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Thursday, December 2, 2010

ओपेन-आउटलुक भी किसी कॉरपोरेट के महज टूल तो नहीं?

ओपेन-आउटलुक भी किसी कॉरपोरेट के महज टूल तो नहीं?

http://mohallalive.com/2010/12/02/barkha-dutt-explanation-on-niira-radia-tape/

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2 December 2010 11 Comments

रखा दत्त कठघरे में थीं। सामने अपने सवालों के साथ मौजूद थे चार दिग्गज पत्रकार। दिलीप पडगांवकर (पूर्व संपादक, द टाइम्स ऑफ इंडिया), संजय बारू (बिजनेस स्टैंडर्ड के संपादक और प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार), स्वपन दासगुप्ता (दक्षिणपंथी रुझान वाले वरिष्ठ पत्रकार) और ओपन पत्रिका के संपादक मनु जोसफ। बहस नीरा राडिया टेप कंट्रोवर्सी में बरखा दत्त की भूमिका पर होनी थी। क्या बरखा दत्त ने दलाली की है? क्या बरखा ने नीरा राडिया के इशारे पर 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के केंद्र में मौजूद डीएमके नेता और पूर्व टेलीकॉम मंत्री ए राजा के लिए लॉबिंग की है? अगर बातचीत लॉबिंग का हिस्सा नहीं थी तो फिर ऐसी कौन सी मजबूरी थी, जिसके तहत एनडीटीवी की ग्रुप एडिटर बरखा दत्त ने एक पीआर एजेंट को मंत्रिमंडल गठन की सूचनाएं दीं और उसके कहने पर कांग्रेस के नेताओं से बातचीत की? ऐसे ढेरों सवाल थे, जिनका जवाब सभी जानना चाहते थे। दिलीप पडगांवकर, संजय बारू, स्वपन दासगुप्ता और मनु जोसफ ने वो तमाम सवाल किये। करीब पचास मिनट तक बिना किसी ब्रेक के बरखा दत्त ने उनके सभी सवालों का जवाब दिया। बहस के आखिर तक कुछ सवालों के जवाब मिले और कुछ नये सवाल उठ खड़े हुए।

बहस के दौरान ओपन के संपादक मनु जोसफ और बरखा दत्त के बीच काफी तीखी बहस हुई। मनु ने बरखा दत्त से एक बुनियादी सवाल पूछा कि एक पीआर एजेंट (नीरा राडिया), जो देश की दो सबसे बड़ी कंपनियों ((टाटा ग्रुप और रिलायंस)) का काम देखती हैं, वो कैबिनेट को लेकर काफी उत्सुक हैं तो क्या यह स्टोरी है या नहीं? आखिर एक पीआर कंपनी और एजेंट का कैबिनेट फॉरमेशन से क्या लेना-देना? अगर वो किसी के लिए लॉबिंग कर रही है, तो वो एक स्कैंडल कैसे नहीं है? बरखा दत्त ने इस सवाल का जवाब दिया। कहा कि यहां मसला जजमेंट का है। सबकी अपनी-अपनी सोच होती है और उसी के हिसाब से वो तय करता है कि कौन सी न्यूज स्टोरी है और कौन सी न्यूज स्टोरी नहीं है। इसी आधार पर मनु जोसफ, आपके लिए वो स्टोरी है… आज एक साल बाद… 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की आधी-अधूरी परतें खुलने के बाद … आप यह कह सकते हैं कि वो बहुत बड़ी स्टोरी थी। लेकिन उस समय मुझे नहीं लगा। मेरा सारा ध्यान कैबिनेट को लेकर चल रही उठापटक पर था। और नीरा राडिया मुझे डीएमके की अंदरूनी पॉलिटिक्स की जानकारी दे रही थीं। इसलिए वो मेरे लिए एक सोर्स से अधिक अहमियत नहीं रखती थीं। ऐसे में आप उसे एक एरर ऑफ जजमेंट (फैसला लेने में हुई चूक) कह सकते हैं। बरखा ने कहा कि वो इस गलती को मानने को तैयार हैं। लेकिन किसी को यह हक नहीं कि उसे भ्रष्टाचार से जोड़ दे।

