तथाकथित मार्क्सवादियों का रूढ़िवादी और ब्राह्मणवादी रवैया
"I protest the distorted reporting of my statements in the conference, which was scathingly critical of the orthodox and brahmanic attitude of the so called Marxists there who trashed the entire anti-caste movement and were unashamedly disrespectful of Babasaheb Ambedkar. I had accused them of being casteist and likened them to the hindutva-brahmanist, the worst possible attribution to their tribe, doing further harm to Indian revolution and had stated among other things that the contribution of Ambedkar to democratization of the country was greater than all the communists together. Please do not spread canard in my name."
हाँ, डॉ. अम्बेडकर के पास दलित मुक्ति की कोई परियोजना नहीं थी
अगर लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता में आस्था हैं तो अंबेडकर हर मायने में प्रासंगिक हैं
हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!
- because of the hatred for the Brahmanism, Ambedkar failed to understand the conspiracy of colonialism
- All experiments of Dalit emancipation by Dr. Ambedkar ended in a 'grand failure'
- Ambedkar's politics does not move an inch beyond the policy of some reforms
- दलित मुक्ति को अंजाम तक पहुँचाने के लिए अम्बेडकर से आगे जाना होगा
- ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अपनी नफरत के कारण अंबेडकर उपनिवेशवाद की साजिश को समझ नहीं पाये
- अंबेडकर के सारे प्रयोग एक ''महान विफलता'' में समाप्त हुये – तेलतुंबड़े
आदरणीय अभिनवकुमार जी, हस्तक्षेप संपादक, कॉरपोरेट मीडिया व सोशल मीडिया के साथी, संशोधनवादी वामपन्थी व क्रान्तिकारी मुक्तिकामी साथी और अंबेडकर के नाम राजनीति करने वाले तमाम लोग, अंबेडकर के अनुय़ायी बहिष्कृत समुदायों का मूक समाज और भारतवासियों !
अभिनवकुमार जी के लम्बे आलेख में विद्वता कूट-कूटकर भरी पड़ी है। दूसरी ओर, हम उच्चकोटि के अकादमिक अध्ययन के अवसरों से वंचित रहे हैं। हम न अर्थशास्त्री हैं और न समाजविज्ञानी। विद्वतजन तो हैं ही नहीं। तथाकथित बड़ा पत्रकार भी नहीं।क्योंकि पत्रकारों और मीडिया का इस वक्त कोई सामाजिक सरोकार है ही नहीं। होता, तो आज राष्ट्रीय संकट इस लाइलाज दौर में न होता। मैं विभाजनपीड़ित पुनर्वासित परिवार का भारतीय नागरिकता से बेदखल व देशनिकाला के लिये नियतिबद्ध शरणार्थी समाज की संतान हूँ। मेरे पिता आजीवन अपने समाज और बाकी देश के बहुजनों के जीवन मरण के संघर्ष में जुड़े रहे हैं। हम इस विरासत की वजह से अपने लोगों की जान बचाने के लिये आत्मरक्षा की गरज से देश भर में पीड़ितों का संयुक्त मोर्चा बनाने के प्रयास में बचपन से लगे हैं। सिलसिलेवार अध्ययन और सब कुछ सही-सही जान लेने का दावा हम नहीं करते। इसलिए बचकानी और नादानी से लिखने-पढ़ने का अभियोग का हम खंडन नहीं करना चाहते। हम तो एक मामूली सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो संयोग से पेशेवर पत्रकार है।
चंडीगढ़ के आलेख सार्वजनिक हों तो इससे अच्छी कोई बात नहीं होगी।अगर अंबेडकर को खारिज करके ही मुक्तिमार्ग निकलता है, तो ऐसे मुक्तिमार्ग पर चलने को हम भी तैयार हैं बशर्ते कि उस मुक्तिमार्ग की दशा और दिशा स्पष्ट करें पढ़े लिखे विद्वतजन, जिनका दुर्भाग्य से भारतीय सिद्धान्तों, अवधारणाओं के उत्तरआधुनिक पाठ और विमर्श के सुरक्षित आलाप के अलावा वधस्थल भारतवर्ष के कठोर सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक यथार्थ से, जमीनी हकीकत से कोई लेना देना नहीं है और न उन्हें अपने स्वजनों की जान बचाने की जद्दोजहद से होकर गुजरना होता है।
अभिनव जी और उनके समविचारी लोगों की आस्था न भारतीय संविधान में है और न लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के मौजूदा ढाँचे में। वे राजनीति में निष्णात वामपंथियों को संशोधनवादी बता रहे हैं और अंबेडरकरवादी जमात का मलाईदार अवसर प्राप्त तबका या सत्ता में भागेदारी हासिल करने के लिए आपस में लड़-कट मरने वाले राजनेता। यह भारी विडम्बना है। वे अराजनीति की बात करते हैं। क्रान्ति की और मुक्ति की बात करते हैं। तो संसदीय राजनीति से इस विमर्श का क्या मतलब?
उन्होंने बेहद अच्छा काम किया कि संशोधनवादी वामपंथ को किनारे लगा दिया। पर ऐतिहासिक सच तो यह है कि 1964 साल तक भारतीय़ कम्युनिस्ट आन्दोलन, अंबेडकर के जीवनकाल में एक था। मेरे पिता भी अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी के किसान नेता थे, जिन्होंने ढिमरी ब्लॉक किसान विद्रोह का नेतृत्व किया। भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के अंतर्विरोधों को कन्नी काटकर हम अंबेडकर पर बहस नहीं कर सकते।
दूसरी बात यह कि भारतीय यथार्थ को सम्बोधित करते हुये अंबेडकर ही नहीं, बल्कि गांधी और लोहिया ने जाति व्यवस्था के विमर्श को अपना प्रस्थान बिन्दु बनाया है, संशोधनवादी और क्रान्तिकारी वामपंथियों ने ऐसा नहीं किया। वे वर्ग संघर्ष, पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का राग अलापते रहे। चंडीगढ़ आयोजन में अंबेडकर के व्यक्तित्व-कृतित्व की रचनात्मक आलोचना के बजाय उन्हें अकादमिक तौर पर खारिज करने की ठंडे दिमाग की हत्यारी मानसिकता को सर्जिकल प्रिसिजन के साथ समाजविज्ञानी आशीष नंदी और अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन से बेहतर तरीके से अंजाम दिया गया।
इस मुक्तिकामी क्रान्ति का नतीजा देश भर का आदिवासी समाज भुगत रहा है। गुरिल्ला कार्रवाई के बाद भारतीय राष्ट्र की सैन्य शक्ति के सामने दमन के लिये निहत्था अकेला पड़ा या बिहार में निजी सेनाओं के आखेट के शिकार बहुजनों का सामाजिक यथार्थ एकदम गैर अकादमिक भोगा हुआ य़थार्थ है। क्रान्ति जंगल तक सीमाबद्ध है या फिर विश्वविद्यालयों के वातानुकूलित अध्ययनकक्षों में। क्या कॉरपोरेट साम्राज्यवाद और वंशवादी नस्ली हिन्दुत्व के एजंडे का विरोध प्रतिरोध का रास्ता इस तरह हासिल होगा?
