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Friday, July 25, 2014

आइये,सूचनाओं के केसरिया परिदृश्य को पहले समझ लें!

आइये,सूचनाओं के केसरिया परिदृश्य को पहले समझ लें!

पलाश विश्वास

जाय मुखर्जी की तरह मेरे होंठों पर कश्मीर की वादियों की युगलबंदी में कोई गीत सजने वाला नहीं है। जन्मजात काफी बदसूरत होने की वजह से अपरपक्ष के लिए मेरे प्रति आकर्षण कम है।हालांकि मेरी मां सुंदर थीं जबकि मेरे पिता भी  मेरी तरह एकदम निग्रो जैसे ही थे। हालांकि मेरी पत्नी भी सुंदर हैं।दोनों महिलाएं हमारे परिवार में यथारीति मरने खपने को चली आयीं।नस्ल सुधारने के लिए ऐसी महिलाओं का आभार।


यह सौभाग्य ही कहा जाना चाहिए कि कैशोर्य और जवानी में अप्रत्याशिक लिफ्ट की गुंजाइश करीब करीब शून्य होने की वजह से हम पवित्र पापी बनने का मौका कभी पा नहीं सकें।


नैनीताल में जीआईसी से ही लगातार एमए तक की पढ़ाई के कारण अमेरिकी,यूरोपीय और जापान की विकसित बयारें हमें यदा कदा छूती ही रही हैं।एक वक्त तो हम लोग भी हिप्पी और गिन्सबर्ग से भी प्रभावित थे तो ओशो से भी।


फिरभी हमारे भटकाव की गुंजाइश बेहद कम थीं।


हमारी कविताओं और गीतों,कहानियों में रोमांस और सेक्स पर 1973-74 में ही हमारे गुरुजी ताराचंद त्रिपाठी ने जीआईसी नैनीताल में ही वीटो दाग दिया था।


मोहन ओशो भक्त था और महर्षि वात्सायन की तरह कामशास्त्र का नया संस्करण लिखना शुरु कर चुका था,गुरुजी ने ही तत्काल उस पर फूल स्टाप लगा दिया  था।


उन्होंने ही हमें मार्क्स और माओ के साथ फ्रायड और हैवलाक एलिस का पाठ भी दिया।उन्हीं के सान्निध्य की वजह से विचारधाराओं का अध्ययन हमारे लिए दिनचर्या बन गया।उनकी वजह से नोट्स के बजाय पाठ हमारे लिए अनिवार्य था।


वे हमेशा चेताते रहे कि भारतीय समाज बंद समाज है,वर्जनाओं के दरवाजे खिड़कियां टूटेंगे तो कुछ भी नहीं बचेगा।न मूल्यबोध, न नैतिकता और न संस्कृति।जो हम सच होता हुआ अब देख रहे हैं।


संजोग से हमारे गुरुजी अब भी हमारा कान ऐंठते रहते हैं।


जाहिर है कि हमारे लिए भटकाव के रास्ते बन ही नहीं सके हमारे गुरुजी की वजह से।हमारा दुर्भाग्य है कि हमारी पीढ़ी के गुरुजी संप्रदाय से हमारे बच्चों का वास्ता नहीं पड़ा वरना इस सांढ़ संस्कृति से भी एस्केप एवेन्यू निकल सकते थे।


लेकिन हम लोग रोमांटिक कम भी नहीं थे।ख्वाब सिलिसिलेवार हम लोग भी देखते थे।मूसलाधार बारिश में भी भीगते थे और हिमपात मध्ये बंद दीवारों में कैद भी न थे हम।उन्हीं दिनों हमारे रिंग मास्टर बन गये महाराजक गिर्दा।


गुरुजी चार्वाक दर्शन के अनुयायी थे त गिरदा भी कम न थे।


रात रात भर हिमपात मध्ये या दिसंबर जनवरी की कड़ाके की सर्दी में झीलकिनारे मालरोड पर तल्ली मल्ली होते हुए हम लोग देश दुनिया पर चर्चा करते थे।


पत्रकारिता के शुरुआती दौर में भी संपादकीय में जोर बहसें होती थी,जिसमें संपादक नामक विलुप्त प्राणी की अहम भूमिका होती थी।