बरखा दत्त ने मनु पर भी एक सवाल दागा। उन्होंने कहा कि रॉ टेप को बिना किसी पुष्टि के छाप देना, प्रसारित कर देना नैतिकता के किस दायरे में आता है? उन्होंने आउटलुट और ओपन मैगजीन दोनों की नीयत पर सवाल उठाते हुए पूछा कि अगर किसी के खिलाफ कोई स्टोरी करनी है, तो क्या यह फर्ज नहीं बनता कि उससे उसका पक्ष जानने की कोशिश हो? लेकिन ओपन और आउटलुक दोनों ने बिना पक्ष जाने हर तरह के आरोप मढ़ दिये। ये किस किस्म की पत्रकारिता है? मनु जोसफ ने इस सवाल का कोई ठोस जवाब नहीं दिया। वो बार-बार यह कहते रहे कि बरखा जब तक उनके सवाल का जवाब नहीं देती, वो भी बरखा के सवाल का जवाब नहीं देंगे। बरखा बार-बार दोहराती रहीं कि उनसे गलती हुई। एक पीआर एजेंट से किस तरह बात करनी चाहिए और किस तरह नहीं – ये गलती हुई। एरर ऑफ जजमेंट भी हुआ। लेकिन मनु ने साफ कह दिया कि वो बरखा के जवाब से संतुष्ट नहीं हैं। मतलब उन्हें जवाब अपनी संतुष्टि के हिसाब से चाहिए था। लेकिन बरखा और मनु जोसफ – दो अलग-अलग शख्स हैं। मनु यह समझने को तैयार नहीं थे कि बरखा उनके हिसाब से सोचें यह जरूरी तो नहीं। इसलिए वो अपनी जिद पर अंत तक कायम रहे।

बातचीत के दौरान बरखा ने कई बार कहा कि नीरा राडिया उनके लिए खबर का एक सोर्स थीं। इस पर मनु ने कहा कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में नीरा राडिया सोर्स नहीं बल्कि सबसे बड़ी खबर थीं। बरखा को नीरा की मंशा समझने की कोशिश करनी चाहिए थी। जवाब में बरखा ने मनु से पूछा कि जिस सोर्स ने आप तक नीरा राडिया की बातचीत के कुछ टेप पहुंचाये हैं, क्या आपने उसका मोटिव समझने की कोशिश की है? मतलब कहीं ऐसा तो नहीं कि ओपन और आउटलुक भी किसी कॉरपोरेट वॉर में महज एक टूल बन कर रह गये हैं? ये सवाल बहुत बड़ा सवाल है और इसका जवाब न केवल मनु जोसफ बल्कि विनोद मेहता को भी देना चाहिए। जिस नैतिकता के आधार पर वो पूरी मीडिया को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं, उसी नैतिकता के आधार पर उन्हें अपना पक्ष भी साफ करना चाहिए।

बहस के दौरान दिलीप पडगांवकर, संजय बारू और स्वपन दासगुप्ता ने भी सवाल किये। दासगुप्ता ने पूछा कि आखिर कांग्रेस तक अपनी बात पहुंचाने के लिए नीरा राडिया ने बरखा दत्त को ही क्यों चुना? बरखा ने कहा कि हो सकता है कि नीरा राडिया को यह लगा हो कि एक सियासी संवाददाता होने के नाते मेरे पास मंत्रिमंडल गठन को लेकर कुछ भीतरी जानकारी होगी। लेकिन सच तो यही है कि उन्होंने नीरा की कोई भी मांग नहीं पूरी की। कांग्रेस के किसी भी नेता से किसी के लॉबिंग करने को नहीं कहा। खुद कांग्रेस के नेताओं ने ये साफ किया है कि बरखा ने उनसे ए राजा के बारे में कोई बातचीत नहीं की है।

