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Thursday, July 19, 2012

साख के सौदागर

साख के सौदागर


Thursday, 19 July 2012 11:36

अरविंद कुमार सेन 
जनसत्ता 19 जुलाई, 2012: वेस्टफालिया की संधि से 1648 में मिला राष्ट्र की संप्रभुता एक ऐसा विशेषाधिकार है जिसके जरिए आधुनिक राज्य अपनी सीमाओं के भीतर शक्ति संचालन करते रहे हैं। वैश्वीकरण के बाद यह अधिकार राष्ट्र-राज्यों की सरकारों के हाथ से निकल कर पूंजीपतियों की नियंत्रण वाली संस्थाओं के हाथ में चला गया है। 1991 में भारत ने भी खुले बाजार की नीतियां अपना कर कहा कि भारत का विकास विदेशी पूंजी के बगैर नहीं हो सकता है। मार्केटोक्रेसी (लोकतंत्र का पूंजीवादी स्वरूप) कहती है कि गरीब देशों को अपने आर्थिक विकास को धार देने के लिए पूंजीपतियों को आकर्षित करना चाहिए। पूंजीपति मुनाफे का गुणा-भाग करके अपनी शर्तों पर ही निवेश करते हैं। 
पैसा लगाने से पहले माकूल आबोहवा तैयार करने की यह शर्त वक्त-वक्तपर स्टैंडर्ड एंड पुअर, फीच और मूडीज जैसी साख तय करने वाली संस्थाओं और टाइम जैसी पत्रिकाओं की मार्फत बताई जाती है। स्टैंडर्ड एंड पुअर ने बीते दिनों भारत को निवेश के लिहाज से नकारात्मक घोषित करते हुए चेताया है कि अगर विदेशी निवेश के लिए जल्द हालात नहीं सुधारे गए तो भारत की साख को 'कबाड़' का दर्जा दिया जा सकता है। कर्ज-साख तय करने वाली कंपनियों की ओर से मीडिया में बवंडर खड़ा हो गया और कई विश्लेषकों ने दावा किया कि भारत की अर्थव्यवस्था अब गहरे संकट में फंस चुकी है। 
स्टैंडर्ड एंड पुअर ने भारत को अपनी साख सुधारने का नुस्खा भी बताया है। एसएंडपी का कहना है कि भारत को कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च बंद करना चाहिए है और पेट्रोलियम पदार्थों और उर्वरकों पर दी जाने वाली सरकारी सबसिडी को भी खत्म किया जाना चाहिए। जैसे ही सरकार का सबसिडी बिल कम होगा तो एक तरफ भारतीय रिजर्व बैंक ब्याज दरों में ढील देगा और बाजार में खपत बढ़ने से कंपनियों के मुनाफे में इजाफा होगा। दूसरी ओर पेट्रोलियम पदार्थों पर सबसिडी हटने के बाद रिलायंस, एस्सार और ब्रिटेन की शैल जैसी तेल कंपनियां भी जोरदार मुनाफा कमाएंगी। 
एसएंडपी इतना सब होते ही भारत की साख को सबसे ऊपर वाला दर्जा (एएए) देगी और भारत दुनिया भर के निवेशकों की पहली पसंद बन जाएगा। लेकिन सरकारी खर्च में कटौती और डीजल और उर्वरक पर सबसिडी कम होने की कीमत कौन चुकाएगा? जाहिर है, एसएंडपी से उम्दा साख का तमगा हासिल करने की सबसे बड़ा खमियाजा गरीब तबके को ही भुगतना पड़ेगा। आखिर भारत की साख में कमी क्यों की गई है; क्या भारत की अर्थव्यवस्था किसी गंभीर संकट का सामना कर रही है?