आवाज जैसे धनबाद के छोटे अखबार में भी अजब गजब चामत्कारिक माहौल था।रांची के प्रभातखबर में भी।जागरण और अमर उजाला में भी।वीरेन डंगवाल जैसे लोग संपादकों पर भारी थे।


जनसत्ता के शुरुआती दौर में यह बहस संस्कृति प्रबल रही है।अभयकुमार दुबे इसके लिए हमेशा याद किये जायेंगे।


अब न वह संपादकीय विभाग है अब और न वैसे संपादक हैं।


हमने अबतक अमित प्रकाश सिंह जैसा कोई काबिल संपादक देखा नहीं है।सूचनाओं के प्रति इतने संवेदनशील,संपादन में इतने सिद्धहस्त।लेकिन हमारी उनसे कभी पटी नहीं।किससे क्या काम लेना है,इसका प्रबंधन उनसे बेहतर किसी को करते नहीं देखा अब तक।


हमारी नजर में तो पत्रकारिता के असली मसीहा कवि रघुवीर सहाय थे,जिन्होंने हम जैसे नौसीखिया टीनएजरों को पत्रकारिता का अआकख पढ़ाया दिल्ली से देशभर में बिना अपना कुनबा बनाये।


प्रभाष जी ने जो टीम जनसत्ता की बनायी थी,उसमे मंगलेश लखनऊ से आये थे लेकिन वे सहाय जी के बेहद नजदीदी थे लेखन के जरिये। जवाहरलाल कौल,हरिशंकर व्यास और दूसरे मूर्धन्य लोग,जिनकी भूमिका जनसत्ता को आकार देने की रही है,वे दिनमान में रघुवीर सहाय के सहयोगी ही थे।इस बात की शायद ज्यादा चर्चा नहीं हुई।


विचार विनिमय में सहाय जी बाकी लोगों से ज्यादा लोकतांत्रिक थे।गौर करें कि उनके संपादकीय सहयोगियों में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना से लेकर श्रीकांत वर्मा जैसे लोग भी रहे हैं।हम जैसे अत्यंत जूनियर बच्चों में आत्मसम्मान और स्वतंत्रता का बोध पनपाने वाले वे ही थे।


जिसतरह अमित जी के साथ वर्षों काम करने के बावजूद हमारे मधुर संहबंध नहीं थे.जिसतरह प्रभाषजी या अच्युतानंद मिश्र से हमारी पटती न थी,उसीतरह जनसत्ता के मौजूदा संपादक ओम थानवी से हमारा कभी संवाद नहीं रहा है। हालांकि दिल्ली और अन्यत्र हमारे कई अंतरंग मित्रों से उनकी घनिष्ठता है लेकिन मैंने इस अवसर का लाभ नहीं उठाया।कोलकाता संस्करण के प्रति मैनेजमेंट की लगातार उदासीनता का जिम्मेदार भी हम उन्हें मानते रहे हैं।इसलिए जब भी वे कोलकाता और जनसत्ता रहे,कहीं भिड़ंत न हो जाये या कोई अमित प्रकाश जैसी अप्रिय हालत न बन जाये,इसलिए मैं आकस्मिक अवकाश लेकर अनुपस्थित भी होता रहा हूं।


मजे की बात है कि अमित जी एकमात्र व्यक्ति हैं जो मुझे छात्रावस्था से जानते रहे हैं।इंदौर में नयी दुनिया में जब वे थे उनको मैं वैसे ही जानता था,जैसे इलाहाबाद में अमृतप्रभात से मंगलेश डबराल को।


इतवारी पत्रिका के संपादक ओम थानवी की हमारी दृष्टि में ऊंची हैसियत थी।लेकिन जनसत्ता की ढलान के बंदोबस्त में इनमें से किसी से हमारे संबंध सामान्य नहीं रहे।


इन लोगों से सामान्य  संबंध भी न बन पाने का मुझे अफसोस है।


सार्वजनिक तौर पर कहना सिर्फ निजी स्वीकारोक्ति नहीं है।समीकरण साधने का की कोई जुगत भी नहीं है।दो साल के भीतर पेशेवर पत्रकारिता से विदा हो जाना है और हमारे लिए बिना छत सारे जहां को घर बनाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है।