बरखा के मुताबिक टेप कांड में नीरा राडिया से उनकी बातचीत के कुछ हिस्सों को पेश किया गया है। सारी बातचीत प्रकाशित नहीं की गयी है। यही नहीं, उन्होंने ए राजा के लिए कोई लॉबिंग नहीं की। उन्होंने बातचीत से एक दिन पहले यानी 21 मई, 2009 और बातचीत वाले दिन यानी 22 मई, 2009 की अपनी रिपोर्ट एक बार फिर से पेश की। इसमें उन्होंने साफतौर पर कहा था कि डीएमके की तरफ से काफी दबाव है, लेकिन प्रधानमंत्री डीएमके के दो नेताओं टीआर बालू और ए राजा को कैबिनेट में शामिल करने को तैयार नहीं।

बरखा दत्त ने अपनी सफाई में काफी कुछ कहा, लेकिन अभी माहौल उनके खिलाफ है। उन तमाम पत्रकारों और संस्थाओं के खिलाफ जिनका नाम नीरा राडिया टेप कांड में उछल रहा है। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में जिनकी भूमिका संदेह के दायरे में है। इसलिए बेहतर तो यही होगा कि बार-बार सफाई देने की जगह जांच पूरी होने तक वीर सांघवी की तरह बरखा दत्त भी ब्रेक लें। यही बरखा दत्त, एनडीटीवी और पत्रकारिता के हित में होगा।

((जनतंत्र में छपा है यह विश्‍लेषण))

11 Comments »

  • रवीश से पूछने वाला said:

    रवीश बाबू कहां गुम हैं ? दूसरे चैनलों के संपादकों को उनके धत्तकर्म की याद दिलाते रहने वाले रवीश कुमार अपने चैनल के संपादक के मामले में मौन क्यों हैं ? जब अपने घर में दलाली का भांडाफोड़ हुआ तो चुप क्यों हो गए ? कैसे यकीन करें कि बरखा दत्त एनडीटीवी के लिए सत्ता प्रतिष्ठान से फायदे नहीं उठाती होंगी ? एनडीटीवी अगर ईमानदार है तो क्यों नहीं बरखा के खिलाफ कार्रवाई करता है ? नेताओं -नौकरशाहों से नैतिक आधार पर इस्तीफे मांगने की मुहिम चलाने वाले चैनल , पत्रकार आज अपनी चमड़ी बचाने के लिए झूठे तर्क क्यों गढ़ रहे हैं और उन्हें बख्शा क्यों जा रहा है ? रवीश कुमार अगर इतने ही नैतिकतावादी हैं तो एनडीटीवी की राजकुमारी ने जो कुछ किया है , उस पर मुंह खोलें या फिर कहें कि सुविधावादी पत्रकारिता में अपने संस्थान के पक्ष में खड़ा होना उनकी मजबूरी है । रवीश कहें कि जैसे एक घर डायन भी छोड़कर चलती है , वैसे ही अपना घर छोड़कर दूसरों के घरों पर ही पत्थर मारने में उन्हें मजा आता है । अपनी नौकरी चलती रहे तभी तो दूसरे चैनलों पर लिखते रहेंगे। आज एनडीटीवी के सारे नौतिकतावादी और पत्रकारिता के झंडावरदार कहां छिपे हैं ? किस मुंह से अब तक बाकी दुनिया को आईना दिखाते रहे हैं । जब अपना चेहरा दिखा तो आईना उलट कर कंबल में घुस गए कि कोई चेहरा न देखे , कोई सवाल न करे । निकलो भाई , बाहर निकलो । हिम्मत दिखाओ । वरना कभी किसी और पर ऊंगली उठाने लायक नहीं रहोगे रवीश ….।
    बरखा दत्त का असली चेहरा तो अब हम सब के सामने उजागर हो गया है । जिस चेहरे को एनडीटीवी अपना चेहरा बता कर एक दशक से दर्शकों के साथ छल कर रहा था , उस चेहरे मे इतने दाग नजर आए हैं कि अब टीवी पर नौतिकता की दुहाई देने वाले चेहरों से भरोसा उठ गया है । साफ सुथरी छवि वाला एनडीटीवी अब तक बरखा के खिलाफ कार्रवाई करने के बदले उन्हें प्लेटफार्म देकर सफाई देने का मौका दे रहा है , जाहिर एनडीटीवी की नजर में बरखा गुनहगार नहीं है । होंगी भी नहीं क्योंकि इसी बरखा दत्त ने एनडीटीवी के भी खूब लांबिग की होगी । एनडीटीवी में बरखा जैसे कई और चेहरे हैं , जो नेताओं और दलालों से दिन रात संपर्क में रहते हैं और पत्रकारिता की मां-बहन करते हुए नौतिक बने रहते हैं ।

