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Thursday, November 24, 2011

विषमता की दर

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/4757-2011-11-24-05-34-07

अरविंद मोहन 
जनसत्ता, 24 नवंबर, 2011 : यह कुछ हैरान करने वाली बात लगी कि अंतरराष्ट्रीय पत्रिका फोर्ब्स द्वारा जारी भारतीय अरबपतियों की सूची छापने के बाद हमारे प्रमुख आर्थिक अखबारों से वह खबर गायब-सी रही। इकोनॉमिक टाइम्स ने तो यह खबर भी नहीं दी, जबकि हर बार वही यह शोर मचाने में सबसे आगे रहता था। फोर्ब्स में भी मुद्रास्फीति, घोटालों के शोर और अंतरराष्ट्रीय मंदी के चलते देश के सबसे अमीर सौ लोगों की संपत्ति में साल भर में बीस फीसद कमी हो जाने का रोना रोया गया है। लेकिन लगभग इसी के आसपास आई दो अन्य रिपोर्टों के साथ ऐसा नहीं हुआ। मानव विकास रिपोर्ट के आधार पर योजना आयोग और उसके पीछे-पीछे अंग्रेजी मीडिया 1999 से 2008 के बीच देश में समृद्धि आने का ढिंढोरा पीटने में लग गया है। पक्के मकान, बिजली कनेक्शन, फोन कनेक्शन, स्कूल जाने वालों की संख्या आदि का हवाला देकर मानव विकास सूचकांक में बीस फीसद सुधार हो जाने का दावा किया गया है। इसी आधार पर लगभग दो करोड़ लोगों के गरीबी से मुक्त हो जाने का भी दावा किया जा रहा है।
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा जारी मानव विकास सूचकांक में भारत की स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार तो नहीं दिखता, हां लैंगिक विषमता में हल्की कमी का दावा जरूर किया जा सकता है। पर यह भी उल्लेखनीय है कि इस मामले में श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान और नेपाल हमसे बेहतर स्थिति में हैं। और ज्यादातर मानकों पर हम सिर्फ अपने इन्हीं पड़ोसियों से ऊपर हैं। गरीबी-बीमारी के किन-किन मानकों पर हम कहां हैं यह हिसाब कफी दुखी करने वाला है।
ऐसी स्थिति में जब अकेले मुकेश अंबानी के पास 22.6 अरब डॉलर की संपत्ति होने की सूचना फोर्ब्स दे तो यह खुश होने की बात तो है। अगर पिछले साल 69 डॉलर-अरबपति (बिलियनायर) थे तो इस बार 57 का रहना भी कौन-सा बुरा है। अगर इस बार पंद्रह लोग इस सूची से बाहर गए हैं तो तेरह आए भी हैं। इस पर भी मध्यवर्गीय मन प्रसन्न हो सकता है कि भ्रष्टाचार के हंगामे के बाद जब बाजार गिरा तो उसमें दूरसंचार घोटाले में फंसे अनिल अंबानी की अमीरी सबसे ज्यादा छंटी, क्योंकि आरोप है कि उनकी कंपनियों ने सबसे ज्यादा गड़बड़ की थी। इसी मामले में जेल में रहे शाहिद बलवा और विनोद गोयनका का तो इस सूची से ही पत्ता साफ हो गया।
पर बात न तो इतनी-सी है न इतनी सरल। अमीरी-गरीबी के इस सांप-सीढ़ी में उतार-चढ़ाव असल में आग के दरिया में डूब के जाने के समान है। इसी मानव विकास सूचकांक के आंकडेÞ बताते हैं ऊंची विकास दर और पक्के मकानों की संख्या बढ़ने के बावजूद देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा इस कथित आर्थिक मुख्यधारा में शामिल होने की जगह इससे कटता और दूर होता जा रहा है। सूचकांक में शामिल आंकड़े पोषण, स्वास्थ्य और स्वच्छता भर के हैं और इनमें भी हम सिर्फ एशिया में नहीं, अफ्रीका के गरीब देशों से भी काफी पीछे हैं। बांग्लादेश और श्रीलंका तो हमसे काफी आगे हैं, पाकिस्तान भी कई मामलों में हमसे आगे है। संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सूचकांक में भी भारत पाकिस्तान से पीछे है और कई मामलों में बांग्लादेश और नेपाल-भूटान से भी पिछड़ा हुआ है। दुनिया के पैमाने पर देखें तो 187 देशों में 134वें स्थान पर रहने के बाद भी भारत में सुधार की रफ्तार दुनिया के औसत से ही नहीं, एशिया के औसत से भी कम है।
पर हमारे योजना आयोग की रिपोर्ट बताती है कि 1983 तक हमारे गरीबों को जो प्रोटीन और कैलोरी मिलता था उसमें भी कमी आ गई है। ग्रामीण इलाकों में यह गिरावट आठ फीसद है तो शहरी इलाकों में तीन फीसद। संभवत: यह कमी दालों की खपत घटने से हुई है। यह आंकड़ा भी कम चौंकाऊ नहीं है कि आज भी ग्रामीण आबादी का लगभग दो तिहाई और शहरी आबादी का आधे से ज्यादा हिस्सा दोनों जून भरपेट भोजन नहीं कर पाता। हमारे देश के आधे से ज्यादा बच्चे कुपोषित हैं और यह अनुपात अफ्रीका के सबसे गरीब देशों से भी बुरा है। दुनिया में सबसे ज्यादा अंधापन हमारे यहां है। हमारे देश के आधे से ज्यादा बच्चों को सभी रोग-निरोधी टीके नहीं लग पाते। साल दर साल पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल के कुछ इलाकों में एक ही महामारी फैलती है, बच्चे पटपटाकर मरते हैं और सरकार सब कछ जान कर चुप्पी साधे रहती है। मुल्क के आधे से ज्यादा घरों में शौचालय और पीने के साफ पानी का इंतजाम नहीं है।
दूसरी ओर फोर्ब्स की सूची वाले सौ भाई साहबों जैसे मुट्ठी भर लोगों के पास दाएं-बाएं से होता हुआ मुल्क की दौलत का लगभग एक चौथाई पहुंच चुका है। अगर हमारा बजट ग्यारह-बारह लाख करोड़ की रकम संभालता है तो इन भाई साहबों के पास लगभग उतनी दौलत पहुंच चुकी है और ऊपर से कॉरपोरेट सेक्टर हर साल चार-पांच लाख करोड़ रुपए की सबसिडी भी हथिया लेता है। पिछले साल घोटालों के पर्दाफाश, महंगाई और मंदी के चलते इन सौ लोगों


