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Saturday, July 7, 2012

गांधी और आंबेडकर का रिश्ता

गांधी और आंबेडकर का रिश्ता


Saturday, 07 July 2012 12:27

श्रीभगवान सिंह 
जनसत्ता 7 जुलाई, 2012: पिछले दो-तीन दशकों का एक बड़ा राजनीतिक यथार्थ यह है कि राष्ट्रपिता के रूप में समादृत गांधी के ऊपर डॉ भीमराव आंबेडकर को न सिर्फ खड़ा करने, बल्कि गांधी को आंबेडकर और दलित विरोधी भी सिद्ध करने की कोशिश लगातार की जा रही हैं। यह सब हो रहा है आंबेडकर के नाम पर दलित राजनीति करने वाले आंबेडकरवादियों द्वारा, क्योंकि इसके जरिए उनके लिए एक समुदाय विशेष के वोट हथियाना सुविधाजनक हो जाता है, जबकि आज की वोट-बटोरू राजनीति में गांधी किसी समुदाय या जाति विशेष के लिए कोई प्रासंगिकता नहीं रखते। 
ऐसे परिदृश्य में गांधी और आंबेडकर के आपसी संबंधों की पड़ताल भी आंबेडकरवादियों के आचरण के आधार पर की जाने लगी है। मगर जिस तरह गांधी को सरकारी या मठी गांधीवादियों के आचरण के आधार पर देखना सही नहीं होगा, वैसे ही गांधी और आंबेडकर के आपसी रिश्तों को आज के आंबेडकरवादियों के हंगामों, नारों, व्यवहारों के आधार पर सही-सही नहीं समझा जा सकता। इसके लिए जरूरत है एक दूसरे के प्रति दोनों के विचारों और व्यवहारों की तह में जाने की।
सब जानते हैं कि गांधी जहां एक तरफ राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिए संघर्षरत रहे, वहीं दूसरी तरफ वे अपने रचनात्मक कार्यक्रम में अस्पृश्यता-निवारण, स्त्रियों की दशा में सुधार, राष्ट्रभाषा और देशी शिक्षा और खादी-प्रचार आदि को शामिल कर सामाजिक और आर्थिक रूपांतरण के लिए भी जीवनपर्यंत प्रयासरत रहे। डॉ आंबेडकर का ताल्लुक अस्पृश्य कही जाने वाली जातियों के हक की लड़ाई तक सीमित था। 
आंबेडकर की दृष्टि में चूंकि हिंदू वर्ण-व्यवस्था ही अस्पृश्यता की जननी थी, इसलिए वे वर्ण-व्यवस्था को समूल नष्ट करने के पक्षधर थे, जबकि गांधी स्वाधीनता-संग्राम की एक रणनीति के तहत वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध मुहिम चलाने से परहेज करते हुए अस्पृश्यता उन्मूलन के जरिए अस्पृश्य जातियों को सामाजिक समता और सम्मान का जीवन दिलाने के लिए अपने सत्याग्रह-अस्त्र का प्रयोग करते रहे। दोनों में मतभेद का यही बुनियादी कारण था।
आमतौर पर यह समझा जाता है कि गांधी ने आंबेडकर की अस्पृश्यता विरोधी मुहिम से प्रभावित होकर अस्पृश्यता-उन्मूलन को अपने रचनात्मक कार्यक्रम का हिस्सा बनाया। लेकिन यह सच नहीं है। गांधी भारतीय राजनीति में आंबेडकर के उदय के पहले से ही छुआछूत के विरुद्ध अपनी मुहिम शुरू कर चुके थे। 1915 में जब गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से वापसी के बाद अमदाबाद के कोचरब में आश्रम की स्थापना की (जिसे बाद में साबरमती ले जाया गया), उसी समय बहुतेरे आश्रमवासियों के विरोध के बावजूद उन्होंने अछूत दंपति दादू भाई को सपरिवार आश्रम में प्रवेश देकर छुआछूत के विरुद्ध अपनी मुहिम की शुरुआत कर दी। 