हम अपने सामर्थ्य और सीमाबद्ध अध्ययन के मुताबिक मूक समाज के अपढ़ लोगों की तरह ही इसका जवाब देंगे। सिलसिलेवार देंगे। पर इससे पहले हमारा आग्रह है कि जो अंबेडकर के घोषित अनुयायी हैं और जो अंबेडकर के नाम पर अकामिक व राजनीतिक दुकान चला रहे हैं, वे इस बहस में अपना पक्ष जरुर रखें। हस्तक्षेप की ओर से ऐतिहासिक पहल हुआ है।
हम खासकर आभारी हैं कि अभिनव जी ने मेरा उल्लेख इतनी दफा किया है कि तज़िन्दगी मेरा इतना उल्लेख कभी नहीं हुआ। मेरे उपन्यास अमेरिका से सावधान पर महाश्वेता देवी के अलावा किसी ने लिखा नहीं। कहानियों और कविताओं की तो चर्चा भी नहीं हुयी। बतौर पत्रकार मैं काली सूची में हूँ। मजे कि बात अपने पूँजीवाद, साम्राज्यवाद, मुक्तबाजार के विरोध में अपनाये तेवर की वजह से।
पर यह मामला निजी नहीं है। सवालों से बचने की गुंजाइश नहीं है। बेहतर हो कि हम सब मिलकर एक लोकतान्त्रिक विमर्श के जरिये आगे का रास्ता निकालें, पानी सर से ऊपर है और वक्त कम है। तूफान में फँसे शुतुरमुर्ग की तरह रेत में गर्दन घुसेड़े अपनी खाल बचाने के बजाय बाकी लोग भी अपने दड़बे से बाहर निकलकर इस खुली बहस में शिरकत करें तो इसका सार्थक नतीजा निकलेगा। हमें यकीन है कि कम से कम वैकल्पिक मीडिया के लोग इस बहस को यथोचित तवज्जो देंगे। हम चाहते हैं कि अभिनव कुमार के प्रश्नों का जवाब पहले विद्वतजन जो अकादमिक रुप से अधिकृत हैं और जिनमें नादानी और अपढ़ होने का दुर्गुण न हों, संशोधनवादी वामपन्थी, मलाईदार व राजनेता अंबेडकर अनुयायी पहले दें, तभी बहस का दायरा बढ़ेगा। फिर हम अपना जवाब भी अवश्व देंगे।
पलाश विश्वास
- तथाकथित मार्क्सवादियों का रूढ़िवादी और ब्राह्मणवादी रवैया
- अम्बेडकरवादी उपचार से दलितों को न तो कुछ मिला है, और न ही मिले
- हाँ, डॉ. अम्बेडकर के पास दलित मुक्ति की कोई परियोजना नहीं थी
- अगर लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता में आस्था हैं तो अंबेडकर हर मायने में प्रासंगिक हैं
- हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!
- because of the hatred for the Brahmanism, Ambedkar failed to understand the conspiracy of colonialism
- All experiments of Dalit emancipation by Dr. Ambedkar ended in a 'grand failure'
- Ambedkar's politics does not move an inch beyond the policy of some reforms
- दलित मुक्ति को अंजाम तक पहुँचाने के लिए अम्बेडकर से आगे जाना होगा
- ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अपनी नफरत के कारण अंबेडकर उपनिवेशवाद की साजिश को समझ नहीं पाये
- अंबेडकर के सारे प्रयोग एक ''महान विफलता'' में समाप्त हुये – तेलतुंबड़े
हाँ, डॉ. अम्बेडकर के पास दलित मुक्ति की कोई परियोजना नहीं थी
- अभिनव सिन्हा, सम्पादक – 'मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान'
श्री पलाश विश्वास ने हम पर अम्बेडकर की हत्या का आरोप लगा दिया है। हम क्या कह सकते हैं? ज़्यादा सफ़ाई देने की कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी, पलाश जी ने! लेकिन ताज्जुब की बात है कि आजकल का एक वरिष्ठ, विवेकवान और चर्चित माना जाने वाला पत्रकार आलोचना और हत्या के बीच का फर्क नहीं समझता है। श्री विश्वास का मानना है कि आज जबकि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था विश्व पैमाने पर संकट से जूझ रही है, देश के भीतर दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववाद फिर से उभार पर है (हालांकि इस विषय में अलग-अलग लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है, लेकिन सामान्य तौर पर यह बात सही है कि संकट का दौर दक्षिणपंथी कट्टरपंथ के पैदा होने की ज़मीन पैदा करता है, चाहे उसका वाहक भाजपा बने या कांग्रेस) उस समय अम्बेडकर पर कोई प्रश्न नहीं उठाया जाना चाहिए, उसकी कोई आलोचना नहीं की जानी चाहिए। उनका मानना है कि ऐसी आलोचना से इसलिए बचा जाना चाहिए कि अम्बेडकर ने साम्राज्यवाद और पूंजीवाद की एक आलोचना पेश की थी; ऐसी आलोचना इसलिए भी नहीं की जानी चाहिए कि अम्बेडकर ने देश में मुद्रा स्वर्ण मानक की हिमायत कर एक स्थायित्वपूर्ण व्यवस्था देने की बात की थी, जिसे आज सरकार डॉलर के साथ जोड़ रही है, जो कि आर्थिक संकट का कारण है।
इन विचारों से पता चलता है कि अम्बेडकर के अर्थशास्त्र के बारे में श्री पलाश विश्वास की जानकारी काफी दिलचस्प रूप से अनोखी है। कहने का अर्थ है, वह अम्बेडकर का एक नये प्रकार का हस्तगतीकरण (एप्रोप्रियेशन) करने का प्रयास कर रहे हैं। वैसे तो आनन्द तेलतुंबड़े, गेल ओमवेत आदि जैसे तमाम लोग अपने-अपने तरीके से अम्बेडकर का मार्क्सवादी या मार्क्स का अम्बेडकरवादी एप्रोप्रियेशन करने के विलक्षण प्रयास कर रहे हैं, लेकिन पलाश जी का प्रयास निश्चित तौर पर एक अलग ही प्रभा-मण्डल के साथ प्रकट हुआ है! चूंकि पलाश विश्वास ने वायदा किया है कि आगे वे चतुर्थ अरविन्द स्मृति संगोष्ठी में नामुराद "ब्राह्मणवादी" वामपंथियों द्वारा अम्बेडकर की हत्या के प्रयास की विस्तृत आलोचना रखेंगे, और साथ ही एक-एक तर्क का जवाब देंगे, इसलिए हम भी उनके एक-एक जवाब का प्रति-जवाब बाद में ही देंगे। लेकिन अपने छोटे-से आरोप-पत्र में उन्होंने वामपंथियों पर जो महाभियोग लगाया है, और ऐसा करने की प्रक्रिया में अम्बेडकरवाद का अपना मनोरंजक होने की हद तक दिलचस्प ज्ञान प्रदर्शित किया है, हम उस पर कुछ संक्षिप्त टिप्पणियां करने से अपने आपको रोक नहीं पा रहे हैं।
