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Thursday, July 19, 2012

खुदरा में अमेरिकी खौफ

खुदरा में अमेरिकी खौफ


Wednesday, 18 July 2012 11:31

पुष्परंजन 
जनसत्ता 18 जुलाई, 2012: ओबामा को आखिर इस समय भारत की क्यों याद आई? क्या इसलिए कि भारत में राष्ट्रपति चुनाव है, और यहां के राजनीतिक समीकरण बदल रहे हैं, या फिर अमेरिका में होने वाले चुनाव में उन्हें अपनी गद्दी बचाने की चिंता है? कहावत है, मरा हुआ हाथी भी सवा लाख का होता है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था का भी यही हाल है। आर्थिक भूचाल का अधिकेंद्र (एपीसेंटर) रहा यह देश आज भी दुनिया का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है। दुनिया के एक तिहाई व्यापार पर अमेरिका का कब्जा है। सत्ताईस सदस्यीय यूरोपीय संघ भी अमेरिका से पीछे चल रहा है। 2011 में अमेरिकी निर्यात 2.1 ट्रिलियन (खरब) डॉलर का रहा है, जिससे 97 लाख अमेरिकी नागरिकों को रोजगार के अवसर मिले थे। 
इस साल एक मार्च को वाइट हाउस की ओर से अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि रोन किर्क ने एक दस्तावेज पेश किया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया था कि ओबामा को करना क्या है। किर्क ने अपनी रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया था कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा इस साल निर्यात को दोगुना करेंगे। निर्यात जब दोगुना होगा, तो रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, यह संदेश भी अमेरिकी मतदाताओं को दिया गया। इस पर काम आरंभ भी हो गया। 
एशिया में अब तक चीन, अमेरिका का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार रहा है। लेकिन इस साल के मध्य तक चीन-अमेरिका के बीच व्यापार के उत्साहजनक परिणाम नहीं रहने के कारण ओबामा की विवशता हो गई कि वे भारत की ओर देखें। भारत अमेरिका का तेरहवां व्यापारिक साझेदार है। पिछले साल दोनों देशों के बीच 86 अरब डॉलर का व्यापार हुआ था। आर्थिक विश्लेषक इसे उत्साह भरा व्यापार नहीं मानते। अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि कार्यालय के आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल साढेÞ चौदह अरब डॉलर का अमेरिकी माल भारतीय बाजार में नहीं पहुंच सका। शायद इसलिए इस साल ओबामा भारत के साथ इस घाटे को पूरा करने के लिए उतावले हैं। 
ओबामा ने ऐसा क्यों कहा कि भारत में अर्थव्यवस्था 'प्रभावशाली ढंग' से विकास कर रही है, इस बात पर सूक्ष्मता से सोचने की जरूरत है। ओबामा की नजर में भारत की विकास दर में कमी विश्व में जारी आर्थिक मंदी के कारण हुई है। ओबामा जो कह रहे हैं, अपने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी वही अलापते रहे हैं। लोगों को याद होना चाहिए कि मैक्सिको जी-20 की बैठक में जाते समय भारत में विकास दर की धीमी गति का ठीकरा मनमोहन सिंह ने यूरोजोन के संकट पर फोड़ा था। परोक्ष रूप से ओबामा ने अपने बयान से मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों, यानी 'मनमोहनॉमिक्स' को सही ठहराया है।