बाद में इस दंपति की बेटी लक्ष्मी को उन्होंने अपनी दत्तक पुत्री के रूप में स्वीकार किया। 1920-22 के असहयोग आंदोलन के दौरान भी गांधी ने अस्पृश्यता के विरुद्ध देशव्यापी जागृति पैदा करने की कोशिश की, जिसके लिए उन्हें कई स्थानों पर सवर्ण हिंदुओं के आक्रोश का शिकार होना पड़ा। 1932 में उनके द्वारा हरिजनों के लिए मंदिर प्रवेश का आंदोलन चलाने का एक अलग ही इतिहास है।
लेकिन 1920 के दशक में भारतीय रंगमंच पर एक दहकते गोले की तरह आ धमकने वाले आंबेडकर गांधी के  अस्पृश्यता विरोधी इन प्रयासों से संतुष्ट नहीं थे और उन्होंने अपना अलग मोर्चा खोल कर इसकेखिलाफ लड़ाई को तीव्र करने की तरकीब अपनाई। उनकी इस मुहिम में मील का पत्थर बना उनके द्वारा 1927 में महाराष्ट्र के कोलाबा जिले में अछूतों के लिए पानी के सवाल को लेकर किया गया आंदोलन। 
लेकिन इस आंदोलन में आंबेडकर के मन में गांधी के प्रति वितृष्णा नहीं थी। मराठी और हिंदी के प्रसिद्ध दलित लेखक सूर्यनारायण रणसुभे 'वागर्थ' (अक्तूबर 2009) में छपे अपने लेख 'अभिशप्त चिंतन से इतिहास की ओर' में बताते हैं कि 'महार सत्याग्रह के समय मंच पर एक ही तस्वीर थी, वह महात्मा गांधीजी की थी।'
दरअसल, आंबेडकर की दूरी गांधी से तब ज्यादा बढ़ी, जब वे अंग्रेजों की कूटनीतिक चाल के शिकार होकर 1931 में लंदन में आयोजित दूसरे गोलमेज सम्मेलन में अछूतों के प्रतिनिधि बन कर शामिल हुए। वहां वे खुल कर गांधी का विरोध करते हुए अछूतों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की मांग पर डटे रहे और 1932 में ब्रिटिश शासन ने यह काम कर भी दिया। लेकिन सदाशयता और राष्ट्रीय हित की भावना से सराबोर आंबेडकर जल्द ही ब्रिटिश शासन की इस धूर्तता को समझ गए। 
यही कारण था कि सितंबर 1932 में गांधी ने जब पृथक निर्वाचन मंडल के विरुद्ध आमरण अनशन किया, तो उनके जीवन को बचाने के लिए आंबेडकर ने पूना समझौते पर हस्ताक्षर करने में संकोच नहीं किया। महार आंदोलन के समय मेज पर गांधी की तस्वीर रखने वाले आंबेडकर ने पुन: गांधी के साथ सहमति के बढ़ते कदम के प्रमाण दिए, जिसकी चरम परिणति संविधान सभा की मसविदा समिति के उनके अध्यक्ष बनने में हुई। 
आंबेडकर के प्रति गांधीजी का रवैया हमेशा अपनत्व और सम्मान का रहा। दूसरे गोलमेज सम्मेलन के अवसर पर गांधी ने कई अवसरों पर आंबेडकर के प्रति सौमनस्य का परिचय दिया। मसलन, छह अक्तूबर 1931 को लंदन की एक सभा में गांधी ने कहा- ''डॉ आंबेडकर की बात का मैं बुरा नहीं मानता, हर एक अस्पृश्य की तरह डॉ   आंबेडकर को मुझ पर थूकने तक का अधिकार है और वे मुझ पर थूकें तो भी मैं हंसता रहूंगा।'' 

