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Saturday, July 7, 2012

विकास का मातम

विकास का मातम


Friday, 06 July 2012 10:46

अरविंद कुमार सेन 
जनसत्ता 6 जुलाई, 2012: छह साल पहले अमेरिकी पत्रिका फॉरेन अफेयर्स ने भारत की विकास दर में हुई बढ़ोतरी को नई पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की दहाड़ती कहानी का तमगा देकर आमुख पेज पर जगह दी थी। अब वह भी उन पश्चिमी प्रकाशनों की कतार में शामिल हो गई है, जो बीते कई महीनों से हमारे मीडिया के साथ मिल कर मातम मनाते हुए घोषणा कर रहे हैं कि भारत की विकास गाथा खत्म हो चुकी है। तर्क दिया जा रहा है कि भारत की विकास दर नौ फीसद से गिर कर छह फीसद रह गई है, डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत लगातार गिर रही है और साख निर्धारण करने वाली एजेंसियों के मुताबिक भारत निवेश के लिहाज से माकूल जगह नहीं रह गया है। 
पुरानी तारीख से लागू होने वाले कानून और कर बचाने की कवायदों पर लगाम कसने वाले कानून (गार) लाने की घोषणा के बाद देशी-विदेशी बिजनेस मीडिया में मचे कोहराम से हड़बड़ा कर सरकार ने अपने कदम वापस खींच लिए हैं। यह हवा बनाई जा रही है कि देश की अर्थव्यवस्था 1991 जैसे संकट में फंस चुकी है और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह वित्त मंत्रालय का कामकाज संभाल कर रघुराम राजन, ईसर जज अहलूवालिया और सी रंगराजन जैसे बाजार के दुलारे अर्थशास्त्रियों को अहम पदों पर लाकर नैया पार लगा सकते हैं। 
सवाल है कि क्या हकीकत में भारतीय अर्थव्यवस्था 1991 जैसे गहरे संकट की जद में आ गई है और जिन सुधारों का शोर मचाया जा रहा है, उनसे कितनी राहत मिल सकती है। अगर किसी भी अर्थव्यवस्था की सेहत की जानकारी देने वाले कुछ आंकड़ों पर गौर किया जाए तो यह भ्रम दूर हो जाता है। 1991 में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार एक अरब डॉलर से भी कम था और इस रकम के सहारे दो हफ्तों के आयात का भी भुगतान नहीं किया जा सकता था। 
आज विदेशी मुद्रा भंडार 280 अरब डॉलर से ज्यादा है और यह रकम सात माह तक आयात बिल का भुगतान करने के लिए पर्याप्त है। 1991-92 में जीडीपी की विकास दर 1.3 फीसद थी वहीं पिछले पांच सालों में जीडीपी की औसत विकास दर तकरीबन आठ फीसद रही है। सबसे अहम बात है कि हमारी बैकिंग प्रणाली 1991 के मुकाबले बेहद मजबूत बन चुकी है और बड़े पूंजीगत आधार के चलते आपातकालीन आर्थिक समायोजन करने में सक्षम है। 
वैश्विक अर्थव्यवस्था में भगदड़ के बावजूद भारत निवेश के मामले में बाकी देशों से कोसों आगे है। ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत राष्ट्रीय आय का पैंतीस फीसद निवेश कर रहा है और यह रकम विकसित अर्थव्यवस्थाओं के चरम दिनों से ज्यादा है। 
निवेश का ही एक दूसरा पहलू प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई के प्रवाह में भी कोई कमी नहीं आई है और 2011-12 में रिकॉर्ड 46.85 अरब डॉलर का एफडीआई प्रवाह भारतीय अर्थव्यवस्था में हुआ है। एक सफेद झूठ यह बोला जा रहा है कि घरेलू कारोबारी भारतीय अर्थव्यवस्था की मौजूदा हालात से निराश होकर दूसरे देशों में निवेश कर रहे हैं। 