भारत में आम आदमी महंगाई से बेहाल है, यह ओबामा के लिए चिंता का विषय नहीं है। ओबामा बल्कि इसकी तारीफ करते हैं कि भारत ने यूरोजोन में संकट के बावजूद सात प्रतिशत विकास दर बनाए रखी है, और दसियों लाख लोगों को गरीबी रेखा से उबार कर दुनिया का सबसे बड़ा मध्य वर्ग तैयार किया है। मुराद यह कि यहां नए-नए पैसे वाले अमेरिकी बाजार के भावी उपभोक्ता हैं। छह नवंबर को होने वाले चुनाव में ओबामा की डेमोक्रेट पार्टी के लिए वहां का उद्योग जगत थैली खोल चुका है। उसी अमेरिकी उद्योग जगत का दबाव है कि भारत में खुदरा व्यापार में निवेश के दरवाजे लगे हाथ खोल दिए जाएं। यह सफाई भी दी गई कि रिटेल के बारे में अमेरिकी राष्ट्रपति ने जो राय दी है, वह वहां के उद्योग जगत की राय है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ओबामा अपने विरोध में खड़े रिपब्लिकन नेता मिट रोमनी की इस बात के लिए आलोचना करते हैं कि रोमनी 'आउटसोसर््िांग' के समर्थक हैं, और रोमनी जैसे नेताओं की वजह से भारत के कॉल सेंटरों में काफी लोगों को रोजगार मिल जाता है। ओबामा समर्थकों का बस चले तो रोजगार सिर्फ अमेरिकियों को दें, बाकी जाएं भाड़ में। 2008 से पहले भारत में आउटसोसर््िांग उद्योग अच्छा-भला फल-फूल रहा था। कोई सत्तर लाख लोगों को इससे रोजगार मिल रहा था। आउटसोसर््िांग से देश में सालाना 11 अरब डॉलर की आय हो रही थी। लेकिन ओबामा के आने के बाद भारत में अमेरिकी आउटसोसर््िांग को जैसे ग्रहण लग गया। देश के सभी मेट्रो शहरों और दूसरे महानगरों से आई खबरों से यही अनुमान लगा है कि तीस से पैंतीस प्रतिशत तक आउटसोसर््िांग के काम-धंधे को ताले लग गए हैं।
रविवार से ही अपने देश में राजनीति गरमाई हुई है। भाजपा, वामपंथी और समाजवादी पार्टी के नेताओं के समवेत स्वर सुन कर यह मानना मुश्किल है कि ये वही पार्टियां हैं जिनके अलग-अलग सिद्धांत हैं। 'अमेरिकी खुदरा व्यापार को अपने देश में नहीं घुसने देना है' इस बात पर इन पार्टियों में कितनी एका है, यह देखना दिलचस्प है। 
लेकिन यह जानकर हैरत नहीं होती कि ममता बनर्जी ने ओबामा के बयान को बड़े ही सहज ढंग से लिया है। ओबामा के बयान के बहत्तर घंटे बाद भी ममता बनर्जी का चुप रहना यह बताता है कि दो माह पहले अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन का उनसे मिलना व्यर्थ नहीं गया है। हिलेरी पश्चिम बंगाल में निवेश, और खुदरा व्यापार में समर्थन के उद््देश्य से ही ममता से मिलने गई थीं। इसलिए सिर्फ मनमोहन सिंह को दोष देना उचित नहीं होगा कि वे 'सॉफ्ट' हैं, और इसका फायदा विदेशी शक्तियां उठा रही हैं। 