दस साल पहले अगर हमारी हैसियत थोड़ी बेहतर हो जाती तो हम कम से कम अब तक बेघर नहीं बने रहते।अब बैकडेडटेड असमय प्रोमोशन से हमारी हैसियत में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।इस प्रतिकूल परिस्थितियों में कहीं संपादक बनकर भी हमारी औकात कुछ करने की नहीं है।


आज भी बड़ी बड़ी कारपोरेट केसरिया वारदातों की सूचनाएं हैं।ड्राइव में पहले ही अंबार लगा है, जिन्हें निपटाना बाकी है।


लेकिन इन सूचनाओं को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए मीडिया की अंतर्कथा जानना समझना बेहद जरुरी है।इसीलिए आज यह अवांछित जोखिम चर्चा।


मेरे हिसाब से संघ परिवार को हिंदू राष्ट्र के अपने एजंडा और राष्ट्रहित में तत्काल पांचजन्य और आर्गेनाइजेर जैसे मीडिया पक्ष की छंटनी कर देनी चाहिए।


अब इसकी कोई जरुरत नहीं है।


करोड़ों की रीडरशिप वाले ब्रांडेड मीडिया वाले तमाम पांचजन्य और आर्गेनाइजर की भूमिका बेहद पेशेवाराना ढंग से निपटा रहे हैं।उनका किया कराया  गुड़ गोबर ही कर रहे हैं पांचजन्य,आर्गेनाइजर और सामना जैसे अखबारात के गैर पेशेवर लोग।


आज अखबारों के संपादकीय कार्यालयों में देश दुनिया पर कोई चर्चा की गुंजाइश नहीं होती।पोस्तो प्रमोशन पैसा मुख्य सरोकार हैं।


जो कामन है वह है,राष्ट्रवादी हिदुत्व के पुरोधा गुरु गोलवलकर का अखंड पाठ।


विनम्रता पूर्वक कहना है कि विभाजन पीड़ित परिवार से हूं।मेरे पिता के अटल जी से लेकर अनेक महान संघियों से संवाद रहा है।


मेरे ताउजी भारत विभाजन के लिए कभी कांग्रेस,गांधी और नेहरु को माफ नहीं कर सकें।हमारे परिवार और बसंतीपुर गांव में वे एकमात्र प्राणी रहे हैं जो आजीवन केसरिया रहे हैं।


हमने बचपन में विभाजन के संघी कथाकार गुरुदत्त का समूचा लेखन पढ़ा है।


विभाजन की त्रासदी वाले परिवार में वाम और दक्षिण दोनों विचारधाराओं का अखंड द्वंद्व हमारा भोगा हुआ यथार्थ है और हमने अपने पिता को देखा है कि अपने बड़े भाई के विपरीत इस द्वंद्व से बाहर निकलकर विशुद्ध किसान नेता बनते हुए।


मेरे पिता  बांग्लादेश के भाषा आंदोलन में जैसे जेल गये,विभाजन से पहले तेभागा के कारण कैशोर्य में आकर दत्त पुकुर के सिनेमा हाल में टार्च दिखानेवाले की हैसियत से जैसे सर्वभारतीय शरणार्थी नेता बन गये,उसीतरह उनका कायाकल्प असम के दंगापीड़ितों के बीच साठ के दशक में हिंदू दंगा पीड़ित विभाजन विस्थापितों  के बीच काम या तराई में सिखों पंजाबियों पहाड़ियों के साथ गोलबंदी के साथ के बाद यूपी के दंगापीड़ित मुस्लिम इलाकों में भागते रहने के मध्य भी देखा।


आज बंगाल में जो शरणार्थी वोट बैंक बना है,उसकी पूंजी विभाजन त्रासदी के बदले की भावना है,जिससे हम भी सारा बचपन लहूलुहान होते रहे हैं।


बता दूं कि लाल किताब पढ़ने से पहले ही हम गुरु गोलवलकर  को पढ़ चुके थे।अपने गुरुजी से मिलने से पहले।


