| Saturday, 07 July 2012 12:27 |
श्रीभगवान सिंह गांधी जब 1933 में 'हरिजन' पत्रिका का प्रकाशन शुरू करने चले तो उसके प्रथम अंक में ही उन्होंने डॉ आंबेडकर का संदेश मंगा कर छापा। गांधी के दृढ़ आग्रह के कारण ही कांग्रेस को आंबेडकर को संविधान मसविदा समिति का अध्यक्ष बनाने पर राजी होना पड़ा। दूसरी तरफ आंबेडकर के मन में भी गांधी की कई बातों को लेकर सकारात्मक रुख रहा। इसे पूर्वोक्त लेख में रणसुभे बताते हैं- एक, ''दलितों से डॉ आंबेडकर ने अपील की थी- जिस व्यवसाय में गंदगी नहीं है, अथवा जो व्यवसाय किसी विशिष्ट जाति का नहीं है ऐसा कोई व्यवसाय वे (दलित) कर सकें तो ठीक रहेगा। हमारे मतानुसार इस वक्त ऐसा एक ही व्यवसाय है और वह है खादी बेचने का। दलित से मेरी व्यक्तिगत सिफारिश है कि वे खादी बुनने का काम करें। दलितों को खुद का कपड़ा खरीदना ही पड़ता है तो अगर सभी दलित खादी के कपड़े पहनना शुरू कर दें और दलितों द्वारा बुनी गई खादी को ही खरीदने का निर्णय ले लें, तो बुनाई के धागों के लिए अन्यों के पास जाने की जरूरत नहीं।'' दो, ''जब डॉ बाबासाहब ने अंतरजातीय विवाह कर लिया, तब उनका अभिनंदन करने वाला पत्र सरदार वल्लभ भाई ने उनको भेजा। सरदार ने कहा- ''अगर इस समय बापू होते तो वे आपको आशीर्वाद देते।'' इसके उत्तर में लिखे पत्र में बाबासाहब ने लिखा- ''बापू अगर आज जीवित होते, तो उनके आशीर्वाद हम दोनों को निश्चित ही प्राप्त होते- ऐसा जो आपने लिखा है, उससे मैं सहमत हूं।'' इन बातों के अतिरिक्त गांधी के साथ आंबेडकर के लगाव को इस बात में भी देखा जाना चाहिए कि उन्होंने अपने संघर्ष के लिए गांधीवादी मार्ग ही चुना। सवर्णवाद के विरुद्ध अपनी लड़ाई में या सामाजिक इंकलाब के लिए उन्होंने कभी हिंसक मार्ग का अनुगमन नहीं किया, यहां तक कि शाब्दिक हिंसा (गाली-गलौज)- जो आज के कतिपय आंबेडकरवादियों का प्रिय शगल है- का भी सहारा नहीं लिया। आज मार्क्सवाद, वामवाद से आंबेडकर की पटरी बैठाने वाले वामपंथी और दलितपंथी बुद्धिजीवी भूल जाते हैं कि आंबेडकर ने सामाजिक रूपांतरण के लिए न हिंसा की वांछनीयता स्वीकार की, न सत्ता बंदूक की नली से पैदा होती है जैसे जुमले के वे कायल हुए। धरना, प्रदर्शन, संवैधानिक तरीके ही उनके संघर्ष के अस्त्र रहे। जहां तक धर्म का सवाल है, उन्होंने उसे 'अफीम' कह कर खारिज नहीं किया। इस मामले में भी वे गांधी के साथ चलते दिखाई देते हैं। जिन जातियों के लोग सदियों से सामाजिक उत्पीड़न से मुक्ति के लिए धर्मांतरण को सहज विकल्प के रूप में स्वीकार करते आ रहे थे उनमें बाबासाहब ने यह आत्मविश्वास पैदा किया कि जहां हो, वहीं पर अपनी मुक्ति की लड़ाई लड़ कर अपनी दशा को बदल सकते हो। जीवन के अंतिम दिनों में उनके द्वारा बौद्ध धर्म अंगीकार करना मूल हिंदू धर्म से पलायन नहीं था, बल्कि हिंदू धर्म की एक शाखा विशेष के प्रति आस्था प्रकट करना था। उन्हें वितृष्णा सवर्णवाद से थी, सवर्ण जातियों से नहीं, अन्यथा वे 1948 में डॉ सविता नाम की एक ब्राह्मणी विधवा से विवाह न करते। दूसरी तरफ गांधी भी आंबेडकर के वर्ण-व्यवस्था के विरोध से अप्रभावित नहीं रह सके, और 1932 से वर्ण-व्यवस्था के पक्ष में कुछ भी सकारात्मक कहना बंद कर वे अंतरजातीय विवाह के पक्षधर बन गए। वास्तव में गांधी और आंबेडकर एक दूसरे के विलोम के बजाय एक दूसरे के पूरक अधिक हैं। जहां गांधी ने दमित-भयभीत राष्ट्र में दर्प, निर्भीकता और जुझारूपन का संचार किया, वहीं आंबेडकर ने देश की पीड़ित, दलित जातियों में आत्म-गौरव और मुक्ति का भाव जगाया। यह काम वैसा ही था जैसा मध्यकाल में कबीर का। यह कहने में तनिक असंगति नहीं कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद से त्रस्त भारतीय अवाम में गांधी ने नई जिंदगी की आशा पैदा की, तो सवर्णवाद, ब्राह्मणवाद के जुए तले कराहते दलित समुदाय में आंबेडकर ने नई चेतना का संचार किया। गांधी और आंबेडकर की इस सहधर्मी पूरकता को ध्यान में रख कर ही आज के दलित और गैर-दलित संयुक्त रूप से सामाजिक और राजनीतिक रूपांतरण के अधूरे कार्य को पूर्णता प्रदान कर सकते हैं। |
Saturday, July 7, 2012
गांधी और आंबेडकर का रिश्ता
गांधी और आंबेडकर का रिश्ता
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