की संपत्ति कम हुई है, तब भी इन सौ लोगों के ही पास कुल मिला कर 241 अरब डॉलर की संपत्ति थी। फोर्ब्स की गिनती में 'परचेजिंग पॉवर पैरिटी' का एक फरेबी हिसाब भी होता है, पर जब मुल्क के जीडीपी को एक-सवा खरब का माना जा रहा हो तो यह हिसाब ठीक ही है। पर यह भी ध्यान रखना होगा कि इस सूची में लक्ष्मी मित्तल भी हैं और हमारे अमीरों का विदेशी हिसाब-किताब भी स्विस बैंक वाला नहीं।
सिर्फ उदारीकरण के बीस वर्षों में मुकेश अंबानी की संपत्ति 101 गुना बढ़ी है   तो टाटा की संपत्ति 38 गुना और आनंद महिंद्रा की 270 गुना। इंफोसिस तो इसी उदारीकरण की पैदाइश है, सो उसकी संपत्ति 5100 गुना बढ़ी है तो इसमें बहुत छोटे बेस से गिनती का भी हाथ होगा। बडेÞ बेस के चलते ही कुमार मंगलम बिड़ला की संपत्ति मात्र 38 गुना बढ़ी दिखती है। 'वेदांत' वाले अनिल अग्रवाल का तो उदारीकरण से पहले किसी ने नाम भी नहीं सुना होगा, पर इन्हीं बीस वर्षों में जब उनकी संपत्ति 1025 गुना बढ़ गई तो काफी सारे लोग हैरान होंगे ही। अनिल की ही तरह सौ अमीरों की सूची में काफी ऐसे लोग हैं जिनका नाम पहले सुना ही नहीं गया होगा।
इनमें शाहिद बलवा और विनोद गोयनका जैसे कई लोगों की अमीरी संदिग्ध तरीकों वाली है तो नारायण मूर्ति, सुनील मित्तल, अंजी रेड््डी, शिव नाडार जैसे लोगों ने लाइसेंस-परमिट राज जाने, लाल फीताशाही समाप्त होने और उद्योग-व्यापार के नए अवसरों को पहचान कर तेज तरक्की की है। हमारा उद््देश्य इन लोगों की सफलता पर उंगली उठाना और उनके तौर-तरीकों पर शक करना नहीं है- हालांकि इनमें से कई के कामकाज को सिर्फ उद्यमशीलता का प्रमाणपत्र देना भी हमारा उद्देश्य नहीं है। पर ये तथ्य बहुत साफ ढंग से इतना तो बता ही देते हैं कि हमारे तेज आर्थिक विकास में सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं है। दरअसल, मामला सिर्फ व्यक्तियों की कमाई और संपत्ति में आने वाले अंतर भर का नहीं है।
इन बीस वर्षों में देश के विभिन्न इलाकों, विभिन्न धंधों, विभिन्न राज्यों और विभिन्न सामाजिक समूहों की स्थिति में भी इसी किस्म का फासला बन गया है। अगर कानून से और सामाजिक आंदोलनों की वजह से छुआछूत खत्म-सा लग रहा हो तो किसी भी बहुराष्ट्रीय कंपनी में जाकर ड्राइवर और जनरल मैनेजर के गिलास और कप का हिसाब पता कर लीजिए। आपको नया छुआछूत दिखाई पड़ जाएगा- तनख्वाह का फर्क तो खैर स्वर्ग-नरक ही दिखा देगा।