  • रवीश से पूछने वाला said:

    रवीश कुमार देश भर में घूम -घूम कर रवीश की रिपोर्ट तैयार करते हैं तो लोग तो उनसे पूछते ही होंगे कि बरखा ने पत्रकारिता के साथ …..क्यों किया । क्या जवाब देते हैं रवीश कुमार , कम से कम यही हमें बता दें ।
    रवीश कुमार अब तक मीडिया के मुद्दे पर बहुत मुखर रहे हैं । अब बोलती बंद है । बोलिए …हुजूर कुछ तो बोलिए …। एनडीटीवी की महादेवी ने राडिया छाप पत्रकारिता करके जो मिसाल कायम की है , उसके बारे में कुछ क्यों नहीं बोलते । ब्लॉग पर कुछ क्यों नहीं लिखते । एनडीटीवी के उन सभी पत्रकारों को घेर -घेर कर यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि बरखा को क्या अब भी साफ -सुथरी छवि वाली पत्रकार मानते हैं …। नहीं मानते हैं तो क्या बरखा के मामले में बोलने की हिम्मत नहीं है क्योंकि सवाल लाखों की मोटी पगार का है । यही अगर किसी दूसरे चैनल के पत्रकार ने किया होता और एनडीटीवी वाले नहीं फंसे होते तो गला फाड़ कर सब चिल्ला रहे होते …। रवीश कुमार ब्लॉग पर लेख पेल चुके होते । पंकज पचौरी हमलोग में सवाल खड़े करते । बिग फाईट से लेकर विनोद दुआ लाईव हर जगह मीडिया के गिरते स्तर पर नौतिक स्टैंड ले रहे होते । अब सब चुप हैं । विनोद दुआ क्यों नहीं बोल रहे हैं । विनोद दुआ लाइव में नेताओं के मुद्दे पर तो विनोद बहुत मुखर होते हैं , बरखा के मुद्दे पर क्या सोच रहे हैं …।

  • rajiv said:

    रवीश से पूछने वाले से सहमत…

  • dr.anurag said:

    पूरा इंटरव्यू उम्मीद के मुताबिक नहीं था .बरखा पहली बार असहज दिखी ओर शुरुआत से ही वे संचालक जैसी भूमिका निभा रही थी …..कही कही वे थोड़ी इगोइस्ट भी लगी….सभी संपादक मुझे संतुलित लगे मनु जरूर थोड़े अधिक आक्रामक थे ….अलबत्ता संपादको को सवाल पूछने का अवसर कम मिला …..कल हेड टुडे चैनल ने भी एक बहस रखी जिसमे संघवी ने अपना पक्ष रखा था .दो चीज़े साफ़ हुई है के मीडिया घरानों -राजनेताओ -पत्रकारों में में आपसी सम्बन्ध काफी बेहतर है …..जो शायद किसी पेशे की निष्पक्षता के लिए बेहतर नहीं है ……नैतिकताओ का चुनाव अब वक़्त ओर हालात के मुताबिक होने लगा है …..

  • Prakash K Ray said:

    See this clever (read shrewd)article in Tehelka… Blame the system, forget the persons….

    http://www.tehelka.com/story_main48.asp?filename=Ne041210CoverstoryIII.asp

    a nice one in the Hindu….

    http://www.thehindu.com/opinion/columns/siddharth-varadarajan/article920054.ece?homepage=true

  • hindimedialeaks said:

    No way …She has to go …wait 15 days she will be out side of media world

  • rahul singh said:

    sahi kaha.ravish kumar mard ka bacha hai toh jawab dega warna napunsak kahlaayega..ravish aao aur bill se bahar nikalo

  • k n tomar said:

    NDTV – Nadia-Dutt TeleVision

  • शशि सिंह said:

