Wednesday, 18 July 2012 11:31 |
पुष्परंजन विचार करने की बात है कि यूरोप-अमेरिका के गली कूचों में चल रहे स्टोर में आलू, प्याज, टमाटर, दूध भारतीय खुदरा बाजार से सस्ते क्यों हैं। जो लोग विदेश में रह रहे हैं, उनसे इस बात की पुष्टि की जा सकती है। दलालों ने इस देश के खुदरा बाजार की जो दुर्गति की है, उससे सब लोग वाकिफ हैं। क्या ऐसे ही लोग विदेशी रिटेल कंपनियों का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं? सिर्फ अमेरिका को कोसते रहने से क्या हमारी जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है। हम अपने खुदरा बाजार को नियंत्रित क्यों नहीं कर सकते? यों भी विदेशी खुदरा व्यापार के खौफ से हम खामखाह परेशान हैं। अमेरिका में रिटेल व्यापार की हालत इतनी खस्ता है कि वीरान पड़े हजारों मॉल भुतहा घोषित कर दिए गए हैं। 'ग्रीन स्ट्रीट एडवाइजर' नामक संस्था खुदरा व्यापार पर नजर रखती है। इसी संस्था ने पिछले महीने रिपोर्ट दी कि अगले दस वर्षों में अमेरिका के एक हजार बड़े मॉल बंद हो सकते हैं। कारण, अमेरिका के खुदरा व्यापार को आॅनलाइन खरीद-बिक्री करने वाले कुतर रहे हैं। जिस वालमार्ट के भौकाल से अपने टीवी दर्शक आतंकित रहते हैं, उसकी दुकानें 2006 में जर्मनी से उठ गई थीं। भारी घाटे के कारण वालमार्ट का जर्मनी में टिके रहना मुश्किल हो गया था। खुदरा व्यापार में जर्मनी और उससे पहले दक्षिण कोरिया में वालमार्ट की क्या भद््द पिटी, उससे हम भी सीख सकते हैं। दक्षिण कोरिया में फ्रांस की दिग्गज खुदरा कंपनी 'कारेफोर' की विदाई 'वालमार्ट' के साथ-साथ हुई थी। यह बात मई 2006 की है। वालमार्ट का दक्षिण कोरिया में आगमन 1996 में हुआ था। पंद्रह देशों में पचपन अलग-अलग नामों से साढेÞ आठ हजार खुदरा स्टोर चलाने वाले वालमार्ट के 1997 में आने की खबर से जर्मनी के व्यापारी सन्नाटे में थे। वालमार्ट 95 खुदरा स्टोर के साथ जर्मनी के बाजार में उतरा। इस कंपनी ने ग्राहकों को बहुत सारे प्रलोभन दिए, लेकिन उसकी दाल नहीं गली। जर्मन खुदरा व्यापार की व्यूह-रचना को अमेरिका की यह दिग्गज कंपनी नहीं तोड़ पाई। वालमार्ट के जर्मनी में नाकाम होने का दूसरा बड़ा कारण उसकी 'हायर ऐंड फायर' (जब चाहे काम पर रखो और जब मर्जी निकालो) नीति भी थी। जर्मन श्रमिक संगठनों ने वालमार्ट को अपने तरीके से समझा दिया कि यह अमेरिका नहीं, जर्मनी है। यहां के कायदे-कानून से चलो, तो कंपनी चलने देंगे। सन 2001 से 2007 के दौरान जर्मनी में रहते हुए यूरोप-अमेरिका के जिन हिस्सों में मेरा जाना हुआ वहां यह बात साफ दिखती थी कि मॉल में भीड़ है, तो भी मुहल्ले के खुदरा स्टोर में लोग खरीदारी को जाते थे। यहां तक कि सड़कों पर तरतीब से लगी सब्जी मंडियां वीरान नहीं होती थीं, बल्कि आम आदमी के समक्ष सस्ती दर पर सामान खरीदने का विकल्प बराबर होता था। यूरोप-अमेरिका में गांव, मुहल्ले, गली-कूचे की ये खुदरा दुकानें आज भी ठीकठाक चल रही हैं। देहाती हाट में पटरी पर सब्जियां बेचने वाले यूरोप के हर देश में दिखते हैं। वहां जो नहीं दिखते, वे हैं बिचौलिये। इन बिचौलियों ने भारत में आम आदमी का जीना दूभर कर दिया है, इस सचाई पर कम ही बहस होती है। मंदी से पहले 2007 में अमेरिका में ग्यारह लाख बाईस हजार सात सौ तीन खुदरा प्रतिष्ठान थे। 'रिटेल ट्रैफिक मैग डॉटकॉम' जैसी सर्वे कंपनी की मानें तो हर साल अमेरिका में पांच हजार से छह हजार खुदरा स्टोर में ताले लग रहे हैं। 2010 में पांच हजार पांच सौ बहत्तर खुदरा दुकानें बंद की गई थीं। गए साल यह तय हुआ था कि अमेरिका में खुदरा व्यापार को बढ़ाना है, लेकिन तब भी पांच हजार से अधिक प्रतिष्ठानों में ताले लग चुके थे। अमेरिकी खुदरा व्यापार जिस तरह से ठंडा पड़ गया है, और वहां रिटेल दुकानें जिस रफ्तार से बंद होती जा रही हैं, उसके लिए राष्ट्रपति ओबामा को हम क्यों नहीं 'अंडर अचीवर' यानी आशा से कम सफलता पाने वाला व्यक्ति कहें? |
Thursday, July 19, 2012
खुदरा में अमेरिकी खौफ
खुदरा में अमेरिकी खौफ
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