिक व राजनीतिक हितों से निर्देशित होती थीं और खुद धर्म का इस्तेमाल इसी प्रयोजन से किया जाता था. इस तरह बौद्ध, ईसाई और इसलाम जैसे धर्मों के उदय ने और भी स्वस्थ दिशाओं में समाज व अर्थतंत्र में सुधार लाने व उसे पुनर्गठित करने में सहायता पहुंचायी. धर्मों द्वारा प्रतिपादित सामाजिक मानदंडों ने बेहतर सामाजिक प्रणालियां निर्मित करने के लिए जनता को प्रेरित किया. पर यह बात समझ लेनी चाहिए कि प्रत्येक धर्म खास किस्म के सामाजिक वातावरण की उपज होता है. इस तरह, बौद्ध धर्म द्वारा आम तौर पर समस्त प्राणियों और विशेष कर गायों की रक्षा पर जो जोर दिया गया, उससे ऐसे समय में सहायता मिली जब लगभग ईसा पूर्व 500 के बाद, गंगा के मध्य मैदानी भागों में बड़े पैमाने पर खेती में लौह उपकरणों का इस्तेमाल होने लगा था. लेकिन बौद्ध धर्म ने उन वर्ण आधारित भेदों को नहीं मिटाया, जो समाज के विभिन्न हिस्सों के बीच अतिरिक्त उत्पाद (अधिशेष) के असमान वितरण के फलस्वरूप पैदा हो गये थे. ब्राह्मण धर्म ने गाय की रक्षा के विचार पर ध्यान केंद्रित करके बौद्ध धर्म के हाथ से पहल छीन ली. बड़ी ही चालाकी से उसने यह घोषणा भी कर डाली कि ब्राह्मणों का जीवन भी गाय की तरह अति पवित्र है और फिर इस विचार को पुर्नजन्म के विचार के साथ जनता के दिमाग में ठोंक-पीट कर बैठा दिया गया. स्पष्ट ही, गाय की रक्षा के सिद्धांत ने उन जनजातीय क्षेत्रों में हल आधारित कृषि और पशुपालन को काफी उन्नत किया, जो क्षेत्र विजित करके और भूमि अनुदानों के जरिये, ब्राह्मणों के प्रभाव के तहत आ गये थे. लेकिन अब कृषि तकनीक में उल्लेखनीय प्रगति के साथ सुरक्षा में प्राथमिकता की दृष्टि से स्वभावत: ही, मवेशी काफी पीछे रह गये हैं. आज पवित्र गाय का सिद्धांत हमारी आर्थिक प्रगति में अवरोध बन जाता है. हम या तो ऐसे पशुओं का ही पेट भरें जो आर्थिक रूप से अलाभकारी और अनुत्पादक हैं और या फिर उत्पादक कार्यों में संलग्न इनसानों का ही. इस बात पर अनेक प्रमुख अर्थशास्त्रियों ने जोर दिया है. इस प्रकार हम भौतिक जीवन और विचारधारा की शक्ति के तकाजों के बीच परस्पर क्रिया को देख सकते हैं. पर इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि आरंभिक इतिहास में बौद्ध धर्म ने सकारात्मक भूमिका निभायी और समाज को गति प्रदान की.
इसी तरह ईसाई धर्म ने दास और स्वामी के बीच समानता के सिद्धांतों का प्रचार किया, दोनों को ईश्वर की दुनिया में एक ही कोटि का प्राणी घोषित किया, पर रोमन साम्राज्य ने इस दोनों के बीच मौजूद वास्तविक सामाजिक विभेद का उन्मूलन करने के लिए कुछ भी नहीं किया. इसलाम धर्म ने विभिन्न अरब कबीलों और जनजातियों को एक ही राज्य में जोड़ कर प्रगतिशील भूमिका अदा की और उनके बीच लगातार चलनेवाले कबीलाई झगड़े-फसादों को काफी हद तक कम कर दिया. उसने अमीर और गरीब के बीच समानता के सिद्धांतों का भी प्रचार किया और यह आग्रह किया कि जकात (दान) व करों के जरिये अमीरों को गरीबों की मदद करनी चाहिए. पर इसलाम भी अपनी जन्मभूमि में मौजूद सामाजिक वास्तविकता की उपेक्षा न कर सका और उसे अपने अनुयायियों को अधिकतम चार पत्नियां रखने की अनुमति देनी पड़ी. यह कबीलाई मुखियों द्वारा 20-30 या उससे भी अधिक पत्नियां रखने से निश्चय ही बेहतर था. हालांकि इसलाम मूर्ति पूजा के खिलाफ था, पर उसे भी इसलाम पूर्व के मक्का में स्थापित संगे असवद की पवित्रता को स्वीकार करना पड़ा. अत: धर्मों को उन सामाजिक परिस्थितियों से अलग करके नहीं देखा जा सकता, जिनमें वे जन्म लेते हैं.

क्रमशः

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