दिमाग में जो कबाड़ था ,वह पहले तो गुरुजी ने निर्ममता से निकाल फेंका।


बाकी रही सही कसर गिरदा शेखर राजीव लोचन नैनीताल समाचार युगमंच टीम के साथियों ने पूरी कर दी,जो शुरु से इस सांढ़ संस्कृति के विरुद्ध चिपको पृष्ठभूमि में सक्रिय थी।गिरदा के न होने के बाद भी हमारी ताकत,हमारी प्रेरणा आज भी वही नीली झील है।


अब शायद अपने मित्र जगमोहन फुटेला और अपने प्रिय वीरेनदा जैसा हश्र हामारा कभी भी हो सकता है।उनके बच्चे फिर भी प्रतिष्ठित हैं।हमारे साथ वैसी हालत भी नहीं है।


इसलिए शायद कभी भी बोलने लिखने के दायरे से बाहर निकल सकता हूं।


अमित जी के बारे में गलतफहमी बहुत देरी से दूर हो सकी।


थानवी जी के बारे में गलतफहमी दूर करने का मौका शायद फिर न मिले।


फिलहाल हम गर्व से कह सकते हैं कि कम से कम जनसत्ता अब भी केसरिया नहीं है।


बैक डोर से आये लोग क्या से क्या बन गये। लेकिन हम आईएएस जैसी कड़ी परीक्षा देने के बावजूद तजिंदगी सबएडीटर रह गये, लेकिन एडीटर बनने की लालच में जनसत्ता छोड़कर नहीं गये,आर्थिक बारी दुर्गति के मध्य मुझसे ज्यादा मेरी पत्नी और बसंतीपुर में मेरे परिवार और मेरे गांववालों को इसकी खुशी होगी।यह मेरे लिए भारी राहत है।


मैं जैसा भी हूं,अच्छा बुरा ,सिरे से नाकाम,मेरे लोगों का प्यार मेरे साथ है और आज भी मेरा पहाड़ मेरा ही है।


हमने अपनी जनपक्षधरता की विरासत से विश्वासघात नहीं किया।


पारिवारिक संपत्ति बेचकर जैसे मैं महानागरिक नहीं बना,वैसे मैं पत्रकारिता न बेचकर कामयाब लोगों की नजर में डफर जरुर हूं।


आर्थिक मामलों को संबोधित करने में मुझे लोग बेहिसाब नक्सली माओइस्ट, राष्ट्रद्रोही, कम्युनिस्ट, घुसपैठिया वगैरह वगैरह गाली दे रहे हैं और भूल रहे हैं कि बुनियादी तौर पर मैं अपने पिता की तरह अंबेडकर अनुयायी हूं।


वे नहीं जानते कि उनके ये तमगे मेरे लिए ज्ञानपीठ और नोबेल हैं जो मैं कभी हासिल कर ही नहीं सकता।


बाकी बहुजनों,अंबेडकरियों की तुलना में फर्क सिर्फ इतना है कि जैसे आनंद तेलतुंबड़े अध भक्त नहीं हैं अंबेडकर के,मैं भी नहीं हूं।


हम दोनों साम्यवादी अवधारणाओं और अंबेडकर चिंतन व सरोकारों के मूल बुनियादी त्तवों में कोई अंतर नहीं मानते और यथासाध्य बहुसंख्य जमात को समझाने का प्रयास कर रहे हैं।


हम राष्ट्रतंत्र में बदलाव के लिए लाल नीली जमात को एकाकार करने के असंभव लक्ष्य के लिए काम कर रहे हैं।यही हमारी एक्टिविज्म है।मुझे खुशी है कि अरुंधती से लेकर नंदिता दास तक इस मुहिम हैं।


इसी के तहत ही आर्थिक मुद्दों पर यह फोकस।


यह न धर्मनिरपेक्षता की जुगाली है और न वाम अवसरवाद।


वाम विश्वासघात के हमसे बड़े आलोचक तो वाम श्राद्ध में सिद्धहस्त लोग भी नहीं हैं।

अशोक मित्र की तरह हम मानते हैं कि नेतृत्व भले ही नकारा हो,जैसा कि बहुजन समाज के बारे में भी प्रासंगिक है,वाम आवाम के बिना मुकम्मल बहुजन समाज बन ही नहीं सकता।