    अरे भाई, क्यों एक भले आदमी की नौकरी लेने पर तुले हुये हो? रवीश को इस बात की बधाई क्यों नहीं देते की उनके बीच रहकर भी बंदा कम-से-कम उनके जैसा नहीं हुआ। बिहारी मध्य वर्ग का एक मामूली-सा लड़का अपनी काबिलियत से लाख-दो की पगार पाने वाला रवीश कुमार बन पाया है, यह उसका गुनाह तो नहीं हो सकता। अलबत्ता इस बात की खुशी है कि आज हम उसकी आवाज को इतना महत्वपूर्ण मानते है कि इस मुद्दे पर हम उसका मत जानना चाहते हैं। भाइयों, अपना रवीश हमारी नजरों में बड़ा पत्रकार जरूर है लेकिन अभी भी इतना बड़ा आदमी नहीं है जिसके बोलने से कुछ क्रांति हो जाएगी। मतलब ये कि उसके बोलने से कुछ उखड़ने वाला नहीं है तो भला उसे क्यों उखाड़ने पर तुले हो?

    मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि यदि रवीश ने इस तरह के उकसावे में आकर या अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुनकर कुछ कह-सुन लिया और अपनी नौकरी गंवा बैठे तो यही सवाल पूछने वाले लोग उन्हें बहुत बड़ा चुतिया कहेंगे। तो रवीश, प्लीज, चुतिया मत बनिये… आपको जो ठीक लगे वही कीजिये… बस इतनी इल्तजा है कि पत्रकार ही रहियेगा, दलाल मत बनियेगा। बन भी गये तो हम कुछ कर तो नहीं सकते… हां, हमें दु:ख बहुत होगा।

  • hindimedialeaks said:

    Kisne kaha Ravish Imaandaar hai ?

  • शशि सिंह said:

    पहले उनका भी कोई टेप या कोई कुछ और लीक होने दो… तब तक बेनिफिट ऑफ डाउट के सिद्धांत के आधार पर किसी को भी ईमानदार मानने में क्या हर्ज़ है?

    यदि आपके पास ही कोई पुख़्ता मसाला हो तो जारी कर दीजिये… वैसे भी किसी मान्यता का बनना या बिगड़ना चंद तर्कों की दूरी पर ही होता है। कुछ अकाट्य तर्क और कुछ पुख़्ता सबूत… बस!

और बोलने वाले कम हैं। यहां हम उन्‍हें सुनते हैं, जो हमें समाज की सच्‍चाइयों से परिचय कराते हैं।

uncategorized »

[2 Dec 2010 | Comments Off | ]

सिनेमा »

[2 Dec 2010 | No Comment | ]
किरोस्‍तामी की 'सर्टीफाइड कॉपी' : सच भी! सपना भी!!

अजित राय ♦ 'सर्टीफाइड कॉपी' में आर्ट गैलरी चलाने वाली एक फ्रेंच महिला (जूलियट बिनोचे) एक ब्रिटिश लेखक और कला समीक्षक (विलियम शिमेल) से उलझती हुई दिखायी गयी है, जिसने अभी-अभी कलाकृतियों की कॉपी करने के चलन पर अपना लेक्‍चर पूरा किया है। ऊपर से देखने पर यह एक वयस्‍क किस्‍म की रोमांटिक स्‍टोरी लग सकती है, जो किसी के साथ कहीं भी घटित हो जाता है। ध्‍यान से देखने पर पता चलता है कि इसमें किरोस्‍तामी का यह दर्शन छिपा हुआ है कि हमारी दुनिया और जीवन में दरअसल असली या वास्‍तविक कुछ भी नहीं होता, सब कुछ कहीं-न-कहीं से 'कॉपी' किया गया है। यूरोप के कुछ समीक्षक इस फिल्‍म को यूरोपीय कला फिल्‍मों की नकल भी बता रहे हैं, जो दरअसल असल से भी अधिक वास्‍तविक है।

मीडिया मंडी, मोहल्ला भोपाल »

[2 Dec 2010 | 2 Comments | ]
माखनलाल में वेब पत्रकारों ने लेक्‍चर दिये, सम्‍मानित हुए

