Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti basu is DEAD

Jyoti Basu: The pragmatist

Dr.B.R. Ambedkar

Memories of Another Day

Memories of Another Day
While my Parents Pulin Babu and basanti Devi were living

"The Day India Burned"--A Documentary On Partition Part-1/9

Partition

Partition of India - refugees displaced by the partition

Sunday, September 12, 2010

Fwd: Caste, Census & Dhokha



---------- Forwarded message ----------
From: dilip mandal <dilipcmandal@gmail.com>
Date: Sun, Sep 12, 2010 at 12:51 PM
Subject: Caste, Census & Dhokha
To:


pl read this article.


rgds

dilip

फिजूलखर्ची का काम

सरकार इस देश में जातियों की गिनती करने के लिए 2000 करोड़ रुपये खर्च करने वाली है। भारत जैसे गरीब देश में सिर्फ जातियों की संख्या जानने के लिए किया जाने वाला यह खर्च पूरी तरह गैर-जरूरी है। जनगणना में जाति को शामिल न करने और जाति की अलग से गिनती करने के सरकार के फैसले का एक बड़ा दोष तो यही है कि इस वजह से भारत के राजकोष पर अनावश्यक रूप से 2,000 करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा। सरकार ने अगर 9 से 28 फरवरी, 2011 को होने वाली जनगणना में जाति का कॉलम जोड़ने का फैसला किया होता तो यह खर्च बच सकता था और इसका बेहतर इस्तेमाल मुमकिन था, लेकिन जाति की गिनती को जनगणना से अलग करने से होने वाली यह अकेली गड़बड़ी नहीं है। इस फैसले का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि इस वजह से जाति जनगणना का मूल उद्देश्य ही विफल हो जाएगा। जाति जनगणना का मूल लक्ष्य कभी भी यह नहीं रहा है कि सभी जातियों की अलग-अलग संख्या का पता चल जाए। जनगणना में जाति को शामिल करने का मकसद यह है कि इससे जाति और जाति समूहों की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति की जानकारी मिलेगी और इसका तुलनात्मक अध्ययन करके उन जाति समूहों की शिनाख्त हो पाएगी, जिन्हें विशेष अवसर मिलने चाहिए। साथ ही अगर कोई ऐसी जाति है जिसे अब विशेष अवसर की जरूरत नहीं है तो उसकी भी पहचान हो पाएगी। भारत जैसे सामाजिक विविधता वाले देश में विकास की नीतिया बनाने के लिए इस तरह के आकड़ों का महत्व निर्विवाद है। योजना आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट और सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय से लेकर कार्मिक मंत्रालय तथा संसदीय समितियों तक ने लगातार इस बात की सिफारिश की है भारत में जाति आधारित आकड़ों की जरूरत है। जाति आधारित आकड़ों का मतलब सिर्फ जातियों की संख्या नहीं है, बल्कि उनकी स्थिति और हैसियत की जानकारी भी है।

सरकार ने अभी जाति की गिनती का जो फार्मूला बनाया है उससे जातियों की संख्या के अलावा कोई जानकारी नहीं मिलेगी। जून से लेकर सितंबर, 2011 के बीच सरकार जाति की गिनती कराने वाली है। इसमें लोगों से सिर्फ नाम और उनकी जाति पूछी जाएगी, आर्थिक-सामाजिक-शैक्षणिक स्थिति के आतरिक संबंधों की जानकारी नहीं मिल पाएगी। जाति की संख्या अपने आप में किसी काम की नहीं है, क्योंकि इस संख्या का विकास कार्यक्रमों के लिए कोई महत्व नहीं है। सरकार भारी भरकम रकम जानकारी हासिल करने के लिए नहीं, बल्कि कुछ महत्वपूर्ण जानकारिया छिपाने के लिए कर रही है। जनगणना से अलग जाति की गिनती कराने के सरकार के फार्मूले में दूसरी दिक्कत यह है कि यह गिनती जनगणना अधिनियिम, 1948 के तहत नहीं होगी। जनगणना अधिनियम के तहत होने वाली हर कार्यवाही और प्राप्त आकड़ों को विधायी मान्यता हासिल है। इस अधिनियम की वजह से सरकारी शिक्षकों को जनगणना के काम में लगाने का सरकार को अधिकार प्राप्त है। साथ ही जनगणना में गलत जानकारी देने पर सजा का भी प्रावधान इस कानून में है। जनगणना के लिए जुटाई गई व्यक्तिगत जानकारी को सार्वजनिक करने पर भी रोक है, लेकिन सरकार ने जाति की गणना को जनगणना अधिनियम से बाहर कर जाति गणना के मामले में कानूनी अड़चनों के लिए गुंजाइश बना दी है। सरकार ने जाति पूछने को निजता से जोड़कर और इस बारे में अटॉर्नी जनरल की राय पूछकर भी कानूनी बाधाओं के लिए द्वार खोल दिए हैं।

जनगणना को लेकर सरकार लगातार टालमटोल की मुद्रा अपनाती रही है। पिछले कई साल से संसद में बार बार पूछे गए सवालों केजवाब में सरकार हमेशा यही जवाब देती रही कि आजादी के बाद से जाति की जनगणना नहीं हुई है और आगे भी जाति की जनगणना करने का कोई इरादा नहीं है। इस साल जब जाति जनगणना की माग ने जोर पकड़ा तो पहले यह कहा गया कि जनगणना का काम शुरू हो चुका है, जबकि उस समय सिर्फ घरों की गणना यानी हाउसलिस्टिंग का काम चल रहा था। बाद में यह तर्क दिया गया कि इस तरह जातिवाद बढ़ेगा। संसद में दबाव बढ़ने पर सरकार ने यह तर्क दिया कि जातियों की गिनती का काम बेहद पेचीदा है। जाति आधारित जनगणना सामाजिक न्याय की दिशा में बढ़ने के लिए एक जरूरी शर्त है। इस बारे में राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति बनने के बाद इसे अलग अलग बहानों से टालने की कोशिशें हो रही हैं।

[दिलीप मंडल: लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]



--
Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

No comments:

Post a Comment