कम से कम उतना जितना फूले हरिचांद गुरुचांद, वीरसा टांट्या बील समय में रहा है।


आप हमें चूतिया बता सकते हैं बाशौक।


आप हमें ब्राह्मणों का दलाल भी बता सकते हैं बाशौक।


लेकिन यह हमारा नजरिया है और बकौल दिवंगत नरेंद्र मोहन,हम बदलेंगे नहीं।बदलना है तो आप बदलिये।जिसे घर फूंकना हो,उसे इस चूतियापे का सादर आमंत्रण।


नरेंद्र मोहन छह सालतक मेरे बास रहे हैं।मैं उनका आभारी हूं कि उन्होंने हमारे कामकाज में कभी हस्तक्षेप नहीं किया जबकि वे नख से शिख तक संघी ही थे।बिल्कुल वैसे ही जैसे 1991 से आजतक जनसत्ता में मेरी गतिविधियों पर कभी अंकुश नहीं लगा और न मेरे विचारों को नियंत्रित करने की कोई कोशिश हुई।


हमने अपने बड़े भाई  हिंदी के अनूठे उपन्यासकार व पत्रकार पंकज बिष्ट से भी फोन पर लंबी बात कर चुके हैं।वे भी मौजूदा परिप्रेक्ष्य में ओम थानवी की भूमिका की तारीफ से सहमत हैं।जबकि समांतर में लगातार थानवी की आलोचना होती रही है।हम भी साहित्य अकादमी प्रसंग में उनकी भूमिका के पक्ष में नहीं थे।मालूम हो कि थानवी की नारजगी के बावजूद मेंने शुरुआत से लगातार समयांतर में लिखा है।


पंकज बिष्ट से पहाड़ों के जरिये हमारा पारिवारिक नाता है तो वैकल्पिक मीडिया के मसीहा हैं आनंद स्वरुप वर्मा।हम दुनिया छोड़ सकते हैं।कम से कम इन दो लोगों को नहीं,भले ही खुदा भी हमसे नाराज हो जायें।


रोजाना लेखन के कारण अब उनकी पत्रिकाओं मैं अनिपस्थित जरुर हूं,जैसे जनसत्ता के पन्ने पर मैं शुरु से ही अनुपस्थित हूं।लेकिन जनसत्ता तो मेरे वजूद में है।अलग से पंजीकरण की आवश्यकता नहीं है।


अच्छे बुरे जनसत्ता में जितने भी लोग हैं ,रहे हैं,रहेंगे ,वे हमारे परिजन हैं।


शिकायते होंगी,झगड़े भी होंगे।लेकिन हम संघ परिवार की तरह हर हाल में एक परिवार है।इसलिए जनसत्ता में ही रिटायर होने की तमन्ना लेकर हमारे तमाम साथी जीते मरते रहे हैं।हमें उन पर गर्व है।


प्रभाष जी के जीते जी उनकी सारस्वत  भूमिका के बारे में हंस में लिखा है।मरने के बाद हमने प्रभाष जी के बारे में जोसा नहीं लिखा,रिटायर करने के बाद यदि पढ़ता लिखता रहा तो सांवादिकता प्रसंग में न लिखुंगा, न बोलुंगा।


लिखने बोलने का वक्त तो तब होता है कि जब आप उसी व्यवस्था के अंग होते हैं।


दम है तो उसके खिलाफ खड़े होकर दिखाइये।सारी सुविधाओं के भोग के बाद बिल्ली की हजयात्रा सा पाठकों दर्शकों का हाजमा खराब करने का कोई मतलब नहीं होता।


दरअसल हम लिखना चाह रहे थे कि भारतीय बहुसंख्य जनसंख्या के बहिस्कार, निष्कासन और सिलेक्टेड एथनिक क्लींजिग के लिए पतनशील सामंतों की भूमिका के बारे में,भारतीय मेधा,सूचना,ज्ञान,राजनीति और अर्थव्यवस्था समेत तमाम जीवनदायी क्षेत्रों में जो वर्ण वर्चस्वी हैं,नस्ली एकाधिकार है जिनका,उनकी भूमिका के बारे में।


