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Monday, August 23, 2010

Fwd: विभूति-कालिया: एक पितृसत्तात्मक पटकथा



---------- Forwarded message ----------
From: reyaz-ul-haque <beingred@gmail.com>
Date: 2010/8/22
Subject: विभूति-कालिया: एक पितृसत्तात्मक पटकथा
To: kanilabc@gmail.com


विभूति-कालिया: एक पितृसत्तात्मक पटकथा

नया ज्ञानोदय में छपे विभूति के इंटरव्यू के बाद काफी कुछ हुआ है, कहा गया है, लिखा गया है. लेकिन साथ में, काफी कुछ नहीं भी कहा गया है, काफी कुछ नहीं भी लिखा गया है और जो होना चाहिए वह अब तक नहीं हुआ है. यह महज गलत शब्दों का चयन या बदजुबानी नहीं है, जैसा कि इसे कई बार साबित करने की कोशिश की गई है. साथ ही यह सिर्फ बिक जाने की मानसिकता भी नहीं है. इसकी गहरी वजहें हैं. यह टिप्पणी बाजार, इस व्यवस्था के पितृसत्तात्मक आधारों, सामंतवाद के साथ उपनिवेशवाद की संगत और महिलाओं के साथ-साथ समाज के सभी उत्पीड़ित वर्गों की मुक्ति के संघर्षों से कट कर जी रहे और साथ में कुछ हद तक सुविधाभोगी हुए एक तबके के हितों के आपस में गठजोड़ का एक (एकमात्र नहीं, सिर्फ एक) उदाहरण भर है. इसलिए हैरत नहीं कि दलितों, स्त्रियों और आदिवासियों के पक्ष में हो रहे लेखन की मलामत करते हुए इसी ज्ञानोदय में कुछ समय पहले लिखे गए संपादकीय पर किसी का ध्यान नहीं गया था. कितना गहरा रिश्ता है आपस में इन सबका. एक व्यवस्था आदिवासियों को विस्थापित करती है, उनके संघर्षों को कुचलने के लिए सेना उतारती है. उसका एक तबका दलितों पर लगातार अत्याचार करता है. उसका एक दूसरा तबका महिलाओं को अपनी विजय के तमगे के रूप में इस्तेमाल करता है और एक संपादक (जिसके पीछे लेखकों और दूसरे बुद्धिजीवियों की एक बड़ी जमात है) उन सबके समर्थन में लिखे जा रहे को हिकारत से खारिज कर देता है. विभूति प्रसंग में हम हाशिया पर ईपीडब्ल्यू के ताजा संपादकीय का अनिल द्वारा किया गया अनुवाद प्रस्तुत कर रहे हैं.



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Nothing is stable, except instability
Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ]


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विभूति-कालिया: एक पितृसत्तात्मक पटकथा

Posted by Reyaz-ul-haque on 8/22/2010 08:58:00 PM

नया ज्ञानोदय में छपे विभूति के इंटरव्यू के बाद काफी कुछ हुआ है, कहा गया है, लिखा गया है. लेकिन साथ में, काफी कुछ नहीं भी कहा गया है, काफी कुछ नहीं भी लिखा गया है और जो होना चाहिए वह अब तक नहीं हुआ है. यह महज गलत शब्दों का चयन या बदजुबानी नहीं है, जैसा कि इसे कई बार साबित करने की कोशिश की गई है. साथ ही यह सिर्फ बिक जाने की मानसिकता भी नहीं है. इसकी गहरी वजहें हैं. यह टिप्पणी बाजार, इस व्यवस्था के पितृसत्तात्मक आधारों, सामंतवाद के साथ उपनिवेशवाद की संगत और महिलाओं के साथ-साथ समाज के सभी उत्पीड़ित वर्गों की मुक्ति के संघर्षों से कट कर जी रहे और साथ में कुछ हद तक सुविधाभोगी हुए एक तबके के हितों के आपस में गठजोड़ का एक (एकमात्र नहीं, सिर्फ एक) उदाहरण भर है. इसलिए हैरत नहीं कि दलितों, स्त्रियों और आदिवासियों के पक्ष में हो रहे लेखन की मलामत करते हुए इसी ज्ञानोदय में कुछ समय पहले लिखे गए संपादकीय पर किसी का ध्यान नहीं गया था. कितना गहरा रिश्ता है आपस में इन सबका. एक व्यवस्था आदिवासियों को विस्थापित करती है, उनके संघर्षों को कुचलने के लिए सेना उतारती है. उसका एक तबका दलितों पर लगातार अत्याचार करता है. उसका एक दूसरा तबका महिलाओं को अपनी विजय के तमगे के रूप में इस्तेमाल करता है और एक संपादक (जिसके पीछे लेखकों और दूसरे बुद्धिजीवियों की एक बड़ी जमात है) उन सबके समर्थन में लिखे जा रहे को हिकारत से खारिज कर देता है. विभूति प्रसंग में हम हाशिया पर ईपीडब्ल्यू के ताजा संपादकीय का अनिल द्वारा किया गया अनुवाद प्रस्तुत कर रहे हैं.