अगर एनसीआर को छोड़ दें तो पूरा का पूरा हिंदी प्रदेश वीरान दिखेगा और सारे निवेश, रोजगार के लिए सारे पलायन का रुख महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक की तरफ दिखेगा। मुंबई सिर्फ आर्थिक राजधानी नहीं है, समृद्धि का सागर भी बन गया है। बंगलोर सिर्फ आईटी राजधानी नहीं है, अमीरी में मुंबई का पिछलग्गू बन गया है।
अंतर देखना हो तो इससे भी बड़ा अंतर श्रीराम कॉलेज आफ कॉमर्स और आपके कस्बे के कॉलेज में दिखेगा जो सौ फीसद कट-आॅफ को लेकर काफी विख्यात या कुख्यात हो चुका है। आईआईएम और दादरी के मैनेजमेंट कॉलेज के बीच का फासला इससे भी ज्यादा होगा। आईआईटी और मेरठ रोड या आगरा रोड पर स्थित इंजीनियरिंग कॉलेज के स्तर का अंतर शायद इन सबसे बड़ा होगा। और आज सिर्फ पढ़ाई के स्तर का मामला नहीं रह गया है।
आज तो फीस का जो अंतर हो गया है वह इन सबसे ज्यादा है। और अगर अमीरी-गरीबी का अंतर ही देखना चाहते हों तो अस्पतालों की दुनिया पर नजर डालें। इन बीस वर्षों में ही वहां जो भेद पैदा हो गया है वह अकल्पनीय है। इस सब की बुनियादी सच्चाई यह है कि अगर आपके पास पैसा है तो आप देश-विदेश कहीं से अच्छी डिग्री ले सकते हैं, अच्छा इलाज करा सकते हैं, अच्छा वकील करके मुकदमा जीत सकते हैं, गाड़ी-फोन का मनचाहा नंबर पा सकते हैं।
फिर इस दौर में कमाने का, अमीर बनने का, मुल्क को अपने अंदाज में चलाने का उदाहरण देखना हो तो राडिया टेप और 2-जी घोटाले के तथ्यों पर नजर डालिए, पकडेÞ गए और छूट गए लोगों की सूची पर नजर डालिए। फिर कनिमोड़ी और ए राजा जैसे लोग मोहरा भर नजर आएंगे। जिन्हें विनोद गोयनका और शाहिद बलवा जैसों की कमाई और तरीकों पर सवाल पूछना है उनको भी अपना काम मुस्तैदी से करना चाहिए। शायद उन्होंने ऐसा नहीं किया या इस खेल में उनकी भी भागीदारी रही हो।
पर हमारा सवाल तो मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह अहलूवालिया, चिदंबरम, प्रणब मुखर्जी, यशवंत सिन्हा, सुब्रमण्यम स्वामी, एनके सिंह, अरुण शौरी, विमल जालान जैसे उदारीकरण के सूत्रधारों से है कि वे बताएं कि कारवां क्यों लुटा? किसी मुल्क के इतिहास में भी बीस साल की अवधि कम नहीं होती। और जब अमीरी-गरीबी का फासला, कुछ लोगों की संपत्ति के बेतहाशा बढ़ने और आधी आबादी के बदहाल होने के साफ प्रमाण दिख रहे हों तो सच्चाई कबूल करके चीजें सुधारने का प्रयास करने की जगह आज भी झूठ का प्रचार क्यों? फोर्ब्स को यह काम करने दीजिए, योजना आयोग को तो असलियत देख-जान कर काम करना चाहिए।

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