लेकिन इसे समझने के लिए यह खुलासा जरुरी है कि सूचना महाविस्पोट कमसकम भारतीय प्रसंग में हीरोशिमा नागासाकी और भोपाल गैस त्रासदी से बड़ी आपदा है।


सुधारों का यह जो कार्निवाल कबंध कारवां निकला है,यह बहुसंख्य जनता को सूचना से वंचित करने के महाविनिवेश के बाद ही।अबाध पूंजी मीडिया के कोख में ही पलती पनपती है।अब जनादेश भी मीडिया की महामाया है।


ईस्ट इंडिया कंपना के खिलाफ 1957में आखिरी लड़ाई हुई।


पहली कतई नहीं।


किसान और आदिवासी विद्रोहों की कथा व्यथा और इतिहास को खारिज करके ही इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम लिखा और कहा जा सकता है।


भारत भर में तमाम किसान आदिवासी आंदोलनों का मुख्य एजंडा भूमि सुधार रहा है।अंगेजों ने इसे खारिज करने के लिए ही स्थाई बंदोबस्त लागू किया।


सामंतों ,रजवाड़ों और जमींदारों के हित जबतक साधे जाते रहे,अंग्रेजी राज से वर्णवर्चस्वी नस्ली सत्ता वर्ग को कोई दिक्कत नहीं थी।


1857 के महाविद्रोह के बारे में अब भी बांग्ला में कोई आद्यांत अध्ययन नहीं हुआ जबकि मंगल पांडेय ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ उस अंतिम महाविद्रोह में पहली गोली चलायी थी।बांग्ला में चुआड़ विद्रोह का लेखा जोखा नहीं है।बौद्धसमय का वृतांत नहीं है।भारत में शूद्र आधिपात्य का इतिहास नहीं है।जो इतिहास है वह विशुद्ध गुलामी का इतिहास है।


क्योंकि नवजागरण के पहले और बाद में  तमाम मसीहा तमाम आदिवासी किसान विद्रोहकाल की तरह इस समयखंडों में भी अंग्रेजों का साथ देते रहे।


यूरोप में औद्योगिक क्रांति की वजह से औपनिवेशिक भारत में जब पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के कारण सामंतों का जलसाघर ढहने लगा तब स्वराज और रामराज का अलख जगने लगा,जो एक दूसरे के पर्याय ही हैं, तभी साम्यवाद भी आयातित हुआ।


सामंती सत्ता वर्ग के हित साधने का यह स्थाई बंदोबस्त रहा है,जिसे महात्मा ज्योतिबा फूले से लेकर गुरुचांद ठाकुर तक ने पत्रपाठ खारिज कर दिया था।


हमारे इतिहास बोध और यथार्थवाद का हाल  यह है कि जो लोग अंबेडकरी जाति उन्मूलन की भूमिका के लिए अरुंधति राय के खिलाफ तोपें दाग रहे थे,वे ही लोग ब्राह्मणी अरुंधति के गांधी के खिलाफ वर्णवादी होने के वक्तव्य को थोक दरों पर शेयर कर रहे हैं।जबकि वे अरुंधति का लिखा कुछ भी खारिज कर देने को अभ्यस्त हैं।


आजादी के बाद इसी सामंती वर्ग का वर्चस्व सत्ता पर रहा है।


आजादी के लिए बलिदान हो जाने वालों का कुनबा कौन कहां है,किस हाल में हैं,किसी को नहीं मालूम।लेकिन उनसे जो गद्दारी करते रहे, जो हमेशा अंग्रेजों का सथा देते रहे, सामंतों रजवाड़े के वे ही वंशज पूरे सात दशक से भारत की राजनीति और अर्थव्यवस्था के धारक वाहक रहे हैं।अब भी हैं।नाम गिनाने की दरकार नहीं है।बूझ लीजिये।