सबसे पहले हम उस कथन से शुरुआत करेंगे जो एजाज़ अहमद ने एडवर्ड सईद की आलोचना करते हुए अपने लेख'ओरियेण्टलिज़्म एण्ड आफ्टर' में कहा था। एजाज़ अहमद ने एडवर्ड सईद के ज़ियनवाद-विरोध और फिलिस्तीनी जनता के साथ एकजुटता की तारीफ़ की और कहा कि इस समर्थन के बावजूद एकजुटता प्रदर्शित करने का सबसे अच्छा रास्ता यह नहीं होता कि एक-दूसरे की आलोचना से बचा जाय। हमारा भी मानना है कि दलितों की मुक्ति के प्रति सरोकारों के साझा होने के बावजूद, अम्बेडकर के प्रति हमारा दृष्टिकोण आलोचना से बचने का कतई नहीं होना चाहिए। यह तो फासीवादी दृष्टिकोण है जिसकी हिमायत पलाश विश्वास कर रहे हैं। एकता स्थापित करने का सबसे ख़राब तरीका यही है कि एक-दूसरे का गाल सहलाया जाय। और वामपंथी आन्दोलन (यहां हम क्रांतिकारी मार्क्सवादी-लेनिनवादी आन्दोलन की बात कर रहे हैं, सीपीआई-सीपीएम और सीपीआई (एमएल) लिबरेशन जैसे संसदीय संशोधनवादी वामपंथियों की नहीं, हालांकि पलाश विश्वास के लिए इन दोनों में कोई फर्क नहीं है) द्वारा अम्बेडकर के प्रश्न पर रक्षात्मक रवैया अपनाने से ही कम्युनिस्टों और अम्बेडकरवादियों के बीच कौन-सी एकता बन गयी है। वास्तव में, अगर अम्बेडकर जीवित होते तो वे स्वयं ऐसी किसी भी एकता के खिलाफ़ होते। भला उस दर्शन के साथ अम्बेडकर क्यों एकता या साझा मोर्चा रखना चाहते जिसे वे 'सुअरों का दर्शन' मानते थे? लेकिन पलाश विश्वास ने अम्बेडकर की किसी भी आलोचना को ब्राह्मणवाद और दक्षिणपंथी हिन्दुत्व का समर्थन करना घोषित कर दिया है। यह एक विचित्र दलील है। कहना चाहिए कि यह स्वयं एक फासीवादी और ब्राह्मणवादी सोच है, जिसका पलाश विश्वास शिकार हैं। अम्बेडकर के दर्शन, अर्थशास्त्र, राजनीति और समाजशास्त्र की एक विस्तृत आलोचना हमने उपरोक्त संगोष्ठी में पेश की थी। इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि हम दलित अस्मिता को स्थापित करने में अम्बेडकर के योगदान को नहीं मानते। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हम जाति उन्मूलन के प्रति अम्बेडकर के सरोकार को ईमानदार नहीं मानते। लेकिन हम यह अवश्य मानते हैं कि अम्बेडकर के पास दलित मुक्ति की कोई परियोजना नहीं थी। और ऐसा हम बिना किसी तर्क के नहीं कहते। अरविन्द स्मृति न्यास के साथियों की तरफ से पेश आलेखों में हमने इस बात के पक्ष में विस्तार से दलीलें रखी हैं और अम्बेडकर को उद्धृत करते हुए रखी हैं। लेकिन पलाश विश्वास बिना इन आलेखों को पढ़े, अम्बेडकर-रक्षा और अम्बेडकर के शत्रुओं के दलन अभियान में वैसे ही निकल पड़े हैं जैसे कि तमाम हिन्दुत्ववादी धर्म-रक्षा अभियान और धर्म-शत्रुओं के दलन अभियान में निकल जाते हैं। पलाश विश्वास वामपंथियों के बारे में फतवे लागू करने के मामले में भी किसी धार्मिक महन्त से कम नहीं हैं। अम्बेडकर की आलोचना पर वह बेवजह ही तिलमिला गये हैं, और इस तिलमिलाहट में उन्होंने कुछ ऐसी बातें कह दी हैं, जो कि अम्बेडकर के बारे में उनके अधकचरे ज्ञान की नुमाइश बन गयी हैं।
पलाश विश्वास कहते हैं कि अम्बेडकर विचारधारा के तहत हिन्दुत्ववादी ताकतों के खिलाफ उत्पादक और सामाजिक शक्तियों का धर्मनिरपेक्ष और जनवादी मोर्चा बन सकता है। हम जानना चाहेंगे कि आज वे किस दल या पार्टी को अम्बेडकरवादी विचारधारा का नुमाइन्दा मानते हैं। बसपा, रिपब्लिकन पैंथर्स, तमिलनाडु का दलित पैंथर्स, या कोई अन्य गैर-चुनावी दल? या फिर रामदास आठवले? अगर इन्हें पलाश विश्वास अम्बेडकरवादी विचारधारा का नुमाइन्दा मानते हैं, तो कहना होगा कि उन्हें ज़्यादा पुराना नहीं लेकिन कम-से-कम समकालीन भारतीय राजनीति का इतिहास पढ़ लेना चाहिए। मायावती के नेत़ृत्व में बसपा, थिरुमावलवन के नेत़त्व में तमिलनाडु में दलित पैंथर्स, रामदास आठवले, आदि समय-समय पर उसी दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववाद की गोद में खुशी-खुशी बैठते रहे हैं। पलाश विश्वास कह सकते हैं कि उनका अभिप्राय इनसे नहीं बल्कि गैर-चुनावी दलित संगठनों से है। तो हम पूछना चाहेंगे कि हाल ही में जब कुछ ही दिनों के अन्तर पर बथानी टोला नरसंहार के लगभग दो दर्जन आरोपियों को रिहा किया गया और साथ ही एनसीईआरटी की पुस्तक में अम्बेडकर और नेहरू के कार्टून पर विवाद हुआ तो इन गैर-चुनावी दलित संगठनों की क्या भूमिका सामने आयी? हमने पाया कि एक प्रतीकात्मक मुद्दे पर (जिसके बारे में अम्बेडकरवादियों ने ठीक से पढ़ा भी नहीं था), यानी कि कार्टून विवाद पर अम्बेडकरवादियों ने देश भर में काफी उछल-कूद मचायी। यहां तक कि सुहास पल्शीकर पर महाराष्ट्र में उसी प्रकार हमला किया गया जैसे कि कुछ वर्ष पहले फासीवादियों ने भण्डारकर संस्थान पर हमला किया था या आये दिन जिस तरह वे तमाम धर्मनिरपेक्ष चित्रकारों की प्रदर्शनियों पर हमला करते रहते हैं। लेकिन उसी समय बथानी टोला के दलित नरसंहार के आरोपियों को एक अदालत ने दोषमुक्त कर दिया, और इस घटना पर तमाम अम्बेडकरवादी संगठन एक बयान तक देना भूल गये। क्या इसी अम्बेडकरवादी विचारधारा और राजनीति की बात पलाश विश्वास कर रहे हैं? और अगर वह किसी और अम्बेडकरवाद की बात कर रहे हैं, तो उन्हें बताना चाहिए कि इस अम्बेडकरवाद का अर्थशास्त्र, राजनीति और दर्शन क्या है। इसके बिना, यूं ही शत्रु दलन अभियान पर निकलेंगे, तो रपटकर गिर जायेंगे, पलाश विशवास जी।
आगे पलाश विशवास लिखते हैं कि अम्बेडकर के आर्थिक विचार पूंजीवादी विरोधी थे और अपनी रचना 'दि प्रॉब्लम ऑफ दि रुपी' में उन्होंने साम्राज्यवाद की आलोचना पेश की थी। यह भी घोर अज्ञान है और एक ज़िम्मेदार पत्रकार और ब्लॉगर को अज्ञान नहीं फैलाना चाहिए। लेकिन फिर यह भी सत्य है कि अज्ञान में असीमितता की शक्ति होती है। इस पर विश्वास जी को बहुत समझाया भी नहीं जा सकता है। एक बार आइंस्टीन ने कहा था, 'दो चीज़ें असीम हैं: अज्ञान और अन्तरिक्ष; अन्तरिक्ष के बारे में मैं पक्का नहीं हूं।' पलाश विश्वास के अम्बेडकर के अर्थशास्त्र को पूंजीवाद-विरोधी घोषित करने वाली टिप्पणी इस कथन को ही चरितार्थ कर रही है। हम यहां बहुत विस्तार में तो नहीं लेकिन संक्षेप में अम्बेडकर के आर्थिक विचारों की समीक्षा करेंगे।