पूंजी का बुनियादी सिद्धांत है कि एक बाजार का दोहन करने के बाद मुनाफे के लिए दूसरे नए बाजार को तलाशा जाता है और भारत के बड़े कारोबारी देश में विस्तार योजनाएं पूरा करने के बाद विशाल संसाधनों वाले अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका जैसे भविष्य में दोहन करने लायक चुनिंदा इलाकों में ही निवेश कर रहे हैं। दुनिया की सारी पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाएं इस दौर से गुजरी हैं और विदेशी खरीद के मामले में भारतीय कंपनियां अब दुनिया में पांचवें पायदान पर पहुंच गई हैं। याद रखिए, भारत में एफडीआई की शक्ल में किसी जापानी या अमेरिकी कंपनी का निवेश भी संबंधित घरेलू देश से पूंजी का पलायन है। 
भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती के प्रतीक लगातार बढ़ोतरी दर्ज कर रहे निर्यात क्षेत्र को भी मीडिया ने नजरअंदाज किया है। मिसाल के तौर पर 1960 में हमारा निर्यात जीडीपी के मुकाबले 4.4 फीसद था, वहीं 2011 में यह आंकड़ा बाईस फीसद की चमकदार ऊंचाई पर पहुंच गया। 2004-05 के बाद से देश का निर्यात सालाना 21.9 फीसद की दर से बढ़ा है और इजाफे की यह दर किसी मायने में कम नहीं कही जा सकती। 
रुपए की कीमत में गिरावट का रोग पूरी तरह देशी है, क्योंकि रुपए की कीमत तो डॉलर के मुकाबले गिर रही है, लेकिन इसी अनुपात में डॉलर मजबूत नहीं हो रहा है। चालू खाते के घाटे में इजाफे और घरेलू स्तर पर वस्तुओं और सेवाओं की मांग के मुकाबले उत्पादन में कमी होने के कारण रुपए की कीमत में लगातार कमी की दो अहम वजहें हैं।
दोनों दिक्कतों की जड़ में मुद्रास्फीति है। बढ़ती मुद्रास्फीति के चलते शेयर बाजार में अस्थिरता के कारण लोग सुरक्षित निवेश के ठिकाने के रूप में सोना खरीद रहे हैं। चूंकि भारत सोने का आयात करता है, लिहाजा आयात बिल में बढ़ोतरी होने का सीधा असर चालू खाते के घाटे में बढ़त के रूप में दिखाई दे रहा है। बीते साल सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों में उलझी रही और घरेलू स्तर पर कोयले का उत्पादन प्रभावित हुआ। कोयला आयात करने के कारण आयात बिल बढ़ा, वहीं मांग के मुकाबले कम आपूर्ति होने के कारण समूचा औद्योगिक क्षेत्र प्रभावित हुआ और औद्योगिक उत्पादन सूचकांक यानी आईआईपी में लगातार आ रही गिरावट इस बात का सबूत है। 
हालांकि रुपए की गिरावट का मतलब अर्थव्यवस्था में मंदी आना नहीं है और इस गिरावट से फायदा भी उठाया जा सकता है। एक और उभरती अर्थव्यवस्था ब्राजील की मुद्रा रियल   में भी रुपए के बराबर ही गिरावट दर्ज की गई है, लेकिन वहां भारत के विपरीत जश्न का माहौल है। वजह साफ है, ब्राजील जिंसों का निर्यातक देश है और उसने गिरावट का फायदा उठा कर अपना बहीखाता दुरुस्त किया है। जीडीपी के रिकॉर्ड चार फीसद पर झूल रहा भारत के चालू खाते का घाटा रुपए के गलत मूल्याकंन को दिखा रहा है। 1990 के दशक में भीरुपए के मूल्य में मौजूदा गिरावट के बराबर कमी आई थी और उस वक्त भारत के निर्यात ने भी कुलांचें भरी थीं। 