एक पितृसत्तात्मक पटकथा

हिंदी में महिला लेखकों के प्रति संरक्षणवादी और मर्दवादी यौन नजरिए को साहित्यिक आलोचना के रूप में प्रचलित करने की कोशिश हो रही है। 

महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (मगांअंहिंवि) के कुलपति विभूति नारायण राय ने महिला हिंदी उपन्यासकारों पर दिए गए अपने घृणित बयान के लिए खेद व्यक्त करते हुए माफ़ी मांग ली है। भारतीय प्रशासनिक सेवा के भूतपूर्व अधिकारी रहे राय ने नया ज्ञानोदय पत्रिका (भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित) को दिए अपने साक्षात्कार में कहा था कि पिछले कुछ वर्षों से नारीवादी विमर्श मुख्यतः देह तक केंद्रित हो गया है और कई लेखिकाओं में यह प्रमाणित करने की होड़ लगी है  उनमें से कौन सबसे बड़ी छिनाल (व्यभिचारी महिला, वेश्या) हैं। एक मशहूर हिंदी लेखिका की आत्मकथा का हवाला देते हुए, राय ने अतुलनीय ढंग से कहा कि अति-प्रचारित लेखन को असल में कितनी बिस्तरों में कितनी बार का दर्ज़ा दे देना चाहिए।
यह एक बहसतलब बिंदु है कि मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल सहित कई हल्कों में अपनी टिप्पणी की व्यापक निंदा के चलते राय ने माफ़ी मांगी है। अपने बचाव में वे जो पहले कह रहे थे उससे स्पष्ट है कि माफ़ीनामा उनके वक्तव्य पर आई प्रतिक्रियाओं के चलते, निश्चित तौर पर दबाव में, (ख़ासतौर से, मानव संसाधन विकास मंत्री के, जिनके क्षेत्राधिकार में यह विश्वविद्यालय है) जबरन दिया गया है न कि आत्मनिरीक्षण के बाद और नज़रिए में एक वास्तविक बदलाव की बदौलत। कुलपति ने शुरू में कहा कि महान हिंदी लेखक मुंशी प्रेमचंद ने कई बार छिनाल शब्द का इस्तेमाल किया है, कि उनका (राय का) मतलब वास्तव में यह है कि महिलाओं के अन्य मुद्दे नज़रअंदाज़ किए जा रहे हैं और कि बतौर लेखक उन्हें इन मुद्दों पर टिप्पणी करने की आज़ादी है।
हालांकि यह किसी एक व्यक्ति, चाहे वह जिस किसी भी पद में आसीन हो, की टिप्पणी मात्र से संबंधित एक मुद्दा नहीं है। यहां एक वृहद और ज़्यादा परेशान करने वाले मुद्दे– साहित्यिक दुनिया में लैंगिक क्षुद्रताओं और दुराग्रह का है। हिंदी की पहुंच और हिंदी साहित्य का बाज़ार विशाल है और कई भारतीय भाषाओं के मुक़ाबले इसके प्रकाशन और विक्रय का नेटवर्क विस्तृत और विकसित है। महिला लेखकों में महादेवी वर्मा, कृष्णा सोबती, चित्रा मुद्गल, मृणाल पाण्डेय, शिवानी, मन्नू भंडारी, अलका सरावगी और मैत्रेयी पुष्पा समेत कई अन्य के योगदान बहुत प्रशंसनीय हैं। इन लेखिकाओं को निश्चित तौर पर न तो उनकी लेखन शैली और न ही विषय-वस्तु के लिहाज़ से एक दूसरे के खांचे में बिठाया जा सकता। लेकिन जैसा कि अन्य महिला लेखिकाओं के साथ है, हिंदी में महिला साहित्य एक ख़ास ज़ाती संकीर्णता के रोग का शिकार है। प्रमुखतः पुरुष प्रधान आलोचकीय सत्ता-स्थापनाएं, महिला लेखिकाओं को साहित्य में उनके योगदान के बजाय उनके जेंडर द्वारा लेखन की ख़ासियतों को दर्ज़ करने में ख़ुद को आसान पाती हैं।  