डेस्‍क ♦ माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में आयोजित एक कार्यक्रम में देश के दो पत्रकारों ने विद्यार्थियों से अपने अनुभव बांटे। ये पत्रकार थे बंगला पत्रिका 'लेट्स गो' एवं 'साइबर युग' के प्रधान संपादक जयंतो खान एवं प्रवक्ता डॉट काम के संपादक संजीव सिन्हा। संजीव सिन्हा ने वेब पत्रकारिता के बारे में जानकारी दी। अपने अनुभव बांटते हुए उन्होंने कहा कि जो तेजी इस माध्यम में है, वह मीडिया की अभी अन्य किसी विधा में नहीं है। यही तेजी इस माध्यम के लिए वरदान है। उन्‍होंने कहा कि वेब मीडिया अपने आप में एक अनूठा माध्‍यम है, जिसमें मीडिया के तीनों प्रमुख माध्‍यम प्रिंट, रेडियो और टेलीविजन की विशेषताएं समाहित है।

सिनेमा »

[1 Dec 2010 | No Comment | ]

अजित राय ♦ यह अक्‍सर कहा जाता है कि सिनेमा की अपनी भाषा होती है और वह साहित्यिक आख्‍यानों को महज माध्‍यम के रूप में इस्‍तेमाल करता है। ज्‍यां लुक गोदार की यह फिल्‍म आने वाले समय में सिनेमा के भविष्‍य का एक ट्रेलर है, जहां सचमुच में दृश्‍य और दृश्‍यों का कोलॉज शब्‍दों और आवाजों से अलग अपनी खुद की भाषा में बदल जाते हैं। ज्‍यां लुक गोदार ने पहली बार इसे हाई डेफिनेशन (एचडी) वीडियो में शूट किया है। वे विश्‍व के पहले ऐसे बड़े फिल्‍मकार हैं, जो अपनी फिल्‍मों की शूटिंग और संपादन वीडियो फार्मेट में करते रहे हैं। यह उनकी पहली फिल्‍म है, जहां उन्‍होंने अपनी पुरानी तकनीक से मुक्ति लेकर पूरा का पूरा काम डिजिटल फॉर्मेट पर किया है।

नज़रिया, रिपोर्ताज »

[30 Nov 2010 | 3 Comments | ]
शरीफ चाचाओं की कमी नहीं, जरूरत है शिनाख्त की

शाहनवाज नजीर ♦ कुछ तो बात है इस देश में, जहां सांप्रदायिक उन्माद की सैकड़ों कहानियां घटने के बाद भी लोग जी रहे हैं और खुश हैं। आज भी हमारे बाग-बगीचे और पड़ोस, सब कुछ जिंदा और महफूज हैं। इसकी कई वजहें हो सकती हैं और शायद शरीफ चाचा जैसे लोग उन्‍हीं वजहों में से एक हैं। मैं भी जानता हूं एक चाचा को, लोग उन्हें नईम चाचा कहकर पुकारते हैं। वे सालों से अपने जिले की लावारिस लाशों के वारिस हैं। करीब छह बरस पहले जब उन्होंने यह काम शुरू किया था तो डेढ़ दर्जन लाशों का अंतिम संस्कार करने के बाद इंडिया टुडे वाले उनके पास पहुच गये और मिसाल-बेमिसाल कालम में एक रिपोर्ट छापी। रिपोर्ट छपे करीब पांच साल हो गये और अब तक वे कितनी लाशों को मुखाग्नि दे चुके हैं, गिनती करना मुश्किल है।

सिनेमा »

[30 Nov 2010 | One Comment | ]
पोलांस्‍की से कोलस्‍की तक राजनीति, युद्ध, प्रेम का सिनेमा

अजित राय ♦ अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह में विश्‍वप्रसिद्ध फिल्‍मकार रोमन पोलांस्‍की की नयी फिल्‍म 'द घोस्‍ट राइटर' राजनीतिक कारणों से इन दिनों दुनिया भर में चर्चा में है। पोलांस्‍की ने इस फिल्‍म की पटकथा पिछले वर्ष तब पूरी की थी, जब स्विटजरलैंड पुलिस ने अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियों के आग्रह पर उन्‍हें गिरफ्तार किया था। उन पर एक फिल्‍म की शूटिंग के दौरान एक कम उम्र की लड़की के साथ यौनाचार का आरोप लगाया गया था। पोलांस्‍की हमेशा अपने जीवन और फिल्‍मों के कारण विवाद में रहते हैं। इसके बावजूद गोवा में उनकी नयी फिल्‍म का प्रदर्शन एक बड़ी उपलब्धि है। इस फिल्‍म का प्रीमियर इसी वर्ष 12 फरवरी को बर्लिन में हुआ था, जहां उन्‍हें सर्वश्रेष्‍ठ निर्देशक का सिल्‍वर बीयर पुरस्‍कार मिला।