रुपए की इस गिरावट ने घरेलू निर्यातकों और विनिर्माण क्षेत्र को कार्यकुशलता में इजाफा करके वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धी बनने का अवसर मुहैया कराया है। यह गिरावट लंबे समय से सुधारों की मांग कर रहे आयात-निर्यात क्षेत्र का रुझान बदल सकती है। मसलन, जनवरी से मार्च के दौरान सोने के आयात में पिछले साल की समान अवधि की तुलना में उनतीस फीसद की कमी दर्ज की गई है। 
मगर यह भी सच है कि अकेले रुपए की कीमत में गिरावट के सहारे ही आयात बिल को कम नहीं किया जा सकता है। हमारे आयात बिल का बड़ा हिस्सा पेट्रोलियम पदार्थों के रूप में है और सरकारी सबसिडी होने के कारण पेट्रो पदार्थों की मांग पर कमजोर रुपए से खास फर्क  नहीं पड़ने वाला है। 
इंडिया इंक ने अर्थव्यवस्था की कथित बदहाली के लिए भारतीय रिजर्व बैंक को भी लंबे समय से खलनायक घोषित कर रखा है। आरबीआई ने मांग में कमी करके मुद्रास्फीति को काबू में करने के लिए ब्याज दरों को महंगा किया, लेकिन परेशानी यह रही कि केंद्रीय विनियामक बैंक को आपूर्ति के मोर्चे पर सरकार से सहयोग नहीं मिला। सरकार से तारतम्य नहीं होने के कारण मांग आधारित मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने का यह हथियार नाकाम साबित हुआ, मगर रियल स्टेट और आॅटोमोबाइल क्षेत्रों की हवाई उड़ान पर कुछ हद तक अंकुश लगाया जा सका है। असली दिक्कत यही है। 
महंगी ब्याज दरों के कारण बड़ी कंपनियों के मुनाफे में कमी आ रही है और निवेशकों से किए गए मुनाफे के लंबे-चौड़े वादे पूरे नहीं हो पा रहे हैं। यही कारण है कि पूंजीपतियों की अगुआई में बिजनेस मीडिया ने आरबीआई को निशाने पर ले रखा है, मगर किसी भी कंपनी ने महंगी ब्याज दरों के कारण अपना कारोबार समेटने की घोषणा नहीं की है। भारत के विशाल बाजार का दोहन करने का लालच ऐसी मिठाई है, जिसे कोई भी कंपनी नहीं छोड़ना चाहेगी। 
यहां तक कि वोडाफोन-हच कर मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद सरकार की ओर से कानून बदलने की घोषणा किए जाने के बावजूद वोडाफोन ने भारतीय परिचालन बंद करने का कोई संकेत नहीं दिया। यही हाल रोजमर्रा का सामान (एफएमसीजी) बनाने वाली कंपनियों का है। भारत का बाजार कीमतों के मामले में बेहद संवेदनशील है और अस्सी फीसद गरीब आबादी वाले देश में ब्रांड वफादारी की बात करना मजाक होगा। 
बहुराष्ट्रीय एफएमसीजी कंपनियां अपने उत्पाद छोटे पैकेटों में मुहैया कराने और लागत में कमी करके महंगी ब्याज दरों का असर कम करने में जुटी हैं। बड़ी एफएमसीजी कंपनियों के उत्पादों के महंगा होते ही उपभोक्ता छोटी कंपनियों और गैर-ब्रांडेड कंपनियों का रुख करेंगे, ऐसे में ये कंपनियां अपना मुनाफा बनाए रखने के लिए आरबीआई पर ब्याज दरों में कटौती का दबाव बना रही हैं। अगला सवाल उठता है कि क्या भारतीय अर्थव्यवस्था पर कोई संकट नहीं है और अगर है तो उसका समाधान क्या है। 
इसमें दो राय नहीं कि वैश्वीकरण के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी यूरोप और अमेरिका में छाई आर्थिक मंदी का असर पड़ा है, मगर इसकी तुलना 1991 के भुगतान संकट से करना समस्या को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करना है। पश्चिमी देशों की पूंजीवादी ऐनक लेकर घरेलू अर्थव्यवस्था के हरेक पहलू में संकट खोज कर नकारात्मक प्रचार में लगा हमारा मीडिया जोसेफ स्कंपटेरियन के बताए रचनात्मक विनाश के सिद्धांत में फंस गया है। यह सिद्धांत कहता है कि सकारात्मक चीजों की अनदेखी करके केवल निराशाजनक तथ्यों को उभारा जाता है, तो अर्थव्यवस्था रचनात्मक विनाश की तरफ बढ़ती है। 
हमारी अर्थव्यवस्था संकट में है, क्योंकि कृषि, शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र गहरे संकट में फंसे हैं और अगर वक्त रहते इन तीनों बुनियादी क्षेत्रों पर ध्यान नहीं दिया गया तो भारतीय विकास गाथा का खात्मा तय है। हमारी अर्थव्यवस्था का चौथा सबसे बड़ा संकट युवा आबादी और बेरोजगारी में एक साथ हो रहा इजाफा है। विनिर्माण क्षेत्र को मजबूत बना कर युवा हाथों में बंदूक पहुंचने से पहले रोजगार पहुंचाना होगा। 
विडंबना है कि अर्थव्यवस्था के इन वास्तविक सुधारों का जिक्र हमारे मीडिया में कहीं नहीं है और कंपनियों के बोर्डरूमों में ईजाद की गई मंदी से बाहर निकलने के एकमात्र उपाय के रूप में वही घिसे-पिटे दूसरे दौर के सुधारों, मसलन बहुब्रांड खुदरा, पेंशन और बीमा क्षेत्रों में एफडीआई की बात दोहराई जा रही है। अगर इन क्षेत्रों पर लागू विदेशी पूंजी की मौजूदा सीमाएं हटा ली जाती हैं तो भी संभावित विदेशी पूंजी से भारतीय अर्थव्यवस्था में कोई क्रांति नहीं होने वाली है। यह मामूली रकम दो-तीन तिमाहियों के लिए जीडीपी की विकास दर में बढ़ोतरी करके कथित विकास का बुलबुला पैदा कर सकती है, मगर इससे अर्थव्यवस्था की बुनियादी दिक्कतें दूर नहीं होने वाली हैं। 
विकास का मर्सिया पढ़ रहे बिजनेस   मीडिया के लिए सुधारों का मतलब चुनिंदा निजी कारोबारियों की कंपनियों के रोड़े हटाना और वित्तीय सेवाओं के प्रभुत्व वाली शेयर बाजार आधारित नवउदारवादी अर्थव्यवस्थाओं में डेमोक्रेसी को प्लूटोक्रेसी में बदलना है, जहां पूंजीपतियों को आजादी और वैश्वीकरण के नाम पर गरीब जनता के बीच मुनाफे के ढेर पर सुरक्षित रखा जाता है।

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