अधिकतर दूसरे साहित्यिक सत्ता स्थापनाओं की तरह हिंदी साहित्य की दुनिया में भी गॉडफ़ादर्स हैं जो सत्ता में रहते हुए अपने इर्द गिर्द मंडलियां जमा करते हैं और आश्रय (संरक्षण देने, पालने) की रेवड़ियां बांटते हैं। बहुधा महिला लेखक पाती हैं कि वे ऐसी मंडलियों से दुश्मनी मोल लेने के ख़तरे नहीं उठा सकतीं। एक बड़े फलक में प्रभावी आलोचना और शायद बहुसंख्य पाठक भी ऐसी लेखिकाओं के लेखन से राहत पा लेते हैं जो सुधारवादी झालरों के साथ सिर्फ़ तथाकथित "महिला मुद्दों" में जुटी होती हैं। यहां तक कि जब वे बहुसंख्यक भारतीय महिलाओं की ज़िंदगी में हंसी ख़ुशी देने वाली स्पष्ट रोशनी की घोर कमी के अनगिनत बारीक़ पहलुओं — पसंद करने,या उनकी ज़िंदगी जीने के तरीक़ों, या उनके जीवनसाथी चुनने — के बारे में लिखती हैं तो आलोचना उन्हें आसानी से बर्दाश्त कर लेती है। 
लेकिन जब उनका लेखन यौन संबंधों या स्त्री यौनिकता पर महिलाओं के परिप्रेक्ष्य को छूता है तो उन्हें (आलोचकों को) असहजता चुभने लगती है और वे उसे ख़ारिज़ करने पर (अमान्य क़रार कर देने पर) तुल जाते हैं। 1980 में, हिंदी साहित्य संसार मृदुला गर्ग के ख़िलाफ़ लगाए गए अश्लीलता के आरोपों से हिल गया था जिनके उपन्यास चितकोबरा में एक नायिका है जिसके लिए यौन-कार्य बहुत उबाऊ और मशीनी होता है जिससे वो दूसरे मुद्दों की ओर अपना दिमाग़ घुमाती है। इस लेखन के लिए मृदुला गर्ग को यहां तक कि गिरफ़्तार कर लिया गया था। बाद में आरोप ख़ारिज़ कर दिए गए। दूसरी ओर कुछ लेखिकाओं ने चिंता और नाराज़गी जताई है कि कुछ प्रकाशन घरानों ने उन महिलाओं के लेखन को प्रकाशित करने से इंकार किया है जिन्हें वे व्याख्यायित करते हैं कि वह "पर्याप्त साहसी नहीं" है अर्थात वह बाज़ार को उत्तेजित करने के लिए पर्याप्त सनसनीख़ेज़ नहीं है। लेकिन तब ये लक्षण हिंदी साहित्य के लिए प्रधान नहीं हैं।
राय की मान्यता कि नारीवादी विमर्श देह तक ही नहीं केंद्रित रहना चाहिए बल्कि इसमें अन्य मुद्दों और दलितों और आदिवासियों को भी शामिल किया जाना चाहिए, एक उद्दंडता भरा चटखारा है जिसका सारा लेन-देन पितृसत्तात्मक अंधेपन के साथ साथ जाति और अन्य सामाजिक मुद्दों के बारे में सूक्ष्म सामाजिक-सुधारवादी समझदारी पर टिका है। यह साहित्यिक उत्पादन या आलोचना के लिए एक सुचिंतित दृष्टिकोण की तरह नहीं प्रकट हुआ है। बतौर एक लेखक और कुलपति, राय को साहित्यिक आलोचना को अभिव्यक्त करने का हक़ है। तथापि उनका वक्तव्य एक पितृसत्तात्मक पटकथा के मुताबिक महिलाओं के लेखन को नियंत्रित करने की कुटिल और छिछोरी प्रवृत्तियों को उजागर और प्रस्तुत करता है। यह साहित्य आलोचना की (प्रमुखतः पुरुषों के वर्चस्व वाली) दुनिया के सरलीकृत नज़रिये के रोग का सूचक है। राय की टिप्पणी, इससे भी अधिक एक दृष्टांत है जिसे चिंता का एक कारण ज़रूर  होना चाहिए। 