सिनेमा »

[29 Nov 2010 | 2 Comments | ]
यातना, संघर्ष और स्‍वप्‍न का नया सिनेमा

अजित राय ♦ इस फिल्‍म को देखते हुए हमें प्रेमचंद की कहानी 'कफन' के घीसू और माधव की याद आती है। इरीया और रूद्री समाज के आखिरी पायदान पर जी रहे दो लोग हैं, जिनके लिए सपने देखना, उनके जिंदा रहने की शर्त है। कैमरा बार-बार एक बंजर लैंडस्‍केप में इन दो लोगों के फटेहाल जीवन में सपनों को उगते हुए दिखाता है। फिल्‍म में कोई खलनायक नहीं है। भूमंडलीकरण के बाद का समय खुद एक खलनायक की तरह समूचे जीवन पर हावी है। संवाद बहुत कम हैं लेकिन अंदर तक चोट करते हैं। विशाल हवेली में तार-‍तार होता सामंतवाद जाते-जाते भी नये व्‍यापार में रूपांतरित होता है, जहां रुपये का लालच रिश्‍तों की अनिवार्य मर्यादा पर भारी पड़ता है।

सिनेमा »

[29 Nov 2010 | 2 Comments | ]
अयोध्‍या में एक शरीफ चाचा हैं, लावारिस लाशों के मसीहा

जेयूसीएस ♦ यह फिल्म शरीफ चाचा जैसी अयोध्या की अजीम शख्सियत पर रोशनी डालने में सफल है। फिल्म में कुछ और पहलू भी हैं। अयोध्या की रामलीला में लंबे अरसे से हनुमान का किरदार निभाने वाले एक अफ्रीकी नागरिक जब लंका दहन में जल गये, तब किसी ने उसकी सुध नहीं ली, तब भी शरीफ चाचा ही आगे आये और उन्होंने अफ्रीकी नागरिक की देखभाल की। श्रीरामजन्मभूमि के मुख्य पुजारी आचार्य सत्येंद्र दास बताते हैं कि 'मानवता को प्रतिष्ठित करने में इस महान काम के लिए मोहम्मद शरीफ को तुलसी स्मारक भवन में सम्मानिक किया गया है और उनकी इज्जत हर तबके के लोग दिल से करते हैं'।

शब्‍द संगत »

[28 Nov 2010 | 13 Comments | ]
दो पछतावों के बीच जनसत्ता में छपे अशोक वाजपेयी

अशोक वाजपेयी ♦ एक बड़ा पछतावा अपनी पत्नी रश्मि को लेकर है। वह कथक की अच्छी और सुदीक्षित नर्तकी थी, जिसने बिरजू महाराज से सीखा था। वह उनकी पहली शिष्याओं में से है। ब्याह के बाद हम मध्यप्रदेश की कई छोटी जगहों में पदस्थ रहे, जहां उसके स्तर के अनुरूप संगत कर सकने वाला कोई तबलची मिलना असंभव हुआ। जब भोपाल आया तो सांस्कृतिक प्रोत्साहन की लगभग सारी जिम्मेदारी सरकारी स्तर पर मेरी हो गयी और लगभग सत्रह बरस बनी रही। इसका सबसे अधिक नुकसान रश्मि को उठाना पड़ा, क्योंकि पत्नी होने के नाते उसे प्रोत्साहन देना, हमारी मूल्य-व्यवस्था के अनुसार, अनुचित होता। एक तरह से मेरी सांस्कृतिक सक्रियता के लिए रश्मि को अपने नृत्य की लगभग बलि देनी पड़ गयी।



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