अम्बेडकर ने एक बार कहा था कि 'अपने सम्पूर्ण बौद्धिक जीवन के लिए मैं जॉन डेवी का ऋणी हूं।' अम्बेडकर ने पलाश विश्वास से ज़्यादा ईमानदारी बरती थी, और पलाश विश्वास को हम अम्बेडकर से और कुछ तो नहीं, मगर यह सीखने की सलाह ज़रूर देंगे। अम्बेडकर का पूरा आर्थिक कार्यक्रम जॉन डेवी द्वारा प्रस्तुत आर्थिक कार्यक्रम की एक प्रतिलिपि है। अम्बेडकर ने 'दि प्रॉब्लम ऑफ दि रुपी' में क्या लिखा था, उस पर हम थोड़ा आगे आयेंगे। अम्बेडकर के आर्थिक कार्यक्रम को देखने के लिए आप उनकी संग्रहीत रचनाओं के खण्ड-1 के पृष्ठ 396-97 को देख सकते हैं। मार्च 1947 में उन्होंने कुछ आर्थिक प्रस्ताव रखे थे जो कि वे चाहते थे कि भारत की सरकार स्वतन्त्रता के बाद लागू करे। इस कार्यक्रम और नेहरू के 'समाजवाद' में ज़्यादा फर्क नहीं था। अम्बेडकर ने बड़े कुंजीभूत उद्योगों, जमीन और बीमा-बैंक के राष्ट्रीकरण का प्रस्ताव रखा था। लेकिन उनका कहना था कि राष्ट्रीकरण के लिए जिस भी संपत्ति का अधिग्रहण किया जायेगा, उसके लिए भूतपूर्व मालिकों को ऋणपत्रों के रूप में मुआवज़ा दिया जायेगा। यानी कि अम्बेडकर के राष्ट्रीकरण का कार्यक्रम उतना भी रैडिकल नहीं था, जितना कम-से-कम कागज़ी तौर पर नेहरू का "समाजवाद" का कार्यक्रम था। अम्बेडकर का कहना था कि जॉन डेवी ने 'स्टेट रेग्युलेटेड' अर्थव्यवस्था का जो मॉडल पेश किया था, उसे ही भारत में लागू किया जाना चाहिए। आपको ज्ञात होगा कि डेवी अमेरिकी उदार बुर्जुआ विचारधारा की धारा में एक प्रमुख बुद्धिजीवी थे। उनका मानना था कि राज्यसत्ता कोई वर्गेतर निकाय है, जो कि तात्कालिक हितों और फायदों के लिहाज़ से आर्थिक और राजनीतिक मामलों का प्रबंधन कर सकती है। इसीलिए राज्यसत्ता को किसी भी विचारधारा और दर्शन के "पूर्वाग्रहों" से और किसी भी वर्ग से ऊपर उठ जाना चाहिए। अम्बेडकर का भी यही सिद्धांत था। उनका मानना था कि जिस व्यवस्था को वे लागू कर रहे हैं वह 'राजकीय समाजवाद' है। लेकिन ऐसी कोई चीज़ नहीं होती। दरअसल, इस शब्द के इस्तेमाल के ही कारण कई लोग, जैसे कि आनन्द तेलतुंबड़े उन्हें मार्क्सवादी दिखलाने के लिए द्रविड़ प्राणायाम करने में लगे हुए हैं। लेकिन जैसे ही आप देखते हैं कि इस 'राजकीय समाजवाद' से अम्बेडकर का क्या अर्थ है, तो आप उसमें डेवीवादी उपकरणवाद और व्यवहारवाद (इंस्ट्रुमेंटलिज़्म और प्रैग्मेटिज़्म) के आर्थिक कार्यक्रम को पाते हैं। यह सवाल कहीं नहीं उठाया गया है कि राज्य पर कौन सा वर्ग काबिज़ है। चूंकि राज्य को एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के दमन के उपकरण के रूप में देखा ही नहीं गया है, इसलिए उस राज्य उपकरण के इंकलाब द्वारा ध्वंस का कोई कार्यक्रम देने का सवाल ही नहीं पैदा होता। कुल मिलाकर एक कीन्सीय वेल्फे़यरिज़्म और डेवियन प्रैग्मेटिज़्म का मिश्रण करने वाला आर्थिक कार्यक्रम रखा जाता है, जो कि ज़्यादा से ज़्यादा राजकीय मालिकाने तक जाता है। लेकिन किसी भी सामाजिक संरचना के चरित्र निर्धारण का बुनियादी प्रश्न राजकीय या निजी मालिकाना (जिसके अम्बेडकर कतई पक्षधर थे, जैसा कि हम आगे दिखलायेंगे) नहीं होता, बल्कि यह होता है कि राज्य पर जो राजनीतिक शक्ति काबिज़ है वह किन वर्गों के हितों की सेवा कर रही है। पूंजीवाद भी राजकीय मालिकाने के साथ अस्तित्वमान रह सकता है। एंगेल्स ने एक बार कहा था कि राजकीय पूंजीवाद अपनी सीमाओं तक खींच दिया गया पूंजीवाद है और इसमें राजकीय संपत्ति और कुछ नहीं बल्कि पूंजीवादी संपत्ति ही है, जिसमें राजकीय कर्मचारी 'फंक्शनरीज़ ऑफ कैपिटल' के रूप में काम करते हैं और राजकीय संपत्ति और कुछ नहीं बल्कि पूंजीपति वर्ग की 'कलेक्टिव कैपिटल' होती है। वास्तव में देखा जाय तो अम्बेडकर का आर्थिक कार्यक्रम उतना भी रैडिकल नहीं है, जितना कि वाम कीन्सवाद का आर्थिक कार्यक्रम होता है, क्योंकि अम्बेडकर प्रत्येक वयस्क को रोज़गार देने को राज्य की जिम्मेदारी बनाने और हरेक स्वस्थ नागरिक के लिए काम करना बाध्यताकारी बनाये जाने के खिलाफ़ हैं। उनका आर्थिक कार्यक्रम ठीक उन-उन बिन्दुओं पर कल्याणवादी से ज़्यादा डेवियन अर्थों में व्यवहारवादी हो जाता है, जो कि पूंजीवाद के 'चोट के बिन्दु' (वूण्डेड पॉइंट) हैं। डेवी का मानना था कि राज्य और सामाजिक सिद्धांत को किसी भी दर्शन या विचारधारा के प्रभाव से मुक्त होना चाहिए। उनके अनुसार उनका व्यवहारवाद एक ऐसी पद्धति है, जिसमें स्वयं को ठीक करते जाने के गुण मौजूद हैं, और यह प्राकृतिक विज्ञान की पद्धति से मिलता-जुलता है। यानी कि राज्य और समाजशास्त्र में किसी विचारधारा के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। अब यह बात दीगर है कि यह दावा स्वयं एक विचारधारात्मक पूर्वाग्रह है और डेवी और अम्बेडकर जैसे व्यवहारवादियों के दावों पर तुर्गनेव के उपन्यास 'रुदिन' के एक सर्वखण्डनवादी चरित्र पुगासोव की याद आती है। एक बार पुगासोव कहता है कि वह कुछ नहीं मानता है, तो इसके जवाब में उपन्यास का नायक रुदिन कहता है कि आप यही तो मानते हैं कि आप कुछ नहीं मानते हैं। डेवी और अम्बेडकर की राज्य के बारे में सोच ऐसी ही है, कि उसे कुछ (यानी कोई विचारधारा) नहीं मानना चाहिए और बस तात्कालिक प्रबन्धन-सम्बन्धी सरोकारों के आधार पर मामलों का निपटारा करना चाहिए। यह पूरी सोच ही एक भयंकर ऑप्टिकल इल्यूज़न का शिकार है, और राज्य की पूरी अवधारणा के बारे में इसकी समझ दयनीय है।
…………………..आगे जारी…………………..