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बीच सफ़हे की लड़ाई

गरीब वह है, जो हमेशा से संघर्ष करता आ रहा है. जिन्हें आतंकवादी कहा जा रहा है. संघर्ष के अंत में ऐसी स्थिति बन गई कि किसी को हथियार उठाना पड़ा. लेकिन हमने पूरी स्थिति को नजरअंदाज करते हुए इस स्थिति को उलझा दिया और सीधे आतंकवाद का मुद्दा सामने खड़ा कर दिया. ये जो पूरी प्रक्रिया है, उन्हें हाशिये पर डाल देने की, उसे भूल गये और सीधा आतंकवाद, 'वो बनाम हम ' की प्रक्रिया को सामने खड़ा कर दिया गया. ये जो पूरी प्रक्रिया है, उसे हमें समझना होगा. इस देश में जो आंदोलन थे, जो अहिंसक आंदोलन थे, उनकी क्या हालत हमने बना कर रखी है ? हमने ऐसे आंदोलन को मजाक बना कर रख दिया है. इसीलिए तो लोगों ने हथियार उठाया है न?

अरुंधति राय से आलोक प्रकाश पुतुल की बातचीत.

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हम महसूस करते हैं कि यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक विध्वंसक कदम होगा, यदि सरकार ने अपने लोगों को, बजाय उनके शिकायतों को निबटाने के उनका सैन्य रूप से दमन करने की कोशिश की. ऐसे किसी अभियान की अल्पकालिक सफलता तक पर संदेह है, लेकिन आम जनता की भयानक दुर्गति में कोई संदेह नहीं है, जैसा कि दुनिया में अनगिनत विद्रोह आंदोलनों के मामलों में देखा गया है. हमारा भारत सरकार से कहना है कि वह तत्काल सशस्त्र बलों को वापस बुलाये और ऐसे किसी भी सैन्य हमले की योजनाओं को रोके, जो गृहयुद्ध में बदल जा सकते हैं और जो भारतीय आबादी के निर्धनतम और सर्वाधिक कमजोर हिस्से को व्यापक तौर पर क्रूर विपदा में धकेल देगा तथा उनके संसाधनों की कॉरपोरेशनों द्वारा लूट का रास्ता साफ कर देगा. इसलिए सभी जनवादी लोगों से हम आह्वान करते हैं कि वे हमारे साथ जुड़ें और इस अपील में शामिल हों.
-अरुंधति रॉय, नोम चोम्स्की, आनंद पटवर्धन, मीरा नायर, सुमित सरकार, डीएन झा, सुभाष गाताडे, प्रशांत भूषण, गौतम नवलखा, हावर्ड जिन व अन्य

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