इसके बाद 26 अक्तूबर 1931 को आॅक्सफोर्ड भारतीय मजलिस में भाषण करते हुए गांधी ने कहा- ''डॉ आंबेडकर के प्रति मेरे मन में बड़ा सम्मान है। उन्हें कटु होने का पूरा अधिकार है। अगर वे हमारा सिर नहीं फोड़ देते तो इसी को उनका बहुत बड़ा आत्म-संयम मानना चाहिए।'' फिर 22 अक्तूबर 1931 को मिर्जा इस्माइल को लिखे पत्र में भी गांधी का यह कथन ध्यान में रखने योग्य है- ''प्रिय सर मिर्जा, यदि आप डॉ आंबेडकर को मना सकें तो यह आपकी बड़ी भारी जीत होगी। दक्षिण अफ्रीका में मैंने खुद वह सब झेला था, जो वे झेलते रहे हैं। इसलिए उनकी सब बातों के प्रति मेरी सहानुभूति है। उनके साथ मधुरतम व्यवहार करना चाहिए।''
गांधी जब 1933 में 'हरिजन' पत्रिका का प्रकाशन शुरू करने चले तो उसके प्रथम अंक में ही उन्होंने डॉ आंबेडकर का संदेश मंगा कर छापा। गांधी के दृढ़ आग्रह के कारण ही कांग्रेस को आंबेडकर को संविधान मसविदा समिति का अध्यक्ष बनाने पर राजी होना पड़ा।
दूसरी तरफ आंबेडकर के मन में भी गांधी की कई बातों को लेकर सकारात्मक रुख रहा। इसे पूर्वोक्त लेख में रणसुभे बताते हैं- एक, ''दलितों से डॉ आंबेडकर ने अपील की थी- जिस व्यवसाय में गंदगी नहीं है, अथवा जो व्यवसाय किसी विशिष्ट जाति का नहीं है ऐसा कोई व्यवसाय वे (दलित) कर सकें तो ठीक रहेगा। हमारे मतानुसार इस वक्त ऐसा एक ही व्यवसाय है और वह है खादी बेचने का। दलित से मेरी व्यक्तिगत सिफारिश है कि वे खादी बुनने का काम करें। दलितों को खुद का कपड़ा खरीदना ही पड़ता है तो अगर सभी दलित खादी के कपड़े पहनना शुरू कर दें और दलितों द्वारा बुनी गई खादी को ही खरीदने का निर्णय ले लें, तो बुनाई के धागों के लिए अन्यों के पास जाने की जरूरत नहीं।''
दो, ''जब डॉ बाबासाहब ने अंतरजातीय विवाह कर लिया, तब उनका अभिनंदन करने वाला पत्र सरदार वल्लभ भाई ने उनको भेजा। सरदार ने कहा- ''अगर इस समय बापू होते तो वे आपको आशीर्वाद देते।'' इसके उत्तर में लिखे पत्र में बाबासाहब ने लिखा- ''बापू अगर आज जीवित होते, तो उनके आशीर्वाद हम दोनों को निश्चित ही प्राप्त होते- ऐसा जो आपने लिखा है, उससे मैं सहमत हूं।''
इन बातों के अतिरिक्त गांधी के साथ आंबेडकर के लगाव को इस बात में भी देखा जाना चाहिए कि उन्होंने अपने संघर्ष के लिए गांधीवादी मार्ग ही चुना। सवर्णवाद के विरुद्ध अपनी लड़ाई में या सामाजिक इंकलाब के लिए उन्होंने कभी हिंसक मार्ग का अनुगमन नहीं किया, यहां तक कि शाब्दिक हिंसा (गाली-गलौज)- जो आज के कतिपय आंबेडकरवादियों का प्रिय शगल है- का भी सहारा नहीं लिया। आज मार्क्सवाद, वामवाद से आंबेडकर की पटरी बैठाने वाले वामपंथी और दलितपंथी बुद्धिजीवी भूल जाते हैं कि आंबेडकर ने सामाजिक रूपांतरण के लिए न हिंसा की वांछनीयता स्वीकार की, न सत्ता बंदूक की नली से पैदा होती है जैसे जुमले के वे कायल हुए। धरना, प्रदर्शन, संवैधानिक तरीके ही उनके संघर्ष के अस्त्र रहे।
जहां तक धर्म का सवाल है, उन्होंने उसे 'अफीम' कह कर खारिज नहीं किया। इस मामले में भी वे गांधी के साथ चलते दिखाई देते हैं। जिन जातियों के लोग सदियों से सामाजिक उत्पीड़न से मुक्ति के लिए धर्मांतरण को सहज विकल्प के रूप में स्वीकार करते आ रहे थे उनमें बाबासाहब ने यह आत्मविश्वास पैदा किया कि जहां हो, वहीं पर अपनी मुक्ति की लड़ाई लड़ कर अपनी दशा को बदल सकते हो। 
जीवन के अंतिम दिनों में उनके द्वारा बौद्ध धर्म अंगीकार करना मूल हिंदू धर्म से पलायन नहीं था, बल्कि हिंदू धर्म की एक शाखा विशेष के प्रति आस्था प्रकट करना था। उन्हें वितृष्णा सवर्णवाद से थी, सवर्ण जातियों से नहीं, अन्यथा वे 1948 में डॉ सविता नाम की एक ब्राह्मणी विधवा से विवाह न करते। दूसरी तरफ गांधी भी आंबेडकर के वर्ण-व्यवस्था के विरोध से अप्रभावित नहीं रह सके, और 1932 से वर्ण-व्यवस्था के पक्ष में कुछ भी सकारात्मक कहना बंद कर वे अंतरजातीय विवाह के पक्षधर बन गए।
वास्तव में गांधी और आंबेडकर एक दूसरे के विलोम के बजाय एक दूसरे के पूरक अधिक हैं। जहां गांधी ने दमित-भयभीत राष्ट्र में दर्प, निर्भीकता और जुझारूपन का संचार किया, वहीं आंबेडकर ने देश की पीड़ित, दलित जातियों में आत्म-गौरव और मुक्ति का भाव जगाया। 
यह काम वैसा ही था जैसा मध्यकाल में कबीर का। यह कहने में तनिक असंगति नहीं कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद से त्रस्त भारतीय अवाम में गांधी ने नई जिंदगी की आशा पैदा की, तो सवर्णवाद, ब्राह्मणवाद के जुए तले कराहते दलित समुदाय में आंबेडकर ने नई चेतना का संचार किया। गांधी और आंबेडकर की इस सहधर्मी पूरकता को ध्यान में रख कर ही आज के दलित और गैर-दलित संयुक्त रूप से सामाजिक और राजनीतिक रूपांतरण के अधूरे कार्य को पूर्णता प्रदान कर सकते हैं।

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