अम्बेडकरवादी उपचार से दलितों को न तो कुछ मिला है, और न ही मिले
…… अब आते हैं इस सवाल पर कि अम्बेडकर ने 'दि प्रॉब्लम ऑफ दि रुपी' में क्या लिखा था। यह वह रचना है जो वास्तव में अम्बेडकर के आर्थिक विचारों के मूल को काफी हद तक प्रकट कर देती है। अम्बेडकर सैद्धांतिक तौर पर मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था के समर्थक थे, जिसमें कि राज्य की भूमिका एक नियामक भर की हो। यह विचार आगे जाकर बदले, जिसमें अम्बेडकर ने राज्य को कुछ अधिक भूमिका दे दी। लेकिन इस रचना में अम्बेडकर ने राज्य को कम-से-कम हस्तक्षेप की सलाह दी है। वास्तव में उनके लेखन पर उस समय के उदारवादी बुर्जुआ अर्थशास्त्र का ज़्यादा प्रभाव नज़र आता है। कुछ मामलों में तो वे ऐसे प्रस्ताव रखते हैं जो कि मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था के सबसे प्रमुख नुमाइन्दों ने बाद में रखे। इस रूप में साम्राज्यवाद ने जो आर्थिक सिद्धांत बाद में पेश किये अम्बेडकर ने उन्हें कुछ पहले ही पेश कर दिया था। आइये कुछ उदाहरणों पर नज़र दौड़ा लेते हैं। अम्बेडकर को जिन अर्थशास्त्रियों ने पढ़ाया था उनमें एडवर्ड कनान, जेम्स रॉबिंसन, जॉन डेवी, एडविन सेलिगमैन आदि जैसे अर्थशास्त्री प्रमुख हैं। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ते समय उनपर कार्ल मेंगर जैसे अर्थशास्त्रियों का काफी असर पड़ा। कार्ल मेंगर ने 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में ऑस्ट्रियन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की स्थापना की थी। अम्बेडकर की पुस्तक 'दि प्रॉब्लम ऑफ दि रुपी' 1923 में प्रकाशित हुई। इस पूरी पुस्तक में पेश किये गये तर्क अर्थव्यवस्था के प्रबन्धन के लिए मुद्रा को प्रमुख उपकरण के तौर पर इस्तेमाल करने की दलील देते हैं, और इस रूप में अम्बेडकर की सोच एक आर्थिक चिन्तक के रूप में मुद्रावाद (मॉनिटरिज़्म) के करीब पड़ती है। अम्बेडकर का मानना है कि समाज में उत्पादों का विनिमय उत्पादों से नहीं बल्कि मुद्रा से होता है, और इस विनिमय को सम्भव बनाने वाला उपकरण है मुद्रा। ऐसे में पूरी अर्थव्यवस्था की सेहत इस बात पर निर्भर करती है कि मुद्रा की व्यवस्था दुरुस्त है या नहीं। अम्बेडकर आगे दलील देते हैं कि मुद्रा को छापने से लेकर उसके वितरण और संचालन का काम सरकार और सरकार द्वारा संचालित बैंकों को नहीं करना चाहिए। इस पुस्तक में अम्बेडकर अपने आपको मुक्त बाज़ार और निजी संपत्ति की व्यवस्था का पैरोकार बताते हैं और कहते हैं कि सरकार की बजाय मुद्रा व्यवस्था को संचालित करने की ज़िम्मेदारी निजी बैंकों की होनी चाहिए जो कि एक स्वर्ण मानक के तहत इस काम को अंजाम देंगे। इस रचना में केन्द्रीय नियोजन के कीन्सीय सिद्धांत का विरोध करते हुए अम्बेडकर ज्ञान की समस्या की बात करते हैं और कहते हैं कि अर्थव्यवस्था में राज्य के हस्तक्षेप का कीन्सीय सिद्धांत एकदम बकवास है और चूंकि किसी भी केंद्रीकृत राज्य को पूरे देश की स्थानीय समस्याओं का पूरा ज्ञान नहीं हो सकता है इसलिए एक मुक्त बाज़ार और अनियंत्रित मुद्रा की व्यवस्था होनी चाहिए, जिसमें सरकारी एजेंसियों का हस्तक्षेप कम-से-कम होना चाहिए। वास्तव में यह ऑस्ट्रियन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स का एक बुनियादी सिद्धांत है, जो कि राज्य के हस्तक्षेप को खत्म करने की बात करता है। आज के भूमंडलीकरण के सिद्धांतकार जिन सिद्धांतों की बात करते हैं उन्हें वास्तव में अम्बेडकर की इस रचना से सीखने को बहुत-कुछ मिल सकता है। पलाश विश्वास ने बिना यह किताब पढ़े अन्दाज़े मार दिये हैं, जो कि उनके जैसे (वरिष्ठ और विवेकवान, मैंने ऐसा सुना है) पत्रकार को शोभा नहीं देता। उन्होंने यह दिखलाने की कोशिश की है कि इस रचना में अम्बेडकर ने साम्राज्यवाद पर हमला किया है। पलाश विश्वास को इस तरह से अज्ञान प्रसारक की भूमिका नहीं निभानी चाहिए और किसी रचना पर टिप्पणी करने से पहले उसे पढ़ना चाहिए। लेकिन श्री विश्वास से ऐसी उम्मीद करना भी एक नादानी ही होगी, क्योंकि हम पर टिप्पणी करने से पहले भी उन्होंने संगोष्ठी में प्रस्तुत हमारे आलेखों को पढ़ा भी नहीं है और हमें सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई-एमएल लिबरेशन जैसे संसदीय वामपंथियों की कतार में खड़ा कर दिया है। कोलकाता में रहते हुए हम सीपीएम आदि पर उनकी खीझ और गुस्से को समझ सकते हैं, लेकिन अभी वे स्वयं भी उसी प्रकार की दलीलें दे रहे हैं, जिसकी उम्मीद आप सीपीएम जैसे सामाजिक फासीवादियों और आरएसएस जैसे दक्षिणपंथी फासीवादियों से कर सकते हैं, ऐसी दलीलें जो कि मिथकों को सामान्य बोध के तौर पर स्थापित करने का प्रयास करती हैं।
वास्तव में हम अम्बेडकर के विचारों में उस समय के साम्राज्यवादी आर्थिक सिद्धांत का समर्थन देख सकते हैं। इस पुस्तक में अम्बेडकर ने जो आर्थिक कार्यक्रम पेश किया है, उसमें तीन धाराओं का मिश्रण किया गया है: कार्ल मेंगर का ऑस्ट्रियन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स, फ्रेडरिक हायेक का विकेन्द्रीकृत नियोजन का सिद्धांत और जॉन डेवी का व्यवहारवादी अर्थशास्त्र। पता नहीं इसमें पलाश विश्वास को साम्राज्यवाद-विरोध कहां से नज़र आ गया। जाहिर है, उन्होंने कोई अखबारी टिप्पणी पढ़कर बिना जाने इस पुस्तक के बारे में टिप्पणी कर दी है। ऐसा करने से उन्हें बचना चाहिए था।