2008 के आर्थिक संकट के बाद दुनिया भर में तमाम आर्थिक पैकेज बांटे जाने के बावजूद अब यह साफ हो गया है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था खासकर विकसित अर्थव्यवस्थाएं दोहरी मंदी की चपेट में आ चुकी हैं। यूरोप के कर्ज संकट ने रही-सही कसर पूरी कर दी है और मुनाफे में जोरदार कमी के कारण कंपनियां अपने शेयरधारकों पर पैसे की बरसात नहीं कर पा रही हैं। दोहरी मंदी के इस खतरे के बीच घरेलू मांग और ऊंची बचत दर पर टिकी उभरती अर्थव्यवस्थाओं में वृद्धि दर बनी हुई है और 'केसिनो अर्थव्यवस्था' के सूत्रधारों ने अब भारत, चीन, ब्राजील और रूस जैसे देशों को निशाने पर ले रखा है। 
दिक्कत यह है कि सरकारी खर्च में बढ़ोतरी के कारण उभरते देशों में निवेश पर प्रतिफल कम है और इसी प्रतिफल में इजाफा करने के लिए एसएंडपी जैसे कागजी शेरों के जरिए गीदड़ भभकियां दी जा रही हैं। विकास के मुक्त बाजार मॉडल में वित्तीय सेवा उद्योग का ही वर्चस्व है और विकास का मतलब जीडीपी और शेयर बाजार में निवेश पर मिलने वाले प्रतिफल से लगाया जाता है। गौर करने लायक बात यह है कि एसएंडपी, मूडीज और फिच जैसी कर्ज साख तय करने वाली एजेंसियों के आकलन का अर्थव्यवस्था के बुनियादी संकेतकों से कोई लेना-देना नहीं होता। 
दरअसल, ये एजेंसियां किसी भी देश की साख तय करने के लिए विश्लेषणात्मक मॉडल का सहारा लेती हैं और इस मॉडल में ब्याज की दरें, शेयर बाजार का प्रतिफल, चालू खाते का घाटा, सरकारी खर्च और विदेशी निवेशकों को मिलने वाली रियायतों को शामिल किया जाता है। अचरज की बात यह है कि इन किताबी आंकड़ों का विश्लेषण भी संबंधित देश से सात समंदर दूर लंदन या न्यूयार्क में बैठ कर किसी तीसरी संस्था से कराया जाता है। मसलन, एसएंडपी ने सिंगापुर के विश्लेषक ताकाहिया ओगावा की रपट के आधार पर पिछले दिनों भारत की साख में कटौती की है। कहने की जरूरत नहीं कि यह किताबी कसरत हकीकत के धरातल से कोसों दूर है और साख तय करने वाली इन संस्थाओं का पुराना इतिहास इस बात पर मुहर लगाता है। 
२1964 में मैक्सिको के आर्थिक संकट और 1997 में एशियाई देशों के संकट में इन साख तय करने वाली कंपनियों की बुरी तरह मिट््टी पलीद हुई। 1997 में मलेशिया, इंडोनेशिया और थाईलैंड समेत पूर्वी एशियाई देशों के आर्थिक संकट की सबसे बड़ी गुनहगार साख निर्धारण एजेंसियां ही थीं। 
इन एजेंसियों ने सबसे पहले पूर्वी एशियाई देशों को आला दर्जे की रेटिंग (एएए) बांट कर बाजार से ज्यादा से ज्यादा कर्ज उठाने के लिए उकसाया। मगर आर्थिक संकट शुरू होते ही साख में कटौती कर दी। पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं को अधर में छोड़ निवेशक अपना पैसा निकाल कर भागने लगे।