'अमेरिका फोबिया' से अलग, इस बात पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है कि लगभग 470 अरब डॉलर वाले भारतीय खुदरा व्यापार से क्या इस देश के अंतिम   आदमी को राहत मिली है? 'द इकोनॉमिस्ट' का आकलन है वर्ष 2011 में भारत के खुदरा व्यापार से साढ़े तीन करोड़ यानी देश की 7.3 प्रतिशत जनता को काम के अवसर मिल रहे थे। लेकिन भारत के खेत-खलिहानों से लेकर मंडियों तक में काम करने वाले दुकानदारों, श्रमिकों और बिचौलियों की बढ़ती आबादी पर गौर करें, तो यह संख्या काफी कम लगती है। 
विचार करने की बात है कि यूरोप-अमेरिका के गली कूचों में चल रहे स्टोर में आलू, प्याज, टमाटर, दूध भारतीय खुदरा बाजार से सस्ते क्यों हैं। जो लोग विदेश में रह रहे हैं, उनसे इस बात की पुष्टि की जा सकती है। दलालों ने इस देश के खुदरा बाजार की जो दुर्गति की है, उससे सब लोग वाकिफ हैं। क्या ऐसे ही लोग विदेशी रिटेल कंपनियों का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं? सिर्फ अमेरिका को कोसते रहने से क्या हमारी जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है। हम अपने खुदरा बाजार को नियंत्रित क्यों नहीं कर सकते?
यों भी विदेशी खुदरा व्यापार के खौफ से हम खामखाह परेशान हैं। अमेरिका में रिटेल व्यापार की हालत इतनी खस्ता है कि वीरान पड़े हजारों मॉल भुतहा घोषित कर दिए गए हैं। 'ग्रीन स्ट्रीट एडवाइजर' नामक संस्था खुदरा व्यापार पर नजर रखती है।
इसी संस्था ने पिछले महीने रिपोर्ट दी कि अगले दस वर्षों में अमेरिका के एक हजार बड़े मॉल बंद हो सकते हैं। कारण, अमेरिका के खुदरा व्यापार को आॅनलाइन खरीद-बिक्री करने वाले कुतर रहे हैं। जिस वालमार्ट के भौकाल से अपने टीवी दर्शक आतंकित रहते हैं, उसकी दुकानें 2006 में जर्मनी से उठ गई थीं। भारी घाटे के कारण वालमार्ट का जर्मनी में टिके रहना मुश्किल हो गया था। 
खुदरा व्यापार में जर्मनी और उससे पहले दक्षिण कोरिया में वालमार्ट की क्या भद््द पिटी, उससे हम भी सीख सकते हैं। दक्षिण कोरिया में फ्रांस की दिग्गज खुदरा कंपनी 'कारेफोर' की विदाई 'वालमार्ट' के साथ-साथ हुई थी। यह बात मई 2006 की है। वालमार्ट का दक्षिण कोरिया में आगमन 1996 में हुआ था। 
पंद्रह देशों में पचपन अलग-अलग नामों से साढेÞ आठ हजार खुदरा स्टोर चलाने वाले वालमार्ट के 1997 में आने की खबर से जर्मनी के व्यापारी सन्नाटे में थे। वालमार्ट 95 खुदरा स्टोर के साथ जर्मनी के बाजार में उतरा। इस कंपनी ने ग्राहकों को बहुत सारे प्रलोभन दिए, लेकिन उसकी दाल नहीं गली। जर्मन खुदरा व्यापार की व्यूह-रचना को अमेरिका की यह दिग्गज कंपनी नहीं तोड़ पाई। वालमार्ट के जर्मनी में नाकाम होने का दूसरा बड़ा कारण उसकी 'हायर ऐंड फायर' (जब चाहे काम पर रखो और जब मर्जी निकालो) नीति भी थी। जर्मन श्रमिक संगठनों ने वालमार्ट को अपने तरीके  से समझा दिया कि यह अमेरिका नहीं, जर्मनी है। यहां के कायदे-कानून से चलो, तो कंपनी चलने देंगे।
सन 2001 से 2007 के दौरान जर्मनी में रहते हुए यूरोप-अमेरिका के जिन हिस्सों में मेरा जाना हुआ वहां यह बात साफ दिखती थी कि मॉल में भीड़ है, तो भी मुहल्ले के खुदरा स्टोर में लोग खरीदारी को जाते थे। यहां तक कि सड़कों पर तरतीब से लगी सब्जी मंडियां वीरान नहीं होती थीं, बल्कि आम आदमी के समक्ष सस्ती दर पर सामान खरीदने का विकल्प बराबर होता था। यूरोप-अमेरिका में गांव, मुहल्ले, गली-कूचे की ये खुदरा दुकानें आज भी ठीकठाक चल रही हैं। देहाती हाट में पटरी पर सब्जियां बेचने वाले यूरोप के हर देश में दिखते हैं। वहां जो नहीं दिखते, वे हैं बिचौलिये। इन बिचौलियों ने भारत में आम आदमी का जीना दूभर कर दिया है, इस सचाई पर कम ही बहस होती है।
मंदी से पहले 2007 में अमेरिका में ग्यारह लाख बाईस हजार सात सौ तीन खुदरा प्रतिष्ठान थे। 'रिटेल ट्रैफिक मैग डॉटकॉम' जैसी सर्वे कंपनी की मानें तो हर साल अमेरिका में पांच हजार से छह हजार खुदरा स्टोर में ताले लग रहे हैं। 2010 में पांच हजार पांच सौ बहत्तर खुदरा दुकानें बंद की गई थीं। गए साल यह तय हुआ था कि अमेरिका में खुदरा व्यापार को बढ़ाना है, लेकिन तब भी पांच हजार से अधिक प्रतिष्ठानों में ताले लग चुके थे। अमेरिकी खुदरा व्यापार जिस तरह से ठंडा पड़ गया है, और वहां रिटेल दुकानें जिस रफ्तार से बंद होती जा रही हैं, उसके लिए राष्ट्रपति ओबामा को हम क्यों नहीं 'अंडर अचीवर' यानी आशा से कम सफलता पाने वाला व्यक्ति कहें?

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