इसके बाद एक जगह पलाश विश्वास लिखते हैं कि हम "वामपंथी" (जिसमें वे सभी संसदीय और गैर-संसदीय वामपंथियों को शामिल करके बात कर रहे हैं) संविधान की हत्या करने पर आमादा हैं, जैसा कि शासक वर्ग भी चाहता है। कवि पाश ने एक बार संविधान के बारे में कहा था कि यह पुस्तक मर चुकी है; इसे मत पढ़ना; इसके शब्दों में मौत की ठण्डक है। अगर पाश होते तो वे पलाश विश्वास की इस बात का यह जवाब देते कि मरे हुओं की हत्या नहीं की जा सकती। लेकिन हम इसका एक थोड़ा अलग जवाब देंगे। यह पलाश विश्वास का विचित्र दृष्टिकोण है कि भारतीय पूंजीपति शासक वर्ग संविधान की हत्या करना चाहता है। हमें तो लगता है कि जो संविधान संपत्ति के उनके अधिकार को लगभग पवित्रता के दायरे में रखता है; जो संविधान'डिस्टर्ब्ड एरियाज़ एक्ट' और 'आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट' जैसे काले कानून इस देश के शासकों को देता है (ज्ञात हो कि ये कानून अंग्रेज़ों की देन थे, और अम्बेडकर इनसे वाकिफ थे, और उसके बावजूद इन्हें खत्म नहीं किया गया); जो संविधान अपने भीतर ही आपातकाल के प्रावधान को समेटे हुए हो; जो संविधान राज्य की हिंसा की आज्ञा तो देता हो, लेकिन जनता द्वारा बल प्रयोग की आज्ञा न देता हो; उस संविधान को इस देश के शासक वर्ग क्यों मारना चाहेंगे? उल्टे शासक वर्ग तो पिछले कुछ समय में लगातार ऐसे लोगों पर राजद्रोह की धाराएं लगाता रहा है, जिन्होंने संविधान के बारे में कुछ भी प्रतिकूल कहा हो। पलाश विश्वास कहां से पढ़कर यह सब लिखते हैं? यह संविधान दुनिया के सबसे अच्छे पूंजीवादी संविधानों में से एक है। तभी तो इतना मोटा है! मोटे संविधान वे ही होते हैं जिसमें ढेर सारी धांधलियां होती हैं; जिसमें एक अधिकार का प्रावधान होता है, तो दूसरा उस अधिकार को हड़प लेने का। इसीलिए इतने पन्ने खर्च हो जाते हैं। इस देश के मूर्ख इस बात पर गर्व करते हैं कि इस देश का संविधान दुनिया का सबसे मोटा संविधान है। क्या कह सकते हैं? एक बार मार्क ट्वेन ने कहा था, 'कभी किसी मूर्ख से बहस मत करो। पहले वह तुम्हे घसीटकर अपने स्तर पर ले जायेगा, और फिर तजुरबे की ताकत से तुम्हे हरा देगा।' हम पलाश विश्वास को सलाह देंगे कि वह बिना वजह संविधान की रक्षा और उसकी हत्या के डर से दुबले हुए जा रहे हैं। उसकी रक्षा में पहले से ही उनसे काफी समझदार और ताकतवर लोग लगे हुए हैं। बेहतर होता कि वह थोड़ा और अध्ययन करके अपना पक्ष चुनते।
आगे पलाश विश्वास हमें सीपीआई, सीपीएम और लिबरेशन जैसे गद्दारों के अपराधों के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं और पूछते हैं कि ऐसे लोग अम्बेडकर की आलोचना का क्या हक़ रखते हैं। पहली बात तो यह कि पलाश विश्वास को अपनी राजनीतिक दृष्टि साफ करनी चाहिए और समझना चाहिए कि संशोधनवादियों और क्रांतिकारी कम्युनिस्टों में फर्क है। दूसरी बात यह है कि आलोचना आदि के मसले में हक वगैरह की बात नहीं करनी चाहिए। अगर अम्बेडकरवाद में इतना दम है तो उसे किसी भी कोने से आने वाली आलोचना का जवाब देना चाहिए, चाहे यह आलोचना कांग्रेस की पूंछ में कंघी करने वाले सीपीआई, सीपीएम की ही क्यों न हो। क्या अम्बेडकर ने गांधी से बहस नहीं की थी? बहस से भागने का काम कायर और कमज़ोर करते हैं और वे ही ऐसी दलीलें देते हैं कि पहले अपने गिरेबान में झांको, वगैरह। क्योंकि ऐसे तो कोई बहस ही नहीं हो पायेगी। अब मान लीजिये कि कोई कहे कि अम्बेडकर ने कभी भी राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में कोई हिस्सा नहीं लिया इसलिए हम उनसे बहस नहीं करेंगे, या जिस समय तेलंगाना के दलितों का हत्याकाण्ड किया जा रहा था, वे नेहरू की सरकार में कानून मंत्री बनकर बैठे हुए थे, और उस समय उन्होंने एक शब्द भी इसके खिलाफ़ नहीं कहा, और अम्बेडकर के इन कर्मों के कारण हम उनसे बहस नहीं करेंगे, तो क्या यह कोई बात हुई? हमें तो लगता है कि अगर बहस विज्ञान और तर्क के धरातल पर हो तो किसी से भी बहस की जानी चाहिए क्योंकि इससे कुल मिलाकर सिद्धांत, तर्क और विज्ञान का भला होता है।
पलाश विश्वास घोषणा करते हैं कि जो भी अम्बेडकर और अम्बेडकरवाद की आलोचना करेगा वह ब्राह्मणवाद और दक्षिणपंथी हिन्दुत्वाद के साथ खड़ा है। यह वही भाषा है जो जॉर्ज बुश ने इस्तेमाल की थी, कि जो हमारे साथ नहीं है, वह आतंकवाद के साथ है, इस्लामी जेहादियों के साथ है। उसी प्रकार या तो आप अम्बेडकरवाद के साथ हैं, या फिर हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथ के साथ। हमारा मानना है कि ये दोनों ही विकल्प नहीं हैं। गाइल्स देल्यूज़ ने इसी को 'डिस्जंक्टिव सिंथेसिस' कहा था, जिसका अर्थ है छद्म विकल्पों का युग्म जो अपने आपको दूसरे का विकल्प बताते हैं, लेकिन वास्तव में वे कोई विकल्प मुहैया नहीं कराते हैं। यही कारण है कि महाराष्ट्र में कई अम्बेडकरवादी दलितवादी संगठन अंबेडकर की कोई भी आलोचना नहीं सुनना चाहते। यदि कोई ऐसा करता है, तो उस पर वैसे ही हमले किये जाते हैं जैसे कि धार्मिक कट्टरंपथी अपने विचारधारात्मक शत्रुओं पर करते हैं। इसी से पता चलता है कि दोनों राजनीतियों की तार्किक परिणति काफी मिलती-जुलती है।