यहां तक कि साख निर्धारण एजेंसियों ने थाईलैंड पर दबाव बना कर पेंशन फंडों की रकम विदेशी   निवेशकों की ओर से खरीदे गए थाई बांडों में लगवाई। 
ऐसे में थाईलैंड का बाजार, थाई मुद्रा बाहट और अर्थव्यवस्था तीनों बुरी तरह आर्थिक मंदी की चपेट में आकर बरबाद हो गए। थाईलैंड की अर्थव्यवस्था साख निर्धारण एजेंसियों की ओर से दिए गए उस झटके से आज तक नहीं उबर पाई है और एक समय विकास दर के मामले में एशिया की अगुआई करने वाला यह देश आज सेक्स पर्यटन का अड््डा बना हुआ है। 
एनरॉन को कौन नहीं जानता। एनरॉन का घपला सामने आने के एक दिन पहले तक एसएंडपी समेत तीनों प्रमुख साख निर्धारण कंपनियों ने एनरॉन को एएए की रेटिंग दे रखी थी। साख निर्धारण कंपनियों के कारण ही एनरॉन में निवेशकों के करोड़ों रुपए डूब गए और इसके बाद अपना दामन पाक-साफ दिखाने के फेर में एसएंडपी ने पूरे ऊर्जा क्षेत्र की कंपनियों की साख नकारात्मक कर दी। इंटरनेट कंपनियों को थोक के भाव एएए रेटिंग बांट कर 2000 में डॉट कॉम संकट की भूमिका तैयार करने में भी एसएंडपी समेत तीनों साख निर्धारण कंपनियों का हाथ था। 2000 के डॉट कॉम संकट के बाद साख निर्धारण कंपनियों ने परामर्श सेवा के रूप में एक बेहद खतरनाक क्षेत्र में कदम रखा, परामर्श सेवा के तहत बैंकों और निवेश कंपनियों से पैसे लेकर एएए रेटिंग बांटने का धंधा शुरू कर दिया। बार्कलेज, ीांईजी और लीमैन ब्रदर्स समेत रियल स्टेट जैसे जोखिमभरे कारोबार से जुड़ी कंपनियों ने भी पैसे देकर एएए रेटिंग हासिल कर ली। 
चूंकि इन कंपनियों को निवेश की सबसे ऊंची एएए रेटिंग हासिल थी, लिहाजा लोगों ने आंख मूंद कर पैसा लगाया। मगर बुलबुले को फूटना था और इसके बाद 2008 में शुरू हुई आर्थिक तबाही का मंजर तो हर कोई जानता है। एसएंडपी से एएए रेटिंग हासिल करने वाली संस्थाएं बालू के घरौंदों की तरह एक झटके में धराशायी हो गर्इं। लोगों में साख निर्धारण कंपनियों के खिलाफ गुस्सा चरम पर पहुंच गया और एसएंडपी जैसी कंपनियों ने भविष्य में दुबारा गलती नहीं दोहराने की बात कही। पर यह वादा हवाई निकला। वर्ष 2010 में एसएंडपी से अव्वल रेटिंग के सितारे लेने वाली यूनान, स्पेन और इटली जैसी अर्थव्यवस्थाएं डगमगाने लगीं। पूंजीवाद की यही विडंबना है। जिनकी खुद साख लुटी हुई है, वे दूसरों की साख तय कर रहे हैं। 
सवाल यह भी है कि एसएंडपी जैसी कंपनियों को साख तय करने का ठेका कौन देता है और इनका राजस्व कहां से आता है। जवाब खोजना मुश्किल नहीं है। गोल्डमैन सैक्स जैसी निवेशक कंपनियां साख निर्धारण कंपनियों को पैसा मुहैया कराती हैं और साख तय करने का बीड़ा इन कंपनियों ने खुद उठा रखा है। सवाल उठता है कि निवेश करने वाला ही साख तय कर रहा है तो क्या यह हितों का टकराव नहीं है? हितों के इस टकराव के चलते ही दोहरी मंदी में फंसे पूंजीवादी देशों में जनता सड़कों पर उतर कर 'कैपिटलिज्म इज क्राइसिस' के नारे लगा रही है।  
अर्थव्यवस्था की पूरी तस्वीर देखने के बजाय जीडीपी और शेयर बाजार के आंकड़ों को आधार मान कर साख तय करने वाले विकास के इस मॉडल को 1980 के दशक में ब्रिटेन की प्रधानमंत्री मारग्रेट थैचर और अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने आगे बढ़ाया था। थेचर-रीगन फलसफा कहता है कि अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई से कोई नुकसान नहीं है, अगर निवेशक अपनी पूंजी पर मुनाफा कमाते हैं। ये निवेशक बाद में समृद्धि के निर्माता (वेल्थ क्रिएटर) बन जाएंगे और इनके पास से पैसा रिस कर गरीबों तक पहुंचता रहेगा। 
शेयर बाजार आधारित विकास के इस मॉडल ने विकास की बुनियादी परिभाषा ही बदल दी, इसमें सामाजिक विकास की कोई जगह नहीं थी। विकास का मतलब साख निर्धारण एजेंसियों से ऊंची रेटिंग लेकर विदेशी निवेशकों को बुलाना और उनके निवेश पर जोरदार प्रतिफल देकर विदा करने से लगाया जाने लगा। पीटर क्लार्क ने इसे सामाजिक सुधार और मशीनी सुधार के रूप में समझाया है। 
सामाजिक सुधारों में सरकार प्रशासन में पारदर्शिता लाकर विकास का फल नीचे तक पहुंचाती है वहीं मशीनी सुधार में एसएंडपी जैसी एजेंसियों की सलाहों पर अमल करके निवेशकों के मुनाफे का रास्ता साफ किया जाता है। 
जीडीपी से विकास माप कर साख तय करने का यह तरीका विकास के बजाय चुनिंदा लोगों के मुनाफे का विकास करना है। मार्च में विश्व बैंक का अध्यक्ष पद छोड़ने वाले रॉबर्ट जोलिक ने अपने आखिरी भाषण में कहा था कि भारत की विकास दर आठ फीसद से छह फीसद होने से भारतीय जनता के बजाय अमेरिका और यूरोप को ज्यादा घबराहट महसूस होती है। कहावत है कि घर रोशन करने के बाद मंदिर में दिया जलाया जाता है। 
अगर सरकार देश का विकास करना चाहती है तो सबसे पहले कृषि, शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसे बुनियादी क्षेत्रों में निवेश करके सुधार शुरू किए जाने चाहिए, लेकिन ऐसे सुधारों से एसएंडपी जैसी एजेंसियों के आकाओं को मुनाफा नहीं होगा। विदेशी निवेशकों को प्रतिफल देने के लिए ब्याज सस्ता करना होगा, कर रियायतें बढ़ानी होंगी और मॉरीशस जैसे कर चोरी वाले देशों के साथ आर्थिक संधियां करनी होंगी। पीटर क्लार्क के शब्द उधार लेकर कहें तो फैसला सरकार को करना है कि उसे सामाजिक सुधार करने हैं या मशीनी सुधार।

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