अब इसे अजीब संजोग कहिये कि तेल युद्ध के अमेरिकी वर्चस्व प्रस्तावना यरूशलम धर्मस्थल कब्जाने के साथ साथ भारत में बाबरी विध्वंस के साथ नत्थी है।


अब इसे अजीब संजोग कहिये कि तेल युद्ध के मध्य इजराइल का वह धर्म युद्ध और भारत का केसरिया पद्मप्रलय अब एकाकार है।अमेरिकापरस्त भारतीय सत्तावर्ग इजराइल का सबसे बड़ा समर्थक है जो धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण का मूलाधार है।


अब इसे भी अजीब संजोग कहिये कि स्वराज रामराज का पर्याय रहा है महात्मा समय से।अब भी है।भारत में स्वराज शुरु से ही रामराज है। इसे संघ परिवार का अवदान कहना इतिहासद्रोह है।


अब इसे अजीब संजोग कहिये कि धर्मोन्मादी राजनीति के तहत ही भारत महादेश का खंड खंड विखंडन हुआ।


अब इसे अजीब संजोग कहिये कि पहली संसद में ही आधे से ज्यादा सांसद सबसे माइक्रो माइनारिटी  के जाति के चुने गये।वह धारा अब भी मंडलपरवर्ती बहुजनवादी समय में भी अव्याहत है और इस केसरिया संसद में तो वाम फिर भी बचा,बहुजन बचा नहीं है।


अब इसे अजीब संजोग कहिये कि इंदिरा के समाजवादी माडल और राष्ट्रीयकरण में सबसे बड़ा धमाका प्रिवी पर्स खत्म करना था,राष्ट्रीयकरण का सिलसिला नहीं।जिससे एकमुश्त कामराज, मोराराजी, अतुल्य घोष, निजलिंगप्पा जैसे परस्परविरोधी सिंडिकेट गैर सिंडिकेट का साझा मंच इंदिरा हटाओ का बना तो उस वक्त भी उनका तरणहार देवरसी संघ परिवार था।


अब इसे अजीब संजोग कहिये कि रजवाड़ों और सामंतों का पूरा दल बल गांधीवाद का आसरा छोड़कर इंदिरा समय में ही उस बनिया पार्टी में समाहित हो गया,जो प्रिवी पर्स खत्म करने वाली इंदिरा गांधी को दुर्गा अवतार कहकर मौलिक धर्मोन्माद का रसायन तैयार कर रही थी बांग्लादेश के नक्सल दमन समय में।


यह भी अजीब संजोग है कि हरित क्रांति की पृष्ठभूमि में राष्ट्रीयकरण आंधी के तुंरत बाद आपरेशन ब्लू स्टार से ही सूचना क्रांति की सुनामी बनने लगी थी, जिसे संघ परिवार के बिना शर्त समर्थन से इंदिरा अवसान पर राजीव के राज्याभिषेक सिखों के नरसंहार मध्ये होने का बाद सैम अभिभावकत्व में खिलखिलाने का मौका मिला।


इसे भी अजब संजोग कहिये कि संपूर्ण क्रांति के बहाने नक्सली जनविद्रोह के समय ही सातवां नौसैनिक बेड़े की हिंद महासागर में उपस्थिति और दियागोगार्सिया परिघटना के मध्य बारत में संपूर्ण क्रांति के जर्ये जिस गैर कांग्रेसवाद का जन्म हुआ,अमेरिका परस्त उसका केसरिया कारपोरेट तार्किकि परिणति आज का यह पद्मपुराण है।


यह भी अजीब संजोग है कि 1857 में और उसके पहले के पूरे सौ साल के ईस्ट इंडिया कंपनी राज के वक्त अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भारतीय महामहिम मनीषियों की या तो  जुबान बंद रही है, या फिर विक्टोरिया वंदना में खुलती रही है,ठीक उसीतरह आजादी के बाद लगातार और खासकर 1970 और 1980 के संक्रमणकाल मध्ये भारतीय मनीषी बोले बहुत हैं,कहा कुछ भी नहीं।यही बजट परंपरा भी है।