आगे पलाश विश्वास एक बार फिर से ज्योति बसु और सीपीएम आदि का हवाला देते हुए मार्क्सवादी का एक काल्पनिक पुतला खड़ा करते हैं और उस पर तीरों की बारिश शुरू कर देते हैं। लेकिन इससे कोई फायदा नहीं है, क्योंकि हम श्री विश्वास जैसे लोगों को बता देना चाहते हैं कि हम ज्योति बसु जैसों के कुकर्मों का जवाब देने के लिए यहां मौजूद नहीं हैं। हम ऐसे ही ग़द्दारों के खिलाफ़ लड़ते हुए खड़े हुए हैं, और हमारा पूरा राजनीतिक इतिहास संशोधनवाद और वामपंथी दुस्साहसवाद के खिलाफ़ संघर्ष की एक बानगी है। हमारी संगोष्ठी की तुलना जब पलाश विश्वास ने आरक्षण-विरोधी मंच से की है, तभी पता चल गया है कि पलाश विश्वास ने बिना हमारे विचार जाने तिलमिलाहट में लिखना शुरू कर दिया है और यही कारण है कि उनकी इस आलोचना में मूर्खतापूर्ण बयानबाज़ियों की भरमार है। आलोचना का काम हमेशा ठंडे दिमाग़ से करना चाहिए। उस समय यदि आप अपनी पूर्वधारणाओं और पूर्वाग्रहों को हटाते नहीं हैं, और वस्तुपरक होकर नहीं लिखते तो बाद में बहुत पछताते हैं। आरक्षण पर हमारी अवस्थिति ही यही रही है कि इसका विरोध करना या इसका पक्ष लेना शासक वर्गों के ट्रैप में फंसना है। शासक वर्ग चाहता ही यही है कि हम इसके पक्ष या विपक्ष में अवस्थितियों का चुनाव करें। मूल मुद्दा यह है कि एक क्रांतिकारी आंदोलन को 'सभी को निशुल्क एवं समान शिक्षा और रोज़गार' के लिए संघर्ष करना चाहिए, न कि आरक्षण के लिए। एक दौर में आरक्षण एक बुर्जुआ जनवादी मांग बनती थी, लेकिन अब यह एक बुर्जुआ जनवादी विभ्रम है। अगर लगभग छह दशक के आरक्षण के बाद समूची दलित आबादी में से बमुश्किल 7-8 प्रतिशत लोगों को भी लाभ नहीं पहुंचा है, और यदि पिछले दो-ढाई दशक में जिन लोगों को लाभ पहुंच रहा है, वे उन्हीं 7-8 प्रतिशत हिस्सों से आते हैं, तो निश्चित तौर पर आप देख सकते हैं कि यह एक विभ्रम ज़्यादा और एक जनवादी अधिकार कम है। हमारा मानना है कि आरक्षण आज एक गै़र-मुद्दा है; असल मुद्दा है सभी को निशुल्क और समान शिक्षा और सभी को रोज़गार का। पलाश विश्वास को पूरी संगोष्ठी को आरक्षण-विरोधी मंच घोषित करने से पहले कम-से-कम संगोष्ठी में पेश आलेखों को पढ़ लेना चाहिए था। इतना तिलमिलाकर जल्दबाज़ी में टिप्पणी करने से बचना चाहिए, इससे उनकी साख को ही नुकसान पहुंचेगा, जो कि मुझे बताया गया है, एक बड़े वरिष्ठ पत्रकार की है।
अन्त में हम इतना और कहना चाहेंगे कि पलाश विश्वास को अगर संशोधनवादी नेताओं की आलोचना करनी ही है तो उन्हें उनके ब्राह्मण होने को केन्द्रीय मुद्दा बनाने से बचना चाहिए। यह भी एक प्रकार का इन्वर्टेड जातिवाद है। आपको अगर उनकी आलोचना करनी है तो उनकी राजनीति और विचारधारा की आलोचना करनी चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि संशोधनवादी कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व या किसी भी पार्टी के नेतृत्व में सवर्ण ज़्यादा हैं या कम। दलित संगठन के लोग अक्सर कम्युनिस्ट पार्टियों के लोगों से पूछते हैं कि आपकी केन्द्रीय कमेटी में कितने दलित हैं। क्या आज के दलित संगठनों से पलटकर यह नहीं पूछा जा सकता कि आपके नेतृत्वकारी निकाय में कितने मज़दूर हैं। क्या सारे के सारे दलित संगठन आरक्षण का लाभ उठाकर मध्यवर्ग में पहुंच चुके दलितों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करते? क्या सारे के सारे अम्बेडकरवादी संगठन स्वयं इन्हीं मध्यवर्गीय लोगों का जमावड़ा नहीं हैं? लेकिन इस पहलू की पहले आलोचना वह करेगा जिसके तर्क में दम नहीं है और जिसकी राजनीति की धुरी ही व्यक्तिगत अस्मिताओं के आधार पर राजनीति करना है। हम किसी भी संगठन की आलोचना का आधार उसके राजनीतिक और संगठनात्मक कार्यक्रम को बनायेंगे, उसकी विचारधारा को बनायेंगे, उसके दर्शन को बनायेंगे। पलाश विश्वास को व्यक्तिगत जातिगत पहचान के आधार पर लोगों की आलोचना नहीं करनी चाहिए क्योंकि लोगों ने स्वयं अपनी इस पहचान का चुनाव नहीं किया है। हम उन्हें सलाह देंगे कि राजनीतिक आलोचना के मूलभूत आचार का पालन करें।
हमने अम्बेडकर के अर्थशास्त्र, राजनीति, दर्शन और समाजशास्त्र की आलोचना चतुर्थ अरविन्द स्मृति संगोष्ठी के अपने आलेखों में पेश की है। आप उन आलेखों को पढ़ें और उनकी संजीदगी से आलोचना रखें, अपनी आलोचना में अपने सन्दर्भ दें, अम्बेडकर का एक अच्छा बचाव पेश करें, तब तो बहस कुछ जमेगी। ऐसी बचकानी आलोचनाओं से बचना चाहिए जिसमें पलाश विश्वास ने अम्बेडकरवाद, ब्राह्मणवाद, मनुस्मृति आदि जैसे शब्दों को लेकर कुछ जुमलेबाज़ी कर दी है (जिनमें से कुछ का तो हमें अर्थ भी नहीं समझ में आ रहा है, वाक्य संरचना ही व्याकरण के अनुसार गलत है; लेकिन हो सकता है कि टाइपोग्राफिकल गलती हो, इसलिए हम उस पर कोई टिप्पणी नहीं करेंगे) और हमारे ऊपर कुछ लेबल चस्पां कर दिये हैं। आपके लेबल चस्पां करने से कोई कुछ नहीं बन जाता, पलाश जी। अच्छा होगा कि आप बेहतर तरीके से अध्ययन करके ऐसी टिप्पणियां लिखें। उम्मीद है कि आगे, जैसा कि आपने वायदा किया है, आप हमारे एक-एक तर्क का जवाब देंगे। हम एक संजीदा आलोचना का इंतज़ार करेंगे।
जहां तक हमारा प्रश्न है, हमारा स्पष्ट मानना है कि दलित उत्पीड़न की घटनाओं के मसलों पर हम किसी भी जनवादी शक्ति के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने के पक्षधर हैं, जिसमें कि अम्बेडकरवादी भी शामिल हैं। लेकिन अम्बेडकरवाद और क्रांतिकारी मार्क्सवाद के बीच किसी भी किस्म का संलयन संभव नहीं है, क्योंकि दोनों की विचारधारा और दर्शन, अर्थशास्त्र और राजनीति और साथ ही समाजशास्त्र भी बिल्कुल भिन्न है। अम्बेडकर भी दलित मुक्ति के पक्षधर थे और मार्क्सवाद भी हर प्रकार के शोषण और उत्पीड़न को खत्म करने की बात करता है इसलिए दोनों में एका बन सकता है, यह तर्क बिल्कुल वैसा ही है कि बकरी के भी चार टांगें और टेबल के भी चार टांगें, इसलिए बकरी टेबल है। क्रांतिकारी वामपंथियों को आज अम्बेडकर और अम्बेडकरवाद के प्रति एक सामूहिक 'अपराधबोध' से निकलने की जरूरत है, जो कि वैसे भी आधारहीन है। जाति प्रश्न की एक सही समझदारी कम्युनिस्ट आंदोलन के पास नहीं थी। लेकिन यह भी सच है कि जितने कम्युनिस्टों ने दलित मुक्ति के लिए खून बहाया है, उतना किसी ने भी नहीं बहाया है, चाहे वह तेलंगाना, तेभागा, पुनप्रा-वायलार के आंदोलन हों या फिर नक्सलबाड़ी और उसके बाद देश के तमाम हिस्सों में चले आंदोलन हों (जिसकी आलोचना आप वामपंथी दुस्साहसवाद के लिए कर सकते हैं, न कि दलितों के अधिकारों के लिए कुरबानी न देने के लिए)। इसलिए हम क्रांतिकारी कम्युनिस्टों का आह्वान करेंगे, कि अम्बेडकर के प्रश्न पर रक्षात्मक होने की ज़रूरत नहीं है। अम्बेडकर के दर्शन और विचारधारा की बेलाग-लपेट मार्क्सवादी आलोचना करने की ज़रूरत है। साथियो, अब रक्षात्मक होने का दौर ख़त्म! अगर आप सही मायने में दलित मुक्ति की परियोजना को मुकाम तक पहुंचाना चाहते हैं, तो सबसे पहले इस विषय में गलत परियोजनाओं का खण्डन करें। अम्बेडकर की परियोजना भी उनमें से एक है।
इसलिए हम कहते हैं कि अब अम्बेडकरवाद के समक्ष कम्युनिस्टों के रीढ़विहीन आत्मसमर्पणवाद, माफीवाद का दौर ख़त्म; रक्षात्मक होने का दौर ख़त्म। अब एक सही क्रांतिकारी कम्युनिस्ट ज़मीन पर खड़े होकर जवाब देने का दौर शुरू हो चुका है। इसलिए ऐसा न समझा जाय कि अम्बेडकर को समूचा अपना कर ही दलित आबादी को साथ लिया जा सकता है। जो उच्च मध्यवर्गीय दलित बुद्धिजीवी और अम्बेडकरवादी सत्ता और शासकों का पक्ष चुन चुके हैं, वे इसी अस्मिता को मुद्दा बनाकर हर मार्क्सवादी आलोचना को ब्राह्मणवादी करार देंगे। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हमें जिन ग़रीब मेहनतकश दलितों को दलित मुक्ति, मज़दूरों की मुक्ति और पूरी मानवता की मुक्ति के संघर्ष में साथ लेना है, उनके लिए अम्बेडकर "सैक्रोसैंक्ट" नहीं हैं, और आलोचना से परे नहीं हैं। वे जानते हैं कि अम्बेडकरवादी उपचार (रेमेडी) से अब तक न तो उन्हें कुछ मिला है, और न ही मिलेगा। उन्हें साथ लेने के लिए हमें किसी भी प्रकार के अपोलोजेटिक स्टैण्ड की जरूरत नहीं है। जैसा कि भगतसिंह ने अपने लेख 'अछूत समस्या' में कहा था, वे सच्चे सर्वहारा हैं, वे सोये हुए शेर हैं। उन्हें जागृत, गोलबंद और संगठित करना किसी भी क्रांतिकारी संगठन के अहम कार्यभारों में से एक है। अम्बेडकर का दर्शन और राजनीति उनके लिए एक विभ्रम का जाल खड़ा करते हैं। दलित अस्मिता को स्थापित करने में अम्बेडकर के योगदान को मानते हुए भी, उनकी समझौतापरस्त, संविधानवादी, व्यवहारवादी, और सुधारवादी विचारधारा के विभ्रमों को निर्ममता से तोड़ दिया जाना चाहिए। और अगर हम ऐसा कहते हैं तो इसमें ग़लत क्या है? क्या तुष्टिकरण करने और बहलाने-फुसलाने की रणनीति के ज़रिये दलित आबादी को क्रांति के कार्यक्रम के तहत गोलबंद किया जाना चाहिए, या फिर एक सही वैज्ञानिक, तार्किक और इंकलाबी कार्यक्रम के तहत? हमारा स्पष्ट मानना है कि अम्बेडकर के डेवीवाद, कल्याणवाद, व्यवहारवाद, उपकरणवाद और संवैधानिकतावाद की निर्मम आलोचना की ज़रूरत है। इस सवाल पर गोलमाल और तुष्टिकरण से पहले ही बहुत नुकसान पहुंच चुका है। कम-से-कम भविष्य में ऐसी भूल से बचा जाना चाहिए।
हाँ, डॉ. अम्बेडकर के पास दलित मुक्ति की कोई परियोजना नहीं थी
अगर लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता में आस्था हैं तो अंबेडकर हर मायने में प्रासंगिक हैं
हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!
- because of the hatred for the Brahmanism, Ambedkar failed to understand the conspiracy of colonialism
- All experiments of Dalit emancipation by Dr. Ambedkar ended in a 'grand failure'
- Ambedkar's politics does not move an inch beyond the policy of some reforms
- दलित मुक्ति को अंजाम तक पहुँचाने के लिए अम्बेडकर से आगे जाना होगा
- ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अपनी नफरत के कारण अंबेडकर उपनिवेशवाद की साजिश को समझ नहीं पाये
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