यही रघुकुल रीति अखंड 1991 से जारी है।


मौनता के अवतारों अवतारियों का सुसमय है।


और वाचाल मुखर लोगों के लिए चार्वाक वाल्तेयर दुर्गति नियतिबद्ध कर्मफल दुर्भोग है।


इस वैदिकी समय में लेकिन चार्वाक और वाल्तेयर सबसे जरुरी है,शास्त्रीय संगीत,व्याकरण और सौंदर्यशास्त्र नहीं।


नहीं नहीं नहीं।


अब समझ लें कि शेष समय अकस्मात अप्रत्याशित ढंग से उन ओम थानवी की तारीफ क्यों कर रहा हूं जबकि उनके साथ मेरे न मधुर संबंध कभी रहे हैं और न भविष्य में कभी हो सकते हैं।


परख करना चाहें तो आपरेशन ब्लू स्टार समय में जनसत्ता और नभाटा की फाइलें पलट कर देख लें।तबके संपादकीय देख लें।


दरअसल ओम थानवी की तारीफ किये बिना ,गोलवलकर केसरिया अखंड पाठ के मीडिया समय में जनसत्ता की फिलवक्त भूमिका की चर्चा किये बिना कमसकम भाषाई पेड मीडिया भूमिका के परिप्रेक्ष्य में लापता सूचनाओं की तलाश असंभव है वरना कयामत के वक्त खाक मुसलमां होना।


आज का केसरिया कारपोरेट समय कुल मिलाकर बहुसंख्य जनता की नागरिकता और संसाधनों पर उनके स्वामित्व को खारिज करने के मकसद से सामंती राष्ट्रद्रोही तत्वों का अंतिम शरण स्थल है।


ध्यान रहें कि मैं अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी साहित्य का छात्र रहा हूं हालांकि लिखता हिंदी और बांग्ला में हूं।अंग्रेजी में लेखन तकनीकी मजबूरी है।कुछ अस्पृश्य भौगोलिक हिस्सों को संबोधित करने के लिए अंग्रेजी माध्यम जरुरी भी है।


बतौर माध्यम मैं सक्षम होता तो तमिल, कन्नड़, गोंड, मलयालम, तेलुगु, असमिया, गुरमुखी, उर्दू, संथाली, मणिपुरी,भोजपुरी,मैथिली,मराठी,गुजराती,ओड़िया,कोंकणी समेत सभी भारतीय भाषाओं में लिखता बोलता।


सिर्फ संस्कृत के सिवाय।


क्योंकि मूलतः इस जाति व्यवस्था में मैं अस्पृश्य संतान हूं और द्विज नहीं हो सकता। देवभाषा पर असुर वंशज का अधिकार असंभव है।लेकिन मजा तो यह है कि संस्कृत भाषा में वह मजा है जो पाली और प्राकृत में नहीं है।


आज इस मानसूनी सूचना परिदृश्य पर कोई ताजा सूचना टांक नहीं रहा हूं।क्योंकि उन सूचनाओं को समझने की दृष्टि के लिए इन बुनियादी बातो पर बहस होनी चाहिए।


बुनियादी तौर पर मैं एक मामूली पत्रकार हूं।


मेरे इतिहास बोध और मेरे लोक अर्थ शास्त्र पर विवाद की गुंजाइश बहुत होगी।जिनको कहना है,कहें।


दुरुस्त कर दें मेरा हिसाब किताब।जो मेरे हर पोस्ट पर ट्रेटर,कम्म्यु टांकते रहते हैं,चाहे तो वे भी तथ्यों को दुरुस्त कर सकते हैं।


आगे भूमि सुधार,खनन,पर्यावरण,बीमा,श्रम,बैंकिंग,रेलवे,संचार,बंदरगाह,ऊर्जा तमाम जरुरी सेक्टरों और सेवाओं पर, उत्पादन प्रणाली और नस्ली भेदभाव पर फोकस रहेगा। तब तक जबतक मुझे छाप रहे हस्तक्षेप का धीरज टूट न जाये।जिस शख्स को उसे अपने ब्लैक लिस्ट किये हुए है,उसे रोजाना छापते रहने के लिए ब्राह्मण अमलेंदु का आभार।


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